कोविड-19 के षड्यंत्र सिद्धान्तों का संकीर्ण अनुभववाद और रहस्यवाद की परछाई

सनी सिंह

कोरोना महामारी (पैंडेमिक) के साथ इस वायरस के उत्पत्ति की फेक न्यूज़ महामारी(इंफोडेमिक) का भी विस्फोट बहुत तेज़ी से हुआ। लाखों लोग इस बीमारी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं लेकिन कुछ लोग कोरोना वायरस और लॉकडाउन को षड्यंत्र बताते रहे। भारत में बीमारी पर मुनाफ़ा कमाने के लिए टीका बनाने वाली कम्पनियों में भी धींगामुश्ती चल रही है वहीं अभी तक हमारे कोविडियट्स यह नहीं तय कर पाए हैं कि कोरोनावायरस है क्या? उनके अनुसार यह वायरस नया नहीं है, बल्कि सामान्य मौसमी फ्लू है, या इसकी उत्पत्ति चीन/बिल गेट्स के प्रयोगशाला में की गई है, या इसका विकास 5G बैंडविथ के विकिरणों की वजह से हुआ है, या फिर बड़ी फार्मा कंपनियों द्वारा ही पहले से ही शोध कर लिए गए टीका को बेचने के लिए इस वायरस को बनाया गया है, इत्यादि। इन व्याख्याओं को जनता के बीच स्वीकार्यता मिली है। इसकी वजह जनता में मौजूद “कॉमन सेन्स” है। यह अनुभवों का सारसंग्रहवादी समुच्चय होता है। इसके आधार पर कोई भी प्राकृतिक या समाज वैज्ञानिक फैसला नहीं ले सकता है। परन्तु कोविड-19 के उद्भव और उसके फैलने के सामाजिक-आर्थिक कारणों कर पड़ताल करने की जगह केवल लाक्षणिक पड़ताल तक ही तमाम बुद्धिजीवी व क्रान्तिकारी सीमित रहे।
इस बीमारी का तार्किक विश्लेषण ही हमें इसके इलाज और रोकथाम की ओर लेकर जा सकता है। दक्षिणपंथियों (जो वर्ग अंतर्विरोध को छिपाने के लिए तरह-तरह के झूठ बोलते हैं) और “वामपंथियों” (जो अपने बेवकूफी की वजह से चीज़ों को समझ नहीं पाते हैं) का ग़लत विश्लेषण उन्हें षड्यंत्र सिद्धांतों के ही गड्ढे में लेकर जाता है। जिसके परिणामस्वरूप इन सिद्धांतों का प्रचार करने में टीका-विरोधी, दक्षिणपंथी और कुछ अपढ़ ‘मार्क्सवादी’ भी सबसे आगे थे। टीका-विरोधी वे प्रकृतिवादी लोग हैं जो टीकाकरण के षड्यंत्र होने का दावा करते हैं। यह बहुत ही हास्यास्पद है कि ब्राजील, यूरोप और अमेरिका के दक्षिणपंथियों द्वारा मास्क, लॉकडाउन और बीमारी के ख़िलाफ़ आयोजित किए गए विरोध प्रदर्शन का समर्थन भारत के अपढ़ मार्क्सवादी भी कर रहे थे। इस मूर्खता की जड़ भौंडे अनुभववादी दर्शन में है। फासिस्ट और प्रतिक्रियावादी ताकतें जनता में प्रचलित अनुभवों के समुच्चय ‘कॉमन सेन्स’ का इस्तेमाल अपनी विचारधारा को फैलाने में करती हैं। अनुभववाद जनता के बीच प्रचलित के एक ऐसी विचारधारा है जो विज्ञान की अनुपस्थति में किसी भी सामाजिक या जैविक परिघटना का केवल आनुभविक, प्रत्यक्षवादी, और इम्प्रैशनिस्ट विश्लेषण पेश करती है। अनुभववाद सिद्धांतों की अवहेलना करता है। वे यह नहीं समझ पाते कि हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। कोरोना वायरस के उद्धभव और उसके फैलाव की वजह से हुए लॉकडाउन के बारे में भी इस तरह ही एक तरफ़ अनुभववादी विवेचना मौजूद है तो उसकी द्वन्द्वात्मक छाया के तौर पर तमाम षड्यंत्र सिद्धांत फलते फूलते हैं।

प्राकृतिक विज्ञान में प्रचलित अनुभववाद

किसी भी परिघटना के सार को समझने के लिए हमें इसके बाहरी आवरण को भेदकर आंतरिक संरचना तक जाना होता है। जब इंद्रियग्राह्य ज्ञान व्यवहार के दौरान अवधारणा तक पहुँच जाता है तब हम सार तक पहुँच जाते हैं। केवल व्यवहार में उतरने के बाद ही हम सामान्यीकरण, सिद्धांत, कार्य-कारण, आंतरिक संरचना और एक प्रक्रिया की अन्तरवस्तु तक पहुँचते हैं। आकाश में तारों की छतरी आज की नहीं बल्कि भूतकाल की तस्वीर है। अगर शक्तिशाली दूरबीन से देखें तो हमें ऐसे सितारे दिखेंगे जो असल में मौजूद नहीं हैं। लेकिन चूंकि उनकी किरणें अभी तक हमारी आँखों तक पहुँच रहीं हैं इसलिए हमें उनकी तस्वीर दिखाई देती है। वे हमसे करोड़ों प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं और जितना समय उनके प्रकाश को धरती पर आने में लगता है, उतना समय उन्हें ब्लैक होल द्वारा खा लिए जाने या फिर सुपरनोवा के रूप में खत्म हो जाने के लिए काफ़ी है। हम अवधारणात्मक ज्ञान की उस मंज़िल तक पहुँच चुके हैं जहां हमें यह पता चलता है कि आसमान ब्रह्मांड की गतिशील तस्वीर प्रतिबिम्बित करता है। सापेक्षता के विशेष सिद्धांत ने हमें इस अवधारणा पर वैचारिक स्पष्टता प्रदान की है। सड़े हुए मांस पर लार्वा का प्रजनन हमें यह प्रतिबिम्बन देता है मानो इसमें ही नवजीवन विकसित हो रहा हो। लेकिन असल में इस वातावरण में मौजूद सूक्ष्मजीव और मक्खियाँ के अण्डे से पैदा हुए लार्वा मांस को सड़ाते हैं। लुई पाश्चर ने इसे साबित किया, जिसे आगे चलकर जर्म थ्योरी विकसित हुई। रॉबर्ट कोश ने आगे यह निष्कर्ष निकाला कि बीमारियाँ आकाश में ग्रहों और सितारों की अवस्थिति की वजह से नहीं बल्कि विभिन्न कीटाणुओं के कारण होती हैं। इससे पहले, गैलन का मियाज़मा सिद्धांत काफ़ी लोकप्रिय था जिसके मुताबिक बीमारियाँ दूषित हवाओं की वजह से होती हैं, इसलिए हमें अपने शरीर को शुद्ध रखना चाहिए। पवित्रता और प्रकृतिवाद की यह अवधारणा अभी भी चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद और अन्य अनुभवजन्य प्रथाओं जैसे कि यूनानी चिकित्सा और होम्योपैथी में व्यापक रूप से प्रचलित है। ये सभी आनुभविक अवलोकनों और पूर्व-आधुनिक जीव विज्ञान की अवधारणाओं पर आधारित हैं। ये आनुभविक पद्धति कई बार हमें सही अवलोकनों तक भी पहुँचा देती है, लेकिन इससे हम विज्ञान नहीं कह सकते। इन सिद्धांतों की कई अवधारणाएँ आधुनिक जीव विज्ञान के उलट बात करती हैं।
आधुनिक जीव विज्ञान सभी आधुनिक विज्ञानों मे सबसे नया है। पहले सेल और फिर जर्म सिद्धांतों की खोज हुई, और तब से विज्ञान के हर एक क़दम ने अमूर्त/रहस्मय कारणों को हटाकर ठोस भौतिक जैविक कारणों कर पड़ताल की है। आधुनिक भौतिकी पूँजीपति वर्ग के उदय के साथ पुनर्जागरण के दौर में पैदा हुई। पहले धर्म सम्मत विश्व की कल्पना के अनुसार मुताबिक पृथ्वी को ब्रह्मांड का केन्द्र माना गया था। आभासी रूप से सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, लेकिन यह जानने के लिए विज्ञान की ज़रूरत होती है कि प्रतीतिगत चीजें वास्तविक नहीं होतीं। गैलीलियो द्वारा यह सिद्ध किया गया कि सूर्य धरती के चारों ओर नहीं बल्कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है। और फिर रसायन विज्ञान में, फ्लॉजिस्टन सिद्धांत भी एक ऐसी ही अवधारणा थी जिसके अनुसार चीजों में मौजूद फ़्लॉजिस्टन नामक तरल पदार्थ के कारण आग लग जाती है। पदार्थों की रासायनिकी के बारे में हमारे ज्ञान ने किमियागिरी और फ्लॉजिस्टन सिद्धांतों का निषेध कर दिया। भौतिकी और रसायन विज्ञान के बाद ही आधुनिक जीव विज्ञान का जन्म हुआ। और इसके साथ ही आधुनिक दवाओं का विकास हुआ, लेकिन अभी भी पुरानी चिकित्सकीय प्रथाएं समाज में मौजूद हैं। आनुवंशिक सिद्धांत और वायरस की संरचना आधुनिक विज्ञान की खोज हैं, और हमें इनके बारे में 19वीं और 20वीं शताब्दी में ही पता चला। इंसान ने आकाशगंगाओं और पृथ्वी के बारे में अवधारणात्मक ज्ञान प्राप्त किया, उसके बाद ही वह खुद अपने शरीर और अपनी प्रजाति को समझने में सक्षम हुआ। इतिहास में न्यूटन लायल से पहले आए और लायल के बाद डार्विन आए। ऐसा ही हो सकता था। विभिन्न प्रजातियों की गतिकी के बोध, यानी उदविकास, धरती पर यांत्रिक बदलाव और ब्रह्मांड संबंधी परिवर्तन के ज्ञान के बाद विकसित होने के बाद ही हासिल किया गया। आधुनिक जीव विज्ञान विज्ञान की सबसे नई शाखा है। जर्म सिद्धांत लुई पाश्चर और रॉबर्ट कोश द्वारा 19वीं शताब्दी में ही ढूंढा जा सकता था। इसने जीवन की स्वत:उद्भव (स्पॉन्टैनियस जनरेशन) के सिद्धांत को ध्वस्त कर दिया। सोवियत वैज्ञानिक ऑपेरिन, व मार्क्सवादी वैज्ञानिक हॉल्‍डेन व बर्नाल ने जीवन की जैवरासायनिक उत्पत्ति का सिद्धांत दिया जो कि बाद मिलर और यूरे के प्रयोग में मूलत: सही साबित हुआ। मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और अन्य संरचना और रोगाणुओं का हम पर असर जानने के बाद ही टीकाकरण की शुरुआत हो पायी। पहले एडवर्ड जैनर द्वारा चेचक के टीके की खोज हुई और उसके बाद फ्लेमिंग द्वारा पहली एण्टीडबायोटिक पेनिसिलिन की खोज हो सकी। कोशिकाओं की खोज, इवोल्यूशन के सिद्धांत, जर्म थ्योरी का विकसित होना मानव ज्ञान के क्रमिक चरण हैं। विज्ञान हमारे मस्तिष्क पर लगातार गतिमान पदार्थ का ही प्रतिबिम्बन है और इसलिए यह हमेशा सापेक्ष होता है। मानव ज्ञान के लिए हमेशा अज्ञान का एक क्षितिज और अनिश्चितता का एक धुंधलका बना रहता है। ज्ञान और अज्ञान के द्वन्द्व में नई अवधारणाओं पर अतीत के सिद्धांतों के अवशेष लिपटे रहते हैं जो व्यववहार में ही झाड़े जाते हैं।
अतीत के सिद्धांतों के अवशेष व्यवहार में नष्ट हो जाते हैं। अनुभववाद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से इस रूप में अलग है कि अनुभववाद यह समझ ही नहीं पाता कि ज्ञान हमेशा गहरा होता जाता है, और व्यवहार के दौरान हम इंद्रियग्राह ज्ञान से अवधारणात्मक ज्ञान तक पहुंचते हैं। अनुभाववादी व्यवहार-ज्ञान-व्यवहार के कुंडलाकार गति से अनभिज्ञ होते हैं। आधुनिक विज्ञान ने यह साबित किया है कि इसका दर्शन द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी है। लेकिन अनुभववादी समझ आज भी समाज में मौजूद हैं। चूंकि आधुनिक जीव विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा, विज्ञान की एक नई शाखा है, इसलिए तमाम अनुभववादी और आध्यात्मिक सिद्धांतों के अवशेष आज भी इस पर मौजूद हैं। अगर हम कोविड-19 की समस्या को ही देखें, तो हम इस तरह के षडयन्त्र सिद्धांतों और इनके दार्शनिक स्रोतों को भी आसानी से समझ सकते हैं।
कोविड-19 सार्स कोरोनावायरस-2 वायरस की वजह से होता है और यह इंसान की ऊपरी श्वसन प्रणाली को प्रभावित करता है। यह वायरस कोरोनावायरस की ही प्रजाति है। सामान्य जुकाम भी कोरोनावायरस की कुछ प्रजातियों के कारण होता है, जो सार्स कोरोनावायरस -2 से भिन्न होती हैं। वायरस क्या होता है? वायरस प्रोटीन खोल के भीतर एक आनुवांशिक तत्व होता है जिसपर तेल का आवरण (लिपिड कोटिंग) हो सकता है। सार्स कोरोना वायरस-2 में बाहरी परत तेलीय आवरण की होती है जिसकी सतह से बाहर प्रोटीन के कांटे निकले होते हैं। आनुवांशिक तत्व के रूप में आरएनए के रेशे इस संरचना के केन्द्र में होते हैं। इसलिए अल्कोहलयुक्त सैनिटाइज़र या साबुन इस वायरस के ख़िलाफ़ काफ़ी प्रभावी होते हैं। यह तेलीय आवरण को नष्ट कर देता है। वायरस की संरचना के अनुसार ही यह अनुमान लगाया गया है कि यह वायरस प्राकृतिक रूप से इंसानों में स्पीशीज़ जम्प (एक विषाणु का एक प्रजाति से दूसरे प्रजाति में प्रवेश कर जाना) हुआ है। जिस प्रजाति से ये वायरस मनुष्यों में आया है वह संभवतः चमगादड़ है। चमगादड़ में प्राकृतिक रूप से मौजूद वायरस का आनुवंशिक रूप से सार्सकोरोना वायरस-2 के समान है। इस वायरस पर हुए विभिन्न शोध प्रयोगशाला में इसकी उत्पत्ति की संभावना को लगभग ख़ारिज करते हैं। सारे प्रमाण इसी ओर इशारा करते हैं कि इस वायरस का विकास प्राकृतिक रूप से हुआ है।
वायरसों के पास कोई मेटाबोलिक तंत्र नहीं होता और अपने प्रजनन के लिए ये दूसरे जीवित प्राणियों पर निर्भर रहते हैं। आनुवंशिक पदार्थ (डीएनए या आरएनए) ही एक जीव की सभी मूल चारित्रिक जानकारी लिए होता है। वायरस एक बहुकोशिकीय जीव की कोशिका के अंदर प्रवेश कर उस पर हमला करता है और उस कोशिका की मेटाबोलिज़्म का इस्तेमाल खुद के अनुकरण के लिए करता है। सार्स कोरोना वायरस-2 मानव शरीर में प्रवेश कर अपने प्रोटीन स्पाइक्स के माध्यम से मानव कोशिकाओं पर मौजूद एन्ज़ाइम से जुड़ जाता है। किसी वायरस द्वारा शरीर में प्रवेश करने पर हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वायरस पर हमला करने की कोशिश करती है। हमारे शरीर में दो प्रकार की प्रतिरोधक क्षमताएँ होती हैं: आंतरिक और अनुकूलित। आंतरिक प्रतिरोधक क्षमता की वजह से शरीर में साइटोकिन्स जैसे कुछ रसायनों का रिसाव होता है, जो संक्रमित कोशिकाओं को मारने की कोशिश करते हैं, जिसके प्रभावस्वरूप शरीर में बुखार होता है। तमाम लक्षण जैसे नाक का बहना, गले में खराश, और मांसपेशियों में दर्द होना रोगाणु के खिलाफ़ हमारी प्रतिरोधक क्षमता की प्रतिक्रिया के प्रभाव हैं। इस प्रकार फ्लू, सामान्य सर्दी और कोविड-19 और कई वायरल संक्रमणों के कई लक्षण एक ही प्रकार के होते हैं। इस वजह से अनुभववादी लाक्षणिक ज्ञान के आधार पर ही इन सभी बीमारियों को एक समझ लेते हैं।
दूसरे प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता को अनुकूलित प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं। अनुकूलित प्रतिरोधक क्षमता में लिम्फोसाइट कोशिकाएँ और एंटीबॉडी शामिल होते हैं, जो विशिष्ट रोगाणु के ख़िलाफ़ विशिष्ट प्रतिक्रिया देते हैं। यह प्रतिरोधक शक्ति जब भी किसी रोगाणु (बाहरी तत्व) की पहचान करती है, तो इनका मुकाबला करने के लिए यह विशेष एंटीबॉडी और कोशिकाएँ बनाती है जो रोगाणु की संरचना, जिसे एंटीजेन कहा जाता है, की पहचान कर लेती है ताकि अगली बार इस तरह के वायरस के शरीर में दोबारा हमला करने पर उनसे लड़ सके। अनुकूलित प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक या फिर मानव-निर्मित हो सकती है। मानव-निर्मित प्रतिरोधक क्षमता टीके की मदद से विकसित होती है। टीके में बीमारी पैदा करने वाले रोगाणु की संरचना होती है जिससे शरीर को नुकसान नहीं होता लेकिन हमारी प्रतिरोधक क्षमता इस संरचना को पहचान कर हमें संक्रमित करने वाले ऐसे रोगाणुओं से लड़ने में सक्षम हो जाती है। यह एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया की सरल तस्वीर है जो कि रोगाणु, प्रतिरोधक क्षमता और टीकाकरण की मूलभूत अवधारणा को समझना ज़रूरी था। टीका और महामारी के ज्ञान के अभाव में तमाम कोविडियट्स, जिनमें हमारे अपढ़ मार्क्सवादी भी शामिल हैं, टीका-विरोधियों के साथ ताल में ताल मिलाकर यह कह रहे हैं कि टीका एक धोखा है और इस संक्रमण से उबरने के लिए हमें अपनी प्राकृतिक अनुकूलित प्रतिरोधक क्षमता को विकसित होने देना होगा। लेकिन यह आधुनिक जीव विज्ञान के विरोध में है, और कोई ऐसा करता है तो उसे खुद को वैज्ञानिक ही नहीं विज्ञान का छात्र कहने का भी कोई हक़ नहीं है। यह वही तर्क है जो तमाम कोविडियट्स हर्ड इम्यूनिटी के जरिये बीमारी से लड़ने के पक्ष में देते हैं। उनका यह दावा है कि वैज्ञानिक जो बड़ी-बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनियों के लिए काम करते हैं वे माल उत्पादन कर रहे हैं ताकि इन कम्पनियों का मुनाफ़ा सुरक्षित रहे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि टीकाकरण की ही भर्त्सना की जाए। अमरीका ने E=mc2 का इस्तेमाल परमाणु बम बनाने के लिए किया था, जिसकी वजह से हिरोशिमा और नागासाकी में लाखों लोगों की जान चली गई, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह समीकरण ही ग़लत है। हमें विज्ञान को इस व्यवस्था द्वारा उसके उपयोग करने के तरीके से अलग कर देखना चाहिए। वायरस हमारी अटकलबाज़ी का विषय नहीं होता यह वस्तुगत यथार्थ है। इसे हम माइक्रोस्कोप के तहत इसे देख सकते हैं। हम शरीर में मौजूद सार्सकोरोनावायरस-2 के एंटीजन, प्रोटीन की जांच करके इसका परीक्षण कर सकते हैं या आरटी पीसीआर (रिवर्स ट्रांस्क्रिप्ट पॉलीमरेज़ कंडेनसेशन रिएक्शन) वायरस के परीक्षण के माध्यम से इसे परख सकते हैं जो रोगी के ऊपरी श्वसन नली में वायरस के आरएनए का परीक्षण करता है। इस वायरस की जैविक संरचना, जो इसे अन्य वायरसों से अलग करती है, एक वस्तुगत सच्चाई है। लेकिन वैज्ञानिक चेतना की कमी के चलते आम जनता हर तरह के षड्यंत्र सिद्धान्तों पर यकीन करती है। ये सिद्धांत वास्तव में पूँजीवाद के विरोधाभासों पर पर्दा डालने में मदद करते हैं।
इंसानों के बीच कोविड-19 का फैलाव का मूल कारण पर्यावरण का विनाश है। औद्योगीकरण और कृषि के अराजक और अंधे विकास के कारण वन्यजीवों के प्राकृतिकवास सिकुड़ रहे हैं। उनके प्राकृतिकवास के नष्ट होने की वजह से वन्यजीव की विशेष प्रजातियों में मौजूद वायरस मानव समाज के संपर्क में आ जाते हैं। जब से मानव समाज अस्तित्व में आया है, हम तमाम वायरसों से संक्रमित होते रहे हैं। लेकिन 1970 से ही मुनाफ़े की अंधी हवस के कारण वायरल संक्रमण की दर बेहद अधिक हो गई है। मानव-जाति में प्रवेश करने वाले वायरस की प्रक्रिया ‘स्पीशीज़ जम्प’ के माध्यम से होती है, जहां विभिन्न प्रजातियों के वन्यजीवों में अस्तित्वमान वायरस ‘जेनेटिक इवोल्यूशन’ के ज़रिये इंसानों के संपर्क में आकर उन्हें संक्रमित करना शुरू कर देता है।
पूँजीवाद में, जहां एक तरफ़ पूँजीपतियों की ‘प्रकृति पर विजय प्राप्त करने’ की कोशिश के कारण हमें एक के बाद एक महामारियों का सामना करना पड़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को तबाह किया जा रहा है, स्वास्थ्य को एक माल बना दिया जा चुका है। इसका खामियाजा मुख्य त: ग़रीब जनता ही उठाती है। परन्तु यह महामारी रूपी ‘मौत का फरिश्ता’, जैसा कि एंगेल्स ने महामारी को कहा, झुग्गियों में तो अपने पंख फैलाए खड़ा रहता ही है लेकिन अमीरों के घर भी इससे बच नहीं पाते। वायरस के इस सामाजिक-पारिस्थितिक उद्भव और विकास को समझे बिना ये कोविडियट्स यह दावा कर रहे हैं कि वैज्ञानिक बड़े फार्मा कंपनियों की प्रयोगशालाओं में इस वायरस को बना रहे हैं। हमारे अपढ़ मार्क्सवादी भी इन तर्कों का ज़ोर-शोर से प्रचार कर रहे हैं।
एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब भी वैज्ञानिकों को अपने विश्लेषणों को संशोधित करना पड़ा तो ये कोविडियट्स खुद की पीठ थपथपाते हुए कहने लगे कि वैज्ञानिकों का परीक्षण ग़लत है। कुछ देशों में मृत्यु दर के पुनरीक्षण या वायरस की उत्पत्ति की अवधारणा में संशोधन का मजाक उड़ाया गया। विज्ञान के पास सारे सवालों का जवाब नहीं होता। यही इसे धर्म से अलग करती है।
आखिरी बात यह कि जब भी कोरोना वायरस के विश्लेषण के दौरान, जब कभी भी किसी अवलोकन और विश्लेषण में गलती आई है, तब षड्यंत्र सिद्धांतों के प्रचारकों ने इसके बिना पर वैज्ञानिकों को ग़लत करार दिया है। ये षड्यंत्र सिद्धांतकार जनता के बीच मौजूद अनुभववाद और जीन व अन्य वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में आधी समझ का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। षड्यंत्र सिद्धांतों के एक संस्करण का दावा है कि कोविड-19 के टीका के माध्यम से शरीर में क्वांटम डॉट बॉट्स को प्रवेश कराया जाएगा, जो हमारे शरीर को नियंत्रित करेगा। यह एक बहुत ही मूर्खतापूर्ण धारणा है। यह उन्हीं सिद्धांतों की तरह ही है जिसमें यह कहा गया था कि भारत में नोटबंदी के बाद आने वाले 500 और 2000 के नोटों में नैनो चिप होगा, जो पैसों को ट्रैक करेगी! इसे ही अनुभववाद की छाया में आधुनिक अध्यात्मवाद का मौजूद रहने की हमारी बात को समझा जा सकता है। फाइव-जी तकनीक द्वारा वायरसों का आनुवंशिक उत्परिवर्तन (genetic mutation) और इस तरह के अन्य दावे बिल्कुल ही अव्यावहारिक हैं। लेकिन अज्ञानता की वजह से ये विचार आम जनता में प्रतिध्वनित हो जाते हैं। उसी प्रकार बुद्धिसंगत ज्ञान की कमी की भरपाई अनुभववाद हमेशा ही रहस्यमयी सिद्धांतों से करता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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