धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार हो आनन-फानन में सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर पटना के दोन किहोते की पवनचक्कियों से भीषण जंग
सनी सिंह
पीआरसी सीपीआई (एमएल) द्वारा मौजूदा धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन के समर्थन में अवस्थिति अपनाये जाने और इसे ”सर्वहारा-वर्गीय हस्तक्षेप” क़रार दिए जाने की हमने कुछ समय पहले आलोचना पेश की थी। हमने अपनी आलोचना में स्पष्तः बताया था की यह कृषि प्रश्न व किसान प्रश्न पर उपरोक्त संगठन के नेतृत्व द्वारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद और साथ ही सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास का विकृतिकरण है। आप हमारी आलोचना यहाँ पढ़ सकते हैं।
http://ahwanmag.com/archives/7714
हमारी उपरोक्त आलोचना का हिन्दी पत्रिका ‘यथार्थ’ और अंग्रेज़ी पत्रिका ‘द ट्रूथ’ के नये अंक (द ट्रूथ, अंक 11) में पीआरसी की केन्द्रीय कमेटी की ओर से जवाब दिया गया है: https://sarwahara.com/2021/03/12/new-apologists-of-corporates-how-they-fight-revolutionaries-1-prc/।
लेकिन यह जवाब नहीं बल्कि अपनी पांतों के बीच अपने “पांडित्य” और “बौद्धिकता” का प्राधिकार और प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए किया गया आत्मरक्षा का हताश प्रयास ज़्यादा जान पड़ता है। लेनिन की एक रचना के तर्ज़ पर अपने लेख का नाम रखने के चक्कर में पीआरसी के लेखक महोदय ने प्रहसनात्मक मूर्खता के नये स्तरों को उजागर किया है, जैसा कि हम मौजूदा लेख में देखेंगे।
साथ ही, ऐसा लगता है कि आलोचना के कार्य को संयत मस्तिष्क के साथ करने की बजाय, लेखक इस आलोचना को लिखने के पूरे दौर में दांत पीसते रहे हैं! नतीजतन, यह पूरी कवायद ही एक बेहद हास्यास्पद नतीजे पर पहुंची है, जैसा कि हम आगे दिखलाएंगे। वैसे भी ग़लतियों को छिपाने की लिए की जाने वाली कठदलील अक्सर ही ऐसे अवसरवादियों को पहले से भी ज़्यादा हास्यास्पद ग़लतियों पर पहुंचा देती है। पीआरसी के लेखक महोदय के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।
हमारी आलोचना में पेश तर्कों का जवाब देने से भागते हुए इस जवाब के लेखक महोदय हमारी अवस्थितियों का एक पुतला खड़ा कर उस पर अपने भोंडे तर्कों से हमला करते हैं और साथ ही बौखलाहट में यह जनाब कुत्सा-प्रचार तक पर उतर आते हैं। ऐसे स्तरहीन कुत्सा-प्रचार का जवाब देना तो हम अपनी क्रान्तिकारी शान के खिलाफ समझते हैं। लेकिन हम एक दफ़ा फिर इनके द्वारा प्रस्तुत किये गए ”तर्कों” की एक राजनीतिक आलोचना ज़रूर प्रस्तुत करेंगे क्योंकि मूर्खता के प्रचार-प्रसार को रोकना किसी भी क्रान्तिकारी का उत्तरदायित्व होता है। जैसा कि अनेंकोव ने अपनी संस्मृतियों में मार्क्स के बारे में लिखा था, मार्क्स वाइटलिंग व ग्रून जैसे लोगों की मूर्खतापूर्ण बातों पर अन्त में आपा खोकर मेज़ पर मुक्का मारते हुए बोल उठे थे, ”अज्ञान से आज तक किसी का भला नहीं हुआ।”
लेखक महोदय और कोई नहीं इस संगठन के नेता महोदय ही हैं जिन्हें पटना के दोन किहोते की उपाधि देना एकदम उपयुक्त होगा। जैसा कि आप आगे देखेंगे, उनकी फितरत दोन किहोते जैसी ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हमारी आलोचना का उत्तर पटना के वामपंथी दायरे के इन दोन किहोते महोदय ने अपने सांचो पांज़ाओं के लिए लिखा है ताकि उनका ”बौद्धिक” नेतृत्व और आभा-मण्डल खण्डित न हो। ऐसा करते हुए उन्होंने मार्क्सवाद के नाम पर संशोधनवाद और वर्ग संघर्ष की जगह वर्ग सहयोग की नीति की हिमायत की है। फ़र्क यह है कि पटना के दोन किहोते के कई सांचो पांज़ा हैं जबकि ला मांचा के दोन किहोते के पास केवल एक सांचो पांज़ा था! हम देखेंगे कि ला मांचा के दोन किहोते की तरह ही हमारे पटना के दोन किहोते की हरकतें हास्य तो पैदा करती ही हैं परन्तु अपने अन्तहीन कुतर्कों के कारण पढ़ने वाले को सरदर्द भी दे जाती हैं। लेकिन इस जोखिम के बावजूद हम अपने कन्धों पर यह बीड़ा उठाने को मजबूर हैं!
शुरुआत में ही लेखक महोदय हम पर बेजा नाराज़ होते हैं और हमें ‘प्रिडेटर’ (शिकारी) की संज्ञा से नवाज़ते हैं। इनके अनुसार हम आलोचना नहीं करते हैं बल्कि शिकारियों की तरह मासूम जानवरों का शिकार करते हैं! अब इस उपमा के बारे में क्या कहा जाए? राजनीतिक आलोचना को कोई कम्युनिस्ट शिकार समझ ले तो समझा ही जा सकता है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन की क्या स्थिति हो गयी है और विशेष तौर पर उक्त व्यक्ति की मानसिक स्थिति क्या है। कोई भी गंभीर मार्क्सवादी व्यक्ति, और वह जोकि खुद को एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट संगठन का नेता बताता हो, क्या उसके लिये यह सब करना शोभनीय है?
फिर वे इस लेख में हम पर यह आरोप भी लगाते हैं कि हमने उनकी अवस्थितियों और उद्धरणों को तोड़-मरोड़ कर ग़लतबयानी की है, हालांकि उन्होंने कहीं भी सोदाहरण या सप्रमाण यह दिखाने की ज़हमत नहीं उठाई है कि हमने ऐसा कहां और कैसे किया है!
असल में वे दोन किहोते की ही तरह पवनचक्की-रूपी शत्रु की कल्पना करते हैं और उसे परास्त करने के लिए अपने मरियल घोड़े और गत्ते की तलवार के साथ आक्रमण कर देते हैं। उनका पूरा लेख ग़लतबयानियों, नई मूर्खताओं, बात बदलने के दर्जनों उदाहरणों से भरा हुआ है, जैसा कि हम आगे दिखाएंगे। साथ ही इस लेख में उन्होंने फिर से यह स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें भूमि लगान (Ground rent) और कृषि प्रश्न की मार्क्सवादी समझदारी की कोई जानकारी नहीं है। यह भी आगे हम आपको सप्रमाण और सोदाहरण दिखलाएंगे।
लेखक महोदय द्वारा धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन की पूंछ में कंघी करने के लिए पिछली बार जो तर्क दिया गया था, कि इस आन्दोलन ने पूरी किसान आबादी को आंदोलित कर दिया है, उसे ढांपने के प्रयास में इस बार उन्होंने समाजशास्त्रीय व्याख्याओं का सहारा लिया है जिसके चलते वे जहाँ-तहाँ संशोधनवाद तथा वर्ग-सहयोगवाद के गड्ढे में भी जा गिरे हैं।
हमारे लेखक धनी किसानों के आन्दोलन को रूस के 1905 की क्रान्ति के किसान प्रश्न के समतुल्य करार देते हैं जो कि किसी तरीके से कुलकों के मौजूदा आन्दोलन में घुसने का एक भोंडा प्रयास ही है। हालांकि वह कुलकों की गोद में बैठने को लालायित होने की इच्छा से इंकार करते हुए भी इस तर्क को पुन: दोहराते हैं। यह होना भी था। वह किसान आन्दोलन के ”क्रान्तिकारी अन्तर्य” से, उसके ”प्रतिक्रियावादी बाहरी खोल” को छोड़कर, भविष्य के शासक वर्ग की तरह संवाद करने का अमूर्त तर्क अपनी निपट अवसरवादिता को ढांपने के लिए करते हैं और जिस तरीके से वह मार्क्स द्वारा हेगेल की आलोचना से यह महोदय रूपक उधार लेते हैं, उससे पता चलता है कि इस रूपक के शब्दों के बारे में भी उनकी समझदारी एकदम शून्य है। ख़ैर, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की पूंछ पकड़ने की छटपटाहट में वे मार्क्सवाद की जगह संशोधनवाद की पैरवी करने लगते हैं।
इसके अलावा, हमारी आलोचना में उठाए गए कुछ प्रश्नों का जवाब देने से तो पीआरसी के लेखक महोदय ने इस कदर पलायन किया है कि इन प्रश्नों को वह एकदम गोल ही कर गए हैं। जैसा कि कहते हैं, वह पूंछ उठाकर भाग खड़े हुए हैं! मसलन, उनके द्वारा पेश कॉरपोरेट पूंजीवाद बनाम गैर-कॉरपोरेट/सामान्य पूंजीवाद के हास्यास्पद तर्क पर हमारे द्वारा उठाये गए सवालों को वे गोल कर गए हैं और इस बार इस प्रश्न पर पहले से अपनी अवस्थिति बदल रहे हैं। इस बिन्दु पर उठाए गए सवालों और हमारे द्वारा की गयी आलोचना का उन्होंने कोई जवाब ही नहीं दिया है। इसी प्रकार उन्होंने कई अन्य प्रश्नों पर भी मौक़ापरस्त चुप्पी साध ली है, जैसा कि हम आगे देखेंगे।
सोवियत समाजवाद के इतिहास के बारे में पीआरसी के लेखक की समझदारी पर पिछली बार हमारे द्वारा जताया गया यह संदेह भी सही निकला कि उन्हें सोवियत इतिहास के बारे में कोई जानकारी नहीं है और इस बार उन्होंने इस शक़ को दूर करते हुए समाजवादी संक्रमण की राजनीतिक अर्थशास्त्र की अपनी समझदारी की घनघोर दरिद्रता का परिचय दिया है, जो कि हम आगे दिखलाएंगे। समाजवादी संक्रमण काल के बारे में उनकी समझदारी से पता चलता है वह बुखारिनपंथ का भौंडा संस्करण मात्र पेश कर रहे हैं।
इसके साथ ही तमाम प्रश्नों पर उन्होंने जो अवस्थिति अपनाई है वह बेहद हास्यास्पद है। पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक वाम दुस्साहसवाद के एक हास्यास्पद संस्करण और अवसरवाद के दोनों छोरों पर भटकते हैं परन्तु मूलत: दक्षिणपन्थी अवसरवाद की ओर चित होकर गिर पड़ते हैं।
अब सिलसिलेवार पीआरसी के लेखक महोदय की करामातों की जांच करते हैं।
सबसे पहले पीआरसी के लेखक के इस दावे की पड़ताल करते हैं कि क्या हमने उनकी अवस्थिति को ग़लत उद्धृत किया, या उसके बारे में ग़लतबयानी की। या मामला इसके ठीक उलटा है, यानी उन्होंने हमारी अवस्थितियों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया?
- किसने ग़लतबयानी की और किसने ग़लत तरीके से उद्धरणों को पेश किया?
‘यथार्थ’ पत्रिका के उक्त लेख में वामपंथी दोन किहोते महोदय कहते हैं कि वे ‘उदाहरणों’ से यह दिखलाएंगे कि कैसे हमने पीआरसी के लेखक महोदय के लेखन के बारे में ग़लतबयानी की है, उनके तर्कों को तोड़ा-मरोड़ा है और किस तरह संदर्भ से काटकर बात कही है व हमने उनके मुंह में बातें भी डाली हैं। हालांकि हमारा प्रयास पीआरसी के लेखक को महज़ मार्क्सवाद-लेनिनवाद के कुछ बुनियादी सिद्धान्तों से अवगत कराना था लेकिन मूर्खों के सार्वभौमिक गुण की तरह वे इससे आग बबूला हो उठते हैं! वे कहते हैं:
‘‘In the first instalment, I will limit myself to mainly exposing their ‘method’ citing examples extensively showing that they have not only misquoted, distorted and put PRC’s author out of context but also tried to put their own words in our mouth. As they have done it in plenty and almost everywhere, so I will have to invest a lot of space and time in clearing them all.’’ (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
लेकिन ताज्जुब की बात है कि इस चेतावनीपूर्ण घोषणा के बाद पूरे लेख में लेखक महोदय हमें उद्धृत उपरोक्त लक्ष्य के लिए नहीं करते हैं! वह कहीं भी उदाहरणों से यह नहीं दिखाते हैं कि हमने कहां ग़लतबयानी की है, कहां हमने उनके मुंह में बातें ठूंसी है और कहां उनकी बातों को संदर्भ से काटकर पेश किया है।
वह इस लेख में हमारी आलोचनाओं पर मौन साध लेते हैं और पूरा ज़ोर यह साबित करने में लगा देते हैं कि कैसे वे धनी किसानों का पुछल्ला नहीं बन रहे हैं! इसके साथ ही इस लेख में उन्होंने पुन: लाभकारी मूल्य की मांग के ज़रिये समूचे किसान समुदाय के आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए सर्वहारा क्रान्ति तक पहुंचने का ऐलान किया है!
लेखक महोदय यह भी कहते हैं कि हम आन्दोलन का विरोध कर रहे हैं! जी नहीं, हम इस आन्दोलन की आलोचना करते हैं और यह मानते हैं कि धनी किसानों और उनके नेतृत्व का भी यह जनवादी अधिकार है कि वे मोदी सरकार के खिलाफ़ आन्दोलन करें। यहां पर पीआरसी के लेखक ने निपट बेइमानी दिखाई है। हमारी स्पष्ट और बार-बार पेश की गयी अवस्थिति यह है कि शासक वर्ग के दो धड़ों की आपसी लड़ाई में सर्वहारा वर्ग किसी एक का समर्थन या दूसरे का विरोध नहीं करता है, बल्कि स्वतंत्र सर्वहारा अवस्थिति से दोनों का विरोध करता है और उनके असली चरित्र को आम मेहनतकश जनता के सामने बेनक़ाब करता है।
वह हमारी आलोचना से बच निकलने के लिए हमारी अवस्थिति का एक पुतला खड़ा करते हैं। इसके लिए आधार बनाते हुए वह कहते हैं कि हमने ”कॉरपोरेट के प्रवेश पर छोटी पूंजी के बर्बाद होने” पर ‘ढुलमुल’ अवस्थिति रखी है। उनका दावा है कि हम कॉरपोरेट द्वारा ग़रीब किसानों की बर्बादी का स्वागत करते हैं। उनके अनुसार हमारा यह मानना है:
‘‘…according to them the corporate entry will help grow the productive forces in agriculture by helping the poor peasants and rural workers as against the rich peasants and thus will also help them abolish reaction, the bulwark of the bourgeois rule in rural India. They ‘truly’ say there is no ground, so to say, for a common ground of interests between rural poor and the rural rich peasants. But mind it. According to our ‘educators’, some commonalities do exist after all! If not between the rural poor and rich peasants as against corporates, then definitely between the Corporate and rural poor against rich peasants, as the former benefits the latter! This is undoubtedly a jewel of thought, but what does it mean? It means that they still see capitalism in general and capitalist farming in particular play a progressive role in India’s agriculture’’ (वही)
जिसने भी खेती कानूनों और मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के बारे में हमारा लेखन पढ़ा है, वह जानता है कि यहां पीआरसी के लेखक महोदय सफेद झूठ बोल रहे हैं।
हमने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि हमारी अवस्थिति क्या है और पीआरसी के लेखक महोदय यहां जानबूझकर हमारी अवस्थिति को विकृत करके पेश कर रहे हैं। हमारी अवस्थिति पिछले लेख में भी स्पष्ट की गई थी। हमारी ‘पद्धति’ को उजागर करने के नाम पर लेखक महोदय झूठ और बौद्धिक बेइमानी तक पर उतर आते हैं। लेकिन ताज्जुब इस बात का है कि हमारी यह अवस्थिति है, इसे साबित करने के लिए जनाब लेखक ने हमारे एक उद्धरण को सन्दर्भ से काटकर पेश करने के अलावा हमें उद्धृत कर हमारी अवस्थिति कहीं रखने की ज़हमत ही नहीं उठाई है! उन्होंने केवल एक झूठी छवि खड़ी की है। वह यह साबित करना चाहते हैं कि हम कृषि में कॉरपोरेट पूंजी के प्रवेश का समर्थन करते हैं और वह कहते हैं कि हम मानते हैं कि इसके ज़रिये ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिक्रियावाद की ज़मीन साफ़ होगी व पूंजीवादी विकास की जो ज़मीन तैयार होगी उसे हम क्रान्ति के लिए अनिवार्य मानते हैं! ऐसा हमने कहां लिखा है, उसे उद्धृत करना पीआरसी के लेखक महोदय ने ज़रूरी नहीं समझा।
उनके अनुसार हम अर्थवादी हैं जो मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का विरोध करते हैं, छोटे किसानों की तबाही पर खुश होते हैं और हमारे व कॉरपोरेट पूंजी व मोदी सरकार के बीच समान ज़मीन है। यह पुतला खड़ा करने के बाद लेखक अपने छिछले व्यंग्य के निरर्थक प्रयासों के ज़रिये अपनी भड़ास को हम पर निकालते हैं। इसके ज़रिये वे अपनी क्रान्तिकारिता सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं :
‘‘So, if not between poor peasants and corporates as such, then their views (their defence of corporate and farm laws) certainly suggest a commonality of ground between them (their own group) on the one hand and the corporates and Modi government, on the other hand!’’ (वही)
तो यह हैं इनका सारगर्भित विश्लेषण! पाठक देख सकते हैं और आगे देखेंगे कि किस प्रकार लेखक हमारी अवस्थिति को तोड़ते-मरोड़ते हैं और एक पुतला खड़ा कर उसपर तीरंदाज़ी करते हैं। या कहें कि हमारे पटना के वामपंथी दोन किहोते पवनचक्की को ही शत्रु करार देकर हल्ला बोल देते हैं!
हमने पीआरसी की जो आलोचना पेश की थी उसमें और उसके पहले खेती कानूनों के प्रश्न पर लिखे अपने तमाम लेखों में अपनी यह अवस्थिति स्पष्ट की है कि हम कॉरपोरेट पूंजी के द्वारा छोटी किसानी की तबाही का समर्थन नहीं करते लेकिन हम कुलकों द्वारा छोटी किसानी के उजाड़े जाने और उनके शोषण-उत्पीड़न का समर्थन भी नहीं करते हैं। कॉरपोरेट पूंजी द्वारा छोटी किसानी की बर्बादी का विरोध सर्वहारा वर्ग और ग़रीब मेहनतकश किसान अपनी स्वतंत्र राजनीतिक ज़मीन से करेंगे न कि धनी किसानों की ज़मीन से, जो कि गांवों में उनके प्रमुख शोषक और उत्पीड़क हैं। इसलिए एक बार देख लेते हैं कि हमने क्या लिखा था, ताकि सनद रहे।
हमने लेखक महोदय के संगठन की आलोचना पेश करते हुए इन कानूनों और आन्दोलन पर अपनी अवस्थिति एक बार फिर स्पष्ट करते हुए इस लेख (पाठक इस लेख को मौजूदा लेख के शुरू में दिए गए लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं) में लिखा था कि:
”हमारा स्पष्ट तौर पर मानना है कि पहले दो कृषि क़ानूनों, यानी, फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स (प्रमोशन एण्ड फैसिलिटेशन) एक्ट 2020 और फ़ार्मर्स (एम्पावरमेण्ट एण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेण्ट ऑन प्राइस अश्योरेंस एण्ड फ़ार्म सर्विसेज़ एक्ट, 2020, से सर्वहारा वर्ग, सीमान्त, छोटे और निम्न मँझोले किसान और खेतिहर मज़दूर की ज़िन्दगी पर सिर्फ़ इतना असर पड़ेगा कि पहले मुख्य रूप से धनी पूँजीवादी भूस्वामियों व पूँजीवादी फ़ार्मरों द्वारा उनका शोषण किया जाता था, और इन पहले दो क़ानूनों के लागू होने से उस शोषण में अब बड़े एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग यानी कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग की बढ़ती हिस्सेदारी का रास्ता साफ़ हो जायेगा। धनी किसानों–कुलकों, सूदख़ोरों (जो अक्सर स्वयं धनी किसान ही होते हैं!), आढ़तियों–बिचौलियों (जो अक्सर स्वयं धनी किसान ही होते हैं!) द्वारा पहले भी खेतिहर मज़दूरों की लूट, ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों की लूट और उनका उजड़ना जारी था।
”खेती के क्षेत्र में खेतिहर पूँजीपति वर्ग का वर्चस्व था और उजड़ने वाले अधिकांश ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों के उजड़ने का सबसे बड़ा कारण सूद, लगान और मुनाफ़े के ज़रिये खेतिहर पूँजीपति वर्ग (धनी किसान-कुलक वर्ग) द्वारा उनका शोषण ही था, यह बात तथ्यों से स्पष्ट है। कॉरपोरेट पूँजी के प्रवेश के बाद भी उनका शोषण पूर्ववत जारी रहेगा, हालाँकि उनके प्रमुख शोषकों की स्थिति में अधिक से अधिक बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग आता जायेगा। धनी किसान-कुलक वर्ग, सूदख़ोर, आढ़तिये खेती के क्षेत्र में बड़ी इजारेदार पूँजी के प्रवेश के विरुद्ध हैं और उन्हें मिलने वाले राजकीय संरक्षण, खेती में अपने आर्थिक वर्चस्व और एकाधिकार को बनाये रखना चाहते हैं। वर्तमान किसान आन्दोलन मुनाफ़े में अपनी हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने के लिए धनी किसानों की लड़ाई है और इसलिए वे लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को क़ानूनी जामा पहनाने की माँग कर रहे हैं।’’ (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)
आप देख सकते हैं कि जिस प्रश्न पर हमारे लेखक महोदय हम पर “ढुलमुल” रवैया अपनाने का आरोप लगाते हैं उस पर हमने अपनी अवस्थिति एकदम स्पष्ट शब्दों में रखी है। कोई ठेस खाया हुआ पूर्वग्राहित मस्तिष्क ही इससे ऐसा कोई निष्कर्ष निकाल सकता है कि हम कारपोरेट पूंजी का समर्थन कर रहे हैं। उपरोक्त लेख में ही हमने लिखा था कि:
”एक पल को यह मान लेते हैं कि धनी किसानों–कुलकों, यानी खेतिहर पूँजीपति वर्ग के मुकाबले बड़ी इजारेदार पूँजी ग़रीब मेहनतकश किसानों को ज़्यादा तेज़ गति से उजाड़ेगी, तो भी इसका मतलब यह नहीं कि छोटे व सीमान्त किसान यह नारा दें कि हमें बड़ी पूँजी से नहीं बल्कि छोटी पूँजी से तबाह होना है! ग़रीब व मँझोले किसान अपनी बर्बादी के लिए ज़िम्मेदार बड़े एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग का विरोध छोटी पूँजी की ज़मीन से नहीं करेंगे बल्कि अपनी स्वतंत्र वर्गीय राजनीतिक अवस्थिति से करेंगे! लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बनाये रखने का मसला ग्रामीण पूँजीपति यानी धनी किसान–कुलक वर्ग और बड़े इजारेदार कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के बीच का विवाद है! इसमें खेतिहर मज़दूर, निम्न–मँझोले किसान व ग़रीब किसान और मज़दूरों को धनी किसान या कॉरपोरेट का साथ देने की न सिर्फ कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह नुकसानदेह है!’’ (वही)
मज़दूर वर्ग इस आन्दोलन में किस प्रकार हस्तक्षेप कर सकता है इस प्रश्न पर भी हमने बार-बार अपनी अवस्थिति साफ़ की है। हम इस प्रश्न पर भी उपरोक्त लेख से फिर अपनी अवस्थिति उद्धृत कर देते हैं :
”मज़दूर वर्ग इस आन्दोलन में एक ही रूप में हस्तक्षेप कर सकता है: उसके बारे में सर्वहारा वर्गीय आलोचनात्मक दृष्टिकोण पेश करके और उसके ज़रिये मज़दूर वर्ग और मेहनतकश किसान आबादी को इस बात के प्रति आगाह करके कि उसके वर्ग हित धनी किसानों के वर्ग हितों से बिल्कुल भिन्न हैं, ताकि आम मेहनतकश आबादी ग्रामीण पूँजीपति वर्ग से अलग अपने स्वतंत्र राजनीतिक संगठन और अवस्थिति को संघटित कर सके। दूसरी बात, इस आन्दोलन में अन्य किसी प्रकार का हस्तक्षेप करके (यानी समर्थन करके) आम किसानों को मुक्ति का रास्ता नहीं दिखलाया जा सकता है, क्योंकि यह आन्दोलन आम किसानों (जिससे हम सीमान्त, ग़रीब और निम्न मँझोला किसान समझते हैं जो कि कुल किसान आबादी में 94 प्रतिशत के करीब है) के हितों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता है। इसका समर्थन करके अपने आपको कम्युनिस्ट कहने वाली ताक़तें वास्तव में आम किसानों को धनी किसानों-कुलकों का पिछलग्गू बने रहने और उनके राजनीतिक वर्चस्व के मातहत बने रहने का रास्ता दिखला रही हैं, न कि मुक्ति का। तीसरी बात, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन भी न सिर्फ “तुच्छ” आर्थिक माँगों पर ही हो रहा है, बल्कि यह जनविरोधी “तुच्छ” आर्थिक माँगों पर हो रहा है। ऐसे में, अगर धनी किसान-कुलक वर्ग कॉरपोरेट पूँजी के विरोध में मज़दूर वर्ग का समर्थन चाहता है, तो मज़दूर वर्ग ऐसे आन्दोलन के चार्टर में अपनी उन अहम आर्थिक माँगों को शामिल करने की शर्त रखकर अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति को रेखांकित करता है, न कि वह याचक बनकर दीन-हीन हो जाता है!” (वही)
आगे हमने लेखक महोदय के इस आरोप का भी पहले ही जवाब दे दिया था जिसे कि वह एक अन्य संगठन की पत्रिका से टीप कर आए हैं। अमुक संगठन भी किसान प्रश्न पर ग़लत अवस्थिति रखता है, लेकिन वह राजनीतिक व विचारधारात्मक तौर पर पीआरसी के बचकाने नेतृत्व से कहीं ज़्यादा उन्नत और संजीदा है। इस संगठन की पत्र-पत्रिकाओं से पीआरसी के नेता महोदय पहले भी बेईमानीपूर्ण टीपा-टीपी करते रहे हैं, जिसकी एक मिसाल हम आगे आपको देंगे। बहरहाल, हमने लिखा था:
”सर्वहारा वर्ग निश्चित ही बड़ी पूँजी का विरोध करता है, लेकिन छोटी पूँजी को बचाने या उसकी माँगों के समर्थन की ज़मीन से नहीं, क्योंकि वह सिर्फ बड़ी इजारेदार पूँजी द्वारा लूट का विरोध नहीं करता है, बल्कि छोटे पूँजीपति वर्ग द्वारा लूट समेत समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करता है। धनी किसानों-कुलकों की लाभकारी मूल्य की माँग बड़ी पूँजी के बरक्स अपने लूट के विशेषाधिकार और लूट में हिस्सेदारी को सुरक्षित रखने की माँग है। यह खेतिहर सर्वहारा, ग़रीब और निम्न मँझोले किसानों की लूट पर अपना वर्चस्व क़ायम रखने की धनी किसान की पूँजीवादी माँग है। सर्वहारा वर्ग रणकौशलात्मक तरीके से भी इसका समर्थन नहीं कर सकता है, जिसका यह अर्थ भी कोई अहमक ही निकाल सकता है कि सर्वहारा वर्ग बड़ी पूँजी का समर्थन करता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि शासक वर्ग के दो धड़ों का यह आर्थिक अन्तरविरोध आज कॉरपोरेट-परस्त मोदी सरकार के लिए एक तात्कालिक चुनौती पेश कर रहा है। यह सर्वहारा वर्ग द्वारा छोटे ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध लड़ाई के समर्थन का कारण नहीं बन सकता है, जैसा कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के हमारे लेखक महोदय तो समझ ही रहे हैं लेकिन कई संजीदा मार्क्सवादी-लेनिनवादी भी अभी ऐसा ही समझ रहे हैं।’’ (वही)
हम शुरुआत से ही कहते रहे हैं कि वर्तमान किसान आन्दोलन मुनाफ़े में अपनी हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने के लिए धनी किसानों-कुलकों की लड़ाई है। परन्तु जैसा कि आप देख सकते हैं इसे लेखक महोदय ने जानबूझकर ऐसे पेश किया है जैसे कि हम कॉरपोरेट पूंजी के कृषि क्षेत्र में प्रवेश के समर्थक हैं! ऊपर से, ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे‘ के अन्दाज़ में वह हम पर ही यह आरोप लगाते हैं कि हम उन्हें ग़लत उद्धृत कर रहे हैं, जिसे वह सोदाहरण व सप्रमाण सिद्ध करने का कष्ट भी नहीं उठाते हैं!
आप देख सकते हैं कि खुद को क्रान्तिकारी दिखाने के लिए पीआरसी के लेखक महोदय बेहद ही नग्न किस्म की बौद्धिक बेइमानी पर उतर आते हैं। स्पष्ट है कि पीआरसी के लेखक महोदय हमारे तर्कों का खण्डन नहीं कर पा रहे हैं और ऐसे में उन्होंने हम पर एक झूठी अवस्थिति आरोपित कर हमें ”खण्डित” कर देने का सुविधाजनक रास्ता अपनाया है। वैसे किसान प्रश्न पर कुलकों-धनी किसानों के आन्दोलन की हमारे द्वारा की जा रही आलोचना में पेश तर्कों का खण्डन न कर पाने की सूरत में कई सस्ते किस्म के लोग यही तरकीब अपना रहे हैं! वे हम पर कारपोरेट पूंजी का समर्थक और याचक होने का आरोप लगा दे रहे हैं!
यह बेहद आसान जॉर्ज बुश जूनियर वाली तरकीब है कि जो अमेरिका के साथ नहीं है, वह तालिबान के साथ है। तब भी दुनिया भर में क्रान्तिकारियों ने यही जवाब दिया था कि यह छद्म विकल्पों का समुच्चय है और हम न तो अमेरिका के साथ हैं और न ही तालिबान के साथ, हमारी अपनी स्वतंत्र क्रान्तिकारी अवस्थिति है। उसी प्रकार कारपोरेट पूंजी और खेतिहर बुर्जुआजी सर्वहारा वर्ग और ग़रीब मेहनतकश किसान आबादी के लिए एक छद्म विकल्पों का समुच्चय हैं और उनमें से किसी एक को चुनने का आग्रह सर्वहारा वर्ग से करना उससे उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता छीनने के समान है।
असल में, यह बोगस आरोप लगाए बिना पीआरसी के लेखक महोदय हमारी आलोचना पेश कर पाने में और कुलकों-धनी किसानों की गोद में बैठने के लिए तर्कपोषण कर पाने में असमर्थ हैं।
जहां तक पूंजीवादी विकास के प्रगतिशील होने का प्रश्न है, तो इसे दो अर्थों में समझा जा सकता है: पहला, राजनीतिक अर्थों में और दूसरा, ऐतिहासिक अर्थों में, जैसा कि मार्क्स, एंगेल्स वे लेनिन ने बार-बार बताया है और जिससे हमारे पीआरसी के अपढ़ दोन किहोते बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। जहां तक राजनीतिक अर्थ में पूंजीवादी विकास के प्रगतिशील होने का प्रश्न है, वह केवल तब तक प्रगतिशील था जब तक वह सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों के निषेध के रूप में प्रकट हो रहा था। आज पूंजीवादी विकास टुटपुंजिया आबादी, छोटी मिल्कियत वाली आबादी, ग़रीब व निम्न मंझोले किसानों को उजाड़ता है, तो कोई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी उस पर ताली नहीं बजाता और उजड़ती आबादी के तात्कालिक राहत के लिए लड़ते हुए उसे समझाता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में छोटी मिल्कियत की यही नियति है। याद रखें, छोटी मिल्कियत और छोटे पूंजीपति वर्ग में अन्तर है। छोटी मिल्कियत में नियमित रूप से उजरती श्रम का शोषण न करने वाले तमाम छोटे माल उत्पादक शामिल हैं, जबकि छोटा पूंजीपति वर्ग उजरती श्रम का नियमित तौर पर शोषण करने वाला वर्ग है। धनी किसान व कुलक छोटे माल उत्पादक नहीं हैं, बल्कि उजरती श्रम का नियमित तौर पर और अपनी अर्थव्यवस्था के आधार के रूप में शोषण करने वाले पूंजीवादी उत्पादक हैं। अब आते हैं प्रगतिशील होने के दूसरे अर्थ, यानी ऐतिहासिक अर्थ पर।
जहां तक ऐतिहासिक अर्थों में पूंजीवादी विकास के प्रगतिशील होने का प्रश्न है, तो निश्चित तौर पर वह ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील ही होता है। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के प्रमुख उत्पादन सम्बन्ध बन जाने के बाद भी उत्तरोत्तर पूंजीवादी विकास ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील ही होता है क्योंकि इसका अर्थ होता है, उत्पादन व श्रम का और बड़े पैमाने पर समाजीकरण और समाजवाद की ज़मीन का तैयार होना। ऐसा कहने में हम कुछ नया भी नहीं कह रहे हैं, बल्कि केवल मार्क्स, एंगेल्स व लेनिन को ही दुहरा रहे हैं। क्या पीआरसी का लेखक यह कहना चाहता है कि ऐतिहासिक तौर पर पूंजीवादी सम्बन्धों का उत्तरोत्तर विकास प्रगतिशील नहीं है? तब फिर उसे लेनिन की आलोचना लिखने का कार्यभार भी अपने हाथों में ले ही लेना चाहिए! ऐसी सोच अन्तत: टुटपुंजिया आर्थिक रूमानीवाद और छोटी पूंजी के रक्षावाद की ओर ले जाती है।
लेकिन पीआरसी के लेखक महोदय को एक सच्चे कठमुल्लावादी और कूपमण्डूक के समान पूंजीवाद के प्रगतिशील होने के राजनीतिक व ऐतिहासिक अर्थों के अन्तर के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसे में, इस लेख के दायरे में और उनके बौद्धिक स्तर को देखते हुए उन्हें यह समझाना भी मुश्किल है।
आइए, अब हम उनके इस दावे की सच्चाई को देखें कि हमने उनको “मिसकोट” किया है या नहीं, “ग़लतबयानी” की है या नहीं और संदर्भों से काटकर उनकी बात पेश की है या नहीं। हम पहले उनके उन उद्धरणों और उस पर हमारी विवेचना को उद्धृत कर रहे हैं, जो हमने पिछले लेख में पेश की थी। हमने लेखक महोदय के संगठन द्वारा धनी किसान आन्दोलन का पुछल्ला बनने की अवस्थिति को स्पष्ट करने के लिए उनका पहला उद्धरण यह दिया है:
”स्वयं धनी किसान पूँजीवादी कृषि के दलदल में फँस गये हैं|…निर्णायक वर्चस्व की ओर कॉरपोरेट के बढ़ते कदमों ने अलग-अलग संस्तर में बँटे होने के बावजूद पूरे किसान समुदाय को एकताबद्ध कर दिया है।” (‘किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग‘, यथार्थ अंक-9)
उपरोक्त उद्धरण पर हमारी टिप्पणी:
‘‘जिन अर्थों में धनी किसान पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं, उन अर्थों में तो अपेक्षाकृत सभी छोटे और ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं और उस आधार पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें और पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय को इन बेचारे छोटे पूँजीपतियों से यह वायदा भी करना चाहिए कि जब उनके नेतृत्व में समाजवादी सत्ता आयेगी, तो वह उन्हें बरबाद होने से बचायेंगे और मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला “उचित दाम” मुहैया करायेंगे! निश्चय ही धनी किसान व कुलक वर्ग और समूचे छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास के साथ बरबाद होगा, ठीक उसी प्रकार जैसे धनी किसानों व कुलकों की पूँजीवादी लूट की वजह से ग़रीब और सीमान्त किसानों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा ‘हरित क्रान्ति’ के बाद बरबाद होता आया है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता है कि छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग (जिसमें कि धनी किसान-कुलक वर्ग भी शामिल है) को बचाने का नारा सर्वहारा वर्ग बुलन्द करे और सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को उनका पिछलग्गू बना दे! सर्वहारा वर्ग उन वर्गों की मुक्ति की परियोजना नहीं पेश करता है जो कि नियमित तौर पर उजरती श्रम का शोषण कर मुनाफा कमाते हैं; सर्वहारा वर्ग उन शोषक वर्गों से उन वर्गों की मुक्ति की परियोजना पेश करता है, जो स्वयं उजरती श्रमिक, अर्द्धसर्वहारा हैं या जो स्वयं उजरती श्रम के शोषक नहीं हैं। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद का ‘क ख ग’ है। टुटपुँजिया रूमानीवाद, नरोदवाद और लोकरंजकतावाद के मस्तिष्क ज्वर के कारण अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाला व्यक्ति भी कैसी अगड़म-बगड़म बक सकता है, इसे समझना है, तो आप खेती के सवाल पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) की पुस्तिका पढ़ सकते हैं!’’ (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)
आगे हमने दिखाया कि पीआरसी के मास्टरजी के अनुसार वर्तमान आन्दोलन में धनी किसान और छोटे-मँझोले किसान न सिर्फ़ कॉरपोरेट पूँजी के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं बल्कि ‘मुक्त व्यापार’ की व्यवस्था से ही उनका भरोसा उठ गया है! हमने उन्हें दूसरी बार यहां उद्धृत किया:
“नये कृषि क़ानूनों के आने के बाद आम किसानों में क़ानूनी लाभकारी मूल्य के रूप में लाभकारी मूल्य की माँग को एक नवजीवन प्राप्त हुआ दीखता है, खासकर एक बड़ी तबाही और आपदा से बचाव हेतु एकमात्र उपाय व सहारे के रूप में, जबकि खुले बाज़ार में ऊँचे दाम की उत्प्रेरणा एक प्रवृत्ति के बतौर मौजूद होने के बावजूद व्यापक किसान ही नहीं धनी किसानों के व्यापक हिस्सों के बीच भी वास्तविक तौर पर ख़त्म हो चुकी है या पूर्व की तुलना में न के बराबर है। क्यों? क्योंकि ग़रीब तथा मँझोले किसान पिछले तीन दशक के पूँजीवादी कृषि के अन्तर्गत ठीक इसके दुष्परिणाम के चक्कर में तबाह और बर्बाद हो चुके हैं और धनी किसान की बात करें तो पिछले एक दशक के दौरान खुले बाज़ार में दामों में आये भयंकर उतार-चढ़ाव के कारण वे भी इसके आकर्षण से विमुख हुए हैं|” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)
इस पर हमने निम्नलिखित अवस्थिति रखी थी:
‘‘इसी “यथार्थ” से प्रस्थान करते हुए कि किसानों का ‘मुक्त व्यापार’ से भरोसा उठा गया है और खुले बाज़ार में ऊँचे दाम नहीं मिलने के कारण किसान आबादी क़ानूनी लाभकारी मूल्य की माँग कर रही है, हमारे लेखक महोदय इस माँग को उनके अस्तित्व रक्षा की लड़ाई से जोड़ देते हैं। लेखक महोदय को यह बताना चाहिए कि लाभकारी मूल्य धनी किसानों-कुलकों को ऊँचे दाम देता है या नहीं? और यदि लाभकारी मूल्य मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाले ऊँचे दाम हैं, तो वे “उचित दाम” हैं या नहीं? और अगर वे उचित दाम नहीं हैं, तो उनके अनुसार “उचित दाम” क्या है और जब भारत में समाजवाद और सर्वहारा सत्ता आयेगी तो वह कौन सा “उचित दाम” देंगे? और अगर वह लाभकारी मूल्य (profitable remunerative price) नहीं होगा, तो यह बात भी उन्हें अपने लेख में स्पष्ट तौर पर लिखनी चाहिए और धनी किसानों-कुलकों को बतानी चाहिए?
“लेकिन इन तमाम अस्पष्टताओं के बावजूद सच्चाई यह है कि लाभकारी मूल्य को लेखक महोदय “अस्तित्व की लड़ाई” बताकर एक प्रकार से “उचित दाम” ही मान रहे हैं! इस प्रकार वह लाभकारी मूल्य की पूरी परिभाषा को ही उलट देते हैं ताकि लाभकारी मूल्य के माँग के समर्थन को सही साबित कर सकें।’’ (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)
फिर आगे हमने उनके द्वारा लाभकारी मूल्य पर समूची किसान आबादी को संगठित करने के आह्वान पर उनका उद्धरण तीसरी बार पेश किया:
“ऐसे में इन क़ानूनों की वापसी पर अड़ना और वैधानिक गारंटी वाले लाभकारी मूल्य की माँग के ज़रिये पूरे किसान समुदाय को संगठित व जागृत करना तथा इस तरह कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध उठा खड़ा होना नितान्त आवश्यक है।” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)
इसपर हमने निम्न टिप्पणी की:
”यानी लाभकारी मूल्य का समर्थन करने, उसे वैधानिक अधिकार बनाने की माँग करना और इस माँग पर समूचे किसान समुदाय को संगठित करना आज क्रान्तिकारियों का कार्यभार है! मतलब, लेखक महोदय के अनुसार, पहले तो कम्युनिस्टों को धनी किसानों-कुलकों की मुनाफ़ाख़ोरी की माँग के समर्थन में ग़रीब मेहनतकश किसानों और मज़दूरों को उनका पुछल्ला बनाना चाहिए और फिर छोटे पूँजीपति वर्ग (खेतिहर बुर्जुआज़ी) की ज़मीन पर खड़े होकर बड़ी पूँजी (कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग) का विरोध करना चाहिए। संक्षेप में, पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन को टुटपुँजिया रूमानीवाद, लोकरंजकतावाद और नरादेवाद में बहकर मज़दूर आन्दोलन को छोटी पूँजी की सेवा में सन्नद्ध करने का नुस्खा बता रहे हैं!’’ (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)
आगे लेखक महोदय अपनी फेसबुक पोस्ट में दावा करते हैं कि एक “सामान्य पूँजीवादी खेती” होती है, जिसमें खेती से किसानों का बलात् निष्कासन नहीं होता है, जबकि दूसरी “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” होती है, जिसमें ग़रीब किसानों को खेती से बलात् खदेड़ा जायेगा! हमने यहां चौथी बार उनके उद्धरण को पेश कर उनकी आलोचना की:
“सामान्य पूँजीवादी कृषि से कॉरपोरेट कृषि में छलाँग स्वाभाविक और स्वयंस्फूर्त नहीं हो सकती थी…पूँजीवादी कृषि के दूसरे दौर के आगाज़ का वास्तविक अर्थ है – खेती से ग़रीब किसानों के स्वयंस्फूर्त निष्कासन से बलात निष्कासन और ग़रीब किसानों की तबाही से लगभग संपूर्ण किसान वर्ग की तबाही के दौर में छलांग – जिसे बलात किया जाना है जैसा कि नये फ़ार्म क़ानून में स्पष्टत: निर्दिष्ट है।” (पीआरसी सीपीआई (एमएल) के फेसबुक पोस्ट से)
“ग़रीब किसानों का ही नहीं धनी किसानों का भी पूँजीवाद से विश्वास हिलेगा और हिल रहा है। इस आन्दोलन में उनकी अभी तक की भूमिका स्वयं इसका गवाह है। 2021 का भारतीय धनी किसान, जो आज पूँजीवादी व्यवस्था के मानवद्रोही स्वरूप का इतने नज़दीक से सामना कर रहा है, जल्द ही पुरातन को त्याग कर सर्वहारा राज्य के अन्तर्गत सामूहिक खेती के रास्ते के अमल में हमारे आह्वान का स्वागत और समर्थन करेगा, क्योंकि इसके बिना अब किसान समुदाय के बचने का कोई रास्ता नहीं!” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9)
इस पर हमारे हमारे द्वारा पेश आलोचना का महत्वपूर्ण हिस्सा निम्न है:
”ऐसे आशावाद को देखकर तो दोन किहोते भी शर्म से ज़मीन में धँस गया होता! धनी किसान का पूँजीवाद से विश्वास हिल रहा है!? इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है? जब भी छोटी पूँजी का बड़ी एकाधिकारी पूँजी से अन्तरविरोध तीव्र होगा और वह बेशी मूल्य के विनियोजन में अपने हिस्से को क़ायम रखने और बढ़ाने के लिए लड़ेगी, तो क्या वह पूँजीवाद–विरोधी बन जायेगी? तो क्या वह उजरती श्रम पर रोक, खेती में निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे और सामूहिक व राजकीय खेती को स्वीकार कर लेगी? अगर पीआरसी सीपीआई (एमएल) का यह विश्वास पुख्ता है, तो उसे धनी किसानों–कुलकों के आन्दोलन के मंच पर जाकर केवल “उचित दाम” देने का भ्रामक वायदा नहीं करना चाहिए, बल्कि यह भी बताना चाहिए कि जब पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति हो जायेगी, तो निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हो जायेगा, यदि तत्काल सामूहिक व राजकीय खेती न भी शुरू हो पायी तो ज़मीन का राष्ट्रीकरण हो जायेगा और उजरती श्रम पर रोक लगा दी जायेगी! मेरे ख्याल से यदि इस प्रकार के एडवेंचर को पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्व अपने हाथों में ले, तो धनी किसानों का नेतृत्व उन्हें तत्काल ही शारीरिक समीक्षा करके समझ देगा कि उसका न तो पूँजीवादी व्यवस्था से विश्वास उठा है, न ही वह सामूहिक खेती पर सहमत होने जा रहा है और असल में वह शोषण करने के अपने अधिकार के लिए लड़ रहा है! वह बिल्कुल पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर एक ऐसी माँग रख रहा है जोकि अपेक्षाकृत छोटी पूँजी हमेशा ही पूँजीवादी राज्यसत्ता के समक्ष रखती है: बड़ी पूँजी से प्रतिस्पर्द्धा में राजकीय संरक्षण की माँग। पूँजीवादी व्यवस्था किस दौर में है और अन्तरविरोधों के किस सन्धि-बिन्दु पर है, उसके आधार पर यह माँग कभी मानी जाती है तो कभी नहीं मानी जाती, लेकिन चाहे यह माँग मानी जाय या न मानी जाय, धनी किसानों-कुलकों समेत छोटा पूँजीपति वर्ग कभी समाजवादी कार्यक्रम को नहीं अपना लेता है! पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय की यह पूरी बात भयंकर सुधारवादी और टुटपुँजिया अवसरवाद से ग्रस्त है।’’ (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)
कुलकों के आन्दोलन से सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर हमारे लेखक महोदय पूरे सर्वहारा राज्य की एक झूठी तस्वीर धनी किसानों-कुलकों के सामने पेश करते हैं और गोलमाल बातें करते हैं। इसका खण्डन करने हेतु हमने पांचवीं बार उनकी अवस्थिति को निम्न उद्धरणों से पेश किया:
“यहाँ से आगे किसानों की मुक्ति का रास्ता सर्वहारा राज्य से हो कर जाता है, क्योंकि एकमात्र सर्वहारा राज्य ही पूँजी के तर्कों की अधीनता से बाहर निकल कर किसानों की समस्त उपज को उचित दाम पर खरीद सकता है।” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)
और देखें:
“मज़दूर वर्ग अगर आज अपने ऐतिहासिक कर्तव्य की पूर्ति करते हुए बुर्जुआ वर्ग के मुकाबले सत्ता का मौजूदा नहीं तो भविष्य का दावेदार बनकर, यानी भावी शासक वर्ग के रूप में, न कि किसी टुटपुँजिया वर्ग की तरह, बात करे तो उसे संघर्षरत किसानों से क्या कहना चाहिए? यही कि एकमात्र भावी सर्वहारा राज्य ही किसानों के समस्त उत्पादों की ‘उचित’ दाम पर खरीद कर सकता है। इसलिए वह न सिर्फ कॉरपोरेट के विरुद्ध उनके आन्दोलन का समर्थन करता है, अपितु वह इस बात का आह्वान भी करता है कि देश के सभी वास्तविक किसान स्वयं अपनी इच्छा से आपस में मिलकर सामूहिक फ़ार्म बनायें, जिसे मज़दूर वर्ग के राज्य से मुफ़्त ट्रैक्टर और सिंचाई के साधन सहित उन्नत बीज, खाद आदि की भी मुफ़्त सहायता दी जायेगी, ताकि वे ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन के लक्ष्य के साथ सर्वहारा राज्य के साथ पूर्व निर्धारित फसलों और मूल्य पर खेती कर सकें, अर्थात कॉन्ट्रैक्ट खेती कर सकें।” (पी.आर.सी. के फेसबुक पोस्ट से, ज़ोर हमारा)
इस पर हमारी आलोचना निम्न है, जिसे हमने अपने उपरोक्त पिछले लेख में ही स्पष्ट कर दिया था। निम्न लम्बा उद्धरण इसी लेख से लिया गया है:
”पहली बात, सर्वहारा वर्ग समूची किसान आबादी से मुक्ति का वायदा नहीं करता है। जिस प्रकार वह औद्योगिक क्षेत्र के छोटे व मँझोले पूँजीपतियों से ऐसा कोई वायदा नहीं करता है, उसी प्रकार वह ग्रामीण पूँजीपति वर्ग से भी ऐसा कोई वायदा नहीं करता। लेखक महोदय ने जानबूझकर यहाँ एक अविभेदीकृत किसान आबादी की बात की है और सिर्फ “किसानों” से वायदा किया है और यह नहीं बताया है कि वह किस किसान की बात कर रहे हैं।
“दूसरी बात, यह ‘वास्तविक किसान’ या ‘real peasant’ क्या होता है? यदि उनका मतलब उन लोगों से है जो कि वास्तव में खेतों में उत्पादन करते हैं, तो वे खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों की बात कर रहे हैं, जिनके लिए मार्क्स ‘वास्तविक उत्पादक’ (real producers) शब्द का इस्तेमाल करते हैं, न कि ‘वास्तविक किसान’ का, जो कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से एक अर्थहीन शब्द है। और अगर लेखक महोदय खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों की ही बात कर रहे हैं, तो लाभकारी मूल्य के समर्थन का कोई तुक ही नहीं बनता है क्योंकि वह खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों के विरुद्ध ही जाता है। अगर लेखक महोदय का अर्थ ‘वास्तविक किसान’ से उजरती श्रम का शोषण न करने वाले सीमान्त, छोटे और निम्न मंझोले किसान हैं, तो यह कहना होगा कि उनके लिए ‘ग़रीब व निम्न मंझोला किसान’ ही सही शब्द है क्योंकि धनी किसान भी कोई कम किसान नहीं होते क्योंकि ‘किसान’ शब्द के अर्थ या परिभाषा में अनिवार्यत: भौतिक शारीरिक श्रम करना शामिल नहीं है। वह ग़रीब मेहनतकश किसान की परिभाषा में शामिल है, लेकिन आम तौर पर किसान आबादी में धनी व उच्च मध्यम पूंजीवादी किसान आबादी भी शामिल है (और वह कोई ‘अवास्तविक किसान’ नहीं है!) और ग़रीब मेहनतकश किसान भी। अगर लेखक का अर्थ है कि पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामियों से अलग समस्त किसान समुदाय जिसमें कि धनी व उच्च मध्यम किसानों समेत सीमान्त, छोटे व निम्न मंझोले किसान भी शामिल हैं, तो यह कहना होगा कि कोई भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्यक्ति ऐसा वर्गेतर श्रेणीकरण नहीं करेगा, क्योंकि धनी व उच्च-मध्यम पूँजीवादी फार्मर उजरती श्रम का शोषक है और समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में शत्रु वर्ग है, जबकि ग़रीब मेहनतकश किसान क्रान्ति का मित्र वर्ग है। यह भी मार्क्सवाद का ‘क ख ग‘ है, जिससे हमारे लेखक महोदय वाकिफ़ नहीं हैं। दरअसल, हमारे लेखक महोदय ने ‘वास्तविक किसान’ की अर्थहीन संज्ञा का इस्तेमाल ही अपने अवसरवाद को छिपाने के लिए किया है।
”साथ ही, पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत किसानों के किसी भी हिस्से से सामूहिक या सहकारी फार्म बनाने का आह्वान ही एक मूर्खतापूर्ण और टटपुंजिया आह्वान है। पहली बात तो यह कि धनी व उच्च मध्यम किसान तो समाजवादी संक्रमण और सर्वहारा राज्यसत्ता की मौजूदगी में भी एक वर्ग के तौर पर सामूहिक फार्म बनाने पर स्वेच्छा से तैयार नहीं होंगे, पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत उनसे ऐसी उम्मीद करना ही शुद्ध किहोतेवाद है। दूसरी बात, पूँजीवादी व्यवस्था के मातहत अगर ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान भी कोई सामूहिक फ़ार्म या सहकारी फ़ार्म जैसी संस्था बना लें (क्योंकि धनी किसान इसके लिए कभी न तो तैयार होंगे और न ही उन्हें इसकी कोई आवश्यकता है), तो भी पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर वह एक सामूहिक पूँजीपति (collective capitalist) ही बन सकते हैं और उनके भीतर असमानताएँ और वर्ग अन्तरविरोध पनपेंगे और ऐसी सारी संस्थाएँ अन्तत: एक छोटे वर्चस्वकारी समूह के मातहत हो जाती हैं, और उनके बाकी सदस्य या तो कनिष्ठ शेयरहोल्डर बन जाते हैं या उनके उजरती श्रमिक। वजह यह है कि ऐसे सभी कलेक्टिव्स और कोऑपरेटिव्स को पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर पूँजीवादी बाज़ार में ही प्रतिस्पर्द्धा करनी होती है, प्रतिस्पर्द्धी बने रहना होता है, और इसके लिए उजरती श्रम का शोषण करते हुए उसी प्रकार अस्तित्वमान व सक्रिय होना होता है, जिस प्रकार बाज़ार में अन्य पूँजियां सक्रिय होती हैं। पूरी दुनिया में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। यह भी पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतागण की मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की शून्य समझ और शेखचिल्लीवाद को दिखलाता है कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर धनी किसानों समेत सभी किसानों से “सामूहिक फ़ार्म” बनाने की अपील कर रहे हैं, जिनको अपने नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति के करने के बाद वह निशुल्क बीज, ट्रैक्टर, खाद आदि देंगे! मतलब, किहोतेवाद की इन्तहा है!
”तीसरी बात, किसान कोई एक वर्ग नहीं होता बल्कि एक वर्ग–विभाजित समुदाय होता है, जिसमें धनी किसानों के हित किसी भी सूरत में (संकट या बरबादी की स्थिति में भी!) एक वर्ग के तौर पर समाजवाद और सर्वहारा वर्ग के खिलाफ़ ही जाते हैं, और उनसे “उचित दाम” जैसा भ्रामक वायदा करना सर्वहारा वर्ग से ग़द्दारी के समान है।’’ (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)
जैसा कि पाठक देख सकते हैं कि हमने अपनी पिछली आलोचना में ही कई बार लेखक महोदय के संगठन की मौजूदा धनी किसान आन्दोलन पर अवस्थिति को उजागर करते हुए आये लेख व फेसबुक पोस्टों से उन्हें विस्तार से उद्धृत किया है और यहां उन उद्धरणों पर हमारे द्वारा लिखी आलोचना को फिर पाठकों के सामने रखा है।
उपरोक्त उद्धरणों को पीआरसी के लेखक महोदय उंगली रखकर पढें और बताएं कि यह किस तरह से पीआरसी के लेखक के तर्कों को तोड़ना-मरोड़ना है? क्या यह बात पीआरसी के लेख में नहीं कही गई है? फिर पीआरसी के लेखक महोदय झूठ क्यों बोल रहे हैं? ‘यथार्थ’ पत्रिका में उन्होंने जो छाती पर मुक्के बरसाते हुए हमारी “पद्धति” को उजागर करने की डींगे हाँकी हैं वह बस एक ढोंग है ताकि वे अपने चोटिल अहं को थोडा सहला सकें और रहा-सहा सम्मान अपने शागिर्दों के सामने बचा सकें। जीवविज्ञान में जीव जगत की कुछ प्रजातियों द्वारा ऐसे प्रयासों को डाएमैटिक व्यवहार कहा जाता है। आप अपने प्रतिद्वन्दी को यह दिखलाने का प्रयास करते हैं कि आप कितने शक्तिशाली हैं परन्तु यह केवल दिखावा होता है।
आगे लेखक महोदय हमारी “पद्धति” उजागर करने के प्रयास में मूर्खता के नये पैमाने स्थापित करते हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने समाजवादी प्रयोगों के इतिहास के विषय में और साथ ही किसान प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा पर अपने लेखों में कोई उद्धरण या चर्चा नहीं की है इसलिए उन पर सोवियत समाजवादी इतिहास के साथ दुराचार करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता है! यह महाशय मोलिएर के उस बुर्जुआ संभ्रान्त मूर्ख की तरह हैं जो यह नहीं जानता था कि वह सारी जि़न्दगी गद्य बोल रहा था!
यह जनाब अपने लेख और पुस्तिका में सोवियत समाजवादी राज्य द्वारा किसानों को “उचित दाम” दिए जाने का भ्रामक नारा देते हैं। भविष्य के भावी शासक वर्ग और सर्वहारा राज्य द्वारा वर्तमान किसान आन्दोलन को “उचित दाम” दिलाने की दुहाई देने के बावजूद यह महोदय इस बात से मुकर जाते हैं कि वे सोवियत समाजवाद और समाजवादी संक्रमण के बारे में बात कर रहे थे! और उस पर तुर्रा यह कि यह हम पर ही इस क़दर नाराज़ हो रहे हैं! लेखक महोदय लिखते हैं कि:
‘‘Many have gone through the PRC’s booklet, but, unlike our ‘educators’, none would say and nor has anyone said that it is about any history or deals with the “history of socialist experiments in the USSR” and “Marxist-Leninist theories on Peasant question.” Those who have read will confirm that not a single paragraph, nay, not even a single sentence has been used for this purpose. There is no discussion, nor any quote either from history or Marx, Engels, Lenin or Stalin on peasant question.’’
“How can just mentioning the words like in the USSR become history of socialist experiments in the USSR or history of the policies adopted during transition to Socialism?” (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
लेकिन पीआरसी के लेखक महोदय को याद दिलाना पड़ेगा कि जब आप ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि ”सोवियत संघ के समान” उचित दाम एक समाजवादी राज्य दे पाएगा और आप यह बताते नहीं कि यह उचित दाम क्या होगा और ऊपर से आप यह बात उस आन्दोलन में कहते हैं जो कि कतई अन्यायपूर्ण लाभकारी मूल्य के लिए लड़ा जा रहा है, तो उसका बिल्कुल यही मतलब है कि आपको सोवियत संघ के इतिहास के बारे में कुछ नहीं पता है; कि आप लाभकारी मूल्य को उचित दाम बता रहे हैं; कि आप सोवियत संघ पर भी ऐसा लाभकारी मूल्य देने की नीति को जबरन आरोपित कर रहे हैं, ताकि धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठ सकें। इसलिए, लेखक महोदय आपने सोवियत संघ के इतिहास के प्रति अज्ञान दिखाने की मूर्खता कर दी है और अब इस मूर्खता को ढांपने-तोपने का प्रयास करने का कोई लाभ नहीं होगा।
किसान आन्दोलन पर पुस्तिका लिखकर इस संगठन के नेता महोदय यह कहते हैं कि उन्होंने किसान प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी नज़रिये के बारे में बात ही नहीं की है! हालांकि अपनी पुस्तिका में जब वे हर दूसरी बात के बाद कहते हैं कि ‘‘मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति के अनुसार’’ तो शायद उन्हें इसका आशय नहीं पता था। तो जनाब, क्या आपने अपनी पुस्तिका में बुर्जुआ नज़रिये से बात की है? मास्टरजी! रटन्त विद्या यहां काम नहीं आएगी। आप जब मौजूदा धनी किसान आन्दोलन में समाजवादी व्यवस्था द्वारा दिए जाने वाले “उचित दाम” की बेहद भ्रामक बात करते हैं और समाजवादी व्यवस्था के बारे में लम्बी-चौड़ी हांकते हैं जो रूसी समाजवाद के प्रयोग के अनुभव का विकृतिकरण करती है तो इसे और क्या कहा जाएगा? यह कुलकों की पूंछ में कंघी करने के लिए किया जा रहा निकृष्ट कोटि का अवसरवाद है।
बहरहाल, इस सवाल पर जब हमने लेखक महोदय और उनके संगठन की अपढ़ता उजागर की तो उन्होंने आनन-फानन में मॉरिस डॉब की किताब की विषय सूची देखकर इधर-उधर से कुछ बातें चेंप दी हैं जिन्हें वे खुद समझ नहीं पाए हैं, जैसा कि हम आगे दिखलाएंगे। विषय-सूची देखकर उद्धरण चेंपने से यही ख़तरा होता है। आदमी अपनी ही छीछालेदर कर लेता है, जैसा कि कि पीआरसी के लेखक महोदय ने कर लिया है। लेकिन सोवियत इतिहास व समाजवादी संक्रमण के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में पीआरसी के दोन किहोते की ”ज्ञान वर्षा” के बारे में बाद में।
दूसरा, वह ये बातें बिलकुल ऐसे रखते हैं जैसे उन्होंने सकारात्मक तौर पर यह चर्चा छेड़ी हो! इस प्रश्न पर भी वे हमारे द्वारा उठाए सवालों को गोल कर गए हैं। हालांकि उन्होंने समाजवादी संक्रमण के बारे में जो भी नया कहा है वह समाजवादी संक्रमण के राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ भयंकर दुराचार है और दक्षिणपंथी बुखारिनवाद के एक सस्ते सड़कछाप संस्करण से ज़्यादा कुछ नहीं है, जैसा कि हम ससन्दर्भ और सप्रमाण आगे दिखलाएंगे। दरअसल, पटना के हमारे दोन किहोते यह विश्लेषण इसलिए पेश करने को मजबूर हुए हैं ताकि उनके सांचो पांज़ाओं में यह भ्रम बना रहे कि दोन किहोते उन्हें नेतृत्व देने में सक्षम है! लेकिन उनकी इस कवायद का नतीजा कुछ उल्टा ही हुआ है! हम इस प्रश्न पर उनकी वैचारिक दरिद्रता और उनके बातबदलूपन को लेख के आख़िरी हिस्से में उठाएंगे।
परन्तु लेखक महोदय द्वारा छाती पीट-पीटकर दी गयी तमाम दलीलों के बावजूद भी सच यही है कि वह हमारी अवस्थितियों को बेईमानी से बदल रहे हैं और पूरे लेख में हमारे द्वारा पेश अवस्थितियों और हमारी आलोचना से भाग रहे हैं। और अपने कल्पनाजगत में जीते हुए पवनचक्की को ही शत्रु घोषित कर उससे युद्ध की घोषणा कर अपनी गत्ते की तलवार के साथ उस पर टूट पड़े हैं।
पीआरसी के अनुसार लाभकारी मूल्य की मांग अपने पहले रूप में प्रतिक्रियावादी मांग थी परन्तु अब उनके अनुसार जबकि ‘समूचा किसान समुदाय’ कॉरपोरेट के खिलाफ़ एकजुट है तो यह व्यवस्था-विरोधी मांग है! आइये देखें कि हमारे लेखक महोदय ने यहाँ किस प्रकार की नयी बौद्धिक-सैद्धांतिक कलाबाज़ियाँ दिखलाई हैं।
- लाभकारी मूल्य की मांग को पूंजीवाद-विरोधी मांग बताकर धनी किसान आन्दोलन की ट्रॉली में चढ़ने को बेक़रार पीआरसी के दोन किहोते
लेखक महोदय लाभकारी मूल्य का समर्थन कर उसमें क्रान्तिकारी मांग की सम्भावना ढूंढ निकालते हैं! हालांकि इसे वे सीधे-सीधे नहीं कहते हैं बल्कि पहले वे लाभकारी मूल्य की मांग को उसके ‘नये रूप और पुराने रूप’ में विभाजित कर देते हैं। आइए देखते हैं कि वह लाभकारी मूल्य को पूंजीवादी व्यवस्था-विरोधी मांग बताने के लिए क्या कहते हैं:
‘’Take the question of purchase guarantee of all agri-produce at MSP. This (MSP as a legal right) is also a new thing in farmers movement. At least the background of Corporate takeover of agriculture through laws is giving it a new meaning and adding different substance. Why? Because the demand of purchase of all produce at MSP is a demand that a bourgeois government which has brought new farm laws to facilitate Corporate entry can’t ever fulfil…… A new struggle will be sought to emerge, this time for the guarantee of buyers. Farmers will have to wage a new struggle for another law that will legally guarantee purchase by the businessmen at MSP and of all produce. But businessmen can’t be pressurised by any law to purchase at a certain price. In this case, the demand of purchase guarantee rests with the government to be accepted.
“Then, farmers leaders will say that businessmen must buy at MSP and the difference in price must be paid to the businessmen by the government. So, finally it is a demand of guarantee of purchase by government/state for which government will have to depend on public finance which is already depleted to an extent that nothing is saved for the general people now. This will also be twice in favour of corporates. So even if we assume that government will accept this, the crisis of public finance and demand would blast the whole system hurting all very badly in its return, even peasants in many ways. So, it is clear that nothing very precious will come in the pocket of the peasants if the government accepts the demands. The whole exercise around MSP as a legal right or the demand of purchase guarantee goes against the laws of capitalist market.
“However, farmers are agitated and it seems they are not going to be at peace as long as farm laws are not repealed and MSP as a legal right is not accepted. What does it mean? It means that if their struggle continues and the farmers, convinced as
they are about the fall out of farm laws, further go into clash-combat like situation with the state, the agitation is bound to go beyond the bourgeois limit.” (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
हमने यहां इन्हें इसलिए विस्तार से उद्धृत किया है ताकि लेखक महोदय का पूरा तर्क सामने आ जाए। कुल मिलाकर देखें तो पीआरसी सीपीआई (एमएल) लाभकारी मूल्य की मांग का समर्थन करती है। इसके साथ वे यह बात जोड़ते हैं कि सर्वहारा राज्य ही किसानों को “उचित दाम” व पूरी उपज की “खरीद” की गारण्टी दे सकता है।
लेकिन लाभकारी मूल्य का समर्थन करने के लिए की गई यह चालबाजी फ्रांसीसी साधु गोरेन्फ्लो (प्लेखानोव अपनी पुस्तक ‘जुझारू भौतिकवाद’ में इस चालाक साधू का जिक्र करते हैं) की याद दिलाती है जो पवित्र दिन पर मांस खाने की तलब को पूरा करने के लिए मुर्गे के मांस को कर्मकाण्ड के जरिए मछली में तब्दील कर लेता है क्योंकि पवित्र दिन मछली का सेवन किया जा सकता था! यहां हमारे पटना के गोरेन्फ्लो ने पुराने ‘प्रतिक्रियावादी’ लाभकारी मूल्य को अमूर्त शब्दजाल रूपी कर्मकाण्ड से ‘क्रान्तिकारी’ नये लाभकारी मूल्य में तब्दील कर दिया है!
लेकिन यहां हम पीआरसी के लेखक महोदय के दिमाग में क्या चल रहा है उस पर चर्चा करने की जगह इस पर चर्चा कर रहे हैं कि वास्तव में लाभकारी मूल्य की मांग प्रतिक्रियावादी मांग है या नहीं? इस पर सीधा-सीधा जवाब देने में हमारे लेखक महोदय की जुबान लरजने लगती है और वे कहते हैं कि आन्दोलन में लाभकारी मूल्य हासिल हो भी तब भी पूंजीवादी कृषि का संकट दूर नहीं होगा! अव्वलन तो यह सवाल ही नहीं था और यह किसी ने कहा ही नहीं था कि लाभकारी मूल्य से कृषि का संकट दूर होगा या नहीं! मुद्दा तो कुछ और ही था!
बहरहाल, इसके साथ वह यह भी जोड़ देते हैं कि मौजूदा आन्दोलन में लाभकारी मूल्य की मांग और समस्त फसल की पूर्ण ख़रीद की गारण्टी की मांग मिलकर पूंजीवादी व्यवस्था से परे जाती है। इसे ही वे लाभकारी मूल्य के “नये रूप” के तौर पर परिभाषित करते हैं। हम आगे यह दिखाएंगे कि यह उनकी मनगढ़ंत बकवास है और सच्चाई से कोसों दूर है। यहां असल में वे लाभकारी मूल्य पर अपनी स्पष्ट अवस्थिति पेश करने की बजाय उससे बच निकलने का प्रयास करते हैं।
हम पिछले लेख में भी इस पर विस्तार से लिख चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था धनी किसानों–कुलकों को मिलने वाला राजकीय संरक्षण है और इसका कोई ‘नया और पुराना रूप नहीं है’। मौजूदा लेख में और विस्तार से हम आपको यह दिखलाएंगे। यह आम मेहनतकश ग़रीब जनता की मांग नहीं है। वैसे भी कुल किसान आबादी में 90 प्रतिशत से अधिक आबादी को लाभकारी मूल्य का कोई लाभ मिलता ही नहीं है। दूसरा, ग़रीब किसान अनाज के प्रमुख तौर पर ख़रीदार हैं न की विक्रेता इसलिए लाभकारी मूल्य की व्यवस्था ग़रीब किसानों के विरोध में भी है। लाभकारी मूल्य की मांग मज़दूर आबादी के खिलाफ तो है ही, जो ऊंचे लाभकारी मूल्य के कारण अनाज की बढ़ती कीमतों के कारण सबसे ज़्यादा नुकसान उठाती है। इसपर ‘यथार्थ’ के लेखक महोदय मौन रहते हैं। ऐसे में लाभकारी मूल्य के ‘नये और पुराने रूप’ की पीआरसी के लेखक महोदय की अवसरवादी और मूर्खतापूर्ण लफ्फाज़ी को बेनक़ाब करने से पहले एक बार मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के पैमानों पर यह समझते हैं कि लाभकारी मूल्य क्या है।
लाभकारी मूल्य क्या है?
आइये एक बार थोड़ा गहराई से समझ लेते हैं कि लाभकारी मूल्य है क्या। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र इसे एकदम स्पष्ट तौर पर व्याख्यायित करता है।
दरअसल लाभकारी मूल्य धनी किसानों द्वारा समाज से वसूला जा रहा एक ट्रिब्यूट है जिसकी गारण्टी अब तक पूंजीवादी राज्यसत्ता धनी किसानों-कुलकों के लिए सुनिश्चित करती रही है। इस मांग का समर्थक वास्तव में मार्क्सवाद में कृषि प्रश्न की बुनियादी समझदारी से भी परिचित नहीं है। हम यह भी दिखाएंगे कि अपने मौजूदा लेख में पीआरसी के लेखक महोदय ने मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के ‘क ख ग’ के बारे में अनभिज्ञता का एक बार फिर से परिचय दिया है।
पूंजीवादी व्यवस्था में किसी भी माल की बाज़ार कीमत उसकी उत्पादन की कीमतों (prices of production) से तय होती है। बाज़ार कीमत (market price) मांग और आपूर्ति के बदलते समीकरण के कारण उत्पादन की कीमतों के गुरुत्व केन्द्र के आसपास मंडराती (fluctuate) रहती है। खुद उत्पादन की कीमतों का निर्धारण उत्पादन के अलग-अलग क्षेत्रों के सामाजिक मूल्य और उसके पुनर्वितरण से होता है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का आम नियम असमान विकास का नियम है। अलग-अलग सेक्टरों में उत्पादन की अलग-अलग स्थितियां प्रभावी होती हैं और इसलिए वहां पूंजी का आवयविक संघटन (organic composition of capital) और इसीलिए मुनाफे की दर अलग-अलग होती है। हर सेक्टर के भीतर उत्पादन की औसत स्थितियों वाली पूंजियों द्वारा कीमत तय होती है। अलग-अलग सेक्टरों में मुनाफे की दरें अलग-अलग होने के कारण सेक्टरों के बीच परस्पर पूंजी का प्रवाह होता है। यह प्रवाह आम तौर पर कम मुनाफा दर वाले सेक्टरों से अधिक मुनाफा दर वाले सेक्टरों की तरफ होता है। पूंजी के इस प्रवाह के कारण मुनाफे की दरों का औसतीकरण (averaging of the rates of profit) होता है और मुनाफे की औसत दर (average rate of profit) का निर्माण होता है। उत्पादन की कीमतें कुल निवेश (यानी कुल स्थिर व परिवर्तनशील पूंजी) तथा औसत मुनाफे का योग होता है, यानी वह कीमत जो कि औसत मुनाफा सुनिश्चित करती है। स्पष्ट है कि उत्पादन की कीमतें उत्पादन के विभिन्न सेक्टरों के बीच मुनाफे के औसतीकरण के ज़रिये सामाजिक मूल्य द्वारा ही निर्धारित होती है। लेकिन हर पूंजी को अपने द्वारा पैदा किया गया कुल मूल्य और इसलिए कुल बेशी मूल्य वास्तवीकृत होकर नहीं मिलता है, बल्कि उसे उत्पादन की कीमतों द्वारा निर्धारित बाज़ार दाम मिलता है, जो कि उसके द्वारा उत्पादित मूल्य से ज़्यादा हो सकता है, या कम हो सकता है। यानी, अलग-अलग पूंजियों को अपने द्वारा उत्पादित मूल्य व बेशी मूल्य से ज़्यादा या कम मुनाफ़ा प्राप्त हो सकता है।
जिन पूंजियों का आवयविक संघटन ज्यादा होता है, वे कम नया मूल्य सृजित करती हैं और इसलिए उन्हें अपने द्वारा उत्पादित मूल्य से अधिक दाम मिलता है, जबकि जिनका आवयविक संघटन औसत आवयविक संघटन से कम होता है, उन्हें अपने द्वारा सृजित मूल्य से कम दाम मिलता है। यानी, कम उन्नत पूंजियों से कुछ मूल्य अधिक उन्नत पूंजियों को स्थानान्तरित होता है। ज़ाहिर है कि कुल सामाजिक स्तर पर कुल मूल्य कुल दाम के बराबर होता है और उतना ही मूल्य वास्तवीकृत (realize) हो सकता है, जितना कि पैदा होता है। लेकिन अलग-अलग पूंजियों के स्तर पर मूल्य और दाम में अन्तर होता है, सिवाय उस पूंजी के जो कि उतना ही ठीक बेशी मूल्य पैदा करती है जितना कि औसत मुनाफा दर है।
लुब्बेलुबाब यह कि यह उत्पादन की कीमतें होती हैं, जो कि पूंजीवादी व्यवस्था में बाज़ार दाम तय करती हैं और औसत मुनाफा देती हैं। ज़ाहिर है, सभी को औसत मुनाफ़ा नहीं मिलता, लेकिन उत्पादन की कीमतें इसी औसत मुनाफे से तय होती हैं। लेकिन पूंजीवाद के मातहत, पूंजीवादी भूस्वामियों के एक वर्ग द्वारा भूमि के इजारेदार मालिकाने (monopoly ownership of land) की स्थितियों में कृषि के क्षेत्र में यह नियम लागू नहीं होता है। आइये देखते हैं कैसे।
कृषि के क्षेत्र में मुनाफे के औसतीकरण की प्रक्रिया ही बाधित हो जाती है। यह इसलिए होता है कि पूंजीवादी भूस्वामी वर्ग का ज़मीन पर इजारेदार मालिकाना (monopoly ownership) होता है। मार्क्स ने इस भूस्वामित्व को पूंजीवादी फार्मर के मालिकाने से अलग किया है। यह एक लगानजीवी पूंजीवादी भूस्वामी वर्ग द्वारा भूमि का इजारेदार मालिकाना है, जो खुद खेती में संलग्न नहीं होता। वह ज़मीन किराए पर देता है और लगान खाता है। कई ऐसे पूंजीवादी फार्मर भी होते हैं, जो कि लगानखोर पूंजीवादी भूस्वामी भी होते हैं। एक वर्ग पूंजीवादी काश्तकार किसान का भी होता है, जो कि एक उद्यमी पूंजीपति के समान ज़मीन किराए पर लेता है, पूंजी निवेश करता है, और जो बेशी मूल्य पैदा होता है, उसमें से लगान भूस्वामी के हवाले करता है और औसत मुनाफा अपने पास रखता है। पूंजीवादी ज़मींदार केवल ज़मीन में अपने निजी मालिकाने के चलते पूंजीवादी काश्तकार किसान से उसके मुनाफ़े का एक हिस्सा वसूलता है। इतनी बात स्पष्ट करने के बाद आगे बढ़ते हैं।
ज़ाहिर है कि कोई भी पूंजीवादी किसान कृषि में केवल तभी निवेश करेगा जब उसे कम-से-कम औसत मुनाफ़ा मिले अन्यथा वह अपनी पूंजी उत्पादन के किसी अन्य क्षेत्र में निवेश करेगा। लेकिन अगर उसे केवल औसत मुनाफा प्राप्त होता है तो उसे पूंजीवादी भूस्वामी को लगान उसमें से ही घटाकर देना होगा। लेकिन तब वह किसी अन्य क्षेत्र में निवेश करना पसन्द करेगा। नतीजतन, कोई पूंजीवादी काश्तकार तभी खेती में पूंजी निवेश करेगा, जबकि उसे औसत मुनाफे से ऊपर बेशी मुनाफ़ा प्राप्त हो। अगर पूंजीवादी भूस्वामी को लगान प्राप्त नहीं होता (जो कि बेशी मुनाफे का ही रूपान्तरित रूप है) तो वह ज़मीन किराए पर नहीं देगा और यदि पूंजीपति को औसत मुनाफा प्राप्त नहीं होगा, तो वह अपनी पूंजी कहीं और निवेश करेगा। इसलिए कृषि उत्पाद का दाम भूमि के इजारेदार मालिकाने की स्थितियों में पूंजीवादी व्यवस्था में इतना होना ही चाहिए कि वह बेशी मुनाफा (surplus profit) सुनिश्चित करे।
लेकिन फिर यह बेशी मुनाफा कितना हो? मार्क्स कहते हैं कि यह बेशी मुनाफा तभी सम्भव है जबकि कृषि क्षेत्र में पैदा होने वाला मूल्य कृषि क्षेत्र में ही रहे। यानी कृषि क्षेत्र में जितना बेशी मूल्य पैदा हो, वह कृषि क्षेत्र में ही रहे और कम आवयविक संघटन के बावजूद किसी अन्य सेक्टर में स्थानान्तिरत न हो। हम जानते हैं कि कृषि में आवयविक संघटन उद्योग से और पूरी अर्थव्यवस्था के औसत आवयविक संघटन से आम तौर पर कम होता है और इसलिए उसमें सृजित बेशी मूल्य औसत मुनाफे से ज़्यादा होता है। यदि यह पूरा बेशी मूल्य कृषि क्षेत्र में ही रहता है, तो वह कृषि क्षेत्र की पूंजी को औसत मुनाफे से ऊपर बेशी मुनाफा देता है। मार्क्स बताते हैं कि पूंजीवाद में इजारेदार भूस्वामित्व की स्थितियों में कृषि क्षेत्र का पूरा मूल्य कृषि क्षेत्र में ही रहता है और आवयविक संघटन कम होने के कारण यह मूल्य बेशी मुनाफ़ा सुनिश्चित करता है। यह बेशी मुनाफा ही रूपान्तरित होकर लगान के रूप में पूंजीवादी भूस्वामी के पास जाता है। इसे मार्क्स बेशी मुनाफे का लगान में रूपान्तरण कहते हैं।
यानी, इस प्रकार बेशी मुनाफे के पैदा होने का आधार क्या है? ज़मीन का इजारेदार मालिकाना, यानी एक सीमित अनुत्पादित प्राकृतिक संसाधन की निजी इजारेदारी जो कि पूंजी के मुक्त प्रवाह को बाधित कर सकती है, मुनाफे के औसतीकरण की प्रक्रिया को बाधित कर सकती है और इस प्रकार बेशी मुनाफे को जन्म दे सकती है। यही बेशी मुनाफा लगान में तब्दील होता है और ज़मीन के इजारेदार मालिकाने के कारण पैदा होने वाला यह लगान ही निरपेक्ष लगान (absolute rent) कहलाता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि उत्पादों की कीमत पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन की औसत स्थितियों नहीं बल्कि उत्पादन की सबसे ख़राब स्थितियों से तय होती है। समाज में कृषि उत्पादों व खाद्यान्न की बढ़ती मांग यह सुनिश्चित करती है कि ख़राब से ख़राब गुणवत्ता वाली ज़मीन भी कालान्तर में खेती में आती जाती है। ऐसे में, सबसे ख़राब गुणवत्ता वाली ज़मीन के अलावा अन्य सभी ज़मीनों पर उत्पादन में लगी पूंजी को भी एक बेशी मुनाफा प्राप्त होता है क्योंकि बाज़ार कीमतें सबसे ख़राब ज़मीन पर उत्पादन की लागत से तय होती हैं। इसे मार्क्स ने विभेदक लगान (differential rent) कहा। विभेदक लगान भी दो प्रकार का होता है: पहला, जो कि प्राकृतिक अन्तर के कारण पैदा होता है और दूसरा जो कि पूंजी निवेश के अलग-अलग परिमाण से पैदा होता है, लेकिन अभी हमें उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। रिकार्डो की मार्क्स ने इसी बात पर आलोचना की थी कि वह केवल विभेदक लगान के अस्तित्व को समझ पाते हैं लेकिन ज़मीन के इजारेदार मालिकाने के कारण पैदा होने वाले निरपेक्ष लगान को नहीं। पूंजीवादी काश्तकार को औसत मुनाफे के ऊपर जो भी निरपेक्ष व विभेदक लगान प्राप्त होता है, वह लगान में रूपान्तरित होकर पूंजीवादी भूस्वामी के पास जाता है। इसे मार्क्स ने कुल बेशी मुनाफे का भूमि लगान में रूपान्तरण कहा है।
जैसा कि हम देख सकते हैं, निरपेक्ष भूमि लगान के पैदा होने का मूल कारण एक प्रकार की इजारेदारी है, जो कि पूंजी के मुक्त प्रवाह को बाधित कर मुनाफे के औसतीकरण को रोकता है और इस प्रकार मुनाफे की औसत दर से ऊपर बेशी मुनाफे को जन्म देती है।
आगे बढ़ते हैं।
मार्क्स बताते हैं कि बेशी मुनाफा केवल ज़मीन के इजारेदार मालिकाने से ही नहीं बल्कि अन्य प्रकार की इजारेदारी से भी पैदा होता है। मसलन, यदि किसी सेक्टर में आर्थिक प्रक्रिया में किसी कम्पनी की इजारेदारी स्थापित हो जाती है, तो वह कीमतों का निर्धारण औसत मुनाफे से अधिक यानी बेशी मुनाफा सुनिश्चित करने वाले स्तर पर कर सकती है। इसी को इजारेदार कीमत निर्धारण (monopoly pricing) कहते हैं। यह भी इसलिए ही होता है कि एक सेक्टर में पूंजी का मुक्त प्रवाह बाधित हो जाता है, क्योंकि उस सेक्टर में कई कारणों से नयी पूंजियों का प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है।
और उसी प्रकार सरकारी इजारेदारी के मातहत किसी ऐसी कीमत का निर्धारण भी, जो कि अर्थव्यवस्था के औसत मुनाफे की दर से ऊपर मुनाफा दे, बेशी मुनाफे को जन्म दे सकता है। यानी, किसी भी प्रकार की इजारेदारी जो पूंजी के प्रवाह को बाधित करे या कीमतों के निर्धारण पर एकाधिकार रखे, वह बेशी मुनाफे को जन्म दे सकता है।
अब आप समझ सकते हैं कि लाभकारी मूल्य क्या है। लाभकारी मूल्य एक प्रकार का बेशी मुनाफा ही है, जो कि धनी किसानों-कुलकों के वर्ग के हितों के लिए सरकार द्वारा कीमतों के एक ऐसे स्तर पर निर्धारण द्वारा पैदा होता है जो कि औसत मुनाफे से ऊपर बेशी मुनाफा सुनिश्चित करता है। लाभकारी मूल्य और कुछ नहीं बल्कि पूंजीवादी भूस्वामियों, पूंजीवादी फार्मरों व पूंजीवादी काश्तकार किसानों द्वारा समूचे समाज और मेहनतकश आबादी पर थोपा गया एक बेशी मुनाफा या लगान है, जो कि सरकार द्वारा कीमतों के इजारेदार निर्धारण के ज़रिये पैदा होता है। यह समाज से वसूला जाने वाला एक प्रकार ट्रिब्यूट है और जनविरोधी है।
एक दौर में भारतीय पूंजीपति वर्ग को राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कृषि में पूंजीवादी विकास के लिए पूंजीवादी धनी किसानों के एक पूरे वर्ग को खड़ा करने की आवश्यकता थी। इसी वजह से 1960 के दशक में तथाकथित ‘हरित क्रान्ति’ की शुरुआत की गयी और राजकीय संरक्षण के ज़रिये इस पूरे वर्ग को खड़ा किया गया। आज भारतीय पूंजीवाद जिस दौर में है उसे धनी किसान-कुलक वर्ग को इस प्रकार का संरक्षण देने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह बड़ी इजारेदार वित्तीय-औद्योगिक पूंजी के लिए हानिकर है।
इसलिए आज बड़ी इजारेदार वित्तीय पूंजी इसे अपने हितों के मातहत ख़त्म करना चाहती है। यह एक अलग बात है। लेकिन यह ट्रिब्यूट किसी भी सूरत में आम मेहनतकश जनता के पक्ष में नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ जाता है।
यह दीगर बात है कि इसके ख़त्म होने के बाद भी मेहनतकश जनता को इसका लाभ तभी मिलेगा जबकि वह इजारेदार वित्तीय-औद्योगिक पूंजीपति वर्ग से संघर्ष कर अपनी औसत मज़दूरी को उसी स्तर पर कायम रखे। अन्यथा इस ट्रिब्यूट के ख़त्म होने का पूरा लाभ केवल बड़े वित्तीय-औद्योगिक इजारेदार पूंजीपति वर्ग को ही मिलेगा। लेकिन इसका ख़त्म होना किसी भी रूप में मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों और शहरी निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है। वजह यह है कि यह एक प्रकार का बेशी मुनाफा/लगान है जो पूर्णत: धनी किसानों-कुलकों को व्यापक आम मेहनतकश आबादी की कीमत पर लाभ पहुंचाता है।
क्या कोई कम्युनिस्ट लाभकारी मूल्य से मिलने वाले इस बेशी मुनाफे का समर्थक होगा? कतई नहीं! इस मांग का समर्थन करना अपने आप में पूंजीवादी कुलकों-फार्मरों के बेशी मुनाफे व लगानखोरी का समर्थन करना है। जो भी मार्क्सवादी यह कर रहे हैं वे अपनी अपढ़ता और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के भूमि लगान के पूरे सिद्धान्त से अपरिचित होने के चलते ऐसा कर रहे हैं या फिर उनकी कार्यदिशा ही नरोदवादी, कौमवादी या संशोधनवादी-सुधारवादी है।
कृषि प्रश्न पर मार्क्सवादी समझदारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति किसी भी रणनीतिक या रणकौशलात्मक बहाने से लाभकारी मूल्य का समर्थन नहीं कर सकता है। यह वास्तव में मार्क्सवाद को छोड़कर वर्ग आत्मसमर्पणवाद, वर्ग सहयोगवाद और वर्ग पुछल्लावाद होगा और सर्वहारा वर्ग के सामान्य राजनीतिक आन्दोलन और समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में क्रान्तिकारी रणनीतिक वर्ग मोर्चे में शामिल हर वर्ग को नुकसान पहुंचाएगा और अभी पहुंचा भी रहा है।
परन्तु हमारे पटना के दोन किहोते लेखक महोदय को चूंकि बेहद ‘जल्द’ क्रान्ति करनी है तो उन्हें मार्क्सवादी विज्ञान के नज़रिये की ज़रूरत नहीं है! पीआरसी सीपीआई (एमएल) समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम को स्वीकार करता है और भारत में समाजवादी क्रान्ति की मंजिल मानता है लेकिन उनके नेता महोदय यहां जनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम से भी पीछे जाकर पूंजीवादी ज़मीन्दारवाद (capitalist landlordism) और कुलकों व धनी किसानों की जनविरोधी मुनाफाखोरी की वकालत कर रहे हैं।
अब इस सवाल पर आते हैं कि क्या कुल उपज की ख़रीद की मांग अपने आप में पूंजीवादी व्यवस्था के सीमान्तों का अतिक्रमण करती है, और, क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन वास्तव में ऐसी कोई मांग उठा रहा है? यानी, पटना के दोन किहोते के इस दावे की पड़ताल करते हैं कि क्या लाभकारी मूल्य की मांग का कोई ‘नया रूप’ पैदा हो गया है!
क्या कुल उपज के ख़रीद की मांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के सीमान्तों का अतिक्रमण करती है?
लेखक महाशय का यह कहना भी कि खरीद की गारण्टी की मांग पूंजीवाद के बाज़ार के नियमों के खिलाफ़ जाती है, एकदम कोरी बकवास बात है। किसी व्यक्ति को मार्क्सवाद का ‘क ख ग’ न पता हो और वह किसी छोटे पूंजीपति वर्ग के आन्दोलन को इस प्रकार ‘भावी शासक’ वर्ग की तरह ‘नेतृत्व’ देने के लिए मचल जाए, तब जो नतीजा सामने आता है, हम उसी का नमूना मॉडल यहां देख रहे हैं!
यह जनाब कहते हैं कि अगर सरकार पूंजीवाद के भीतर ऐसा कर दे तो यह पूरी व्यवस्था को डांवाडोल कर देगा और पूरी व्यवस्था संकट में आ जाएगी। यह तर्क कि सारी उपज की खरीद की गारण्टी ‘‘व्यवस्था के परखच्चे उड़ा’’ देगी हमारे पटना के दोन किहोते महोदय की कपोल कल्पना है। यह आर्थिक संकट और उसके राजनीतिक संकट में तब्दील होने, उसके क्रान्तिकारी संकट में तब्दील होने की बेहद बचकानी पेशकश है और लेनिन के क्रान्तिकारी संकट की अवधारणा से भी इसका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है।
अव्वलन तो समूची फसल की सरकारी खरीद की मांग को धनी किसान आन्दोलन द्वारा समूचे किसान आबादी की मांग के रूप में पेश भी नहीं किया गया है। लेकिन हमारे लेखक महोदय को क्रान्ति करने की जल्दी के साथ ही इस आन्दोलन की गोद में बैठने की भी ज़बरदस्त जल्दी मची है! इसलिए वह ऐसा तर्क गढ़ते हैं।
बहुत-से ऐसे कृषि उत्पाद हैं जो अलग-अलग प्राकृतिक व ऐतिहासिक रूप से निर्धारित आर्थिक कारकों के चलते मुक्त बाज़ार में काफी ऊंचे दाम पर बिकते हैं और सरकार द्वारा उसकी कीमतों के निर्धारण और साथ ही उस कीमत पर समूचे उत्पाद की ख़रीद की कोई मांग धनी किसान व कुलक वर्ग नहीं उठाता है। वजह यह है कि अन्तरराष्ट्रीय और साथ ही राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी जो कीमतें बाज़ार की आर्थिक गति से निर्धारित होती है, वह काफी ऊंची होती है और अक्सर उतार-चढ़ाव के कारण और भी ऊपर हो जाती है। सरकार वैसी कीमत न तो निर्धारित कर सकती है और न ही करेगी और इसीलिए धनी किसान-कुलक वर्ग भी कभी ऐसी मांग नहीं उठाता है और वहां पर अपनी पूंजी की स्वतंत्रता की पुरज़ोर तरीके से हिमायत करता है।
दूसरी बात, यह ऐसी कोई मांग भी नहीं है जिससे की पूंजीवादी व्यवस्था बेनकाब हो और अपने असम्भाव्यता की बिंदु तक पहुंच जाए। हमारे पीआरसी के लेखक महोदय को लगता है कि केवल सर्वहारा राज्य ही किसानों को समूचे उत्पाद के ख़रीद की गारण्टी दे सकता है (हालंकि सोवियत समाजवाद के पूरे दौर में भी कभी भी सोवियत राज्य ने समूचा कृषि उत्पाद नहीं ख़रीदा था और न ही ऐसी कोई गारण्टी दी थी)। लेकिन राजनीतिक संकट के दौरों और आपात स्थितियों में और पूंजीपति वर्ग की तानाशाही के विशिष्ट रूपों के पैदा होने की सूरत में पूंजीवादी राज्य भी सारी फसल खरीद सकता है और इससे पूंजीवाद की सेहत पर कोई असर भी नहीं पड़ता है। तमाम युद्ध अर्थव्यवस्थाओं के दौरान पूंजीवादी देशों ने ऐसा किया है, तमाम बोनापार्तवादी पूंजीवादी सत्ताओं ने और निकोस पूलान्तज़ास के शब्दों में ”पूंजीपति वर्ग की तानाशाही के विशिष्ट रूपों” (exceptional forms of bourgeois dictatorship) वाले कई राज्यों ने भी मुक्त व्यापार व बाज़ार की व्यवस्था को अलग-अलग मात्रा में बाधित किया है और राजकीय इजारेदार पूंजीवाद को स्थापित किया है। उत्पादन सम्बन्धों और राज्यसत्ता के चरित्र की जगह विनिमय सम्बन्धों पर ज़ोर देने वाली समझदारी ही इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि यदि मुक्त व्यापार मौजूद नहीं है तो पूंजीवाद ही सम्भव नहीं है। अस्थायी तौर पर मुक्त व्यापार को बाधित या समाप्त कर देने वाला राजकीय इजारेदार पूँजीवाद भी पूँजीवाद ही होता है। मुक्त व्यापार को स्वयं पूंजीवादी राज्य बाधित कर सकता है और इतिहास में कई दफा ऐसा हुआ भी है। पहले विश्व युद्ध के समय जर्मनी में वाइमर रिपब्लिक ने युद्ध अर्थव्यवस्था के दौरान इस नीति को लागू किया।
हालांकि लेखक महोदय ऐसे सभी प्रश्नों पर केवल अमूर्त बातें करते हैं ताकि आलोचना होने पर फट से बच निकल सकें! इसी तरह के बेसिर-पैर के तर्क हमारे पटना के मास्टरजी और उनके “अतिक्रान्तिकारी” शागिर्दों ने रोज़गार की गारण्टी के सवाल पर हमसे चली बहस के दौरान भी रखे थे। हैरत की बात है कि तब “क्रान्ति को आतुर” यह जमावड़ा राज्य से रोज़गार गारण्टी के कानून की मांग को ग़लत बता रहा था और कानून मांगने को ही सुधारवाद का नाम दे रहा था और अब ज़बरदस्त यू-टर्न लेते हुए, जिससे कि इस जमावड़े का विचारधारात्मक-राजनीतिक संतुलन भी बिगड़ गया है, यह मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन द्वारा लाभकारी मूल्य की मांग को कानूनी दायरे में लाने की बात कर रहा है और इसके ज़रिये व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिंदु तक पहुंचाने की बात कर रहा हैं! तब उनके अनुसार कानून की मांग करना ही सुधारवाद था, लेकिन अब यह क्रान्तिकारिता की निशानी बन गया है! पुरानी बातों से पलटते जाना और चौर्य-चिन्तन और चौर्य-लेखन करना पीआरसी के लेखक महोदय की पुरानी मासूम अदाओं में शुमार है। इसके अलावा, पूंजीवादी व्यवस्था के आर्थिक संकट की यह समझदारी ही बेहद मज़ाकिया है। राज्य द्वारा कुलकों को संरक्षण मिलना, कॉरपोरेट को समर्थन मिलना या जनता के ऊपर महंगाई का बोझ पड़ना अपने आप में आर्थिक संकट का कारण नहीं होता है, हां, यह संकट को तीव्र ज़रूर कर सकता है। आर्थिक संकट का मूल कारण मुनाफे की दर के गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति होती है।
सच्चाई यह है कि मौजूदा आन्दोलन धनी किसानों-कुलकों को मिलने वाले लाभकारी मूल्य की मांग तक ही सीमित है। इसे हमारे लेखक महोदय ने जानबूझकर और ज़बरदस्ती खींच-तान करके किसानों द्वारा समूची फसल की ख़रीद की गारण्टी की मांग तक ला दिया है। मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की ऐसी कोई मांग है ही नहीं कि उन्हें समूची उपज की कुल सरकारी ख़रीद की गारण्टी मिले। लेखक महोदय बेजा इस आन्दोलन के प्रवक्ता बनने का प्रयास कर रहे हैं।
इस आन्दोलन की मूल मांग यही है कि लाभकारी मूल्य को क़ानूनन अनिवार्य बना दिया जाए। क्योंकि खुद कई धनी किसान तमाम कॉरपोरेट घरानों से क़रार करते हैं, जहां उन्हें लाभकारी मूल्य से भी ऊंची कीमतें मिलती हैं। तम्बाकू से लेकर पॉप्लर तक तमाम ऐसे उत्पाद हैं जिन्हें आज भी धनी किसान मण्डियों के लिए नहीं बल्कि सीधे निजी व्यापारियों के लिए पैदा करते हैं। वैसे, यह तभी साफ़ हो गया था जब अखिल भारतीय किसान सभा के नेता वीजू कृष्णन ने कहा था कि सरकार अगर लाभकारी मूल्य को निजी खरीदारों के लिए भी बाध्यताकारी बना दे तो उन्हें बाकी कानूनों से कोई आपत्ति नहीं है और न ही कारपोरेटों द्वारा ख़रीद पर कोई एतराज़ है।
हाल ही में किसान आन्दोलन के नेता जोगिन्दर सिंह उग्राहां और दर्शन पाल ने भी यही बात दोहराई है कि बस अगर लाभकारी मूल्य की कानूनी गारण्टी मिल जाए तो वे दिल्ली से चले जाएंगे, बाकी दो कानूनों को हटाने की भी आवश्यकता नहीं है! खुद धनी किसानों का एक तबका आज भी कॉरपोरेट घरानों के साथ व्यापार करता है जहां उसे लाभकारी मूल्य से भी अधिक कीमत मिलती है और वह लाभकारी मूल्य पर सरकार को बेचने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है।
ऐसी बात कहना कि धनी किसान समस्त कृषि उत्पादों की सरकार द्वारा पूर्ण ख़रीद की मांग उठा रहे हैं, धनी किसान वर्ग के वर्ग चरित्र को ही न समझने के समान है। धनी किसान वर्ग पूंजीपति वर्ग है और वह बेशक अपने से बड़ी पूंजी द्वारा उजड़ने के ख़तरे के समक्ष राज्यसत्ता से कुछ संरक्षण की मांग कर सकता है, मसलन अपनी उपज के लिए एक ऊंचे कानूनी फ्लोर लेवल कीमत की। लेकिन वह पूंजी की उस स्वतंत्रता को भी नहीं खोना चाहता है, जो कि कहीं भी ऊंचे दाम हासिल करने और उसे ढूंढने की उसकी आज़ादी को बाधित करे।
ऐसी मांग न तो धनी किसान व कुलक वर्ग कर रहा है और न ही करेगा। वह ऊंचे लाभकारी मूल्य चाहता है और चाहता है कि ये लाभकारी मूल्य निजी कारपोरेट ख़रीदारों के लिए भी बाध्यताकारी हों। यदि कोई निजी ख़रीदार उन्हें इस लाभकारी मूल्य से ऊंची कीमतें देता है, तो उसे लेने की आज़ादी और विकल्प को भी वे छोड़ना नहीं चाहते हैं। लेकिन राजकीय संरक्षण के तौर पर वे दाम के लिए एक ऐसा फ्लोर लेवल चाहते हैं जो कि उन्हें बेशी मुनाफा मुहैया कराता रहे।
भारत में आज धनी किसान बड़ी कॉरपोरेट पूंजी के खिलाफ़ संरक्षण के रूप में राज्य से लाभकारी मूल्य की गारण्टी चाहता है। हमने पीआरसी की आलोचना में इस पर विस्तार से बात रखी थी कि धनी किसानों-कुलकों द्वारा मांगा जा रहा यह राजकीय संरक्षण वही है जो कि पूंजीवाद में अपेक्षाकृत छोटी पूंजी हमेशा ही अपेक्षाकृत बड़ी पूंजी के समक्ष मांगा करती है। स्वयं कई देशों का बड़ा पूंजीपति वर्ग भी अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में उससे बड़ी साम्राज्यवादी पूंजी के समक्ष अपने राज्य से संरक्षण मांगता है जैसे कि ऊंचे टैरिफ, आयात प्रतिस्थापन, आदि। यह पूँजीपति वर्ग का आम चरित्र होता है।
हमने पिछले लेख में भी यह स्पष्ट किया था:
”अपने से बड़े और ताकतवर प्रतिस्पर्द्धी के विरुद्ध वह (पूंजीपति वर्ग) हमेशा अपनी राज्यसत्ता से सरंक्षण की माँग और अपेक्षा करता है। छोटे और मंझोले पूँजीपति वर्ग की तो आम तौर पर हमेशा ही यह माँग होती है कि उसे राजकीय संरक्षण मिले क्योंकि उसे पता होता है कि वह खुले बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा में बड़ी पूँजी के समक्ष नहीं टिक सकता है। लेकिन अपने से निचले वर्गों के लिए वह किसी भी प्रकार के संरक्षण के ख़िलाफ़ होता है!
”मिसाल के तौर पर, मज़दूरों को श्रम क़ानूनों द्वारा मिलने वाले क़ानूनी अधिकार भी एक प्रकार का राजकीय संरक्षण है, जैसे कि न्यूनतम मज़दूरी का क़ानूनी अधिकार (अभी यहाँ इस मसले पर बात करने की कोई प्रासंगिकता नहीं है कि ये श्रम क़ानून कितने लागू होते हैं, क्योंकि इन क़ानूनों का होना भी पूँजीपति वर्ग को गंवारा नहीं है)। खेतिहर मज़दूरों को तो श्रम क़ानूनों से मिलने वाले तमाम क़ानूनी अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं। खेतिहर मज़दूरों को इस प्रकार के अधिकार मिलने के धनी और उच्च मध्यम किसान सीधे-सीधे मुख़ालफ़त करते हैं। मनरेगा योजना का भी धनी किसान शुरू से ही विरोध करते रहे हैं क्योंकि इससे ग्रामीण मज़दूरी दर बढ़ सकती है और अक्सर बढ़ती भी है। मनरेगा योजना भी एक राजकीय संरक्षण ही है।” (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना‘)
एक कम्युनिस्ट केवल उस राजकीय संरक्षण का समर्थन करता है जिसका कुछ भी लाभ मज़दूर वर्ग और आम ग़रीब मेहनतकश आबादी को मिलता हो और उस राजकीय संरक्षण का विरोध करता है जो पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से को मिलता है। यह राजकीय संरक्षण व कल्याणवाद के प्रति कम्युनिस्टों का आम रणकौशल है कि वह आम मेहनतकश ग़रीब आबादी को लाभ देने वाले संरक्षण का बाशर्त समर्थन करते हुए और उसके लिए लड़ते हुए यह प्रचार करता है कि इससे भी केवल कुछ तात्कालिक राहत मिलेगी और वह भी पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा अन्य रास्तों से जल्द ही छीन ली जाएगी और दूरगामी लड़ाई समूची पूंजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण की है।
साथ ही, कम्युनिस्ट हर उस राजकीय संरक्षण का विरोध करते हैं, जो कि पूंजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से के लिए दिया जाता है। चाहे वह कारपोरेट घरानों को मिलने वाले टैक्स हॉलीडे, रियायती बिजली, पानी और ज़मीन हो या फिर धनी किसानों व कुलकों को मिलने वाला लाभकारी मूल्य। यदि पूंजीपति वर्ग के दो धड़े किसी राजकीय संरक्षण को लेकर आपस में भिड़ जाएं, तो उसमें ”राजनीतिक रूप से सोचने” के नाम पर छोटे वाले का समर्थन करने का तर्क और कुछ नहीं बल्कि वर्ग सहयोगवाद, पुछल्लावाद और आत्मसमर्पणवाद है।
लेकिन धनी किसानों की गोद में बैठने को आतुर पटना के वामपन्थी दोन किहोते महोदय वर्ग विश्लेषण को भूल जाते हैं या फिर मामला यह है कि वह भूले नहीं हैं, बल्कि उन्होंने कभी वर्ग विश्लेषण सीखा ही नहीं था। इस विषय के बारे में जितनी दरिद्र समझदारी लेखक महोदय ने पेश की है उससे यह साफ़ है कि उन्होंने मार्क्सवाद के बुनियादी लेखों का भी ठीक से अध्ययन नहीं किया है।
दरअसल, लेखक महोदय जब धनी किसान आन्दोलन की मांगों में कोई भी प्रगतिशील नारा नहीं ढूंढ पाए तो उन्होंने लाभकारी मूल्य और सरकारी खरीद की कानूनी मांग को पूँजीवाद के लिए संकट पैदा करने वाली मांग और ‘नयी और पुरानी लाभकारी मूल्य की मांग’ का बेतुका और मज़ाकिया होने की हद तक मूर्खतापूर्ण सिद्धांत अपने से गढ़ लिया। इस मांग को क्रान्तिकारी मांग साबित करने के लिए उन्होंने जो द्रविड़ प्रणायाम किये है उनमें कई तो वे पिछली बार कर चुके हैं और इस बार भी उसे फिर से और पहले से भी ज़्यादा अश्लील तरीके से दोहराने में लगे हैं।
- ”क्रान्तिकारी अन्तर्य” और ”प्रतिक्रियावादी बाहरी खोल” का बोगस सिद्धांत व धनी किसानों की पूंछ संवारने के लिए वर्ग विश्लेषण के नाम पर पीआरसी द्वारा समाजशास्त्रीय व्याख्या
लाभकारी मूल्य की मांग के पीछे के “क्रान्तिकारी” तर्क को स्थापित करने के बाद लेखक महोदय मौजूदा आन्दोलन के चरित्र में भी “क्रान्तिकारी” सम्भावनाएँ तलाशने निकल पड़ते हैं। साधू गोरेन्फ्लो की तर्ज़ पर ही हमारे लेखक महोदय लाभकारी मूल्य की मांग को पूंजीवादी व्यवस्था की चौहद्दियों का अतिक्रमण करने वाली मांग घोषित करने के बाद मौजूदा किसान आन्दोलन के चरित्र को भी अपने ‘दैवीय कर्मकाण्ड’ से क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्न सिद्ध कर देते हैं! यह ‘दैवीय कर्मकाण्ड’ इस आन्दोलन को ”अन्तर्य” और उसके ”बाहरी खोल” में विभाजित कर पेश किया जाता है।
‘‘..the inner contradiction (between its kernel and its form) is imparting to the movement a transitional phase which has its roots in its own interior self – pushing forward against its own outer self –transforming it from within from an old and predominantly kulak or rich peasants movement into a phase of new awakening thus setting its new character in the mould of a violent atmosphere giving rise to “ruptures” between old and new as is being reflected in the changing political and social behaviour of this movement.” (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
हमारे लेखक महोदय, जिनमें गोरेन्फ्लो की आत्मा प्रविष्ट कर चुकी है, मार्क्स द्वारा हेगेलियन द्वन्द्ववाद के अन्तर्य को उसके भाववादी खोल से बचाने के प्रयास के रूपक को अपने लेख में किसान आन्दोलन के अन्तर्य को उसके बाहरी खोल से अलग करने के रूप में इस्तेमाल करने और उसके आधार पर बेहद मूर्खतापूर्ण अमूर्तन करने का जोकरी भरा प्रयास करते हैं। लेकिन एकदम साफ़ है कि वह खुद इस रूपक का मतलब नहीं समझते हैं। नतीजतन, उनका यह प्रयास एक बौद्धिक प्रहसन बनकर रह जाता है; यह कुछ और नहीं तो कुछ हास्य अवश्य पैदा करता है! आइये देखते हैं यह करामात हमारे दोन किहोते दि ला पटना ने किस प्रकार की है।
‘अन्तर्य’ या kernel का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है सारवस्तु। मार्क्स बताते हैं कि हेगेलीय दर्शन की तार्किक अन्तर्वस्तु (rational kernel) है द्वन्द्ववाद, जबकि उसका एक रहस्यात्मक बाह्यावरण (mystical shell) है, जो कि हेगेलवादी भाववादी दार्शनिक रूप, जिसमें यह द्वन्द्वात्मक पद्धति, कैद है और अपने सिर के बल खड़ी है। कोई भी व्यक्ति देख सकता है कि ‘अन्तर्य’ का अर्थ है सारवस्तु या अन्तर्वस्तु, जबकि बाह्यावरण का अर्थ है, रूप (form)। अब हमारे लेखक महोदय इस रूपक में शामिल इन श्रेणियों के अर्थ को नहीं समझता और अपने बौद्धिक आभामण्डल के निर्माण के लिए एक बौना और प्रहसनात्मक प्रयास करता है। देखते हैं दोन किहोते दि ला पटना ने यह प्रयास कैसे किया है।
किसान आन्दोलन की सारवस्तु क्या है और यह कैसे तय होगी? यह आन्दोलन के वर्ग चरित्र से निर्धारित होता है। आन्दोलन का वर्ग चरित्र आन्दोलन के नेतृत्व और उसके मांगपत्रक से ही निर्धारित किया जा सकता है। इस आन्दोलन के नेतृत्व में कौन है? इस आन्दोलन को नेतृत्व देने वाली तमाम यूनियनों का वर्ग चरित्र पूर्णत: धनी किसानों के वर्ग का है। खुद उग्राहां यूनियन ने हाल ही में साफ़ कर दिया है कि वे सरकार द्वारा पहले कानून को वापस लेने की सूरत में यानी लाभकारी मूल्य सम्बन्धी कानून को वापस लेने की सूरत में आन्दोलन को वापस लेने को तैयार हैं। ज़ाहिर है, आन्दोलन शुरू से ही पूर्णत: इसी पर केन्द्रित था, चाहे शुरू में कुलक नेतृत्व ने इस सच्चाई से चाहे जितना भी इंकार किया हो। इस आन्दोलन में क्या गरीब किसानों की और खेतिहर मज़दूरों की मांगें शामिल हैं? नहीं। फिर इस आन्दोलन का अन्तर्य क्रान्तिकारी कैसे है?
क्या मांगपत्रक का चरित्र कहीं से भी क्रान्तिकारी है? नहीं! पूरा मांगपत्रक और उसमें भी जिन मांगों पर धनी किसान-कुलक नेतृत्व शुरू से विशेष तौर पर ज़ोर देता रहा है, उसमें कुछ भी क्रान्तिकारी नहीं है, उल्टे वह खेतिहर बुर्जुआजी के विशेषाधिकारों और संरक्षण को बचाने के लिए उठाई गई मांगें हैं। इसके अलावा, मज़दूरों और विशेष तौर पर खेत मज़दूरों की मांगों और साथ ही ग़रीब किसानों की मांगों को भी उसमें शामिल नहीं किया गया। जब खेत मज़दूरों की मांगों को शामिल करने का सवाल उठाया गया तो कुलकों का जवाब था कि ”हम ही तो उन्हें रोज़गार और रोटी देते हैं, हम ही नहीं बचेंगे तो खेत मज़दूर कैसे बचेंगे?” एक बिल्कुल टिपिकल जवाब जो तमाम पूंजीपति देते हैं!
तो न तो नेतृत्व में कोई क्रान्तिकारी चरित्र है और न ही उसके मांगपत्रक में, और ये ही वे दो तत्व हैं, जिनसे किसी भी आन्दोलन की राजनीतिक सारवस्तु निर्धारित होती है। यानी, अन्तर्य या सारवस्तु में कुछ भी क्रान्तिकारी नहीं है।
उल्टे यह ज़रूर कहा जा सकता है कि बाहरी खोल में कुछ प्रतीतिगत प्रगतिशील तत्व थे, क्योंकि कुछ नरोदवादी कम्युनिस्टों की यूनियनें भी आन्दोलन में महती भूमिका में शामिल थीं। अक्सर छोटे पूंजीपतियों के बड़े पूंजीपतियों के साथ अन्तरविरोध के नतीजे के तौर पर जो आन्दोलन होते हैं, वे कुछ प्रतीतिगत तौर पर क्रान्तिकारी व प्रगतिशील नारों व प्रतीकवाद का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन जैसे ही सर्वहारा वर्ग का प्रश्न आता है, तो छोटे पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनी मूल अन्तर्वस्तु या वर्ग चरित्र को प्रदर्शित करने में वक़्त नहीं लगता, जैसा कि इस आन्दोलन के दौरान कई बार देखा जा चुका है और अब ‘कैरवां’ जैसे पोर्टल भी इस सच्चाई को छिपा नहीं पा रहे हैं, जो कि कुलकों की ट्रॉली की आवाज़ सुनकर सन्निपात की अवस्था में पहुंच गये थे:
हालांकि, इस प्रकार के लिबरल पोर्टल अभी भी मौजूदा आन्दोलन के वर्ग चरित्र पर परदा डालने का काम ही ज़्यादा करते हैं और जब कोई सच्चाई छलक कर बाहर आ ही जाती है, तो उस पर कुछ टीका-टिप्पणी कर दिया करते हैं, क्योंकि इसके बिना उनकी विश्वस्नीयता ही ख़तरे में पड़ जाएगी।
तो हम देख सकते हैं कि आन्दोलन के अन्तर्य में कुछ भी क्रान्तिकारी नहीं था, हालांकि उसके बाहरी खोल में कुछ प्रतीतिगत तौर पर क्रान्तिकारी तत्व थे। तो यहां पर हेगेल की मार्क्स द्वारा आलोचना से रूपक उधार लेकर हास्यास्पद अमूर्तन करने के चक्कर में पटना के मास्टरजी सिर के बल खड़े हो गये हैं।
दरअसल, आन्दोलन के अन्तर्य और उसके बाहरी खोल में नहीं बल्कि ये दरारें मास्टरजी के दिमाग में पड़ रही हैं जो फन्तासी की दुनिया में विचरण करते-करते यथार्थ से कट जाते हैं! खुद को रोमांचित करने के लिए हमारे दोन किहोते दी ला पटना बार-बार यह जोड़ देते हैं कि वे भावी शासक वर्ग की तरह इस आन्दोलन से संवाद कर रहे हैं या इसमें हस्तक्षेप कर रहे हैं! अपनी अवसरवादिता और धनी किसानों की पूंछ पकड़ने की अदा को अपने कोचिंग संस्थान के छात्रों के सामने दिलकश बनाने का इतना भोंडा प्रयास नहीं करना चाहिए कि किसी भी सामान्य मस्तिष्क रखने वाले व्यक्ति की हंसी छूट जाए!
बहरहाल, जैसा कि हमने पहले बताया, इस आन्दोलन की सारवस्तु कतई क्रान्तिकारी नहीं है हालांकि कुछ वामपन्थी यूनियनों और एक हद तक छोटे किसानों की मौजूदगी की वजह से उसके बाहरी रूप में यह प्रतीत हो सकता है कि आन्दोलन का चरित्र प्रगतिशील है। दूसरी बात, किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र उसमें भाग लेने वाली आबादी से तय नहीं होता है वरना पीआरसी के लेखक महोदय राम मन्दिर आन्दोलन को भी मेहनतकश-वर्गीय आन्दोलन मानने को मजबूर हो जाएंगे, क्योंकि उस प्रतिक्रियावादी आन्दोलन में भी बड़े पैमाने पर मजदूरों और टुटपुंजिया वर्गों से भागीदारी हुई थी। निश्चित तौर पर, मौजूदा कुलक आन्दोलन कोई राम जन्मभूमि आन्दोलन नहीं है और यह बात सिर्फ यह समझाने के लिए है कि किसी आन्दोलन के चरित्र का फैसला उसमें शामिल हो रही भीड़ से तय नहीं होता। जो यह नहीं समझता वह इतिहास में विचारधारा व राजनीति की भूमिका को नहीं समझता है।
जैसा कि आप देख सकते हैं कि ‘अन्तर्य’ और ‘बाहरी खोल’ के बारे में विचित्र प्रकार के हास्यास्पद अमूर्तन करने और उसे किसान आन्दोलन के अपने विश्लेषण पर आरोपित करने के बावजूद यह हमारे मास्टरजी हैं जो प्रतीतिगत यथार्थ को सारभूत यथार्थ समझ बैठे हैं या समझने का ढोंग कर रहे हैं और इस ढोंग को ढांपने के लिए इन्होंने मार्क्स के लेखन से एक रूपक उधार लेकर प्रहसनात्मक अमूर्तन करने का प्रयास किया है। इन्हें ढंग से अन्तर्य और बाह्यावरण के बीच का अन्तर भी ठीक से पता नहीं है। यदि होता तो इस प्रकार की बहकी-बहकी बातें नहीं करते।
इस तर्क से ही जुड़ा उनका यह दावा भी है कि वह असल में समाजवादी क्रान्ति के अधिकतम कार्यक्रम के अनुरूप इस आन्दोलन में सर्वहारा नज़रिये से हस्तक्षेप कर रहे हैं। लेकिन यहां भी हमारे लेखक महोदय एकदम बकवास कर रहे हैं। हम ऊपर यह दिखला चुके हैं कि वह और कुछ नहीं बल्कि मौजूदा आन्दोलन में धनी किसान वर्ग की आर्थिक मांग का समर्थन ही कर रहे हैं। वह भी ऐसी मांग का जो शुद्धतः आम ग़रीब मेहनतकश जनता के खि़लाफ़ जाती है। यह तो समाजवादी क्रान्ति के न्यूनतम कार्यक्रम के अनुरूप भी कोई मांग नहीं हो सकती है। न्यूनतम कार्यक्रम के तहत भी सर्वहारा वर्ग जनवादी व आम मेहनतकश जनता की सामाजिक-आर्थिक मांगों पर आन्दोलन खड़ा करता है। लेकिन यहां तो मसला यह है भी नहीं। लाभकारी मूल्य की मांग सीधे-सीधे खेतिहर बुर्जुआजी की आर्थिक मांग है।
हमने पिछले लेख में ही कहा था कि निश्चित ही
”शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के आपसी अन्तरविरोधों के तीख़े होने पर सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश वर्ग अपने वर्ग हितों के मद्देनज़र कुछ स्थितियों में किसी एक धड़े के साथ अल्पकालिक मुद्दा–आधारित रणकौशलात्मक मोर्चा बना सकते हैं, लेकिन वह भी तब सम्भव है जब कि दोनों पक्ष संयुक्त चार्टर में एक-दूसरे की कुछ माँगों को शामिल और स्वीकार करने के लिए तैयार हों और दूसरा, जब कि मुद्दा शुद्धत: राजनीतिक जनवाद की लड़ाई का हो। लेकिन जब धनी फ़ार्मर-कुलक पक्ष सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसान आबादी की किसी माँग को अपने चार्टर में जगह देने को तैयार ही नहीं हैं और यह लड़ाई ही धनी फ़ार्मर-कुलक वर्ग के आर्थिक वर्ग हितों की है, तो साफ़ है कि यहाँ कोई रणकौशलात्मक मोर्चा भी बनाना सम्भव नहीं है, क्योंकि सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी से ऐसी माँग करना उनसे अपने वर्ग हितों को तिलांजलि देकर धनी किसानों-कुलकों का पिछलग्गू बनने की और अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का आत्मसमर्पण कर देने की माँग होगी।” (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना‘)
- किसान आबादी के वर्ग विभेदीकरण के प्रश्न और उस पर पीआरसी की लोपापोती और गोलमाल के विषय में
पीआरसी सीपीआई (एमएल) की हमारी पिछली आलोचना में हमने यह सवाल उठाया था कि इनके द्वारा पूरे लेख में अपनी सहूलियत के अनुसार बड़े अवसरवादी तरीक़े से कहीं किसान आबादी को वर्ग विभेदीकृत बताया गया है और कहीं इसे एकाश्मी तौर पर पेश किया गया है। हमारे द्वारा पूछे गए इस सवाल का जवाब देने की जगह लेखक महोदय ने इस बार अपने लेख व पोस्ट से उन हिस्सों को उद्धृत किया है जिनमें उनके द्वारा किसान आबादी को वर्गों में विभाजित करके पेश किया गया था और इस रूप में मौजूदा लेख में भी पुराने लेख के तर्क को दोहरा दिया है, जबकि प्रश्न उनके द्वारा हमारे द्वारा पेश आलोचना के जवाब का था। लेकिन इस बेशर्मी भरे दुहराव में भी वह जो तर्क पेश करते हैं उसका वर्ग विश्लेषण से कोई लेना देना नहीं है।
तमाम लीपापोती के बावजूद लेखक महोदय मानते हैं कि चूंकि धनी किसान भी कॉरपोरेट पूंजी से बर्बाद हो सकता है और वह भी शोषित है इसलिए वह भी मौजूदा आन्दोलन में सहयोगी है। इस पूरे तर्क का मार्क्सवाद-लेनिनवाद से कोई लेना-देना नहीं है। यह टुटपुंजिया सुधारवादी तर्क है। हमने पिछले लेख में ही स्पष्ट किया था कि
”आज पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में धनी किसानों और कुलकों का कोई भी हिस्सा मज़दूर वर्ग या ग़रीब तथा सीमान्त किसानों के साथ नहीं आ सकता, ठीक वैसे ही जैसे बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा नहीं आ सकता। आज अगर कोई आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से से रणनीतिक मोर्चे की बात करता है और वह भारत को पूँजीवादी देश भी मानता है और यहाँ समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल को भी मानता है, तो कहना पड़ेगा कि वह जाने या अनजाने या किसी प्रकार की सियासी मौक़ापरस्ती करते हुए मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने और उसे धोखा देने का काम कर रहा है! धनी किसान-कुलक वर्ग यानी खेतिहर पूँजीपति वर्ग की छोटे और निम्न-मँझोले किसानों से कभी एकता नहीं बन सकती क्योंकि उनके वर्ग हित ही अलग हैं! बल्कि सच्चाई यही है कि गाँवों में खेतिहर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश ग़रीब किसान वर्ग का मुख्य वर्ग शत्रु ही यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग है जो मुनाफ़े, लगान व सूद के ज़रिये उसे लूटता है और उसे उजाड़ने के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार है। स्पष्टत: पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय वर्ग संघर्ष नहीं बल्कि वर्ग सहयोग की कार्यदिशा पेश कर रहे हैं, शोषित वर्गों के लिए जिसका मतलब हमेशा ही वर्ग पुछल्लावाद की कार्यदिशा होती है।‘’(वारुणी, वही)
वर्ग-सहयोग की कार्यदिशा अपनाने का ही एक अजीबोग़रीब परिणाम लेखक महोदय द्वारा वर्गों को परिभाषित करने की पद्धति में भी झलकता है। पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक द्वारा धनी किसान आबादी को अमीर, बेहद अमीर और बेहद बेहद अमीर के प्रवर्गों में विभाजित किया गया है। दरअसल, यह बौद्धिक कलाबाज़ी धनी कुलकों-किसानों की गोद में बैठने के लिए की गयी है, जैसा कि हम आगे देखेंगे। लेकिन क्या आय के अन्तर के आधार पर वर्गों को परिभाषित किया जा सकता है और उसके आधार पर वर्ग संश्रय की कार्यदिशा पेश की जा सकती है? नहीं!
यह मार्क्सवादी पद्धति नहीं बल्कि बुर्जुआ समाजशास्त्रीय और भोण्डी अर्थवादी पद्धति है जोकि उत्पादन सम्बन्धों, उत्पादन के साधनों तक पहुँच और उजरती श्रम के शोषण के पैमानों के अनुसार नहीं बल्कि आय के अनुसार वर्गों को विभाजित और परिभाषित करती है। इस प्रकार तो न सिर्फ खेतिहर पूंजीपति वर्ग को बल्कि पूरे पूंजीपति वर्ग को भी अमीर, बेहद अमीर और बेहद बेहद अमीर हिस्सों में बांटा जा सकता है! क्या उसके आधार पर कम अमीर पूंजीपतियों से वर्ग संश्रय बनाने और उन्हें समाजवाद पर राज़ी करने के एडवेंचर में उतरने के लिए हमारे पीआरसी के मास्टरजी तैयार हैं, क्योंकि सिर्फ धनी किसान–कुलक ही नहीं बल्कि छोटे पूंजीपूति वर्ग के सभी हिस्से नवउदारवाद के दौर में बड़ी इजारेदार पूंजी के समक्ष संकट का सामना कर रहे हैं? मसलन, अपने तर्क से उन्हें छोटे कारखानेदारों, दलालों, व्यापारियों आदि को भी साथ लेना चाहिए क्योंकि उनके अनुसार उपरोक्त संकट के कारण वे भी पूंजीवाद के खिलाफ़ संघर्ष में शामिल हो जाएंगे? जैसा कि आप देख सकते हैं यह पूरा तर्क ही मज़ाकिया और वाहियात है।
वर्गों को परिभाषित करने का यह पैमाना नहीं होता है कि कौन कितना कमाता है बल्कि यह इससे तय होता है कि उत्पादन सम्बन्धों की व्यवस्था में उसका क्या स्थान है, वह श्रम शक्ति का शोषण करता है या नहीं। यह मार्क्सवाद का ‘क ख ग’ है। लेकिन मास्टरजी का पुराना रिकॉर्ड देखते हुए हमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उन्हें मार्क्सवाद का इमला भी नहीं आता, जैसा कि हम आगे भी आपको दिखलाएंगे। आय के अनुसार वर्गों की विभाजक रेखा (line of demarcation) खींचना समाजशास्त्रीय और भोण्डी अर्थवादी पद्धति है न कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी पद्धति। यह वितरण की संरचना व सम्बन्धों को प्रदर्शित करती है, न कि उत्पादन के सम्बन्धों को, जो कि कुल सामाजिक स्तर पर अन्तत: वितरण के सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं। लेकिन यह समाजशास्त्रीय जालसाज़ी भी लेखक महोदय द्वारा जानबूझकर की गयी है ताकि समाजवादी क्रांति की मंजिल में धनी किसानों के एक हिस्से से मोर्चा बनाने की अपनी वर्ग सहयोगवादी और संशोधनवादी लाइन को सही ठहरा सकें।
भारत में 92 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खुद अपने खेत पर अपने व अपने परिवार के श्रम के साथ उत्पादन करके या दूसरे के खेतों में मज़दूरी कर अपना व अपने परिवार का गुज़ारा करते हैं।वे अपने आर्थिक आधार के लिए नियमित रूप से उजरती श्रम का शोषण नहीं करते हैं। ऊपर के 8 प्रतिशत किसानों में उच्च मध्यम, धनी और अत्यधिक धनी किसान आते हैं। ऊपर की 8 प्रतिशत आबादी की आय श्रमशक्ति के नियमित दोहन से प्राप्त होती है, उनकी पारिवारिक अर्थव्यवस्था का आधार ही उजरती श्रम का शोषण है और इसलिए ही यह पूंजीपति वर्ग का हिस्सा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आय के अनुसार वे कभी अच्छी या बुरी स्थिति में होते हैं क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में यह होता ही है। यह है ठोस भौतिक वर्गीय स्थिति।
क्या समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में ग्रामीण पूंजीपति वर्ग का कोई भी संस्तर महज़ इसलिए सर्वहारा वर्ग के रणनीतिक संश्रय का हिस्सा बन सकते हैं क्योंकि अब कृषि क्षेत्र में उनसे अधिक अमीर कॉरपोरेट घराने प्रवेश कर रहे हैं? पीआरसी सीपीआई (एमएल) के बौद्धिक तौर पर दीवालिया नेतृत्व को यह लगता है कि मौजूदा आन्दोलन के चलते व पूंजीवादी खेती में कॉरपोरेट पूंजी के प्रवेश के चलते यह सम्भावना पैदा हो गयी है। ऐसा तो पूंजीपति वर्ग के सभी अपेक्षाकृत छोटे और मंझोले हिस्सों के साथ होता है और कई बार बड़े पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से के साथ भी होता है। इसके आधार पर वर्ग मोर्चा निर्धारित करना मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण को तिलांजलि देना है। यह कुछ और नहीं वर्ग सहयोगवाद का नारा बुलंद करना है।
गर्मागर्म शब्दों के बीच संशोधनवादी राजनीति की पैरवी कर लेखक महोदय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की कोई समझदारी नहीं है। लाभकारी मूल्य को व्यवस्था-विरोधी मांग करार देकर लेखक महोदय धनी किसान-कुलक आन्दोलन के अंदर भी क्रान्तिकारी सम्भावना देखते हैं और अन्तत: धनी किसानों को भी समाजवाद के लिए लड़ाई का हिस्सेदार मानते हैं। हर वामपन्थी भटकाव अपने विपरीत दक्षिणपंथी संशोधनवादी भटकाव में बदल ही जाता है क्योंकि दोनों के ही मूल में अर्थवाद मौजूद होता है। लेखक महोदय के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।
- चौर्य लेखन में माहिर बचकाने अतिवामपंथी पीआरसी नेतृत्व द्वारा वर्ग सहयोगवाद की वकालत के लिए की गयी मूर्खतापूर्ण राजनीतिक जुमलेबाज़ी
अपने उपरोक्त भोण्डे विश्लेषण को ही आगे बढ़ाते हुए लेखक महोदय हम पर “एलिमेण्टलिज़्म” यानी तत्ववाद का आरोप लगाते हैं। उनके अनुसार हम “राजनीतिक” तौर पर नहीं बल्कि “आर्थिक” तौर पर सोच रहे हैं। वैसे, ‘राजनीतिक तौर पर सोचने’ का नारा आजकल काफी फैशनेबल हो गया है, कुछ वैसे ही जैसे बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में रूस के क्रांतिकारी दायरों में ‘आलोचना की स्वतंत्रता’ का नारा फैशनेबल नारा बन गया था। इस नारे के असली मर्म को लेनिन ने ‘क्या करें’ में उजागर किया है। मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में ‘राजनीतिक तौर पर सोचने’ के आग्रह की वर्गीय सारवस्तु बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ‘आलोचना की स्वतंत्रता’ की अपील के ही समान वास्तव में टुटपुंजिया ही है, सर्वहारा वर्ग की अवस्थिति की जगह धनी किसानों की पूंछ पर लटकने के लिए की जा रही कवायद है और मार्क्सवाद की जगह संशोधनवाद को स्थापित करना है।
वैसे यह विवेचना खुद हमारे लेखक महोदय की है भी नहीं बल्कि उन्होंने पटना के ही एक संजीदा ग्रुप से चुराई है, हालांकि इस संजीदा कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुप की अवस्थिति भी किसान प्रश्न पर ग़लत है। हमने उनकी अवस्थिति की आलोचना यहां पेश की है: (https://www.facebook.com/abhinav.disha/posts/3654855387932240)। लेकिन किसान प्रश्न पर ‘तत्ववाद’, ‘वर्ग अपचयनवाद’ और ‘राजनीतिक रूप से सोचने’ आदि के जुमले के मूल में इसी ग्रुप के लेखन से मास्टरजी द्वारा किया गया चौर्य-लेखन है। अतीत में भी कई बार हमारे पीआरसी के लेखक महोदय चौर्य लेखन की कला का प्रदर्शन कर चुके हैं और रंगे हाथ पकड़े भी जा चुके हैं! वर्षों पहले चार्ल्स बेतेलहाइम की इनके द्वारा लिखित एक आलोचना के मामले में भी इन्होंने बौद्धिक जेबकतरे वाला काम ही किया था। कोचिंग पढ़ाते-पढ़ाते यह महोदय आन्दोलन में भी नोट्स की टीपा-टीपी की उस संस्कृति को लेते आए हैं, जिसका बुर्जुआ शिक्षा में बोलबाला होता है। लेकिन अफ़सोस कि कम्युनिस्ट पोलेमिक्स के मामले में यह चार सौ बीसी की संस्कृति चल नहीं सकती है!
ख़ैर, अब इन महोदय के ‘तत्ववाद’ के आरोप पर आते हैं और यह दिखलाते हैं कि जिन जुमलों को इधर-उधर से यह जनाब उधार लेते हैं, उन्हें खुद ही ढंग से नहीं समझते। इनके हाथ में हर राजनीतिक व विचारधारात्मक शब्द बन्दर के हाथ में उस्तरे के समान होता है और अक्सर उससे मास्टरजी अपनी ही हजामत बना डालते हैं!
हम पर ”एलिमेण्टलिज़्म” यानी तत्ववाद, स्वत:स्फूर्ततावाद और अर्थवाद का आरोप लगाते हुए लेखक महोदय लाभकारी मूल्य को व्यवस्था-विरोधी मांग बताने और धनी किसान आन्दोलन में क्रान्तिकारी सम्भावना देखने तथा अमीर किसानों को भी शोषित बताने के बाद इस आन्दोलन में सर्वहारा वर्ग के सहयोग के तर्क को ‘राजनीतिक’ होने के नाम पर सही ठहराते हैं। आइये, देखते हैं कि राजनीतिक तौर पर सोचने का क्या अर्थ है।
समाजवादी क्रान्ति की मंजि़ल में सर्वहारा वर्ग का तीन वर्गों का रणनीतिक मोर्चा बनता है, जिसमें कि पूंजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा, छोटा या बड़ा शामिल नहीं होता है। इस मोर्चे में शामिल मित्र वर्गों मसलन अर्द्धसर्वहारा, ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों, निम्न मध्य वर्ग आदि के वर्ग हितों की जगह यदि सर्वहारा वर्ग केवल अपने ही आर्थिक वर्ग हितों को वरीयता दे, तो यह मज़दूरवाद (workerism/operaismo) और अर्थवाद की प्रवृत्ति कहलाएगी।
जब भी सर्वहारा वर्ग के आन्दोलन में इस प्रकार की प्रवृत्ति हावी होती है, तो क्रान्तिकारी रणनीतिक वर्ग मोर्चा या तो बन ही नहीं पाता या फिर टूट जाता है। यह राजनीतिक न होकर अर्थवादी तौर पर सोचना कहलाएगा और सर्वहारा वर्ग द्वारा लेनिन के शब्दों में ‘राजनीतिक प्रश्न उठाने की अक्षमता’ को प्रदर्शित करेगा। सर्वहारा वर्ग क्रान्ति के रणनीतिक वर्ग मोर्चे में शामिल मित्र वर्गों की मांगों को कई बार अपनी आर्थिक मांगों के ऊपर वरीयता देता है। यह राजनीतिक तौर पर सोचना है और तत्ववाद, अर्थवाद और मज़दूरवाद का निषेध है।
लेकिन राजनीतिक तौर पर सोचने का यह अर्थ नहीं होता है कि शत्रु वर्गों या उसके इस या उस धड़े की मांगों के पीछे सर्वहारा वर्ग और उसके मित्र वर्गों को ले जाकर खड़ा कर दिया जाय। कई लोग इसी प्रकार ‘राजनीतिक रूप से सोचने’ के नाम पर वर्ग सहयोगवाद, वर्ग आत्मसमर्पणवाद और वर्ग पुछल्लावाद की वकालत कर रहे हैं, क्योंकि सम्भवत: वे फासीवादी उभार से इस कदर पराजयबोधग्रस्त हैं कि जो भी आन्दोलन या जुटान मोदी सरकार की मुख़ालफ़त करता नज़र आता है, उसी में क्रान्तिकारी सम्भावनाएं तलाशने लगते हैं। ऐसे लोगों में से कुछ इस मामले में धनी किसानों-कुलकों व टिकैत जैसे नेताओं में सम्भावनाएं तलाशने तक पहुंचे हैं, तो कुछ अन्य तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी और यहां तक कि उद्धव ठाकरे तक में सम्भावनाएं तलाश करने तक पहुंच गये हैं!
बहरहाल, मौजूदा आन्दोलन में जिस मांग को लेकर संघर्ष चल रहा है वह आम मेहनतकश जनता यानी सर्वहारा वर्ग और साथ ही समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्गों की मांग है ही नहीं, उल्टे वह उनके खिलाफ़ जाती है। वह बड़ी इजारेदार पूंजी की तुलना में अपेक्षाकृत छोटे खेतिहर पूंजीपति वर्ग की मांग, यानी लाभकारी मूल्य की मांग को लेकर चल रहा है, जिसमें आम मेहनतकश आबादी को उसका पिछलग्गू बनाने के अपराध में कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन संलग्न हैं। यहां पर राजनीतिक तौर पर सोचने का एक ही अर्थ हो सकता है: शासक वर्ग के दो धड़ों के टकराव के बीच सर्वहारा वर्ग एक स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति के साथ मेहनतकश वर्गों को उनकी मांगों को सूत्रबद्ध करने, उन पर गोलबन्द और संगठित करने का प्रयास करे और छोटी या बड़ी दोनों ही पूंजी द्वारा शोषण के विरुद्ध अवस्थिति अपनाए। लेनिन की स्पष्ट समझदारी थी कि इजारेदार पूंजी के हाथों गैर-इजारेदार पूंजी की बर्बादी को रोकना मज़दूर वर्ग का काम नहीं है:
“साम्राज्यवाद हमारा उतना ही ‘घातक’ शत्रु है जितना कि पूँजीवाद है। ऐसा ही है। कोई मार्क्सवादी कभी भूलेगा नहीं कि पूँजीवाद सामन्तवाद की तुलना में प्रगतिशील है, और साम्राज्यवाद एकाधिकार-पूर्व पूँजीवाद के मुकाबले प्रगतिशील है। इसलिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध हर संघर्ष का हमें समर्थन नहीं करना चाहिए। हम साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी वर्गों के संघर्ष का समर्थन नहीं करेंगे; हम साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी वर्गों के विद्रोह का समर्थन नहीं करेंगे।” (लेनिन, ‘ए कैरीकेचर ऑफ मार्क्सिज़्म एण्ड इम्पीरियलिस्ट इकोनॉमिज़्म’)
अभिनव ने अपने एक लेख में उचित ही लिखा है:
”राजनीतिक रूप से विचार करने का मतलब है कि हर क्षण की वर्गीय स्थिति (class situation) को समझना। वर्गीय स्थिति का अर्थ है किसी विशेष घटना या प्रक्रिया के बरक्स विभिन्न वर्गों के बीच के सम्बन्धों का संकुल। यह सम्बन्ध किसी विशेष वर्गीय स्थिति में शामिल विभिन्न वर्गों के हितों के बीच सम्बन्धों पर निर्भर करता है। इस जटिल द्वंद्वात्मकता में, जिस तथ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, वह यह है कि किसी विशेष घटना या प्रक्रिया में, कौन से वर्ग नुक़सान उठा रहे हैं और कौन से वर्ग हैं जिनको फ़ायदा हो रहा है; कौन शोषक हैं और कौन शोषित हैं; किन वर्गों को सही मायने में मित्र वर्ग माना जा सकता है और किन दूसरे वर्गों को शत्रु वर्ग माना जा सकता है।
”कम्युनिस्टों द्वारा वर्गीय स्थिति के ऐसे आकलन को पूँजीवाद के तहत ग़रीब किसानों की आबादी की बर्बादी और तबाही की वस्तुगत सच्चाई पर “ख़ुशी से ताली बजाना” नहीं माना जाना चाहिए, जैसाकि हमारे कुछ योग्य कॉमरेड मानने के आदी हैं। (वे भी जानते हैं कि यह सच नहीं है और उन्होंने यह दावा केवल इसलिए गढ़ा है ताकि ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के सामने अपने आत्मसमर्पण और पुछल्लेपन को सही ठहराया जा सके।) हालाँकि, धनी किसानों के वर्तमान आन्दोलन में “सार्थक हस्तक्षेप” या “राजनीतिक रूप से विचार करने” के नाम पर मज़दूर वर्ग और इसके सहयोगी, ग़रीब किसान के राजनीतिक वर्ग हितों को धनी किसानों और कुलकों के वर्ग हितों के आगे सरेण्डर कर देने का दूसरा चरम हम सभी रंग-ढंग के कम्युनिस्टों के व्यापक हिस्सों के बीच देख सकते हैं!
“सर्वहारा को हर हाल में अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति बनाए रखनी चाहिए – लेनिनवादी ढंग से राजनीतिक रूप से विचार करने यह मतलब होता है।” (अभिनव, ‘भारत में किसान प्रश्न पर ”राजनीतिक ढंग” से कैसे विचार नहीं किया जाना चाहिए!’)
पीआरसी द्वारा बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों के रूस से आज के भारत की बेतुकी हास्यास्पद तुलना
लेखक महोदय निम्न कोटि के अवसरवाद से ग्रस्त अपने तर्क को ऐतिहासिक वैधता प्रदान करने के लिए भारत की मौजूदा स्थिति की तुलना प्रारम्भिक बीसवीं शताब्दी के रूस से करते हैं। जल्दबाज़ी मचाए हुए हमारे लेखक महोदय को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि रूस तब जनवादी क्रान्ति की मंजि़ल में था और तब किसानों की समूची आबादी सैन्य सामन्ती ज़ारवादी राज्यसत्ता द्वारा दमित थी जो कि सामन्ती भूस्वामी वर्ग, देशी-विदेशी वित्तीय पूंजीपति वर्ग के साथ एक हद तक रूस के उभरते पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी। 1905 के रूस का आज के पूंजीवादी भारत से सादृश्य-निरूपण करना ऐतिहासिक तथ्यों के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती है, या फिर ऐसा भी हो सकता है कि लेखक महोदय ने इस पूरे दौर का इतिहास ही ढंग से न पढ़ा हो। इसकी भी पर्याप्त सम्भावना है क्योंकि कम पढ़ना और ज़्यादा बोलना-लिखना, और जितना पढ़ना उसे न समझना मास्टरजी की पुरानी आदत है!
लेखक महोदय यह तक कह डालते हैं कि अगर रूस में भी कॉरपोरेट पूंजी की दखल होती तो वहां भी समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में धनी किसानों को साथ लेने की ज़रूरत होती! हमारे वामपंथी दोन किहोते महोदय की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी! इतिहास पर वह एक के बाद एक गोले दागे जा रहे हैं! वह कुलक-धनी किसान आन्दोलन की ट्रॉली में चढ़ने को इतने बेकरार हैं कि इस बीच उन्होंने मार्क्सवाद को ही त्याग नरोदवाद का पटका बांध लिया है! वह जिस किसान आन्दोलन की लहर पर पर सवार होकर ‘सर्वहारा क्रान्ति’ करना चाहते हैं, वह लहर अक्सर नरोदवाद और संशोधनवाद के पंककुण्डरूपी समंदर में जाकर ही मिलती है। लेकिन लेखक महोदय इसे ही समाजवाद और ‘क्रान्ति’ का रास्ता बता रहे हैं। गाँव में कर्ज़ों के बोझ तले दबे गरीब किसानों की आत्महत्या के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार और दलितों व ग्रामीण सर्वहारा के प्रमुख उत्पीड़क के तौर पर अस्तित्वमान कुलक-धनी किसान वर्ग ही हैं जिसमें कि लेखक महोदय को उनकी क्रान्ति के पालनहार नज़र आ रहे हैं।
वैसे यह भी समझ लेना चाहिए कि कारपोरेट पूंजी अपने आप में राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियादी विश्लेषणात्मक श्रेणियों के अनुसार और कुछ भी नहीं बल्कि बड़ी इजारेदार पूंजी है। क्या पीआरसी के लेखक महोदय को लगता है कि 1917 के रूस में देशी-विदेशी बड़ी इजारेदार पूंजी नहीं थी? क्या उन्हें यह लगता है कि 1917 में बड़ी इजारेदार पूंजी के हस्तक्षेप से अपेक्षाकृत छोटा पूंजीपति वर्ग उजड़ नहीं रहा था, यानी तब पूंजी के केन्द्रीकरण (centralization of capital) की कोई प्रक्रिया ही नहीं चल रही थी? क्या उन्हें लगता है कि खेती के क्षेत्र में अपेक्षाकृत बड़ी पूंजी के प्रवेश से किसानों का विभेदीकरण और ग़रीब किसानों के उजड़ने की एक प्रक्रिया जारी नहीं थी? अगर ऐसा है, तो फिर से कहना पड़ेगा को मास्टरजी को नोट्स का रिविज़न करने की आवश्यकता है! अगर उन्होंने कभी इसके बारे में कुछ पढ़ा भी था, तो निश्चित तौर पर उड़न्त-पड़न्त तरीके से पढ़ा था, और उसे भी वह अब भूल चुके हैं।
बड़ी पूंजी, मशीनीकरण और बेरोज़गारी के बारे में पीआरसी के लेखक के विचार: मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियादी समझदारी का दयनीय अभाव
अपने प्रहसनात्मक तर्कों को और ”मज़बूत” बनाने के लिए लेखक महोदय मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की दुर्व्याख्या करने से एक बार फिर बाज़ नहीं आते हैं, या यह भी सम्भव है कि मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की उनकी समझदारी ही इतनी है। उनके अनुसार कॉरपोरेट सेक्टर के खेती में आने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो जाएगी और इसके परिणामस्वरूप शहरों में बेरोज़गारों की फौज बढ़ेगी जिसके ज़रिये पूंजीपति मज़दूरों की उजरत को कम करेंगे। देखें, वह क्या लिखते हैं:
‘‘If Corporates emerge victorious, they will trample villages running over one and all particularly the poor villagers, resort to most cruel treatment, pack them up and throw out of the villages and herd them into cities in acute penury to swell the ranks of the reserve army of the unemployed proletariat thus creating a further downward pressure on already depleting wages of the completely ‘disarmed’ working class.’’ (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
सतही और छिछले ज्ञान के चलते लेखक महोदय ने एक बार फिर काफी वैचारिक कचरा फैलाया है। आइये देखते हैं कैसे।
पहली बात तो यह कि बड़ी पूंजी के खेती में प्रवेश करने से पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद नहीं होने जा रही है बल्कि उसकी संरचना, चरित्र और प्रकृति में परिवर्तन आएंगे और जैसा कि आम तौर पर होता है उसके सापेक्षिक आकार में कमी आएगी। कॉरपोरेट पूंजीपति खेतों में खाट डालकर बैठने के लिए कृषि सेक्टर में निवेश नहीं करने जा रहे हैं! कॉरपोरेट पूंजी का निवेश गांव में उत्पादन तथा संचरण की गतिविधियों में होगा और दोनों ही सूरतों में मज़दूरों की ज़रूरत होगी। बस अन्तर यह होगा कि इन ग्रामीण मज़दूरों व ग़रीब किसानों के प्रमुख शोषक के तौर पर खेतिहर पूंजीपति वर्ग की जगह बड़ी इजारेदार पूंजी आ जाएगी, या कम-से-कम इस लूट में साझीदार बन जाएगी।
अगर लेखक महोदय को यह लगता है कि कारपोरेट पूंजी के प्रवेश के बाद किसी प्रेतात्मा का प्रवेश गाँव में होगा और गांव वीरान हो जाएंगे, तो ऐसा उनके कल्पना-लोक की ‘हॉरर स्टोरी’ में ही हो सकता है, मार्क्सवादी विश्लेषण की निगाह में ऐसी कोई तस्वीर पेश करना किसी चुटकुले से कम नहीं है। ऐसा लगता है कि लेखक महोदय धनी किसानों-कुलकों के साथ तदनुभूति और तादात्म्य स्थापित करते हुए, उनके भय के साथ एकाकार हो गये हैं और धनी किसानों-कुलकों के अस्तित्व पर ख़तरे को समूची ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गांवों पर ही ख़तरा मान बैठे हैं और ”गांवों को बचाओ” का रूमानी नारा दे बैठे हैं! आम तौर पर, शासक वर्ग के तमाम हिस्से हमेशा ही अपने ऊपर मण्डरा रहे ख़तरे को पूरे समाज, या पूरे देश, या गांवों पर ख़तरा बताते हैं। धनी किसान-कुलक नेतृत्व यही कर रहा है और उसकी पूंछ पकड़कर चल रहे पीआरसी के नेता महोदय भी यही कर रहे हैं।
अगर उपरोक्त कथन से लेखक महोदय का मानना यह है कि कॉरपोरेट पूँजी के आगमन के साथ कृषि क्षेत्र में बढ़ते मशीनीकरण के चलते निरपेक्ष रूप से बेरोज़गारी बढ़ेगी ही, तो भी यह ग़लत है। पूंजी की गति अन्तरविरोधी होती है। मार्क्स ने ‘पूंजी’ के खण्ड-1 में ही स्पष्ट किया था कि मशीनीकरण अपने आप में समाज में कुल रोज़गार के दर को कम या ज़्यादा नहीं करता, बल्कि यह पूंजी संचय की गति है जो कि रोज़गार की दर और इस प्रकार ”अतिरिक्त आबादी” के आकार को निर्धारित करती है। थोड़ा विस्तार से समझते हैं।
मशीनीकरण के कारण, यानी कि पूंजी के तकनीकी संघटन (technical composition of capital) में बढ़ोत्तरी के कारण प्रति मशीन मज़दूर की संख्या घटती है। लेकिन यदि पूंजी संचय स्वस्थ अवस्था में है, यानी विस्तारित पुनरुत्पादन हो रहा है, लाभप्रद निवेश के नये अवसर पैदा हो रहे हैं, तो मशीनों की कुल संख्या में भी निरपेक्ष बढ़ोत्तरी होती है और इस प्रकार रोज़गार से विकर्षित मज़दूर आबादी को पूंजी वापस आकर्षित कर सकती है। यह मुनाफे की दर और इस प्रकार पूंजी संचय की गति है, जो मज़दूर आबादी के परस्पर आकर्षण और विकर्षण को निर्धारित करती है, न कि अपने आप में मशीनीकरण। लम्बी दूरी में मशीनीकरण से अनिवार्यत: रोज़गार घटेगा ही, ऐसा मानना असंचय थीसिस (disaccumulation thesis) को अपनी पूर्वमान्यता के तौर पर लेता है, जबकि दीर्घकालिक तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था का आम नियम पूंजी संचय होता है। यह पूंजी संचय की गति व दर होती है, जिसका बढ़ना या घटना रोज़गार की दर को प्रभावित करने वाला मूल कारक है, न कि अपने आप में मशीनीकरण व बड़ी पूंजी का प्रवेश और इसी में आने वाले बदलावों के कारण ”अतिरिक्त आबादी” के विभिन्न हिस्से कभी आकर्षित तो कभी विकर्षित होते रहते हैं।
यही वजह है कि कम्युनिस्ट मशीनीकरण का विरोध नहीं करते, बल्कि उस उत्पादन सम्बन्ध पर निशाना साधते हैं, जिसके अन्तर्गत मशीनें श्रम की सघनता को बढ़ाने, कार्यदिवस को लम्बा करने और संकट की स्थितियों में मज़दूरों को अरक्षित बनाते जाने की भूमिका निभाती हैं; साथ ही, कम्युनिस्ट किसी रूमानी टुटपुंजिया ज़मीन से बड़ी पूंजी का विरोध भी नहीं करते हैं, बल्कि वह सर्वहारा वर्ग की स्वतंत्र अवस्थिति से आम तौर पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, चाहे वह अपेक्षाकृत छोटी पूंजी द्वारा किया जा रहा हो, या बड़ी पूंजी द्वारा। इसलिए बड़ी पूंजी और भावी मशीनीकरण के कारण अनिवार्यत: गांवों के ही बरबाद हो जाने के डिस्टोपिया के कारण हमारे लेखक महोदय बेवजह ही घबराए-घबराए घूम रहे हैं!
तीसरा, शहर की ओर प्रवास और खेतों से उजड़ने का काम तो हरित क्रान्ति के समय से ही जारी है। इसे ऐसे पेश करना कि यह कॉरपोरेट पूँजी के आने के साथ ही शुरू होगा ऐतिहासिक तथ्यों को ही झुठलाना है। धनी किसानों द्वारा भी पिछले चालीस वर्षों में लगातार मशीनीकरण हुआ है और खेती के क्षेत्र से अतिरिक्त श्रम खेती के क्षेत्र से विस्थापित होता रहा है। गरीब किसानों का विकिसानीकरण तो एक लम्बे समय से पहले से ही जारी है और उनकी बर्बादी के लिए धनी किसानों और कुलकों का वर्ग ही ज़िम्मेदार है जो कि गांव में आढ़ती, सूदखोर और व्यापारी की भी भूमिका निभाते हैं। लेकिन इस तथ्य के विषय में लेखक महोदय ने अपने पूरे लेखन में साजिशाना चुप्पी अख्तियार की हुई है और बस कारपोरेट पूंजी द्वारा गांवों के वीरान हो जाने का हव्वा दिखला रहे हैं। यह स्पष्ट रूप में धनी किसानों-कुलकों के सामने राजनीतिक आत्मसमर्पणवाद की एक मिसाल है। इसे समझा भी जा सकता है! आखिर हमारे दोन किहोते दि ला पटना धनी किसानों की ट्राली में मसनद डाल कर पसर जो गए हैं!
आखिरी बात, गांवों को बचाने से कम्युनिस्टों का कोई भावुक लगाव नहीं होता। वे क्रान्ति के मित्र वर्गों के हितों के नज़रिये से अपनी रणनीति और आम रणकौशल तय करते हैं और गांवों में भी वे क्रान्ति के मित्र वर्गों के हितों के अनुसार ही अपनी रणनीति और आम रणकौशल तय करते हैं। कृषि में पूंजीवादी विकास होने के साथ गांवों की आबादी शहरों के सापेक्ष कम होगी ही और ऐतिहासिक तौर पर इसमें कुछ भी प्रतिगामी नहीं है। हम गांवों के ग़रीबों की मांगों और हक़ों के लिए लड़ेंगे और जहां कहीं जबरन लोगों का विस्थापन किया जाता है, उसके खिलाफ आवाज़ उठाएंगे। लेकिन अपने आप में ”गांवों को बचाओ” का नारा एक रूमानी नारा है, न कि कम्युनिस्ट नारा। वैसे भी पीआरसी के नेता महोदय गांवों को बचाने से ज़्यादा कुलकों को बचाने के लिए पेट में मरोड़ उठाए हुए हैं, क्योंकि गांवों से पिछले 50 वर्षों के दौरान जो प्रवास हुआ है, उसमें धनी किसानों-कुलकों द्वारा मुनाफे, सूद व लगान के ज़रिये लूट और विकिसानीकरण की सबसे अहम भूमिका है, जिसके प्रति हमारे मास्टरजी एक शब्द नहीं बोलते हैं, मानो अब तक गांवों में एक स्वर्गिक सामंजस्य का राज्य था, जो कि कारपोरेट पूंजी के आने से भंग होने वाला है! ऐसा है दोन किहोते दि ला पटना का नवनरोदवाद, कुलकवाद और वर्ग सहयोगवाद से पैदा हुआ राजनीतिक मोतियाबिन्द।
- समाजवादी संक्रमण के दौर के राजनीतिक अर्थशास्त्र से बुखारिन के देसी भोण्डे संस्करण ने कैसे दुराचार किया?
जैसा कि हमने अब तक की अपनी चर्चा में देखा कि धनी किसान आन्दोलन में घुसने और कुलक नेताओं की पूंछ में कंघी करने के लिए कंघा लिए घूम रहे हमारे लेखक महोदय पहले लाभकारी मूल्य को व्यवस्था-विरोधी मांग करार देते हैं और फिर इस कुलक आन्दोलन में “क्रान्तिकारी” अन्तर्य ढूंढ निकालते हैं। साथ ही, वे इस चिंता से भी दुबले हुए जा रहे हैं कि धनी किसान कॉरपोरेट पूंजी के प्रवेश से दीन-हीन हो जाएंगे या हो गये हैं। ‘राजनीतिक तौर पर’ कैसे सोचा जाता है इसकी एक डेमो-क्लास भी पटना के मास्टरजी हमें देते हैं! और इसके फलस्वरूप आनन-फानन में धनी किसानों के आन्दोलन की लहर पर सवार होकर ‘क्रान्ति’ की अवधारणा भी दे डालते हैं!
जैसा कि लैटिन कहावत है: verba volant, scripta manent, यानी बोले गये शब्द खो जाते हैं, लेकिन लिखे गये शब्द रह जाते हैं। लेखक महोदय लिखकर फंस गये हैं क्योंकि लिखे गये शब्द से पीछे नहीं हटा जा सकता। इसीलिए मौजूदा लेख में वे राजनीतिक रूप से अश्लील अपने बौद्धिक केंचुल नृत्य को एक नयी ऊंचाई पर लेकर गये हैं।
इसी कवायद में एक नया अध्याय इन जनाब ने यह जोड़ा है कि लाभकारी मूल्य की वकालत में अनजाने ही वह बुखारिन की अवस्थिति के एक दरिद्र संस्करण पर जा पहुंचे हैं। साथ ही, एक बार फिर से लेखक महोदय ने सोवियत समाजवाद के बारे में अपने पूर्ण अज्ञान का निपट बेशर्म किस्म की बहादुरी से प्रदर्शन किया है! थोड़ा विस्तार से देखते हैं।
सोवियत सत्ता कृषि उत्पाद के लिए किस प्रकार का दाम देती थी?
तर्कों के अपने गड़बड़झाले को पूर्णता देते हुए वह नारा उछालते हैं कि इस आन्दोलन की मांगों को समाजवादी राज्य ही पूरा कर सकता है! समाजवादी राज्य में ही किसानों की पूरी फसल की ख़रीद की गारण्टी होगी और उन्हें “उचित दाम” मिलेगा! “उचित दाम” का यह नारा हमारे लेखक महोदय युधिष्ठिर के ‘अश्वथामा हतो’ की भांति उठाते हैं ताकि एक ओर धनी किसानों को लगे कि वह उनकी फसलों के लाभकारी मूल्य देने की बात कर रहे हैं (जैसा कि वह कर भी रहे हैं) और दूसरी ओर लेखक जी वाम खेमे में भी बता सकें कि वह तो भावी शासक की हैसियत से सर्वहारा वर्ग के हिरावल के रूप में यह बात कर रहे हैं! वह यहां साफ कहने से बच रहे हैं कि यह “उचित दाम” क्या है। अपने ताज़ा लेख में भी इस सवाल पर कोई सीधा जवाब देने की बजाय लेखक महोदय इस बिल से उस बिल में भागते नज़र आए हैं।
हम यह दिखलाएंगे कि यह मार्क्सवाद के नाम पर वर्ग सहयोग का ही नारा देना है क्योंकि समाजवाद के तहत भी मज़दूर-किसान संश्रय का नारा किसी भी प्रकार के लाभकारी मूल्य को देने का नारा नहीं हो सकता है। हमने पिछले लेख में रूस में समाजवादी राज्य द्वारा अलग-अलग दौरों में इस प्रश्न पर अमल में लायी गयी नीति के हवाले से बताया था कि:
”पहली बात, अक्तूबर क्रान्ति के तुरन्त बाद जो भूमि आज्ञप्ति आयी, उसने ज़मीन का राष्ट्रीकरण किया और श्रम सिद्धान्त या उपभोग सिद्धान्त या फिर दोनों के मिश्रण के आधार पर ज़मीन के प्लॉट भोगाधिकार के आधार पर देने का प्रावधान किया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस क़ानून ने उजरती श्रम के शोषण पर पूर्णत: रोक लगा दी। यानी हर किसान अपने और अपने परिवार के श्रम से ही खेती कर सकता था।
”दूसरी बात, गृहयुद्ध के दौरान (जो कि क्रान्ति के आठ माह बाद ही शुरू हो गया था) धनी और उच्च मध्यम किसान जब अनाज की जमाख़ोरी कर रहे थे और श्वेत सेनाओं के विरुद्ध लड़ रहे लाल सैनिक और शहरों में मज़दूर और गाँवों के ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर अकाल का सामना कर रहे थे, तो सोवियत सत्ता ने धनी किसानों और कुलकों से जबरन अनाज वसूली (requisitioning) की व्यवस्था लागू की जिसमें हर धनी किसान–कुलक के पास से उसकी परिवार की आवश्यकता के अतिरिक्त बचने वाला सारा बेशी अनाज ले लिया जाता था। इस सच्चाई को भी पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय कुलकों को नहीं बताते! जबरन वसूली के इस कार्य को अंजाम देने के लिए लेनिन के आह्वान पर ग़रीब किसान समितियों का गठन किया गया। लेकिन ग़रीब किसान समितियों का काम पार्टी के पूरी तरह नियंत्रण में नहीं रहा, इसलिए उसके हमलों के निशाने पर मध्यम किसान भी आ गये, जो कि अक्तूबर 1917 के भूमि सुधार के बाद कुल किसान आबादी में बहुसंख्या बन चुके थे। नतीजतन, मज़दूरों का मध्यम किसानों से संश्रय टूटने लगा जो कि सोवियत सत्ता के अस्तित्व के लिए नुकसानदेह था। 1920-21 आते-आते यह स्थिति ख़तरनाक हो गयी और इसके नतीजे के तौर पर लेनिन ने किसानों से उत्पाद-कर (tax-in-kind) लेने की नीति को अपनाया जो कि दसवीं कांग्रेस (1921) में पारित ‘नयी आर्थिक नीति’ (NEP) का ही एक अंग थी।
”तीसरी बात, नयी आर्थिक नीति (1921 से 1929 तक) के तहत उत्पाद–कर नीति यह थी कि किसान एक तय उत्पाद कर देने के बाद, बाकी बचे उत्पाद को मुक्त बाज़ार में बेच सकते थे। यह उन नयी आर्थिक नीतियों का ही एक हिस्सा था, जिसे लेनिन ने “रणनीतिक तौर पर क़दम पीछे हटाना” (strategic retreat) कहा था। इसके तहत गाँव और शहर तथा कृषि और उद्योग के बीच विनिमय को राज्यसत्ता ने संचालित किया और उसके लिए राष्ट्रीकृत उद्योगों को भी मुक्त बाज़ार में कृषि उत्पाद के साथ विनिमय करने को कहा गया। उजरती श्रम को भी सीमित तौर पर छूट दी गयी। इसके कारण कुछ ही समय में कुलकों और व्यापारियों और कालाबाज़ारियों का एक वर्ग भी पैदा हुआ। सरकार भी उत्पाद–कर लेने के बाद बाज़ार से अतिरिक्त ख़रीद करती थी और वह भी बाज़ार क़ीमतों पर ही करती थी, न कि किसी भी प्रकार के सरकारी लाभकारी मूल्य पर।
”सामूहिकीकरण होने के बाद (यानी 1936-37 के तत्काल बाद) सामूहिक फ़ार्मों के 90 प्रतिशत उत्पाद को राज्य ख़रीदता था। सामूहिक फार्मों द्वारा अपने उपयोग हेतु रख लिये जाने के बाद बाकी बचे उत्पाद के एक बड़े हिस्से (63 प्रतिशत) को राज्य लागत से बहुत कम ऊपर दर पर ख़रीदता था, जिसे ख़रीद (प्राप्ति) दाम (procurement price) कहा जाता था, जबकि बाकी बचे हिस्से (27 प्रतिशत) को बिकवाली दाम (purchase price) पर ख़रीदा जाता था, जो इस प्रकार तय होता था कि सारा विभेदक लगान (differential rent) राज्य के पास जाता था। दरअसल, सामूहिक फ़ार्म के किसानों को जो दाम प्राप्त होता था, वह मूलत: सामाजिक श्रम के आकलन पर निर्धारित होता था। बाकी बचा दस प्रतिशत हिस्सा सामूहिक फ़ार्म मार्केट में बाज़ार क़ीमत पर बिकता था। (इस पूरे विवरण के लिए देखें: मॉरिस डॉब की पुस्तक ‘Soviet Economic Development Since 1917’।) सोवियत सत्ता द्वारा दिया जाने वाला ख़रीद दाम या बिकवाली दाम कोई लाभकारी मूल्य नहीं था, जो कि व्यापक लागत के ऊपर 40 से 50 फीसदी का मुनाफ़ा दे! दूसरी अहम बात यह है कि यह व्यक्तिगत किसानों को नहीं दिया जाता था, बल्कि सामूहिक फ़ार्मों को दिया जाता था; तीसरे, उजरती श्रम का खेती में कोई अस्तित्व नहीं रह गया था और उस पर पूर्ण प्रतिबन्ध था। इसके अलावा राजकीय फ़ार्म थे जिनके समूचे उत्पाद का स्वामी सर्वहारा राज्य था और साथ ही राष्ट्रीकृत उद्योग थे, जिसके समूचे उत्पाद का स्वामी भी सर्वहारा राज्य था। चौथी बात, सोवियत राज्यसत्ता सारी उपज नहीं ख़रीदती थी और न ही यह कोई सैद्धान्तिक मसला है।” (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना‘)
हमने अपनी पुरानी आलोचना में स्पष्ट तौर पर कहा था कि कुलकों-धनी किसानों को यह न बताना कि समाजवाद के अंतर्गत श्रमशक्ति की ख़रीद-फ़रोख़्त पर रोक लगा दी जाएगी और उजरती श्रम के शोषण पर पूर्णतः रोक लगा दी जायेगी और धनी किसानों के सभी फार्मों को सर्वहारा राज्य द्वारा ज़ब्त कर लिया जायेगा और फिर लाभकारी मूल्य के समान “उचित दाम” का भ्रामक नारा देना राजनीतिक मौकापरस्ती है। साथ ही यह दावा करना कि सोवियत समाजवादी प्रयोग के दौरान ऐसा ही किया गया था, न सिर्फ राजनीतिक मौकापरस्ती है बल्कि इतिहास के साथ दुराचार और निकृष्ट कोटि की बौद्धिक बेईमानी है।
हमारी इस बात का लेखक महोदय ने बेहद मज़ाकिया जवाब दिया है। उनके अनुसार यह तो सहज समझी जाने वाली बात है कि धनी किसानों-कुलकों की ज़मीनें ज़ब्त कर उन पर सामूहिक व राजकीय फार्म बनाए जाएंगे, ज़मीन का राष्ट्रीकरण कर दिया जाएगा, उजरती श्रम पर रोक लगा दी जाएगी! इन्हें बताने की क्या आवश्यकता है? तो धनी किसानों के वर्ग को पता है कि लेखक महोदय का संगठन जब भारत में समाजवादी इंक़लाब लाएगा, तो उनकी सारी संपत्ति ज़ब्त की जायेगी और वह मज़दूरों का शोषण भी नहीं कर पायेंगे? तो मतलब यह सब इतना आसान था?! लेखक महोदय अब तक इस क्रान्ति को अंजाम कैसे नहीं दे पाए हैं, हमारी समझ से तो परे है भई! उनके हिसाब से तो बस यह “उचित दाम” ही राह का रोड़ा था, जिसका वायदा उन्होंने धनी किसानों से इस बार कर डाला है! यही कारण है कि धनी किसानों का नेतृत्व उन्हें बार-बार आन्दोलन में शामिल होने और मंच पर भाषण देने का न्योता देता रहता है! तो इस प्रकार हमारे लेखक महोदय ‘किसान समुदाय’ से धनी किसानों को भी समाजवादी क्रान्ति में “उचित दाम” का वायदा करके शामिल कर लेते हैं! यह है पीआरसी की राजनीतिक मौकापरस्ती और निकृष्ट बौद्धिक बेईमानी की मिसाल।
यही नहीं, पीआरसी के लेखक महोदय के अनुसार सोवियत संघ में यह “उचित दाम” लागत से थोड़ा नहीं बल्कि काफ़ी अधिक था, यह 40-50 प्रतिशत या उससे अधिक भी हो सकता है! वह लिखते हैं-
‘‘When we call upon the agitating peasants or farmers to accept the leadership of the working class as the future ruler of society so that their woes are permanently mitigated as only a future proletarian state that would be established in alliance with peasantry can guarantee them descent (??!!-मौजूदा लेख का लेखक) and dignified life by not only guaranteeing the purchase of their produce at “appropriate prices” but also by giving them every possible type of aid and assistance (economic, political, ideological, scientific and cultural, etc) by all means and methods, our ‘educators’ surprisingly at first tend to deny saying (quoting from history of
Collectivisation without evidence):
“No, no, the collective peasants must be given prices just little above the cost (because according to them in the USSR only this much was given). I fear, the small peasants will also deny to join collectivisation at such a presentation!. And secondly, they quite naturally according to their predating character instantly put it all to their own peculiar method of scrutiny (forgetting how many times differentiation of peasantry and accordingly preference of poor peasantry to any other peasants have been mentioned and told), asking, which peasants? Naturally, ‘the struggling peasants’ is our answer. Who are these struggling peasants? They are poor, middle and of course a section of rich peasant sans its super rich strata.
“Do we want to also collectivise the rich peasants? We say, our proposal extends to that strata of the rich peasants i.e. comparatively lower rung rich peasants whose existence they themselves feel is threatened and therefore are in struggle against the future corporate control of rural economy taking gigantic steps forward with enaction of farm laws. If a section of such peasants is opposing farm laws which are in continuation of three decades of capitalist farming and hence, they are also opposing in essence capitalist farming, knowingly or unknowingly, this is not our making. This is an objective fact and hence needs to be analysed and the new phenomenon emerging therefrom must be discerned by the working-class headquarters. If we keep ranting on elemental character only, it can be done. But this is elementalism, not proletarian politics that seeks to find allies (both temporary and permanent, faithful and less faithful) to precisely narrow down the target i.e. the super-rich strata of the rural rich folk whose political links with the fascist are still unruptured, are intact even in the so much heat that the farmers movement is producing.’’(What the new apologists of corporate are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
तो लेखक महोदय के अनुसार यह ”उचित दाम” लागत से थोड़ा ऊपर नहीं बल्कि काफ़ी अधिक होगा। यहां पीआरसी के लेखक ने फिर से दिखला दिया है कि सोवियत समाजवाद के पूरे इतिहास के विषय में उनकी समझदारी उतनी ही है जितनी की नरेन्द्र मोदी की ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के बारे में है। साथ ही उन्हें लगता है कि आय के अनुसार पहले मार्क्सवादियों को किसानों का वर्गीकरण करना चाहिए, फिर समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्गों में ‘कम अमीर किसानों’ को जोड़ लिया जाना चाहिए, फिर उन सबको ”संघर्षरत किसानों” (किस मांग के लिए संघर्षरत!?) में शामिल कर लेना चाहिए, और चूंकि ऐसे संघर्षरत किसानों में अमीर किसानों का निचला हिस्सा भी शामिल है इसलिए वह उजरती श्रम का शोषक होने के बावजूद अनिवार्य सामूहिकीकरण की ज़द में नहीं लाया जाना चाहिए! तो इस प्रकार पीआरसी के लेखक महोदय सोवितय समाजवादी प्रयोग के दौरान की कृषि नीति के साथ दुराचार करते हैं और स्तालिन को बुखारिन का अनुयायी बना डालते हैं। सच्चाई यह है कि सामूहिकीकरण के साथ ही उजरती श्रम के शोषण पर पूर्ण रोक लगा दी गयी थी, सभी धनी, उच्च मंझोले व मंझोले किसानों का सामूहिकीकरण की ज़द में लाया गया था, ग़रीब और निम्न मंझोले किसानों का बड़ा हिस्सा तो स्वयं ही सामूहिकीकरण आन्दोलन में शामिल था। सोवियत संघ में लेनिन व स्तालिन के मातहत धनी किसानों–कुलकों का आय–आधारित कोई वर्गीकरण नहीं किया गया था, बल्कि किसान समुदाय के वर्ग विभाजन का मुख्य आधार उजरती श्रम का शोषण और उत्पादन के साधनों व प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच था।
अब आइये देखते हैं सामूहिक किसानों को दिये जाने वाले दाम के विषय में सच्चाई क्या है।
लागत से काफी ऊपर कीमत देकर धनी किसानों को समाजवाद में शामिल करने की पेशकश सोवियत संघ में बुखारिन और उनके समर्थकों ने भी नेप (नयी आर्थिक नीति) के दौर में की थी। स्तालिन “सीपीएसयू (बी) में दक्षिणपंथी भटकाव” नामक अपने लेख में बुखारिन के इस ‘रणकौशल’ के नाम पर फसल की कीमत बढ़ाने के प्रस्ताव की आलोचना करते हुए लिखते हैं:
“Bukharin proposes to “normalise” the market and to “manoeuvre” with grain-procurement prices according to areas, i.e., to raise the price of grain. What does this mean? It means that he is not satisfied with Soviet market conditions, he wants to put a brake on the role of the state as the regulator of the market and proposes that concessions be made to the petty-bourgeois elemental forces, which are disrupting NEP from the Right.”
आगे देखें:
“Let us assume for a moment that we followed Bukharin’s advice. What would be the result? We raise the price of grain in the autumn, let us say, at the beginning of the grain-purchasing period. But since there are always people on the market, all sorts of speculators and profiteers, who can pay three times as much for grain, and since we cannot keep up with the speculators, for they buy some ten million poods in all while we have to buy hundreds of millions of poods, those who hold grain will all the same continue to hold it in expectation of a further rise in price. Consequently, towards the spring, when the state’s real need for grain mainly begins, we should again have to raise the price of grain. But what would raising the price of grain in the spring mean? It would mean ruining the poor and economically weaker strata of the rural population, who are themselves obliged to buy grain in the spring, partly for seed and partly for food—the very grain which they sold in the autumn at a lower price. Can we by such operations obtain any really useful results in the way of securing a sufficient quantity of grain? Most probably not, for there will always be speculators and profiteers able to pay twice and three times as much for the same grain. Consequently, we would have to be prepared to raise the price of grain once again in a vain effort to catch up with the speculators and profiteers.
“From this, however, it follows that once having started on the path of raising grain prices we should have to continue down the slippery slope without any guarantee of securing a sufficient quantity of grain.
“But the matter does not end there.
“Firstly, having raised grain-procurement prices, we should next have to raise the prices of agricultural raw materials as well, in order to maintain a certain proportion in the prices of agricultural produce.
“Secondly, having raised grain-procurement prices, we should not be able to maintain low retail prices of bread in the towns—consequently, we should have to raise the selling price of bread. And since we cannot and must not injure the workers, we should have to increase wages at an accelerated pace. But this is bound to lead to a rise in the prices of manufactured goods, for, otherwise, there could be a diversion of resources from the towns into the countryside to the detriment of industrialisation.
“As a result, we should have to adjust the prices of manufactured goods and of agricultural produce not on the basis of falling or, at any rate, stabilised prices, but on the basis of rising prices, both of grain and of manufactured goods.
“In other words, we should have to pursue a policy of raising the prices of manufactured goods and agricultural produce.
“It is not difficult to understand that such “manoeuvring” with prices can only lead to the complete nullification of the Soviet price policy, to the nullification of the role of the state as the regulator of the market, and to giving a free rein to the petty-bourgeois elemental forces.
“A rupture with the working class and the economically weaker strata of the rural population, and a bond with the wealthy strata of the urban and rural population—that is what Bukharin’s “normalisation” of the market and “manoeuvring” with grain prices according to areas must lead to.”
…
“The adherents of Bukharin’s group hope to persuade the class enemy voluntarily to forego his interests and voluntarily to deliver his grain surpluses to us. They hope that the kulak, who has grown stronger, who is speculating, who is able to hold out by selling other products and who conceals his grain surpluses—they hope that this kulak will give us his grain surpluses voluntarily at our procurement prices. Have they lost their senses? Is it not obvious that they do not understand the mechanics of the class struggle, that they do not know what classes are?”
(स्तालिन, ‘The Right Deviation in CPSU (B)’ ज़ोर हमारा)
क्या बुखारिन की कार्यदिशा की स्तालिन द्वारा रखी गयी यह आलोचना शब्दश: पीआरसी के लेखक के ऊपर लागू नहीं होती? क्या स्तालिन के उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट नहीं है कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक की अवस्थिति बुखारिन की ही अवस्थिति का भोंडा संस्करण है? स्तालिन स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों के मोर्चे को तोड़कर शहरी और ग्रामीण धनिकों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना है। बुखारिनपंथियों की तरह ही हमारे पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेखक महोदय वर्ग संघर्ष की गतिकी को भुला चुके हैं। स्तालिन इस अवस्थिति को टटपुंजिया वर्ग के “एलिमेण्टलिज़्म” के आगे नतमस्तक होना बताते हैं। यानी, वास्तव में हमारे दोन किहोते दि ला पटना उस रोग से पीडि़त हैं जिसका आरोप वह दूसरों पर लगा रहे थे, यानी ”एलिमेण्टलिज़्म”, और वह भी ”एलिमेण्टलिज़्म” की सबसे बुरी किस्म से, टुटपुंजिया ”एलिमेण्टलिज़्म” से!
दूसरे, जिन कुलकों और धनी किसानों को “उचित दाम” का प्रलोभन देकर हमारे लेखक महोदय उनसे सटना चाहते हैं ताकि उनकी ट्रॉली में लेखक जी को भी कोने-अंतरे में थोड़ी-सी जगह में उकडू बैठ सकें, उस कुलक और धनी किसान वर्ग के बारे में स्तालिन उपरोक्त लेख में ही लेनिन को उद्धृत करते हुए लिखते हैं:
“The kulaks are most bestial, brutal and savage exploiters, who in the history of other countries have time and again restored the power of the landlords, tsars, priests and capitalists. The kulaks are more numerous than the landlords and capitalists. Nevertheless, the kulaks are a minority of the people. . . . These bloodsuckers have grown rich on the want suffered by the people during the war; they have raked in thousands and hundreds of thousands of rubles by raising the prices of grain and other products. These spiders have grown fat at the expense of the peasants who have been ruined by the war, and at the expense of the hungry workers. These leeches have sucked the blood of the toilers and have grown the richer, the more the workers in the cities and factories have suffered hunger. These vampires have been gathering and are gathering the landed estates into their hands; they keep on enslaving the poor peasants” (Lenin, Vol. XXIII, pp. 206-07). (Quoted by Stalin in the same work)
थोड़ा और विस्तार में देखते हैं कि क्या समाजवादी सोवियत संघ में कृषि उत्पादों की लागत से 40 या 50 प्रतिशत ऊंची लाभ दर सुनिश्चित करने वाला ”उचित दाम” देने की नीति का पालन होता था या नहीं। हमारे लेखक महोदय के कुतर्कों के विपरीत, स्तालिन, फसलों और कृषि उत्पादों की कीमतों को कम रखने की पैरवी करते हैं:
“6) The problem of supplies. This includes the questions of adequate supplies of necessary produce for the working people in town and country, of adapting the co-operative apparatus to the needs of the workers and peasants, of systematically raising the real wages of the workers, of reducing prices of manufactured goods and agricultural produce. I have already spoken about the shortcomings of the consumers’ co-operatives. These shortcomings must be eliminated and we must see to it that the policy of reducing prices is carried out.” (From ‘Political Report of the CC to the XVIth Congress of CPSU (B)’, emphasis ours)
सोवियत रूस की कीमत पर नीति को स्पष्ट करते हुए मार्क्सवादी अर्थशास्त्री मॉरिस डॉब ‘Soviet Economic Development since 1917’ इस प्रश्न पर स्तालिन के ही नज़रिये को पुख्ता करते हैं। वे लिखते हैं:
“It was to their (rich farmers’) interest that trade in grain should be as free as possible and the urban and export demand extensive; and they resented the control over grain purchase prices exerted by the growing dominance of a few large State buying organisations, competition between which was restricted by demarcation agreements and the system of official “price limits”.” (Maurice Dobb, Soviet Economic Development since 1917, p. 227, emphasis ours)
और देखें-
“A crucial economic link between agriculture and industry, which had grown with the growth of collective farming, illustrates one of the ways in which the relationship between agriculture and industry had been transformed. Previously the relationship between agriculture and industry had been predominantly a market one—a relationship of simple commodity exchange. The supply of agricultural produce forthcoming depended in the main on the structure of prices (although it was capable also of being influenced by such things as taxation policy); with the resulting instabilities and incalculable movements, seriously restrictive of economic planning, which an earlier chapter has described. With the campaign for collectivisation went a system of “forward contracts” with collective farms (as also with individual peasant economies), in an attempt to secure firm guarantees of supply upon which the production plans of industry for the coming year could be built. These supply-quotas, contracted for in advance and originally voluntary in form, became obligatory in fact; and were recognised as such by a decree of January 19th, 1933. Varying according to the area of sown land and the qualities of the soil on the basis of standard averages laid down in the decree for each region, these delivery quotas were to be paid for at fixed official buying prices; and therefore had the character of a requisition rather than a tax. But since these buying prices were a long way below the market price, they represented substantially a form of tax in kind, which, since it varied in some rough relation to the yield of land, can perhaps be regarded as an instrument for skimming part of the differential rent of land which would otherwise have been retained by the more favourably situated farms. (In addition to these obligatory deliveries at “delivery prices”, there were so-called “decentralised collections “, which were the result of voluntary sales-contracts to the State at “State purchase prices” which were considerably higher than the former.) At the same time the burden of these quotas in relation to the gross produce began to be eased, and collective farms were granted the right of free trade in any part of their produce in excess of their deliveries to the State: a right which was extended to the produce of the homesteads of individual collective farmers. This right was the basis of the so-called Kolkhoz market—the sale of collective farm produce from stalls or shops in local urban markets or by direct contract with various types of institution—which remains virtually the only surviving type of open competitive market in the Soviet economic system of today. The system of obligatory deliveries, as we have said, afforded to industry and to the towns a guarantee of a certain minimum supply of agricultural produce, on the basis of which industrial plans and forecasts could be built for at any rate a limited period ahead. These quotas, being fixed in advance, and independent of the actual gross output of the farm, also acted as a stimulus to the farmers to maximise the size of their crop. But since, as we have also seen, the effect of the new method of farming was highly labour-saving, the transformation of agriculture had the effect of simultaneously releasing labour from the land in favour of industry and of reducing the number of mouths in the village that needed to be fed out of the produce of the local soil. As a consequence, the marketable surplus of agriculture, available to supply the expanding towns and industry, considerably increased, and in the case of grain was in 1938 some two and a half times what this surplus had been ten years previously. Between the censuses of 1926 and of 1939 the rural population had declined by 5 per cent, (and the actual farm population by considerably more), despite a natural increase for the whole country of 15.9 per cent.; while the urban population had doubled. The fact that of this increase in the urban population some 20 million was accounted for by migration from the village affords a measure of the contribution which the revolution in agriculture had made to the growth of industry.” (p. 284-85, वही, emphasis ours)
मॉरिस डॉब द्वारा पेश इस तस्वीर से भी साफ़ है कि सोवियत समाजवादी राज्य में सामूहिक फार्म से राज्य जिस कीमत पर खेती के उत्पाद खरीदता था वह लागत से थोड़ा-सा ही ऊपर था और एक प्रकार से उत्पाद-कर (tax-in-kind) का स्थानापन्न था। उत्पादन का सबसे बड़ा हिस्सा इसी बेहद नीची कीमत पर ख़रीदा जाता था। इसके बाद जो उत्पाद बचता था उसे बिकवाली दाम पर (जो कि प्राप्ति दाम से कुछ ज़्यादा था) सरकार को और कोलखोज बाज़ार, यानी कलेक्टिव फार्मों के खुले बाज़ार में बेचने के लिए सामूहिक किसान मुक्त थे और वहां कीमतों को मुख्यत: बाज़ार की स्थितियां निर्धारित करती थीं। इसलिए पटना के मास्टरजी का यह दावा कि समाजवाद में समूचा कृषि उत्पाद राज्यसत्ता लागत से 40-50 प्रतिशत ऊंचे दाम पर, यानी लाभकारी मूल्य पर ख़रीदेगी, बकवास है और किसी भी तरह के सस्ते वायदे करके धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठने का एक हास्यास्पद प्रयास है। यह पीआरसी के मास्टरजी के भयंकर राजनीतिक अनपढ़पन को भी नंगा कर देता है।
सच्चाई यह है कि सोवियत संघ में सामूहिकीकरण के बाद उत्पाद के सबसे बड़े हिस्से (63 प्रतिशत) को राज्य लागत से बहुत कम ऊपर दाम पर ख़रीदता था, जिसे प्राप्ति दाम (procurement price) कहा जाता था, जबकि बाकी बचे हिस्से (27 प्रतिशत) को बिकवाली दाम (purchase price) पर ख़रीदा जाता था, जो इस प्रकार तय होता था कि सारा विभेदक लगान (differential rent) राज्य के पास जाता था। सरकारी खरीद के अलावा कोलखोज़ बाज़ार में सामूहिक फार्म पर बचे हुए उत्पादों की बिकवाली होती थी जहां कीमतें अधिक हो सकती थी। यह उन सामूहिक फार्म की उत्पादकता बढ़ाने के लिए दिया जाने वाला भौतिक प्रोत्साहन था।
इस चर्चा से यह भी साफ़ है कि सोवियत यूनियन में राज्य समस्त फसल की खरीद की गारण्टी नहीं देता था और यह समझा भी जा सकता है। जब तक समाजवादी सम्पत्ति का सर्वोच्च रूप यानी राजकीय फार्म समूची खेती में लागू नहीं हो जाते हैं, तब तक समूचा उत्पाद राज्यसत्ता व इस प्रकार जनता का हो, यह सम्भव ही नहीं है।
स्तालिन ने स्वयं स्पष्ट किया है कि किस प्रकार सामूहिक फार्मों के किसानों में भी सामूहिकीकरण का स्तर केवल उनका फार्म है और उनमें भी अपने फार्म के हित को समूची जनता के हितों के ऊपर रखने की प्रवृत्ति मौजूद होती है और यह एक लम्बी प्रक्रिया में ही समाप्त हो सकती है। जब तक समाजवादी सम्पत्ति के कई रूप जैसे कि कोऑपरेटिव, कलेक्टिव व स्टेट फार्म मौजूद हैं, तब तक विनिमय-सम्बन्ध कायम रहेंगे और एक आम नीति के तौर पर समूचे उत्पाद को राज्यसत्ता द्वारा ख़रीदने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। दूसरी बात, जब समूची खेती राजकीय फार्मिंग के मातहत होगी तो राज्यसत्ता द्वारा ख़रीदने की अनिवार्यता समाप्त होती जाएगी। लेकिन मास्टरजी को ऐतिहासिक तथ्यों और सैद्धान्तिकी बुनियादी समझदारी जैसी मामूली चीज़ों से क्या लेना-देना? वह तो लाभकारी मूल्य-रूपी दलसीनिया (दोन किहोते की कल्पना में उसकी प्रेमिका) की तलाश में अपने सांचो पांजाओं के साथ अपने मरियल रोसिनान्ते-रूपी ‘यथार्थ’ पत्रिका पर सवाल हो अपनी मूर्खताओं की ज़ंग लगी तलवार के साथ भटकते रहते हैं!
तो यह है पटना के मास्टरजी की सोवियत समाजवाद की कृषि नीति के विषय में जानकारी और समझदारी। लेकिन मास्टरजी हमारा मनोरंजन यहीं बन्द नहीं करते! आगे देखें कि समाजवादी संक्रमण के राजनीतिक अर्थशास्त्र की बिल्कुल बुनियादी समझदारी से भी मास्टरजी वंचित हैं।
क्या श्रमशक्ति समाजवादी संक्रमण के दौरान माल होती है?
आगे समाजवाद के दौर के राजनीतिक अर्थशास्त्र के विषय में भी लेखक महोदय ने अपनी रही-सही ‘समझदारी’ बेनक़ाब कर दी है, यानी समाजवादी संक्रमण के राजनीतिक अर्थशास्त्र के विषय में अपना बौद्धिक केंचुल नृत्य पूरा कर दिया है! और यह भयंकर मज़ेदार तरीके से हुआ है। इसे पढ़कर यह लगता है कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की स्थिति क्या है, जहां ऐसे लोग जिन्हें मार्क्सवाद-लेनिनवाद का ‘क ख ग’ भी नहीं आता, वे संगठन बनाकर बैठे हुए हैं और विडम्बना की बात है कि उन्हें भी कुछ लोग पीछे चलने के लिए मिल जाते हैं!
आइये देखते हैं कि समाजवादी संक्रमण के राजनीतिक अर्थशास्त्र के मसले पर मास्टरजी ने कौन-सी नई पताका फहराई है।
पीआरसी के लेखक महोदय के अनुसार श्रमशक्ति समाजवादी समाज में एक माल होती है! लेखक जी राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में अपने ज्ञान के मोती बिखेरते हुए बताते हैं कि सामूहिक फार्मों को कृषि उपज पर ऊंची कीमत देने का कारण यह था कि वहाँ फसलों का दाम श्रमशक्ति के मूल्य और लागत द्वारा निर्धारित किया जा रहा था। देखें, वे क्या लिखते हैं:
‘‘In the USSR it is true that what the proletarian state paid as procurement price (which was above the cost) was mainly based on calculation of social labour. What does it mean? It means that procurement price the collective farms got from the state contained cost plus the value of collective peasants’ own labour power. Hence what was paid above cost by the Soviet State was equal (in money for or in kind) to the value of the peasants’ own labour power. And hence we can conclude that a Soviet collective farm peasant was paid above cost but what was above the cost can be considered to be the value of his own labour power. The ‘educators’ say that the price that collective farm peasant got from the state was in the main based on calculation of social labour. What is that other (in the main) than social labour that comes in the calculation while paying the farmers for their
produce? Our educators are silent on this.’’ (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
यानी मास्टरजी के अनुसार समाजवादी व्यवस्था में श्रमशक्ति एक माल थी! क्योंकि लेखक महोदय के अनुसार सामूहिक फार्मों के कृषि उत्पादों की कीमत सामूहिक फार्मों के किसानों की श्रम शक्ति के मूल्य और कुल लागत के अनुसार राज्य द्वारा तय की जा रही थी। यदि कीमत के निर्धारण में श्रमशक्ति के मूल्य का आकलन शामिल था, तो इसका अर्थ है कि समाजवादी राज्य सामूहिक फार्मों से श्रमशक्ति का विनिमय कर रहा था। इसका अर्थ यह है कि सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण के दौरान श्रमशक्ति एक माल थी। क्योंकि कीमतों के आकलन में यदि श्रमशक्ति के मूल्य का आकलन शामिल है, तो स्पष्ट तौर पर श्रमशक्ति का विनिमय हो रहा है और उसका विनिमय मूल्य है और वह एक माल है। लेकिन क्या समाजवादी संक्रमण के दौरान श्रमशक्ति माल होती है? नहीं! श्रमशक्ति का एक माल के रूप में अस्तित्व समाजवादी व्यवस्था में समाप्त हो जाता है और विभिन्न सेक्टरों के उत्पादन के मूल्य का आकलन सामाजिक श्रम के व्यय के आकलन से होता है। श्रमशक्ति का मूल्य किसी भी आर्थिक गणना में नहीं आता है। मज़दूरों की मज़दूरी अब श्रमशक्ति की कीमत नहीं होती, बल्कि उनके द्वारा दिये गये सामाजिक श्रम के आकलन पर आधारित होती है। यह सब ‘क ख ग’ है। अब पाठक स्वयं सोचें कि ऐसे व्यक्ति को दोन किहोते और शेखचिल्ली के विशेषण से न नवाज़ा जाय तो क्या किया जाय?
किसी मूर्ख राजनीतिक कैरियरवादी व्यक्ति को अगर अपढ़ता के साथ नेता बनने का शौक भी लग जाए तो कम्युनिस्ट आन्दोलन की सामूहिक समझदारी पर इसी किस्म की मूर्खता का वज्रपात हो सकता है!
दूसरे, लेखक महोदय अपने इस मूर्खतापूर्ण दावे को छिपाने का प्रयास भी करते हैं कि राज्य सारी फसल की खरीद करता था और इसके लिए वे बताते हैं कि कोलखोज़ बाज़ार में भी अन्तिम ख़रीदार राज्य ही होता था। यह बिलकुल बकवास बात है। लेकिन पहले समाजवादी संक्रमण के दौरान श्रमशक्ति के विषय में थोड़ा विस्तार से जान लेते हैं।
सामूहिक फार्म में फसलों की कीमत का निर्धारण सामाजिक श्रम से होता था न कि श्रमशक्ति के मूल्य के आकलन के आधार पर। स्तालिन इस बात का खण्डन करते हैं कि समाजवाद में श्रमशक्ति माल होती है। स्तालिन लिखते हैं:
“Absolutely mistaken, therefore, are those comrades who allege that, since socialist society has not abolished commodity forms of production, we are bound to have the reappearance of all the economic categories characteristic of capitalism: labour power as a commodity, surplus value, capital, capitalist profit, the average rate of profit, etc. These comrades confuse commodity production with capitalist production, and believe that once there is commodity production there must also be capitalist production. They do not realize that our commodity production radically differs from commodity production under capitalism.
“Further, I think that we must also discard certain other concepts taken from Marx’s Capital – where Marx was concerned with an analysis of capitalism – and artificially applied to our socialist relations. I am referring to such concepts, among others, as “necessary” and “surplus” labour, “necessary” and “surplus” product, “necessary” and “surplus” time. Marx analyzed capitalism in order to elucidate the source of exploitation of the working class – surplus value – and to arm the working class, which was bereft of means of production, with an intellectual weapon for the overthrow of capitalism. It is natural that Marx used concepts (categories) which fully corresponded to capitalist relations. But it is strange, to say the least, to use these concepts now, when the working class is not only not bereft of power and means of production, but, on the contrary, is in possession of the power and controls the means of production. Talk of labour power being a commodity, and of “hiring” of workers sounds rather absurd now, under our system: as though the working class, which possesses means of production, hires itself and sells its labour power to itself. It is just as strange to speak now of “necessary” and “surplus” labour: as though, under our conditions, the labour contributed by the workers to society for the extension of production, the promotion of education and public health, the organization of defence, etc., is not just as necessary to the working class, now in power, as the labour expended to supply the personal needs of the worker and his family.” (Stalin, Economic Problems of Socialism in the USSR, emphasis ours)
अभी भी मूल्य का नियम समाजवाद में प्रभावी होता है परन्तु निर्धारक विनियामक की भूमिका में नहीं होता है। इसपर स्तालिन बात रखते हैं कि:
“Here it is written that the law of value has been overcome. It then becomes unclear where the category of the cost of production [sebestoimost’] comes from. Without the cost of production it would be impossible to do calculations, impossible to carry out distribution according to labor, impossible to set prices. As yet the law of value has not been overcome. It is not true that we are in control of prices. We want to be, but have not yet achieved this. In order to be in control of prices you need tremendous reserves, an abundance of goods, and only then can we dictate our prices. But as of now there still is an illegal market, a kolkhoz market, and there still exist market prices. If there is no concept of value, there is nothing with which to measure income and income is not measured in terms of labor. When we shall begin to distribute according to need, it will be a different matter, but as of yet the law of value has not been overcome. We want to use it deliberately. We need to fix prices within the framework of the law. In 1940 there was a bad crop, and in Latvia and Estonia there was not enough bread and the price in the market quickly shot up. We sent 200,000 poods of cereal there, and immediately the price dropped. But can we do the same thing for each commodity all over the country? No, we are far from able to dictate the price of every commodity. In order to do that we need to produce a lot. Much more than now. So far we can not dictate prices. Income from sales in the kolkhoz markets go to the kolkhozniki. Of course, for us it is impossible to use this income to buy the means of production, and that income to increase personal consumption.
“For us, distribution is carried out according to labor. We have qualified and unqualified labor. What is the labor of an engineer? It is augmented simple labor. Here, income is distributed according to labor. It is impossible to distribute without the law of value. We think that all of the economy is conducted by plan, but it doesn’t always work that way. We also have a lot of spontaneous action. We are conscious and don’t calculate the spontaneity by the law of value as a matter of procedure. There, the law of value exists spontaneously, it brings destruction, and requires an enormous number of victims. For us the character of the law of value changes, takes on new content, and new form. We determine prices consciously, not spontaneously.”
“The law of value is necessary here for computation, for balance, for calculation, for checking the advisability of an action.”
और देखें:
“The sphere of effect of the law of value is limited here. The law of value is not entirely that which it was during capitalism. It is not transformed here, but its power is limited by objective conditions. The important thing is that here private property has ceased to be relevant, and the labor force (power) is not a commodity. These objective conditions bring limits to the sphere of the effects of the law of value. The limits to the law of value here do not result because we want them to, but because they are necessary and because there are favorable conditions for those limits. These objective conditions push us to the limit of the sphere of effects of the law of value.”
“The law of value has not been transformed here, but its sphere of effect is limited because of objective conditions.” (‘Converstions with Stalin on Questions of Political Economy’)
और देखें:
“QUESTION [A. Pashkov:] Is it correct that differential rent in the USSR should be entirely withdrawn by the state, as it was asserted by some participants in the discussion?
ANSWER [Stalin:] On the question of differential rent I am in agreement with the opinion of the majority.”
“For us, the law of value determines a lot, and indirectly influences production and directly influences circulation. But the sphere of its effect is limited. The law of value does not bring impoverishment. The most difficult thing for capitalists is the sale of market output and the conversion of goods to money. This is accompanied by strain and brings about the impoverishment of the workers. With us, sale happens easily, it goes smoothly.” (‘Converstions with Stalin on Questions of Political Economy’)
हम ऊपर देख सकते हैं कि स्तालिन के अनुसार सोवियत रूस में श्रमशक्ति माल नहीं थी और यह बिल्कुल सही प्रेक्षण है। समाजवादी संक्रमण के दौरान श्रमशक्ति माल नहीं होती है। समाजवाद की आर्थिक योजना के अनुसार उत्पादन होता था और उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के बीच मालों के सुचारू समाजवादी विनिमय के लिए कीमतें निर्धारित की जाती थीं। जैसा स्तालिन बताते हैं कि मूल्य का नियम अभी भी प्रभावी था क्योंकि समाजवादी समाज में भी अभी ज़रुरत के अनुसार वितरण नहीं होता था और इस नियम को समझकर ही लागतों व कीमतों का निर्धारण हो सकता था कि अभी उत्पादन में लगने वाले सामाजिक श्रम के आकलन के अनुसार ही यह कार्य किया जा सकता है और इसी के ज़रिये किया भी जाता था। यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि यह प्रक्रिया बाज़ार की स्वतःस्फूर्त गति के ज़रिये नहीं, बल्कि एक समाजवादी आर्थिक योजना के अंतर्गत अमल में आती थी, जिसके तहत पहले से ही पूर्व-निर्धारित योजना के मातहत उत्पादों की लागत, अलग-अलग वस्तुओं के उत्पादन के परिमाण, सामाजिक श्रम के परिमाण और अलग-अलग सेक्टरों में उसके आबण्टन के अनुपात और उनके आधार पर कीमतें तय की जाती थी ताकि उत्पादों का सन्तुलित समाजवादी विनिमय संभव हो सके और इन्हीं सरोकारों के आधार पर समय-समय पर कीमतों में परिवर्तन भी किये जाते थे। उत्पादों के इस नियोजित विनिमय के लिए मूल्य का नियम आवश्यक था ताकि सामाजिक श्रम की गणना और आकलन किया जा सके लेकिन इसकी कार्य-प्रणाली पूंजीवादी समाज की तुलना में अब एकदम अलग थी। यह बाज़ार की अन्धी शक्तियों द्वारा नहीं बल्कि एक आर्थिक योजना के मातहत होता था।
लेखक महोदय ने हमसे पूछा है कि सामाजिक श्रम के आकलन के अलावा और कौन-से कारक थे, जो कि कीमतों का निर्धारण करते थे। अगर उन्होंने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के बारे सिर्फ स्तालिन के उपलब्ध लेखन को भी पढ़ा होता तो ऐसा प्रश्न नहीं पूछते। लेकिन स्पष्ट है कि समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के विषय में तो दूर, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्तों के बारे में भी पीआरसी के लेखक महोदय का अध्ययन बेहद दयनीय और दरिद्र है। जैसा कि आप देख सकते हैं, उपरोक्त उद्धरणों में स्तालिन ने इस प्रश्न का स्पष्ट जवाब दिया है।
अलग-अलग उत्पादन शाखाओं के बीच सन्तुलित विनिमय के लिए और साथ ही सामूहिक फार्मों, आर्तेलों आदि के सामूहिक उत्पादकों के लिए कई बार भौतिक प्रोत्साहन के लिए भी कीमतों को ऊपर-नीचे किया जाता था, ताकि उत्पादन व वितरण में अभी भी मौजूद स्वत:स्फूर्तता और अराजकता के तत्व को प्रति-सन्तुलित किया जा सके, क्योंकि अभी भी एक मुक्त बाज़ार मौजूद था, क्योंकि अभी भी कलेक्टिव बाज़ार मौजूदा था, अभी समाजवादी सम्पत्ति के कई रूप मौजूद थे, विनिमय सम्बन्ध मौजूद थे और इनके कारण मूल्य का नियम अभी एक अलग रूप में (यानी विनियमित रूप में) प्रभावी था। वह अब बाज़ार की अन्धी शक्तियों (एडम स्मिथ के ‘प्रच्छन्न हाथ’) के द्वारा प्रभावी नहीं होता था, बल्कि समाजवादी राज्यसत्ता इस नियम को समझकर उसके अनुसार नियोजन व कीमतों का निर्धारण करती थी और इस रूप में वह विनियमित था।
क्या लागत से 40-50 फीसदी ऊंचा लाभकारी मूल्य (”उचित मूल्य”) देने से सामूहिक किसानों के जीवन स्तर में उन्नति हुई थी?
पीआरसी के मास्टरजी त्यौरियां चढ़ाकर और तर्जनी उठाकर पूछते हैं कि क्या लागत से ऊपर 40-50 प्रतिशत लाभकारी मूल्य के बिना ही सामूहिक किसानों के जीवन स्तर में इतनी बेहतरी हुई? मास्टरजी को लगता है कि जीवन स्तर में बेहतरी केवल मुनाफाखोरी से ही हो सकती है, इसलिए बुखारिन की तर्ज़ पर चलकर वह ऊंची कीमतें व मुनाफ़ा देकर अपने ”समाजवाद” का निर्माण करना चाहते हैं! इसी प्रकार के ”समाजवाद” में वह ”भावी शासक वर्ग” की भूमिका निभाने वाले हैं! माने कि, मूर्खतापूर्ण शेखचिल्लीवाद की भी कोई हद होती है! उनके दक्षिणपंथ से पगे दिमाग़ को समझ नहीं आता कि समाजवादी संक्रमण के दौरान सामूहिक किसानों समेत व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन-स्तर में सुधार श्रमशक्ति के एक माल के रूप में ख़ात्मे, निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे और सत्ता के सर्वहारा वर्ग में आने के कारण होता है, यानी कि उत्पादन-सम्बन्धों में परिवर्तन के कारण होता है, न कि ऊंचे ”उचित दाम” देकर।
आइये देखते हैं कि सोवियत संघ में सामूहिक फार्मों के किसानों और साथ ही समूची मेहनतकश जनता के जीवन के स्तरोन्नयन के वास्तविक कारण क्या थे, क्योंकि सड़ांध मारते बुखारिनपंथी दिमाग में यह बात मुश्किल से ही घुसेगी।
सच्चाई यह है कि सामूहिक किसानों समेत समूची मेहनतकश जनता के जीवन में स्तरोन्नयन उजरती श्रम के ख़ात्मे, श्रमशक्ति के माल के रूप में ख़ात्मे और निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे के फलस्वरूप हुआ, ना कि सामूहिक फार्मों को अधिक कीमतें देकर, जैसा कि हमारे लेखक महोदय की बुखारिनपंथी कल्पना है।
वास्तव में, पीआरसी के लेखक महोदय किसानों को वही नारा दे रहे हैं जो बुखारिन ने अप्रैल 1925 में कुलकों को दिया था: ”अमीर बनो”! उनके समाजवाद के निर्माण की यही समझदारी है और इसीलिए लागत से ऊपर के 40-50 प्रतिशत ऊंचे ”उचित मूल्य” का खोमचा लगाकर वह टीकरी बॉर्डर और सिंघू बॉर्डर पर ”भावी शासक वर्ग” बने घूम रहे हैं! किस प्रकार की जोकरी है यह?
समाजवादी संक्रमण के दौरान लोगों को अभी उनकी ज़रूरत के अनुसार नहीं बल्कि उनके द्वारा दिये गये सामाजिक श्रम के अनुसार भुगतान होता था। दूसरी बात स्तालिन यह भी साफ़ करते हैं कि कोलखोज़ बाज़ार में खरीद की आय कोलखोज़निकी, यानी सामूहिक फार्म के किसानों के पास जाता था। इसलिए, लेखक महोदय अपनी मूर्खताओं पर पर्दा डालने के लिए सोवियत समाजवादी संक्रमण काल के बारे में एक बार फिर सफेद झूठ बोल रहे हैं। देखिये, यह पीआरसी के लेखक क्या कहते हैं:
‘‘Readers must know that even the produce that were sold in the open market was also finally purchased by the state as the market was not so open, and it was operated by private traders on the basis of some pre-determined contract with the state i.e. the area of operation of Kolkhoz market was very much limited and didn’t have a complete freedom as in a capitalist country. Actually, the proletarian state owned the whole produce and also purchased it but through three different channels – procurement, state purchase and through a limited operation of market under its
control through state contract with private traders. Readers must not be confused by the use of the word – market.’’(What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)
जैसा कि आप देख सकते हैं कि लेखक मानसिक सन्तुलन खोने की स्थिति में पहुंच रहा है। यदि राज्यसत्ता समस्त उत्पाद की मालिक थी, तो वह उसे ख़रीदती क्यों थी? दूसरी बात, सामूहिकीकरण के बाद राज्यसत्ता निजी व्यापारियों से कोई क़रार नहीं करती थी, जिसके आधार पर वे कोलखोज़ बाज़ार में बेचते थे। कोलखोज़ बाज़ार में सामूहिक किसान ही बेचने का काम करते थे और वहां कीमतों पर सरकार का कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं था। राजकीय, कॉपरेटिव के इलावा सामूहिक खेत ही व्यापार करते थे। लेकिन लेखक महोदय के इस झूठ को भी सोवियत संघ में स्तालिन काल के दौरान तैयार राजनीतिक अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक बेनकाब कर देती है:
“Owing to the existence of the State and the co-operative collective farm sectors of production, trade under socialism is carried on in the following forms: (1) State, (2) co-operative, and (3) collective farm.
“State trade plays the leading role and occupies a decisive place in both the wholesale and the retail turnover of the U.S.S.R. The overwhelming mass of commodity resources in the country which flow into Soviet trade are concentrated in the hands of the Socialist State. Trading organisations receive the bulk of their commodities from State industry. Passing mainly through State wholesale trade, these commodities subsequently enter retail trade and are sold to the population.
“Co-operative trade is carried on by the trading enterprises of consumer and producer co-operatives. The resources of the co-operative organisations are the co-operative property of their member-shareholders. Co-operative trading organisations have large credits from the Soviet State. Co-operative trade in 1954 embraced 27 per cent of all retail trade. By far the greater part of co-operative trade falls to the consumer co-operatives, while the rest is done by the producer co-operatives.
…
“State and co-operative trade constitutes an organised market, directly planned by the Socialist State. The organised market holds a predominant position in the trade turnover of the U.S.S.R. In addition to the organised market, however, there exists an unorganised market in the form of collective farm trade.
“Collective farm trade is a form of Soviet retail trade in which the collective farms and the collective farmers are the sellers, supplying agricultural commodities to the population at market prices formed under the influence of supply and demand. The collective farmers sell on the market part of the produce which they obtain from their individual holdings and for work-days put in on the socialised sector of the collective farms. The need for collective farm trade arises from the nature of collective farm group ownership and the existence of the collective farmers’ individual holdings. The collective farms and farmers are the owners of their own produce and dispose of it; they can sell it not only by way of procurements and sales to the State but also on the market. Collective farm trade is not directly planned by the State: the State does not lay down for the collective farms and the collective farmers any planned targets for sale of their produce in the collective farm markets, nor does it fix prices for the agricultural commodities they sell. Collective farm trade is, however, under the economic influence of State and co-operative trade. Increased turnover and retail price reductions in State and co-operative trade bring in their wake reduced prices on the collective farm market too.
“In the collective farm markets, a free market is to a certain extent at work. If the economic regulating influence of the State is weakened in particular collective farm markets, speculative elements may come to life. By taking advantage of a temporary shortage of particular commodities at a given market, speculative elements force up market prices. But the economic influence of the State on the unorganised market is constantly increasing. This is due to the growth in marketed output of collective farms sold to the State as compulsory deliveries and by voluntary sale: to the expansion of State farm production; and to increasing quantities of foodstuffs available in the State and co-operative shops.” (Political Economy, A Textbook issued by the Economics Institute of the Academy of Sciences of the U.S.S.R)
मास्टरजी की यह बात भी बिलकुल ग़लत है कि सोवियत रूस में नेप के बाद निजी व्यापारी मौजूद थे। परन्तु हमारे मास्टरजी राज्य द्वारा समस्त फसल की ख़रीद की गारण्टी की भी कल्पना कर लेते हैं और इसे अंजाम देने वाले निजी व्यापारियों की भी फन्तासी रच लेते हैं। वजह यह है कि अध्ययन उन्होंने किया नहीं और उसकी कमी को वह अपनी मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से पूरा करते हैं।
सोवियत रूस से निकली स्तालिन के दौर में ही तैयार हुई यह राजनीतिक अर्थशास्त्र की पुस्तक यह भी साफ करती है कि मालों का मूल्य सामाजिक श्रम से तय होता था:
“The magnitude of the value of commodities produced and realised in socialist economy is determined by the quantity of socially-necessary labour-time expended on producing them. Socially-necessary labour-time means the average labour-time expended by the enterprises which produce the bulk of output in the branch concerned. The socially-necessary time is a quantity which has an objective existence. The socially-necessary labour-time expended on producing a unit of a commodity determines the social value of the commodity”
“When planning prices, the Socialist State takes into account and uses the influence of the law of value. The problem of securing a sound economic basis for the planning of prices is of great importance for the development of the national economy.
““In the problem of prices all the main economic and therefore, the political problems of the Soviet State intersect: Questions of establishing correct relations between the peasantry and the working class, and of achieving an inter-connected and inter-dependent development of agriculture and industry . . . questions of securing real wages and of strengthening the chervonets . . . all these came up against the problem of prices.” (Resolution of the Central Committee of the C.P.S.U. (B), February 1927. The C.P.S.U. in Resolutions and Decisions of its Congresses, Conferences and Central Committee meetings, Pt. II, 7th Russian edition, 1953, p. 225.)”
सामूहिक फार्म समाजवादी सम्पत्ति का सबसे उन्नत रूप नहीं थे। वे तो राजकीय फार्म होते हैं। राजकीय फार्मों के उत्पाद राज्य के होते हैं और इस तौर पर वे समाज की सामूहिक मिलकियत होते हैं। लेकिन सामूहिक फार्म पर पैदा होने वाला उत्पाद सामूहिक फार्म का होता था और केवल उस हद तक ही समाजीकृत होता था। इसे राज्य थोक में प्राप्ति-कीमत (procurement or compulsory delivery prices) पर खरीदता था। यह एक प्रकार का वस्तु के रूप में कर (tax-in-kind) ही था, जैसा कि हम सोदाहरण व सप्रमाण ऊपर दिखा चुके हैं। इसके अलावा एक हिस्सा राज्य द्वारा बिकवाली या ख़रीद कीमत (purchase price) पर खरीदा जाता था, जो प्राप्ति-कीमत से कुछ ऊँची होती थी। इस बिकवाली कीमत को राज्य अलग-अलग कृषि उत्पादों के लिए बढ़ाता-घटाता रहता था, ताकि तमाम कृषि उत्पादों के बीच एक सही अनुपात कायम किया जा सके और सारे कृषि उत्पादों व औद्योगिक उत्पादों के बीच एक सही अनुपात कायम किया जा सके, जिससे कि मालों का समाजवादी विनिमय सही तरीके से संचालित हो सके। इन कीमतों को भौतिक प्रोत्साहन की संरचना को आवश्यकतानुसार बदलने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, न कि 40 या 50 प्रतिशत ऊंचे लाभकारी मूल्य देने के लिए।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि उत्पादों का सबसे बड़ा हिस्सा प्राप्ति मूल्य पर राज्य को बेचा जाता था, जो कि लागत से मामूली रूप से ऊपर होती थी। यानी, सोवियत संघ में लागत मूल्य के ऊपर 40-50 प्रतिशत का मुनाफा देने की पीआरसी के लेखक महोदय की बुखारिनपंथी फन्तासी बस उनके दिमाग़ की पैदावार है, उसका इतिहास व तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है।
इसके बाद भी बच गए माल को कोलखोज़ बाज़ार में खरीदा-बेचा जाता था, जहां कीमतें अधिक हो सकतीं थीं व एक हद तक मुक्त बाज़ार के नियम काम कर रहे थे, हालांकि उत्पाद के बड़े हिस्से के राज्य द्वारा प्राप्ति-कीमत पर ख़रीदने के कारण आम तौर पर वे अप्रत्यक्षत: विनियमित होतीं थीं। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यहाँ यह है कि बिकवाली कीमतें ऊपर या नीचे समाजवादी आर्थिक योजना को अमल में लाने के लिए की जाती थी, न कि किसानों को ऊँचा मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए। समाजवादी अर्थों में हर सामूहिक फार्म की शुद्ध आय या ”मुनाफे” का इस्तेमाल उत्पादन को विस्तारित करने और उत्पादकता बढ़ाने के लिए किया जाता था।
कुल मिलाकर कहें तो सबसे अहम बात यह थी कि कीमतों का निर्धारण सामाजिक श्रम का आकलन करके और समाजवादी उत्पादन व विनियमन की योजना के अनुसार किया जाता था जिससे उद्योग की भिन्न शाखाओं, खेती की भिन्न शाखाओं और खेती व उद्योग के बीच विनिमय संगठित किया जा सके। इस तरह सामाजिक श्रम आबंटित किया जाता था, उत्पादों का वितरण होता था और इसमें कीमतें विभिन्न शाखाओं और उत्पादों के बीच सुचारू विनिमय सुनिश्चित करने का औज़ार या ज़रिया थीं।
सामूहिक फार्म के किसानों का जीवन-स्तर इसलिए बेहतर नहीं था कि वहां किसानों को लाभकारी मूल्य जैसा 40-50 प्रतिशत मुनाफा सुनिश्चित करने वाला दाम मिलता था, जैसा कि हमारे लेखक महोदय को कहीं से इल्हाम हुआ है और एक चकित हिरनी की भांति वह यह सवाल भी हमसे पूछते हैं, बल्कि श्रमशक्ति के एक माल के रूप में खात्मे, उजरती श्रम के खात्मे, निजी सम्पत्ति के खात्मे, राज्य द्वारा प्रदत्त कल्याणकारी व सामाजिक सुरक्षा योजनाओं, खाद्य राशनिंग, राजकीय बीमा व्यवस्था आदि के कारण ही यह संभव हुआ था। सोवियत राजनीतिक अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक का यह अंश ग़ौरतलब है-
“Compulsory deliveries of agricultural produce by collective farms to the State are not a tax in the economic sense of the word since the State pays for this produce. The Soviet State plans and lays down firm procurement prices for agricultural produce acquired by centralised statutory deliveries. In planning these prices the State takes into account the value of each agricultural product, its significance for the national economy and the economic advantage of its production for the collective farm. At the same time these prices for compulsory deliveries are laid down at a level which ensures the handing over to State funds of part of the collective farm net income to meet the general State needs. State income from the sales of produce received through compulsory deliveries is used for public needs: for the development of socialist industry, which supplies agriculture with machines and fertilisers, on education, on health, etc. For some, agricultural produce the State, in addition to the fixed price, grants cash bonuses and organises a return sale of grain, manufactured goods and foodstuffs. Moreover, some of them are sold at preferential State prices, which are lower than those usually charged.
“Apart from compulsory deliveries and contract purchases of industrial crops, the State acquires agricultural produce from collective farms and collective farmers in the form of State purchases, at purchase prices which exceed those paid for compulsory deliveries. In this purchasing of agricultural produce the State carries on return sales to the collective farms and collective farmers of manufactured goods.
“Finally, the collective farms sell to the population a certain part of their saleable output on the collective farm market, at prices formed in this market under the influence of supply and demand.
“Compulsory deliveries to and voluntary purchases by the State are a most important source of the collective farms’ money income, which is used to supplement the indivisible fund, to pay the work-days of the collective farmers, and for other purposes.
“The level of compulsory and voluntary purchase prices is of very great importance in connection with the raising of the material incentive of the collective farms and collective farmers to develop collective farm production. As has been mentioned, the law of value, though not the regulator of socialist production, exercises an influence on the formation of the prices of agricultural products. The prices at which marketable produce is sold have a strong bearing on the state and development of collective farm production and its particular branches. These prices must make good the outlay on production and guarantee a certain degree of profitability. If these requirements of the law of value are ignored, the material incentive of the collective farms and farmers to develop one or other branch of the socialised sector may be undermined. Thus, at the September, 1953, Plenum of the Central Committee of the Communist Party of the Soviet Union it was established that the level of compulsory delivery and voluntary sales prices which formerly existed for a number of agricultural products was not stimulating the collective farms and collective farmers to increase their production. The necessity of raising these prices in keeping with the requirements of the law of value arose.” (वही)
जैसा कि हम देख सकते हैं कीमतों के निर्धारण का इस्तेमाल समूची समाजवादी अर्थव्यवस्था के नियोजन, सन्तुलित और सुचारू समाजवादी विनिमय को सम्पन्न करने के लिए किया जाता था। अलग-अलग मौकों पर कुछ कृषि उत्पादों की सापेक्षिक कीमतों को बढ़ाया गया, तो कुछ अन्य को घटाया भी गया। स्पष्ट है कि स्तालिन के लेखन और सोवियत रूस की राजनीतिक अर्थशास्त्र की पाठ्य पुस्तक में प्रस्तुत की गयी अवस्थिति का पीआरसी सीपीआई (एमएल) की अवस्थिति से कोई लेना-देना नहीं है।
सामूहिक किसानों व मेहनतकश जनता के जीवन के स्तरोन्नयन का कारण यह था कि अब समूची मेहनतकश जनता को अपने सामाजिक श्रम के अनुसार भुगतान मिल रहा था, न कि उनके श्रमशक्ति के मूल्य के अनुसार। हम जानते हैं कि किसी मेहनतकश द्वारा किया जाने वाला सामाजिक श्रम उसकी श्रमशक्ति के मूल्य से ज़्यादा मूल्य सृजित करता है, इतनी बात एडम स्मिथ भी जानते थे। आदिम काल के दौर के अतिरिक्त यह बात समूचे वर्ग समाज के इतिहास के लिए सही है।
यदि श्रमशक्ति माल नहीं रह जाती है, बेशी मूल्य की श्रेणी ही समाप्त हो जाती है, और मेहनतकश वर्गों के सामाजिक श्रम के उत्पाद का कोई भी हिस्सा किसी शत्रु वर्ग द्वारा विनियोजित नहीं किया जाता और वह पूरा का पूरा मेहनतकश वर्ग को मिलता है, चाहे प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: एक समाजवादी राज्य के ज़रिये, तो निश्चित तौर पर उनके जीवन स्तर में सुधार आएगा ही। यह वर्ग सम्बन्धों में आने वाला परिवर्तन था जिसने सामूहिक फार्म के किसानों के जीवन स्तर में बढ़ोत्तरी की न कि किसी प्रकार का 40-50 प्रतिशत शुद्ध मुनाफा देने वाला कोई लाभकारी मूल्य। बुखारिनपंथ के कचरे से सड़ा हुआ दिमाग़ ही ऐसी कल्पना कर सकता है कि समाजवाद में सामूहिक किसानों के जीवन को समाजवादी राज्य मुनाफा देने वाला लाभकारी मूल्य देकर (”अमीर बनो” का बुखारिन का नारा!) बेहतर बनाता है। वह समाजवादी क्रान्ति के बाद वर्ग सम्बन्धों में आने वाले परिवर्तन को समझता ही नहीं है, समाजवादी राज्यसत्ता के चरित्र से अनभिज्ञ है क्योंकि वह बुनियादी मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण भूल चुका है।
दूसरी बात, समाजवाद और मज़दूर सत्ता उत्पादन सम्बन्धों में परिवर्तन के साथ उत्पादक शक्तियों को निर्बन्ध करती है और उत्पादकता और उत्पादन में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी होती है। साथ ही, वितरण के सम्बन्ध भी समाजवादी हो चुके होते हैं, जिससे कि भौतिक सम्पदा में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी होती है और उसका वितरण भी समाजवादी ढंग से होता है। नतीजतन, समाजवादी समाज के सभी मेहनतकश नागरिकों के जीवन स्तर में एक छलांग लगती है, जिसमें कि सामूहिक फार्मों के किसान भी शामिल हैं।
तीसरी बात, समाजवादी राज्य बहुत-सी चीज़ों की जिम्मेदारी ले लेता है, मसलन बच्चों की शिक्षा, समाजवाद के उत्तरोत्तर विकास के साथ रसोई और बच्चों के पालन-पोषण का क्रमिक समाजीकरण, इत्यादि, जिसके कारण एक मेहनतकश का जीवन स्पष्टत: स्तरोन्नयित होता है, क्योंकि पूंजीवादी समाज में श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन से जुड़ी इन सभी गतिविधियों का ख़र्च एटमीकृत (atomized) मज़दूर परिवार पर डाल दिया जाता था। लेकिन समाजवादी व्यवस्था में यह बिल्कुल बदल जाता है। अब श्रमशक्ति माल नहीं रह जाती और इन सारी गतिविधियों की जिम्मेदारी राज्य लेता है। राज्य सामूहिक फार्मों से प्राप्ति दाम पर जो ख़रीद करके उनकी शुद्ध आय के एक हिस्से को लेता है, तो वह भी इसलिए कि वह सामाजिक योजनाओं के रूप में, सामूहिक फार्मों को यंत्र, बीज, खाद, इत्यादि के रूप में वापस मेहनतकश जनता के पास ही आता है।
ये हैं वे कारण जिनके चलते सामूहिक फार्म के किसानों समेत समूची मेहनतकश जनता के जीवन में स्तरोन्नयन होता है, न कि किसी प्रकार का 40-50 फीसदी मुनाफा देने वाला लाभकारी मूल्य। हम कह नहीं सकते कि पीआरसी के लेखक महोदय अपने निपट अपढ़पन के कारण ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हैं या फिर धनी किसानों-कुलकों की पालकी का कहार बनने की मौकापरस्ती में वह इतने गिर गये हैं कि समाजवादी सोवियत संघ के इतिहास से ही दुराचार पर आमादा हैं। उनके बौद्धिक स्तर और किस्म को देखकर इन दोनों ही सम्भावनाओं या इनके किसी मिश्रण की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता है।
अन्त में यह समझना ज़रूरी है कि कीमतों की पॉलिसी के निर्धारण में समाजवादी राज्य लेनिन द्वारा पेश ज़मीन के समाजीकरण के बुनियादी नियम को ही लागू कर रहा था। जमीन की उर्वरता और बाज़ार में कीमतों हेतु अन्य लाभदायक परिस्थितियों के कारण जो बेशी आय होगी वह जनता की ज़रूरतों के लिए सोवियत सत्ता के पास आएगी। यह पहले किस्म का विभेदक लगान है जो प्राकृतिक अन्तर के कारण पैदा होता है और जिसे राज्य समस्त जनता के लिए कीमतों को निर्धारित कर सामूहिक फार्म से लेता है। जबकि सामूहिक फार्मों की उत्पादकता के अन्तर से पैदा हुए दूसरे किस्म के विभेदक लगान का वितरण उन सामूहिक फार्मों में ही किया जाता है। यानी समाजवादी कीमत नीति के मूल में बेशी मुनाफा दिलवाना नहीं है, बल्कि उस बेशी मुनाफे का समाजवादी राज्य द्वारा विनियोजन है। दूसरे शब्दों में, यह कीमत नीति लाभकारी मूल्य की नीति के ठीक विपरीत है। देखें:
“The distribution of differential rent under socialism has the following peculiarities. In so far as differential rent I, received in collective farms, is not connected with additional outlay of means of production and labour, to that extent it must be applied to the needs of the people as a whole. The “Fundamental Law on Socialisation of the Land”, signed by V. I. Lenin, declared: “Surplus income received from the natural fertility of better pieces of land and also from the more advantageous location of pieces of land in relation to markets, shall pass to the disposal of the organs of Soviet power, to be used for public needs.” (The Agrarian Policy of the Soviet Power, I917-18. Documents and Materials, U.S.S.R. Academy of Sciences, Russian edition, 1954, p. 137.) .
“Since differential rent II arises as a result of intensification of agriculture, thanks to additional investment of means of production and labour by the collective farms and M.T.S; in one and the same area of land, it must be distributed between them in proportion to the outlay they have made. Part of the differential rent received by the collective farms goes to develop their socialised sector and to raise the material and cultural standard of life of the collective farmers.
“Part of differential rent passes into the hands of the State for public requirements, through the following channels. First, it becomes available through payment in kind to the M.T.S., in so far as additional net income created by the labour of the M.T.S. workers is embodied in it, while rates of payment in kind differ considerably as between zones: as well as because when the harvesting plan is over-fulfilled the M.T.S. receives part of the harvest collected in excess of plan. Secondly, through the system of compulsory deliveries to the State, since prices for these deliveries presuppose the redistribution of part of the net income of the collective farms for the needs of general State expenditure, while the quota figures for compulsory deliveries of produce by the collective farms to the State vary according to the conditions of production in various districts. Thirdly, in some part through the income tax on collective farms, since the size of the tax depends on the level of collective farm income.” (Political Economy, A Textbook issued by the Economics Institute of the Academy of Sciences of the U.S.S.R)
इन उद्धरणों से साफ़ हो जाता है कि समाजवादी राज्य किस तरह से कीमतों को निर्धारित करता था। साथ ही, लेखक महोदय और उनके संगठन द्वारा उछाला गया “उचित दाम” का नारा भी कितना भ्रामक, ग़द्दारी भरा और मौक़ापरस्त नारा है, यह भी इस चर्चा में स्पष्ट हो जाता है। तथ्य और इतिहास तो यही बताते हैं कि हमारे लेखक जी की समझ और वास्तविक तथ्यों में सफेद और काले का अन्तर है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सोवियत राज्य मशीनों आदि की सेवा मुफ्त में सामूहिक किसानों को नहीं देता था, बल्कि मशीन-ट्रैक्टर स्टेशन के मज़दूरों के सामाजिक श्रम के साथ सामूहिक फार्मों के किसानों के उत्पाद के एक हिस्से का विनिमय होता था।
कुल मिलाकर कहें तो लेखक महोदय अपने मौजूदा लेखन में बुखारिनपंथ का एक बहुत भोंडा संस्करण पेश करने की कोशिश करते हैं और इस चक्कर में वह यह भी जगज़ाहिर कर देते हैं कि उन्हें न तो सोवियत समाजवाद के इतिहास के बारे में कोई जानकारी है और न ही समाजवदी संक्रमणकाल के राजनीतिक अर्थशास्त्र की ही उनकी कोई समझदारी है। और जब हम ऐसा कहते हैं तो वह हम पर ही नाराज़ हो उठते हैं और तंज कसते हैं कि यह बर्ताव तो “ट्रोल्स” जैसा है! अब जिस मस्तिष्क को आलोचना ही ‘ट्रोलिंग’ प्रतीत हो तो उसके बारे में क्या कहा जाए! वास्तव में यह लेखक महोदय द्वारा आत्मरक्षा के लिए किये गए छद्म प्रयास हैं जिनका उन्हें कोई फायदा मिला नहीं है और इस वजह से बचा-खुचा सम्मान भी जाता रहा है। जैसा कि एक कहावत चलती है, ”चौबे गये छब्बे बनने, दूबे बनकर आ गये।”
क्या सोवियत समाजवादी प्रयोग की बात करना उसके ऐतिहासिक महत्व और भूमिका को कम करके आंकना है?
इसके अलावा एक अन्य स्थान पर लेखक महोदय यह भी कहते हैं कि सोवियत रूस के समाजवादी प्रयोग को समाजवादी प्रयोग कहना समाजवाद के अनुभव को नीचे करके देखना है। यह आचरण कोचिंग सेंटर के उस खूसट मास्टरजी की तरह है जो अपने बच्चों को परीक्षा के लिए कुंजी के प्रश्नों के रट्टे लगवाते हैं परन्तु जिन्हें स्वयं किसी सिद्धांत की समझदारी नहीं होती है। लेनिन ‘राज्य और क्रान्ति’ में पेरिस कम्यून के प्रयोग का मार्क्स द्वारा किये गए मूल्यांकन के बारे में कहते हैं:
“Marx, however, was not only enthusiastic about the heroism of the Communards, who, as he expressed it, “stormed heaven”. Although the mass revolutionary movement did not achieve its aim, he regarded it as a historic experience of enormous importance, as a certain advance of the world proletarian revolution, as a practical step that was more important than hundreds of programmes and arguments. Marx endeavored to analyze this experiment, to draw tactical lessons from it and re-examine his theory in the light of it.” (Lenin, State and Revolution)
इस प्रकार की बात ही करना, कि ”प्रयोग” शब्द के इस्तेमाल से सोवियत समाजवाद की महानता को कम किया गया है और उसकी नकारात्मकता को दिखलाया गया है, दिखलाता है कि पीआरसी के लेखक महोदय की तर्कपद्धति पूर्ण-गंजत्व को प्राप्त हो चुकी है और अब उनके पास बोलने के लिए कुछ बचा नहीं है।
समाजवादी क्रान्ति और उसके बाद समाजवादी निर्माण का हर प्रयास एक वैज्ञानिक प्रयोग ही होता है। इस शब्द के इस्तेमाल से समाजवादी निर्माण की महानता में कोई कमी आती है, ऐसा सोचने का काम निहायत कठमुल्ला दिमाग़ ही कर सकता है, जिसे लगता है कि उसके पास समाजवाद की हर समस्या का एक बना-बनाया समाधान है। हमारे पीआरसी के ”भावी शासक” लेखक महोदय की यही समस्या है, बस एक बार वह कुलकों की गोद में बैठकर क्रान्ति कर दें, उन्हें लाभकारी मूल्य दे दें, फिर तो वह दिखा ही देंगे कि वह समाजवाद का कोई प्रयोग नहीं करेंगे बल्कि सीधे समाजवाद से साम्यवाद में छलांग लगाकर वर्ग समाज के पूरे जंजाल को ही सदा के लिए ख़त्म कर देंगे! प्रयोग-वयोग करने में क्या समय बरबाद करना!? पीआरसी के लेखक महोदय का शेखचिल्लीवाद और किहोतेवाद अब उस स्तर पर है, जो चिकित्सीय देखरेख की मांग करता है।
हर क्रान्ति वास्तव में एक क्रान्तिकारी प्रयोग ही होती है क्योंकि सर्वहारा क्रान्तिकारियों के पास भविष्य की समस्याओं का कोई बना-बनाया नुस्खा नहीं होता, बल्कि बदलती राजनीतिक वर्ग स्थितियों (class situations) के अनुसार हर नये सन्धि-बिन्दु पर सर्वहारा हिरावल को निर्णय लेने होते हैं, चुनाव करना होता है, उपलब्ध विकल्पों/रास्तों का मूल्यांकन करना होता है और अनुभव और तर्कपरकता के द्वन्द्वात्मक तालमेल के साथ, व्यवहार और सिद्धान्त के द्वन्द्वात्मक तालमेल के साथ फैसले लेने होते हैं। इसमें कभी वे कामयाब होते हैं, कभी नाकामयाब होते हैं। यदि ऐसा न होता तो सर्वहारा क्रान्तिकारियों के बीच कभी कोई बहस नहीं होती। जो यह नहीं समझता है, वह त्रॉत्स्की के पार्टी के अचूक और अमोघ होने के सिद्धान्त (theory of infallibility of the Party) का हामी है न कि लेनिन के पार्टी के द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त का। यह बेहद सामान्य सी बात है, जो कोई भी ऐसा व्यक्ति समझ सकता है, जो कि संजीदा राजनीतिक कामों में लगा हुआ है, न कि राजनीतिक काम को भी कोचिंग सेण्टर की तरह चलाता है और अपने विद्यार्थियों को सस्ती गाइडों और ‘मेड ईज़ी’ पुस्तकों से पढ़ाता है और वह भी ढंग से नहीं कर पाता है।
दरअसल, मास्टरजी ने ”प्रयोग” शब्द के इस्तेमाल को मुद्दा बनाने का असफल प्रयास भी इसलिए किया है क्योंकि वे मूल मुद्दे पर बुरी तरह से रपट गये हैं। अन्यथा, हमारे देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में हुए लेखन में भी समाजवादी प्रयोगों को प्रयोग कहा गया है और इसमें कोई समस्या भी नहीं है।
पीआरसी के लेखक महोदय का आरोप है हम स्तालिन के नेतृत्व में समाजवादी निर्माण को केवल सीमित ऐतिहासिक महत्व का मानते हैं और उसे एक नकारात्मक उदारहण मानते हैं कि समाजवादी निर्माण कैसे न किया जाय! अपने इस दावे के लिए लेखक महोदय कोई उद्धरण या प्रमाण पेश करने की आवश्यकता नहीं समझते हैं, जिसकी कि उनसे उम्मीद करना ही बेकार है।
हम स्तालिन काल के समाजवादी प्रयोग को महान मानते हैं और प्रयोग शब्द का इस्तेमाल करने से उसकी महानता में कोई कमी नहीं आती है। साथ ही, हम इस समाजवादी प्रयोग के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पहलुओं का विश्लेषण करते हैं, जो कि स्वयं स्तालिन ने भी किया था और लेनिन ने भी और बाद में माओ ने भी। यदि आलोचनात्मक विवेचन करने को कोई नकारात्मकता प्रदर्शित करने का प्रमाण या महानता को कम दिखाने का प्रमाण मानता है, तो उसकी मार्क्सवादी समझदारी पर हंसा ही जा सकता है। बेहतर होगा कि वह सर्वहारा क्रान्तिकारी का कार्य छोड़कर किसी मन्दिर में पुजारी का काम कर ले, क्योंकि उसे अन्धपूजा करने और सिखाने के अलावा कुछ नहीं आता है।
मूल बहस में पिटकर ब्राउनी प्वाइण्ट्स स्कोर करने के प्रयास में ही पीआरसी का लेखक हमें रेमण्ड लोट्टा व बॉब अवाकियान का समर्थक बताता है। ज़ाहिर है, उसने हमारे संगठन के लेखन का संजीदा अध्ययन नहीं किया है और हमने किसी विशिष्ट मुद्दे पर किसकी पुस्तक प्रकाशित की है, उसके आधार पर कुछ तुक्के मार रहा है। रेमण्ड लोट्टा व बॉब अवाकियान का 1970 के दशक में चीन में हो रहे परिवर्तनों के विवेचन और माओ की विरासत की हिफ़ाज़त करने में अन्य तमाम ग्रुपों के साथ एक योगदान था और हम वहां तक ही उनके योगदान को मानते हैं और केवल उसी से जुड़ी रचना को हमने प्रकाशित किया है। साथ ही, हम बॉब अवाकियान की विचारधारा और राजनीति के बाद में पतित हो गये चरित्र के प्रति एक मुखर आलोचनात्मक नज़रिया रखते हैं। यह अप्रासंगिक बात उठाना भी वास्तव में पीआरसी के मास्टरजी द्वारा एक और ब्राउनी प्वाइण्ट स्कोर करने का असफल प्रयास मात्र है, जिससे कि वह असल मुद्दे से भाग सकें।
इसी प्रकार पीआरसी के लेखक महोदय कई अन्य ब्राउनी प्वाइण्ट्स स्कोर करने का छिछला व सस्ता प्रयास करते हैं। मसलन, वह हमें चार्ल्स बेतेलहाइम का समर्थक बताते हैं, क्योंकि चार्ल्स बेतेलहाइम की एक पुस्तक की प्रस्तावना हमने छापी है! वह इसलिए क्योंकि उस प्रस्तावना में बेतेलहाइम कुछ नया नहीं कह रहे हैं, बल्कि समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के विषय में माओ द्वारा कही गयी बातों को दुहरा मात्र रहे हैं। लेकिन बेतेलहाइम की विस्तृत आलोचना कुछ वर्षों पहले ही हम पेश कर चुके हैं:
(http://dishasandhaan.in/archives/1297)
और हमने मास्टरजी की तरह टीपा-टीपी करके यह आलोचना नहीं पेश की है! दिलचस्पी रखने वाले पाठक हमारी बेतेलहाइम पर लिखी आलोचना का अवश्य अध्ययन करें और सोचें कि क्या मास्टरजी का यह आरोप सही है, या महज़ ब्राउनी प्वाइण्ट्स स्कोर करने का एक सस्ता प्रयास।
इसी प्रकार मास्टरजी ने हमारे ऊपर अल्थूसर, सामिर अमीन और न जाने किस-किस का अनुसरण करने का आरोप लगा दिया है! जो भी हमारे संगठन के राजनीतिक लेखन से वाकिफ़ हैं, वे जानते हैं कि यह इतनी हास्यास्पद बात है, जिसका जवाब देना भी बेकार है।
मास्टरजी से हमने कहा था कि वे समाजवादी संक्रमण के दौरान धनी किसानों-कुलकों के साथ समाजवादी सत्ता क्या करेगी, इसके बारे उन्हें कुलक आन्दोलन में जाकर पूरा सच बताना चाहिए, न कि ”उचित दाम” का भ्रामक वायदा करना चाहिए और यह कि यदि मास्टरजी ऐसा करेंगे, तो धनी किसान-कुलक उनकी भौतिक समीक्षा करके स्वयं उन्हें समझा देंगे कि उन्हें समाजवाद की आवश्यकता नहीं है। इस पर मास्टरजी तिलमिला कर बोलते हैं कि हम ही क्यों नहीं किसान आन्दोलन के मंच पर जाकर बहस करते हैं और किसान आन्दोलन की अपनी आलोचना रखकर किसानों को सहमत करते हैं! क्या मूर्खतापूर्ण सवाल है!? हमें जिस मंच से यह आलोचना पेश करनी है और जिस तरीके से मज़दूर वर्ग, खेतिहर मज़दूरों, मेहनतकश ग़रीब किसान वर्ग के जनसमुदायों को कुलक आन्दोलन के वर्ग चरित्र के विषय में जागरूक करना है, वह तो हम उन सभी क्षेत्रों के गांवों और शहरों में कर ही रहे हैं, जहां हम कार्य करते हैं। कुलक आन्दोलन के मंच पर जाकर कुलकों के वर्ग चरित्र पर बहस कैसे हो सकती है और इसे करने का फ़ायदा क्या है? यह आन्दोलन अपनी गति से स्वयं ही अपने निर्वाण को प्राप्त हो जाएगा और हो भी रहा है और व्यापक जनसमुदाय के समक्ष अपना चरित्र भी साफ़ कर रहा है। लेकिन मास्टरजी की मांग ऐसी है कि कारसेवकों के आन्दोलन में जाकर उनसे मन्दिर निर्माण की व्यर्थता पर बहस करो! ऐसी मूर्खतापूर्ण मांग वही कर सकता है, जिसका ऊपरी माला पूरी तरह ख़ाली हो चुका हो और मास्टरजी के साथ ऐसा हो गया है, इसके बारे में रहे-सहे शक़ को भी उन्होंने अपने इस लेख में दूर कर दिया है।
निष्कर्ष
हम यह देख सकते हैं कि पटना के वामपंथी दोन किहोते महोदय ने हमारी ‘पद्धति’ की आलोचना का बीड़ा उठाने का वायदा तो किया लेकिन वास्तव में उन्होंने निम्नस्तरीय कुत्साप्रचार का सहारा लिया है और हमें उद्धृत किये बगैर हमारी अवस्थिति के बारे में सीधे-सीधे ग़लतबयानी की है और काफी झूठ बोले हैं। मिसाल के तौर पर, वह ”बौद्धिकों के परिवार”, ”शिकारी”, इत्यादि जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो उन्होंने कुछ असामाजिक तत्वों से चुराए हैं, जिन्होंने अपना जीवन हमारे खिलाफ़ कुत्साप्रचार को समर्पित कर दिया है! जैसा कि आप देख सकते हैं, दोन किहोते दि ला पटना कुत्साप्रचार के मामले में भी मौलिक नहीं हैं और वहां भी कुछ निकृष्ट कुत्साप्रचारकों से चौर्य–चिन्तन और चौर्य–लेखन करते हैं! जहां तक ऐसे कुत्साप्रचार का प्रश्न है, न तो हमने अतीत में कभी उनका जवाब दिया और न ही अब देंगे क्योंकि कोई भी क्रान्तिकारी इसे अपनी इंक़लाबी शान के खिलाफ़ समझता है।
हमारी आलोचना का जवाब देने में अपने आपको अक्षम पाने पर पटना के दोन किहोते हमारी अवस्थितियों के बारे में सफेद झूठ बोलते हुए और तमाम कुलकवादियों द्वारा अपनाई गई एक सस्ती तरकीब चुराते हुए हमें कारपोरेट का समर्थक बताते हैं, सिर्फ इसलिए कि हम उनके समान धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठने के लोकरंजकतावादी आग्रह का निषेध कर रहे हैं। उनके अनुसार, जो धनी किसानों-कुलकों के लाभकारी मूल्य के लिए हो रहे आन्दोलन का समर्थक नहीं है, वह कारपोरेट पूंजी का समर्थक है!
ऐसी बेहूदा तर्कपद्धति के बारे में क्या कहा जा सकता है? हमने ऊपर अपनी पूरी अवस्थिति उद्धृत की है ताकि पाठक स्पष्ट तौर पर देख सकें कि हमारी अवस्थिति सर्वहारा वर्ग और ग़रीब मेहनतकश किसानों की स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति के निर्माण की वकालत करती है, जो कि धनी किसानों-कुलकों से भी अलग है और कारपोरेट पूंजी से भी अलग है, जिनके बीच में झगड़ा ही कुल विनियोजित बेशी मूल्य के बंटवारे का है। इस झगड़े में सर्वहारा वर्ग और ग़रीब मेहनतकश किसान वर्ग ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ बनकर किसी एक पक्ष के साथ क्यों खड़ा होगा, जबकि उसका पक्ष ही अलग है? और जो व्यापक मेहनतकश आबादी को धनी किसानों-कुलकों का पिछलग्गू बनाने का काम कर रहे हैं, वे दरअसल सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश जनता को खेतिहर बुर्जुआजी का पिछलग्गू बनाने, वर्ग सहयोगवाद की कार्यदिशा अपनाने और मेहनतकश आबादी के वर्ग हितों का आत्मसमर्पण करने का अपराध कर रहे हैं।
हमने पिछली बार ही अपनी आलोचना में भी यह दिखलाया था और मौजूदा लेख में भी यह दिखलाया है कि इन जनाब का संगठन लाभकारी मूल्य की मांग को व्यवस्था-विरोधी मांग बताकर वास्तव में इस आन्दोलन की पूंछ पकड़कर लटकना चाहता है और इसलिए सर्वहारा क्रान्ति के धनी किसान आन्दोलन की लहर पर सवार होकर आने के हास्यापद होने की हद तक मूर्खतापूर्ण प्रस्थापनाएं पेश कर रहा है, जिनका बिन्दुवार, ससन्दर्भ, सप्रसंग, सप्रमाण और सोदाहरण आलोचना हमने ऊपर पेश की है। वैसे तो कोई भी विवेकवान व्यक्ति ऐसे पागलपन की हद तक हास्यास्पद दावों पर हंस ही सकता है कि भारत में सर्वहारा क्रान्ति कुलकों के आन्दोलन पर सवार होकर आएगी!
साथ ही पीआरसी के हमारे लेखक महोदय धनी किसानों व कुलकों के मौजूदा आन्दोलन में “क्रान्तिकारी अन्तर्य” ढूंढ निकालने के लिए भयंकर मूर्खतापूर्ण अमूर्तन करने का प्रयास करते हैं, जो कि जोकरी में समाप्त होता है। वह इस शोषणकारी वर्ग को पूँजीवाद-विरोधी घोषित कर डालते हैं जोकि निश्चित ही इक्कीसवीं सदी की महान खोजों में गिनी जायेगी! वे धनी किसानों को शोषित-उत्पीडि़त दिखाने के लिए उन्हें कॉरपोरेट पूंजी के बरक्स रखकर दीन-हीन जैसा प्रस्तुत करते हैं कि ये बेचारे धनी किसान किस क़दर पूंजीवादी व्यवस्था के सताए हुए हैं कि अब वे समाजवादी व्यवस्था के पक्ष में आकर अपने खेतों को साझी खेती की व्यवस्था के लिए पेश कर डालने के लिए मचल जाएंगे! हमारे दोन किहोते दि ला पटना यहाँ तक कह डालते हैं की रूस में भी अगर कॉरपोरेट पूँजी का प्रवेश कृषि में हुआ होता तो यह धनी किसानों-कुलकों का वर्ग समाजवादी क्रान्ति का मित्र वर्ग होता! हमने अपनी इस आलोचना में यह दिखलाया है कि यह न सिर्फ तथ्यों और सच्चाइयों के साथ दुराचार है, सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती है, बल्कि निहायत मूर्खतापूर्ण समाजशास्त्रीय और अनैतिहासिक विश्लेषण है जो कि वर्ग सहकार की कार्यदिशा पर आधारित है, न कि मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण पर और साथ ही यह भयंकर राजनीतिक अपढ़पन और इतिहास की नाजानकारी से पैदा हुआ है।
इन अजीबोग़रीब प्रस्थपनाओं के आधार पर वे ‘राजनीतिक’ होकर सोचने के नाम पर धनी किसानों के साथ सर्वहारा वर्ग के मोर्चे का एलान करते हैं। अन्त में वे “अश्वथामा हतो नरो वाकुंजरो” की तर्ज़ पर दावा करते हैं कि केवल सर्वहारा राज्य ही धनी किसानों समेत सभी किसानों को उसकी समूची उपज के लिए “उचित दाम” दे सकता है और यह भी कहते हैं कि सोवियत संघ में यह ”उचित दाम” लागत के 40-50 प्रतिशत ऊपर था! और इस प्रकार सीधे-सीधे जनविरोधी लाभकारी मूल्य का समर्थन करते हुए पीआरसी के मास्टरजी उस भावी समाजवादी राज्य में इसे किसानों को देने का वायदा करते हैं, जिसमें वह शासक वर्ग के हिरावल होंगे! हास्यास्पद किस्म के शेखचिल्लीवाद के अलावा, यहाँ हमारे लेखक महोदय असल में बुखारिन की वर्ग सहयोग और कुलकों के साथ रिश्ता कायम करने की नीति की ही पैरवी करते नज़र आते हैं जिसकी आलोचना स्तालिन ने की थी, हालांकि वह बुखारिनपंथ का एक ऐसा दयनीय रूप से दरिद्र संस्करण पेश करते हैं, कि उस पर बुखारिन ने भी निश्चय ही आपत्ति जताई होती! ”उचित दाम” के भ्रामक और अस्पष्ट नारे के साथ, जो कि दरअसल लाभकारी मूल्य देने का ही वायदा है, पीआरसी के मास्टरजी किसी तरह से कुलकों की ट्रॉली के कोने में एक जगह चाहते हैं।
अपने निपट अपढ़पन को अनावृत्त करना जारी रखते हुए पीआरसी के लेखक महोदय बताते हैं कि सोवियत रूस में श्रमशक्ति माल थी और दूसरा यह कि राज्य किसानों की सारी फसल खरीदता था और उन्हें ऊंचा दाम देता था। हमने यह दिखाया कि वे अपढ़पन और मूर्खता में सोवियत इतिहास और समाजवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ दुराचार कर रहे हैं और उन्हें समाजवादी संक्रमण के राजनीतिक अर्थशास्त्र का इमला भी नहीं पता है।
लेखक महोदय एक आत्मविश्वास से लबरेज़ मूर्ख के समान छाती पीटते हुए बोलते हैं कि ”हां, हम हैं क्रान्ति करने की जल्दी में!” कोई दिक्कत नहीं है, महोदय, लेकिन क्रान्ति का विज्ञान तो समझने का धैर्य रखिये, थोड़ा मार्क्सवाद-लेनिनवाद, देश-दुनिया के इतिहास, समाजवादी प्रयोगों के इतिहास को पढ़ने का काम तो कर लीजिये! कुलकों की गोद में बैठकर ”भावी शासक वर्ग” बनने के जल्दबाज़ शेखचिल्लीवाद के चक्कर में कहीं आप अपनी ही भद्द न पिटवा लें। काफ़ी तो पिटवा ही चुके हैं।
हम पिछली आलोचना की तरह ही फिर से दोहराते हैं कि झूठ और मौकापरस्ती से भरे कुतर्कों की आड़ में पीआरसी सीपीआई (एमएल) की सर्वहारा वर्ग-विरोधी और साथ ही मूर्खतापूर्ण अवस्थिति छिप नहीं सकी है, भले ही लेखक महोदय ने ऊपरी तौर पर तेवर गर्मा-गर्म अख्तियार करने के प्रयास किये हों और सर्वहारा क्रान्ति कर डालने की जल्दबाज़ी भी दिखाई हो! वास्तव में, ये तेवर अपने सियासी कुनबे में अपने बचे-खुचे बौद्धिक प्राधिकार को बचाए रखने की मज़ाकिया कोशिश ज्यादा है और वस्तुत: कुत्साप्रचार, झूठ, लफ्फाज़ी और गाली-गलौच में तब्दील हो गयी है।
लुब्बेलुबाब यह कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्व मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन की गोद में बैठने की ख़ातिर तरह-तरह के राजनीतिक द्रविड़ प्राणायाम कर रहा है, तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहा है, गोलमोल बातें कर रहा है, समाजवाद के सिद्धान्त और इतिहास का विकृतिकरण कर रहा है और अवसरवादी लोकरंजकतावाद में बहकर ऊलजुलूल सिद्धांत-प्रतिपादन कर रहा है। और हम इसकी सच्चाई को अनावृत्त करने के लिए बाध्य हैं, क्योंकि, जैसा कि मार्क्स ने कहा था, ”किसी ग़लती को अखण्डित छोड़ देना, बौद्धिक बेईमानी है।’’
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