जन संगठन, विचारधारा और पहचान की राजनीति से सम्बन्धित प्रश्नों पर ‘दिशा’ और ‘बाप्सा’ के बीच चली बहस में ‘दिशा’ का जवाब

प्रिय पाठको, हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में सक्रिय दो छात्र संगठनों ‘दिशा छात्र संगठन’ और ‘बिरसा अम्बेडकर फुले स्टूडेण्ट्स एसोसिएशन (बाप्‍सा)’ के बीच अस्मितावादी राजनीति, अम्‍बेडकरवाद, जन संगठन व पार्टी संगठन की प्रकृति और चरित्र को लेकर एक बेहद महत्‍वपूर्ण बहस चली। इस बहस में ‘दिशा’ की ओर से दिये गये जवाब को हम बेहद अहम मानते हैं। यह जवाब बहुत-से राजनीतिक और विचारधारात्‍मक प्रश्‍नों पर रोशनी डालता है, साझा न्‍यूनतम कार्यक्रम पर बने जन संगठन के चरित्र को स्‍पष्‍ट करता है और छात्र आन्‍दोलन के लिए आम तौर पर बहुत ही महत्‍वपूर्ण प्रश्‍नों को उठाता है। हम इस जवाब का पहला हिस्‍सा पेश कर रहे हैं और ‘आह्वान’ के अगले दो अंकों में बाक़ी दो हिस्‍से भी प्रकाशित करेंगे। हम उम्‍मीद करते हैं कि प्रगतिशील छात्रों-युवाओं के लिए यह जवाब काफ़ी प्रबोधनकारी होगा। – सम्‍पादक

शोर-शराबे और आवेश से भरी एक कहानी जिसका अर्थ कुछ भी नहीं है।
-शेेक्सपीयर
प्रबोधनकाल के महान दर्शनिकों में गिने जाने वाले ज्याँ-जैक रूसो ने एक बार कहा था, यथार्थ-जगत की अपनी सीमाएँ होती हैं; कल्पना-जगत असीमित होता है। हालाँकि उन्होंने यह बात एक अलग सन्दर्भ में कही थी, मगर दिशा छात्र संगठन की बेहद सतही क़िस्म की आलोचना करने की कोशिश में BAPSA समर्थक योगेन्द्र कुमार के द्वारा लिखे गये एक पर्चे को पढ़ते समय यह कथन बरबस ही याद आ जाता है। इस पर्चे में कल्पना के असीम जगत में अनैतिक उड़ानें भरने के बाद लेखक जब यथार्थ के धरातल पर वापस आता है, तो अपने ही बयानों के अन्तरविरोधों में उलझ जाता है। अगर लेखक ने वाकई में दिशा के पर्चे और घोषणापत्र को पढ़ा होता और अध्यक्ष पद के लिये दिशा के उम्मीदवार के भाषण और प्रति-प्रश्नों को सुना होता, तो दिशा और इसकी अवस्थिति के बारे में कोरी कल्पनाएँ करने से बाज़ आता और ख़ुद को इस दयनीय अवस्था में नहीं पाता।
साथ ही, बेहतर होता अगर अपने एक समर्थक को बलि का बकरा बनाने की बजाय BAPSA ने ख़ुद अपनी तरफ़ से दिशा की आलोचना पेश की होती। मगर समर्थक महोदय का बयान चाहे जितना भी बचकाना लगे, हम इसका जवाब देने के लिये बाध्य हैं। लेखक ने इस दर्ज़े की मूर्खता का प्रदर्शन किया है कि उसके जवाब में बहुत सी ऐसी बातें शामिल होंगी जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के जानकार छात्रों को पहले से मालूम होंगी, इसलिये दुहराव के लिये हम पहले से ही माफ़ी माँगते हैं।
सबसे पहली बात, लेखक का दावा है कि JNU में तीन साल बिताने के दौरान, उसने कभी भी कम्युनिस्ट संगठनों के द्वारा छात्रों को अपने संगठन में शामिल होने से पहले कम्युनिस्ट घोषणापत्र पढ़ने के लिये कहते हुए नहीं देखा है। मार्क्सवादी विचारधारा और राजनीति की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले व्यक्ति को पता होता है कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र मार्क्सवाद से परिचय कराने वाली सबसे बुनियादी किताबों में से एक है। यदि किसी छात्र ने यह किताब भी नहीं पढ़ी है, तो किसी मार्क्सवादी संगठन में सदस्यता उसे किस आधार पर दी जानी चाहिए? मार्क्सवादी संगठन के सदस्यों को इसमें शामिल होने से पहले मार्क्सवाद के बारे में कम से कम बुनियादी ज्ञान तो होना चाहिए। क्या यह रॉकेट साइंस है जिसे हमारे भोले-भाले दोस्त नहीं समझ पा रहे हैं?
क्या यह समझना इतना मुश्किल है कि एक मार्क्सवादी संगठन के सदस्यों को मार्क्सवादी होना चाहिए, यानी उनका विश्व-दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी होना चाहिये और जिसके तहत उन्हें नास्तिक भी होना चाहिये? तो, क्या तथाकथित वामपन्थी संगठन सिर्फ़ नास्तिकों को सदस्यता देंगे? यदि नहीं, तो वे ख़ुद को मार्क्सवादी संगठन क्यों कहते हैं और साथ ही साथ मार्क्सवादी विचारधारा को कमज़ोर क्यों करते हैं? यदि हाँ, तो क्या नास्तिकता का यह मानदण्ड उनके सदस्यता के दायरे को बहुत सीमित नहीं कर देता?
यदि JNU के तथाकथित वामपन्थी छात्र संगठनों के संगठनकर्ताओं ने मार्क्सवाद की बुनियादी किताबों को पढ़ा होता, तो उन्होंने कभी भी अपने जन संगठनों के मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट संगठन होने का दावा नहीं किया होता। लेनिन ने अपने लेखों में बार-बार, ख़ासकर ट्रेड यूनियनों पर ट्रॉट्स्की के साथ हुई बहसों में और मेंशेविकों और श्ल्यापनिकोव जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के साथ हुई बहसों में भी पार्टी संगठन और जन संगठन के बीच का फ़र्क़ रेखांकित किया है और कहा है कि पार्टी संगठन मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित होते हैं, जबकि ट्रेड यूनियनें एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम (CMP) पर आधारित होती हैं। लेनिन आम तौर पर जन संगठनों के बारे में जो कहते हैं, वह छात्र संगठनों पर भी लागू होता है। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की 10वीं कॉन्ग्रेस में पारित होने वाले लेनिन के द्वारा तैयार किये गये प्रस्ताव में कहा गया है:
सिर्फ़ वही ट्रेड यूनियन व्यापकतम – और यहाँ तक कि पिछड़े – मेहनतकश जनों को संगठनात्मक कौशल व राजनीतिक प्रशिक्षण देने की प्राथमिक पाठशाला हो सकती है, जो कारख़ाने के अन्दर व बाहर, दोनों जगहों पर मज़दूर की ज़िन्दगी के सभी पहलुओं व उनके रोज़-रोज़ के हालात पर नियमित रूप से ध्यान देती हो। ट्रेड यूनियन सदस्यों (69,70,000 सदस्य, जिनमें से सिर्फ़ 5,00,000 के आसपास की संख्या में ही पार्टी सदस्य हैं) में से ज़्यादातर ग़ैर-पार्टी सदस्य हैं।
मार्क्सवादी विचारधारा वाले कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य ट्रेड यूनियनों का हिस्सा बन सकते हैं, लेकिन इससे ट्रेड यूनियन न तो पार्टी का एक सम्बद्ध निकाय बन जाती है और न ही इसका मतलब यह है कि ट्रेड यूनियन एक मार्क्सवादी संगठन है। असल में, रूस की क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों में मार्क्सवादी मज़दूरों के अलावा, सामाजिक-जनवाद, नरोदवाद, अराजकतावाद, वाम-दुस्साहसवाद वग़ैरह से जुड़े मज़दूर भी शामिल थे और साथ ही साथ, ऐसे मज़दूर भी शामिल थे जिनका सचेतन रूप से किसी भी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था, मगर वे पूँजीवाद-विरोधी थे और मानते थे कि उनके न्यायोचित अधिकारों की लड़ाई के लिये ट्रेड यूनियन ज़रूरी है।
यही तर्क छात्रों और युवाओं के जन संगठनों पर भी लागू होता है। ट्रेड यूनियनों की तरह ही कोई क्रान्तिकारी छात्र-युवा जन संगठन छात्रों की तात्कालिक व दीर्घकालिक आर्थिक व भौतिक माँगों पर आधारित होता है, जो इसके क्रान्तिकारी साझा न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में अभिव्यक्त होता है। कोई भी छात्र जो शॉविनिस्ट, कट्टरपन्थी, साम्प्रदायिक, जातिवादी, स्त्रीद्वेषी, समलैंगिकद्वेषी, या अन्धराष्ट्रवादी नहीं है, और मानवतावाद, धर्मनिरपेक्षता व जनवाद के बुनियादी उसूलों के लिये प्रतिबद्ध है, वह संगठन के CMP से सहमत होने की सूरत में संगठन का सदस्य बन सकता है। राजनीतिक निरक्षरता के कारण कुछ लोग मानवतावाद, धर्मनिरपेक्षता, जनवाद, समाजवादी आर्थिक कार्यक्रम या सामान्य प्रगतिशीलता को मार्क्सवाद तक या ठीक इसी के उलट, मार्क्सवाद को इन चीज़ों तक सीमित कर देते हैं। वे विचारधारा शब्द के पूरे अर्थ को ही विसर्जित कर देते हैं। एक वैज्ञानिक अवस्थिति से, विचारधारा का अर्थ होता है एक विश्व-दृष्टिकोण व पद्धति। हर वास्तविक और पढ़ा-लिखा मार्क्सवादी इससे सहमत होगा।
इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से भी, धर्मनिरपेक्षता, जनवाद, मानवतावाद, और यहाँ तक कि समाजवाद की अवधारणा भी मार्क्सवाद से पहले ही अस्तित्वमान हो चुकी थी। और सामान्य प्रगतिशील शिविर (यानी, वे लोग जो प्रतिक्रिया और रूढ़िवाद, यानी, जनता के विभिन्न वर्गों व हिस्सों के उत्पीड़न, उनके साथ होने वाले अन्याय, व उनके शोषण के ख़िलाफ़ हैं) को महज़ मार्क्सवादियों तक सीमित कर देने से ज़्यादा हास्यास्पद कुछ भी नहीं होगा। सच्चे मार्क्सवादियों के लिये, ऐसा करना संयुक्त मोर्चे और रणनीतिक वर्ग मोर्चे के पूरे विचार को ही नष्ट कर देता है। जनता और वर्ग के द्वन्द्व को नहीं समझने के लिये माओ ऐसे लोगों पर हँस पड़ते। यह द्वन्द्व, एक रूप में, एक ओर विचारधारा व CMP के द्वन्द्व में और दूसरी ओर वर्ग संगठन व जन संगठन के द्वन्द्व में प्रतिबिम्बित होता है। ये नासमझ लोग इस मार्क्सवादी विचार को भी नहीं समझते: सर्वहारा वर्ग अकेले इतिहास नहीं बनाता; इतिहास जनता बनाती है, जिसमें सर्वहारा वर्ग भी शामिल है; जनता ऐसा सिर्फ़ एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में करती है। यह उक्ति मार्क्सवादी अवस्थिति से जनता और वर्ग के द्वन्द्व को स्पष्ट रूप से सामने ले आती है। यही कारण है कि लेनिन, स्टालिन और माओ के लिए, विचारधारा पर आधारित पार्टी संगठन और एक प्रगतिशील CMP पर आधारित जन संगठन के बीच अन्तर और सम्बन्ध को समझना आवश्यक था। हम यहाँ सिर्फ़ मार्क्स, एंगेल्स, और विशेष रूप से लेनिन, स्टालिन और माओ द्वारा तय किये गये मार्क्सवादी राजनीति के बुनियादी उसूलों का ज़िक्र कर रहे हैं।
तथाकथित वाम संगठनों की राजनीतिक अशिक्षा का आलम यह है कि दिशा के जैसे एक जन संगठन को उन्हें उनकी घोषित विचारधारा व राजनीति के बारे में बताना पड़ रहा है। हम इसी तरह के राजनीतिक रूप से दुर्भाग्यपूर्ण समय में जी रहे हैं।

दिशा का क्रान्तिकारी साझा न्यूनतम कार्यक्रम और विचारधारा का प्रश्न

एक समर्थक के रूप में उसने क्या देखा है इसके बारे में अपनी गहन अन्तरदृष्टि साझा करने के बाद लेखक कहता है, नया दाख़िला लेने वाले छात्र अलग-अलग छात्र संगठनों के व्याख्यान के सत्रों व अध्ययन चक्रों में शामिल होकर उनके व उनकी विचारधारा के बारे में अपनी समझदारी बनाते हैं, और परिणामस्वरूप वे इन संगठनों के समर्थक बन जाते हैं। आइये, इस दुखद विडम्बना को समझने की कोशिश करें।
यह सच है कि विश्वविद्यालय में शामिल होने वाले कई छात्र वर्तमान दुनिया की समझदारी हासिल करना चाहते हैं और ठीक इसी वजह से वे वर्तमान दुनिया का विश्लेषण करने के लिये उपयुक्त विश्लेषणात्मक उपकरणों की तलाश में भी हैं। यह खोज मूल रूप से एक तर्कसंगत विश्व-दृष्टिकोण व पद्धति की खोज है। परिसर में आने वाले ज़्यादातर छात्रों के दिमाग़ में स्वत:स्फूर्त विचारधाराओं का एक समुच्चय होता है, जिसमें अक्सर शासक वर्गों की अतार्किक, प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक विचारधाराएँ शामिल होती हैं। किसी भी न्यायप्रिय और संवेदनशील छात्र के लिये निश्चित तौर पर दुनिया का विश्लेषण करने और उसे बदलने के लिये एक वैज्ञानिक सिद्धान्त का सवाल एक प्रासंगिक सवाल होता है। लेकिन यह प्रश्न आम छात्रों के सामने खड़ी ढाँचागत व संयोगात्मक समस्याओं के ख़िलाफ़ लड़ने में सक्षम किसी क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन के सवाल से विशिष्ट रूप में जुड़ा हुआ नहीं है। बेशक, जैसे सभी सम्भावित सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न किसी न किसी तरह से सम्बन्धित हैं, वैसे ही छात्रों के आन्दोलन और पूरे समाज को बदलने का प्रश्न भी आपस में जुड़े हुए हैं; वस्तुस्थिति के बारे में कोई भी अन्य दृष्टिकोण अधिभूतवादी और यान्त्रिक होगा जो चीज़ों को ठहराव में (गति में नहीं), टुकड़ों में (सम्पूर्णता में नहीं), और पृथक रूप से (अन्तर-सम्बन्धों में नहीं) देखता है। हाँ, वस्तुस्थिति के इस व्यापक दृष्टिकोण में छात्रों का आन्दोलन सामान्य क्रान्तिकारी जन आन्दोलन और ढाँचागत परिवर्तन के सवाल से भी सम्बन्धित है। लेकिन, दुनिया के इस सामान्य दृष्टिकोण के आधार पर ही जन संगठन और पार्टी संगठन के सवालों का आपस में घालमेल नहीं किया जा सकता। यह एक दयनीय वस्तुस्थिति है कि JNU में छात्र संगठन एक प्रगतिशील CMP के बजाय इस या उस विचारधारा पर आधारित होने की घोषणा करते हैं। यह आमूलगामी जुझारू जनसंघर्षों के लिये जनता को संगठित करने के विचार को तो कमज़ोर करता ही है, साथ ही यह पार्टी संगठन के विचार को भी कमज़ोर करता है जिसका मक़सद मौजूदा व्यवस्था के ख़िलाफ़ संयुक्त राजनीतिक आक्रमण को संगठित करने के लिए जनता (इस शब्द को एक गतिशील राजनीतिक अवधारणा के रूप में पारिभाषित किया जाता है; जनता का मतलब जनसंख्या नहीं है, बल्कि आबादी के वे हिस्से और वर्ग हैं जो उत्पीड़ित और शोषित हैं) के सभी हिस्सों और वर्गों के संघर्षों को जोड़ना और उन्हें नेतृत्व देना होता है। अगर दोनों बातों का घालमेल कर दिया जाये, तो न ही उत्पीड़क व शोषक व्यवस्था को असम्भाव्यता के बिन्दु पर ले आने वाले ऐसे आमूलगामी जुझारू आन्दोलन खड़े किये जा सकते हैं जो सही मायनों में जन चरित्र (mass character) रखते हों, और न ही जनता का ऐसा कोई क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन निर्मित किया जा सकता है व उसकी अगुवाई की जा सकती है, जो सही मायनों में क्रान्तिकारी हो और जो जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा को सही दिशा देकर क्रान्तिकारी सामाजिक व राजनीतिक रूपान्तरण की ओर ले जा सकता हो। क्यों? क्योंकि विचारधारा पर आधारित होने के कारण जन संगठन वास्तव में एक जन संगठन नहीं होगा, और पार्टी संगठन चार-आने की सदस्यता के आधार पर एक जन संगठन बन जायेगा। क्या भारत के तथाकथित वाम संसदीय दलों और उनके जन संगठनों का ठीक यही हाल नहीं है? तो, हाँ, जनाब योगेन्द्र कुमार, छात्र विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन और अन्वेषण करते हैं और परिणामस्वरूप अपने सामाजिक और राजनीतिक वर्ग के आधार पर अलग-अलग विचारधाराओं को अपनाते भी हैं, मगर फिर भी उन्हें प्रगतिशील CMP पर आधारित जन-चरित्र वाले एक ऐसे जुझारू छात्र आन्दोलन की भी तलाश और ज़रूरत होती है जो परिसर के अन्दर फ़ासीवादी हमले का, फ़ीस वृद्धि का, सीटों में कटौती का, शिक्षा के साम्प्रदायीकरण का, परिसर में सिकुड़ते हुए जनवादी माहौल का, और साथ ही, जाति, यौनिकता, जेण्डर, राष्ट्रीयता, भाषा, नृजातीयता (ethnicity) इत्यादि के आधार पर होने वाले नाना प्रकार के सामाजिक उत्पीड़न का मुक़ाबला कर सके।
एक प्रगतिशील जन संगठन के रूप में, दिशा हर छात्र के द्वारा विचारों और विचारधाराओं के अन्वेषण का स्वागत करता है, लेकिन दिशा यह भी समझता है कि यह खोज आम छात्रों के अधिकारों के लिये लड़ने के मक़सद से जन-चरित्र वाला एक आमूलगामी जुझारू छात्र आन्दोलन खड़ा किये जाने से अपने आप में सम्बद्ध नहीं है। वह अन्वेषण और खोज निर्धारण के एक अलग स्तर से सम्बद्ध है। निर्धारण का यह स्तर है वर्तमान शोषक और उत्पीड़क व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनता का एक आम क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करना। बेशक, दोनों बातें एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं; मार्क्सवादियों के लिये एक विशिष्ट तरीक़े से, अन्य लोगों के लिये, अन्य विशिष्ट तरीक़ों से। लेकिन, एक जन संगठन के रूप में, दिशा के लिये इस सम्बन्ध की प्रकृति पर कोई ए प्रायोरी अवस्थिति अपनाना उचित नहीं होगा। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे आम छात्र जन संघर्षों के अपने वास्तविक अनुभवों से सीखते हैं। इस बुनियादी बात को नहीं समझने का मतलब है विशिष्ट और सामान्य के सम्बन्ध को नहीं समझना।
यह एक अन्य सम्बन्धित तथ्य में भी प्रतिबिम्बित होता है। अगर किसी राजनीतिक कार्यकर्ता ने JNU में थोड़े भी क्लासरूम व डोर-टू-डोर अभियान चलाये हैं, तो वह बता सकता है कि ज़्यादातर छात्रों ने इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचा है कि वे किस विचारधारा को मानते हैं या वे किस विचारधारा के बारे में जानना-समझना चाहेंगे, भले ही बचपन से ही परिवार, स्कूल, धर्म, क़ानून इत्यादि की संस्थाओं के द्वारा उनके दिमाग़ में बैठाये गये विचारधारात्मक दृष्टिकोणों का एक समुच्चय अचेतन व स्वतःस्फूर्त ढंग से उनमें मौजूद हो। विचारधारा पर आधारित कोई भी छात्र संगठन ऐसे सभी छात्रों को शुरुआत में ही दूर कर देगा, भले ही वे साझा न्यूनतम कार्यक्रम से सहमत हों और इसलिए वह वाकई में एक जन संगठन नहीं होगा। इसके अलावा, किसी सामाजिक वर्ग के लगभग सभी सदस्यों को प्रभावित करने वाले शासक वर्गों की स्वत:स्फूर्त विचारधाराओं के समुच्चय, और एक राजनीतिक वर्ग के सदस्य के रूप में हमारे द्वारा चुनी जाने वाली सचेतन विचारधारा (यानी, विश्व-दृष्टि व पद्धति) के बीच फ़र्क़ किया जाना चाहिये।
यदि किसी जन संगठन में शामिल होने के लिये किसी विशेष विचारधारा के सचेतन चुनाव को पूर्वशर्त बनाया जाता है, तो यह एक जन संगठन नहीं, बल्कि पार्टी संगठन है। यदि कोई छात्र आम छात्रों को प्रभावित करने वाले विभिन्न ज़रूरी मुद्दों के लिये और सभी प्रकार के शॉविनिज़्म, कट्टरपन्थ और प्रतिक्रिया के ख़िलाफ़ लड़ने के लिये तैयार है, तो क्या हमें उससे ये कहना चाहिये कि पहले वह हमदर्द बने, फिर हमारी विचारधारा के बारे में विस्तार से जाने और उसके बाद हमारे जन (!) संगठन का सदस्य बने? आश्चर्य की बात नहीं कि इस बयान का लेखक तीन सालों तक भागीदारी करने के बावजूद बस BAPSA का समर्थक ही बना रहा! इस पद्धति का पालन करने वाला कोई भी संगठन सिर्फ़ विचारधारात्मक रूप से प्रशिक्षित कैडर की एक छोटी-सी संख्या का संगठन ही बना रहेगा (जो किसी पार्टी संगठन के लिये ठीक है!) और वह कभी भी सचमुच में एक जन संगठन नहीं बन सकता।
विडम्बना यह है कि JNU में कोई भी प्रगतिशील संगठन – न तो तथाकथित वाम और न ही BAPSA, वास्तव में इस दृष्टिकोण का पालन करता है! वे उन छात्रों को सदस्यता देते हैं जो उनके संगठनों के घोषित लक्ष्यों और उद्देश्यों से सहमत होते हैं। इन संगठनों से हमारा सवाल यह है: यदि किसी विचारधारा के पालन के आधार पर सदस्यता नहीं दी जाती है, तो आप ख़ुद को एक ख़ास विचारधारा पर आधारित संगठन क्यों कहते हैं? ध्यान दें: शिक्षा के निजीकरण के ख़िलाफ़, जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़, पितृसत्ता या फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ना महज़ कुछ राजनीतिक उद्देश्य हैं और इन उद्देश्यों पर किसी भी विचारधारा का एकाधिकार नहीं है। दमन और शोषण के इन रूपों के ख़िलाफ़ किये जाने वाले संघर्ष सामान्य राजनीतिक जनवादी संघर्ष का हिस्सा हैं और जो लोग इस संघर्ष में शामिल होने के लिये किसी संगठन के प्रगतिशील साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमत हैं, वे जन संगठन का हिस्सा हो सकते हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसा प्रगतिशील CMP शॉविनिस्ट, प्रतिक्रियावादी या कट्टरपन्थी लोगों को ऐसे जन संगठन में जुड़ने की सम्भावना को ही रद्द कर देता है। लेकिन यह CMP से सहमत लोगों को उनके विश्व-दृष्टिकोण और पद्धति, यानी कि उनकी विचारधारा के आधार पर, जन संगठन में शामिल होने से नहीं रोकता है।
ठीक अगले पैराग्राफ़ में लेखक एक बेतुका दावा करता है कि दिशा स्त्रीवादियों के और महिला अधिकारों के लिये अपनी एकजुटता दिखाने वाले लोगों के संघर्षों और बलिदानों की उपेक्षा करता है, जब वह कहता है कि GSCASH को परिसर में वापस लाने की लड़ाई लड़ने के लिये ज़रूरी नहीं कि कोई वामपन्थी, मार्क्सवादी या अम्बेडकरवादी हो। फिर वही बात! बुद्धिमत्ता के विपरीत, अज्ञानता की कोई सीमा नहीं होती।
सबसे पहली बात, ऐसा मालूम होता है कि BAPSA के हमारे दोस्त ने परिसर में GSCASH के इतिहास को या देश-दुनिया में महिला-अधिकारों के आन्दोलनों के सामान्य इतिहास का बिरले ही कोई अध्ययन किया है। क्या उन्हें लगता है कि विशाखा-दिशानिर्देशों और GSCASH के आन्दोलन में सिर्फ़ नारीवादी, मार्क्सवादी या अम्बेडकरवादी छात्र भाग ले रहे थे? यह एक जन आन्दोलन था जिसमें छात्रों और नागरिकों ने हिस्सा लिया था, क्योंकि उनका मानना था कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक मज़बूत क़ानून होना चाहिए। क्या वे मानते हैं कि 2012 में सड़कों पर उतरकर निर्भया के लिये न्याय की माँग करने वाले सभी नागरिकों ने सचेतन तौर पर किसी न किसी प्रगतिशील विचारधारा को चुना था? नहीं! आइये, हम वही बात दोहरा देते हैं जो दिन के उजाले की तरह साफ़ है: ब्राह्मणवाद-विरोधी और जाति-विरोधी होने का मतलब हर हाल में अम्बेडकरवादी होना ही नहीं है, या, पितृसत्ता-विरोधी होने का मतलब हर हाल में स्त्रीवादी होना ही नहीं है। जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता की आलोचना विभिन्न विचारधारात्मक अवस्थितियों से की गयी है और ऐसी विभिन्न विचारधाराओं से सम्बन्ध रखने वाले लोग ब्राह्मणवादी वर्चस्व व पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लड़ने के लिये एक CMP पर सहमत हो सकते हैं। इस बात को नहीं समझने का मतलब है विचारधारा को (साझा न्यूनतम) कार्यक्रम के साथ गड्डमड्ड कर देना। इस समझदारी की कमी के चलते, ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता, अन्धराष्ट्रवाद, भाषाई अस्मितावाद, समलिंगीद्वेष (होमोफ़ोबिया), परलिंगीद्वेष (ट्रांसफ़ोबिया) इत्यादि के ख़िलाफ़ और साथ ही साथ, समान व मुफ़्त शिक्षा के अधिकार पर मौजूदा व्यवस्था के द्वारा किये जा रहे हमले के ख़िलाफ़ आम छात्रों की एक व्यापक जन एकजुटता बाधित होती है।
ये अलग बात है कि JNU में तथाकथित वाम संगठन (जो दिखाने के लिये विचारधारा पर आधारित हैं) विचारधारा के साथ समझौता करने में और राजनीतिक अश्लीलता में इस हद तक गिर गये हैं कि वे किसी भी छात्र को फ़ौरन सदस्यता दे देते हैं, जो ज़रूरी नहीं कि मार्क्सवादी हो, बल्कि वह एक नारीवादी या अम्बेडकरवादी भी हो सकता है। इन संगठनों से हमारा सवाल फिर से वही है: यदि वे सिर्फ़ मार्क्सवादी छात्रों को सदस्यता नहीं देते, तो वे ख़ुद को मार्क्सवादी संगठन क्यों कहते हैं?
एक बार फिर हम अभी से ही यह स्पष्ट कर देते हैं: दिशा आम तौर पर विचारधारा-विरोधी नहीं है जैसा कि हमारे अज्ञानी BAPSA के हमदर्द मित्र का दावा है। ऐसी विचारधारा-विरोधी अवस्थिति तो उत्तरआधुनिकतावादी व उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्तकारों द्वारा दर्शायी जाती है जो दावा करते हैं कि सभी विचारधाराएँ या सामान्य सिद्धान्त महाख्यान हैं और महाख्यानों का दौर बीत चुका है! कोई भी तार्किक व्यक्ति इस विचारधारा-विरोधी अवस्थिति की सतह के पीछे छिपी सच्चाई को देख सकता है। यह विचारधारा-विरोधवाद अपने आप में एक विचारधारा है! इसलिए, हम यह बयान जारी करने वाले लेखक से माँग करते हैं कि वह एक भी ऐसा सबूत पेश करे जहाँ दिशा छात्र संगठन ने कहा है कि छात्रों को किसी भी विचारधारा को नहीं पढ़ना चाहिए या उसका पालन नहीं करना चाहिए और आम तौर पर विचारधारा-विरोधी होना चाहिए। हमने अपने पर्चों और अभियानों में बार-बार ज़िक्र किया है कि किसी भी व्यक्ति की तरह यह हर छात्र का भी जनवादी अधिकार है कि वह अपनी पसन्द के हिसाब से किसी भी विचारधारा को पढ़े और उसका पालन करे। लेकिन इसके आधार पर किसी विचारधारा के पालन को एक जन संगठन की सदस्यता के लिये पूर्वशर्त नहीं बनाया जा सकता। यदि कोई छात्र जन संगठन ऐसा करता है, तो वह जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और न्यायप्रिय आम छात्रों के एक बड़े हिस्से को ख़ुद-ब-ख़ुद अपने से दूर कर देगा।
दिशा छात्र संगठन में ऐसा कोई भी प्रगतिशील छात्र शामिल हो सकता है जो जनवाद व धर्मनिरपेक्षता के उसूलों में यक़ीन रखता हो और हमारे साझा न्यूनतम कार्यक्रम से सहमत हो, भले ही वह किसी भी विचारधारा को मानता हो। कहने की ज़रूरत नहीं है कि कोई भी रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी, शॉविनिस्ट, कट्टरपन्थी या फ़ासीवादी छात्र एक प्रगतिशील साझा न्यूनतम कार्यक्रम से सहमत नहीं हो सकता। इस बात को नहीं समझ पाने की वजह से हमारे जनाब हमदर्द पूछते हैं कि हम अपने CMP के आधार पर छात्रों की व्यापक एकजुटता कैसे बना सकते हैं जबकि छात्रों का एक हिस्सा जाति-विरोधी नीतियों की माँग कर रहा है और दूसरा हिस्सा जाति-आधारित असमानताओं को बरक़रार रखने वाली नीतियों की माँग कर रहा है। BAPSA के हमारे महज़ हमदर्द मित्र ने कुछ भी उलटा-सीधा बकने से पहले अगर वाकई में हमारे घोषणापत्र को पढ़ लिया होता, तो वे ऐसा बेवकूफ़ी भरा सवाल नहीं करते। एक विनम्र निवेदन: कृपया लिखने से पहले पढ़ लें!
पहले पन्ने में विचारधारा की ज़रूरत पर अपने कूपमण्डूक विचारों को उड़ेलने के बाद, लेखक आगे रोष ज़ाहिर करते हुए कहता है कि ABVP छात्रों को अराजनीतिक बना रहा है और इसकी वजह से हालिया चुनावों में इसके वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी हुई है। पुनश्च, कोई भी कार्यकर्ता या राजनीतिक रूप से जागरूक छात्र जानता है कि ABVP छात्रों को अराजनीतिक नहीं बना रहा है, बल्कि उन्हें फ़ासीवादी राजनीति में सक्रियता से शामिल होने के लिये प्रोत्साहित कर रहा है। ज़मीनी हक़ीक़त से कटी हुई ये मूर्खताएँ सिर्फ़ वही शख़्स कर सकता है जो तीन सालों तक समर्थक ही बना रह जाये! दिशा और ABVP के बीच समानताएँ दर्शाने की इन कोशिशों पर सिर्फ़ हँसा ही जा सकता है। दिशा छात्रों को उनके वास्तविक मुद्दों पर एकजुट करने के लिये क्रान्तिकारी राजनीति का सक्रिय रूप से प्रचार करने की कोशिश कर रहा है, जबकि ABVP छात्रों के बीच प्रतिक्रियावादी राजनीति का सक्रिय रूप से प्रचार कर रहा है और उन्हें धर्म, जाति, भाषा और अन्य सामाजिक भिन्नताओं के आधार पर विभाजित कर रहा है।
मगर एक बार फिर ये समर्थक जनाब चकरा जाते हैं और निर्धारण के दो अलग-अलग स्तरों, राजनीतिक और विचारधारात्मक, को आपस में गड्ड-मड्ड कर देते हैं। आइये हम इसे एक उदाहरण से समझें: समाजवादी राजनीति को मार्क्सवादी विचारधारा तक सीमित नहीं किया जा सकता; ऐतिहासिक रूप से और साथ ही, सैद्धान्तिक रूप से भी समाजवादी राजनीति स्वयं विभिन्न विचारधाराओं के बीच प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र बनी रही है। इसी तरह, पूरी की पूरी जाति-विरोधी राजनीति को अम्बेडकरवादी विचारधारा (जो असल में ड्यूईवादी व्यवहारवाद है) में अपचयित नहीं किया जा सकता और इसमें मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वाले कम्युनिस्टों से लेकर जुझारू भौतिकवाद की एक ख़ास क़िस्म को मानने वाले पेरियारवादियों के साथ-साथ अस्मितावादी विचारधाराओं के कई रूपों तक, कई विचारधारात्मक ताक़तें शामिल हैं। पुनश्च, ये बुनियादी बातें हैं!
जब मज़दूर अपनी मज़दूरी बढ़ाने के लिये लड़ते हैं, तो वे असल में राजनीतिक संघर्ष कर रहे होते हैं (मार्क्सवादियों को मार्क्स की यह उक्ति याद आ गयी होगी: हर वर्ग संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष है); जब छात्र मुफ़्त और समान शिक्षा के लिये, रोज़गार के हक़ के लिये, शिक्षा पर फ़ासीवादी हमले के ख़िलाफ़, दलित-विरोधी क्रूरताओं के ख़िलाफ़, स्त्री उत्पीड़न के ख़िलाफ़, व अन्य नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ लड़ते हैं, तो वे भी एक राजनीतिक संघर्ष कर रहे होते हैं। क्या अपने अधिकारों के लिये लड़ने वाले सभी मज़दूर और छात्र सचेतन रूप से किसी न किसी विचारधारा का पालन करते हैं? नहीं! जब दिशा का साझा न्यूनतम कार्यक्रम सभी को मुफ़्त और समान शिक्षा, सभी को रोज़गार, परिसर में जनवाद, सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष परिसर, जाति-आधारित, यौनिकता-आधारित और लैंगिकता-आधारित सभी तरह के भेदभावों के ख़ात्मे, उत्पीड़ित राष्ट्रों के लिये आत्मनिर्णय के अधिकार, और भोजन और आवास के अधिकार की माँग करता है, तो स्पष्ट है कि ये राजनीतिक माँगें हैं और हम सभी जनवादी व धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों से इन राजनीतिक संघर्षों में भाग लेने का आह्वान करते हैं। क्या पेरिस कम्यून की स्थापना करने और उसकी रक्षा करने वाले सभी मज़दूर मार्क्सवादी थे? क्या महाड़ आन्दोलन, जिसे आनन्द तेलतुम्बडे ने ‘प्रथम दलित विद्रोह’ की संज्ञा दी है, में शामिल होने वाली सारी दलित मेहनतकश आबादी अम्बेडकरवादी थी? क्या वे सभी क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी थे जिन्होंने विभिन्न औपनिवेशिक और अर्द्ध-औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों में हिस्सा लिया? इन सभी सवालों का जवाब है एक स्पष्ट और ज़ोरदार आवाज़ में – नहीं!
पूरे पर्चे में BAPSA के हमारे महज़ हमदर्द मित्र ने ऐसा धूम्रावरण खड़ा किया है कि हमें सोचना पड़ रहा है कि क्या वे ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं या हमारे संगठन के बारे में उनकी समझदारी इतनी सीमित है! हम उन्हें सन्देह का लाभ देते हुए मानकर चलते हैं कि समर्थक से कार्यकर्ता बनने की चाहत में उन्हें यह देखने का ज़्यादा समय नहीं मिला कि कैम्पस में हम क्या-क्या गतिविधियाँ करते हैं और अपने पर्चों में हम क्या-क्या लिखते हैं। कभी किसी रोज़ सुबह-सुबह उनकी आँख खुली, दरवाज़े के नीचे उन्हें एक स्वतन्त्र छात्र संगठन की सख़्त ज़रूरत नाम से हमारा पर्चा मिला और वे एक पोलेमिकल पर्चा लिखने बैठ गये! इसीलिये हमने पहले ही कहा था कि अपने एक हमदर्द को बलि का बकरा बनाकर शर्मनाक तरीक़े से हम पर परोक्ष रूप से वार करने के बजाय BAPSA को खुले तौर पर दिशा की एक आलोचना पेश करनी चाहिये थी!
दूसरे पन्ने का अन्तिम पैराग्राफ़ इस लाइन से शुरू होता है कि चर्चाओं, बहसों और वार्तालाप सत्रों को सामाजिक मुद्दों तक सीमित करके क्या हम छात्रों के मुद्दों की कल्पना भी कर सकते हैं? क्या हम छात्रों के मुद्दों और सामाजिक मुद्दों को एक-दूसरे से अलग करके देख सकते हैं? दिशा ने छात्रों के मुद्दों को सामाजिक मुद्दों से अलग करने का दावा कहाँ किया है? हमें एक भी सबूत दीजिये कि हमने ये बात कहाँ पर कही है? सभी पाठकों से हमारी गुज़ारिश है कि वे दिशा का घोषणापत्र पढ़ें और ख़ुद से तय करें कि सच्चाई क्या है (https://drive.google.com/file/d/1fZNMXYjyZ97DwnfYWuqed-we2opLQ7jk/view?usp=drivesdk)। सिर्फ़ परिसर-विशिष्ट छात्रों के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने का दावा करने वाला संगठन ज्ञानवापी मस्जिद विवाद पर पर्चा क्यों लिखेगा, या गज़ा फ़ाइट्स फ़ॉर फ़्रीडम नाम वाली डॉक्युमेण्ट्री क्यों दिखायेगा, या 13 राज्यों और 8,500 किलोमीटर की दूरी तय करने वाले और तीन महीने तक चले फ़ासीवाद-विरोधी अभियान (भगतसिंह जनअधिकार यात्रा) को सह-आयोजित करके विभिन्न विश्वविद्यालयों और मज़दूर वर्ग व निम्न-मध्यम वर्ग के रिहायशी इलाक़ों में जाकर आरएसएस-भाजपा शासन के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी प्रचार को नंगा क्यों करेगा? परिसर में सामाजिक न्याय के समर्थक होने का दम भरने वाले ये छद्म-बुद्धिजीवी इन सवालों का जवाब कभी नहीं दे सकते। दिशा छात्र संगठन दृढ़ता से मानता है कि कोई भी विश्वविद्यालय एक टापू नहीं होता, बल्कि समाज का एक अभिन्न अंग होता है और आम तौर पर समाज को पीड़ित करने वाली कोई भी समस्या विश्वविद्यालय और इसके छात्रों को भी ज़रूर प्रभावित करेगी। दिशा के कार्यक्रम में भोजन के अधिकार को, आवास के अधिकार को, और मुफ़्त व समान चिकित्सा सेवा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने जैसी माँगें शामिल हैं। इसमें सभी प्रकार के राष्ट्रीय, जाति-आधारित, लैंगिकता-आधारित, धार्मिक, नस्लीय और भाषाई उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक समझौताहीन संघर्ष का आह्वान किया गया है। यह छात्रों से जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष को इस शोषक व उत्पीड़क निज़ाम के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्षों से जोड़कर देखने का आह्वान करता है। क्या ये माँगें सिर्फ़ परिसर-विशिष्ट छात्रों के मुद्दे हैं? हम अपने सभी राजनीतिक विरोधियों से अनुरोध करते हैं कि वे पहले पढ़ लें और उसके बाद लिखने बैठें। इससे हर किसी का काफ़ी क़ीमती समय बच जायेगा।

BAPSA की पहचान की राजनीति पर

BAPSA के हमारे समर्थक-मात्र मित्र ने पहचान की राजनीति पर तक़रीबन एक पन्ने तक क़लम चलायी है और इस दावे से इन्कार किया है कि BAPSA पहचान की राजनीति करता है। परिसर के सभी छात्रों को मालूम है कि BAPSA पहचान की राजनीति करता है और यहाँ तक कि BAPSA भी इस बात को बिना कोई खेद जताये स्वीकार करेगा कि वह उत्पीड़ित जातियों की राजनीति करता है। जाति-विरोधी राजनीति का मतलब उत्पीड़ित जातियों की राजनीति नहीं है। दोनों में एक बुनियादी फ़र्क़ है: क्रान्तिकारी जाति-विरोधी राजनीति राजनीतिक लाइन को पहचान से प्रतिस्थापित नहीं करती। जाति-आधारित सामाजिक उत्पीड़न को सिर्फ़ उत्पीड़ित जातियों को एकजुट करके प्रभावी ढंग से चुनौती नहीं दी जा सकती। पहचान की राजनीति के साथ मूल समस्या यह है कि अपनी पहचान को रेखांकित करने का अवश्यम्भावी मतलब होता है ठीक उसी समय विपरीत की पहचान को भी रेखांकित कर देना देना। पहचान की राजनीति में अन्यकरण की प्रक्रिया अन्तर्भूत और अन्तर्निहित होती है। एक ख़ास पहचान को स्वतः ही और हर-हमेशा प्रगतिशील मान लिया जाता है। इस तरह, प्रगतिशील राजनीति या राजनीतिक लाइन को पहचान से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। मगर इस तरह की पहचान की राजनीति की दिक़्क़त ये है कि ये अन्ततोगत्वा बहुसंख्यवादी पहचान की सेवा करती है और प्रतिक्रियावादी ताक़तों को अस्मितावादी लाइन पर अपना शिविर मज़बूत करने देती है व सभी अस्मिताओं वाले मेहनतकश ग़रीबों को नुक़सान पहुँचाती है। इस चीज़ को इस बुनियादी बात से समझने की कोशिश करें: मर्द औरतों का उत्पीड़न इसलिये नहीं करते क्योंकि वे मर्द हैं; तथाकथित सवर्ण दलितों का उत्पीड़न सिर्फ़ इसलिये नहीं करते क्योंकि वे सवर्ण के रूप में जन्मे हैं; अगर ये सच होता, तो गंगाधर नीलकण्ठ सहस्रबुद्धे डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के सबसे क़रीबी सहयोगियों में शामिल नहीं होते और उन्होंने उनके साथ मिलकर मनुस्मृति को नहीं जलाया होता और उनकी साप्ताहिक पत्रिका ‘जनता’ के सम्पादक नहीं बने होते। इसके अलावा, ऐसा निष्कर्ष बेहद अतार्किक और निराशावादी होगा और उसके बाद तो कोई मुमकिन समाधान हो ही नहीं सकता! उदाहरण के लिए, अगर मर्द इसलिये औरतों का उत्पीड़न करते हैं क्योंकि वे पुरुष हैं, तो पितृसत्ता को ख़त्म करने का कोई मुमकिन कार्यक्रम बनेगा ही नहीं! आप इसके बारे में सोचकर देखें। इसी तरह, भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद लोगों को धर्म के आधार पर विभाजित करता है। बहुसंख्यवादी साम्प्रदायिक राजनीति के ख़िलाफ़ संघर्ष सही मायनों में सच्चे सेक्युलरिज़्म के आधार पर लड़कर ही चलाया और जीता जा सकता है, न कि अल्पसंख्यकों की एकता के नाम पर उन्हीं साम्प्रदायिक आधारों पर।
इस अस्मितावादी तर्क का बेतुकापन अभी हाल ही में सम्पन्न हुए JNU छात्रसंघ चुनावों के दौरान खुलकर सामने आया। एक तरफ़ BAPSA ने AISA की आलोचना की कि वे अपना अभियान अस्मितावादी लाइनों पर चला रहे थे और दलितों का वोट जीतने के लिये यह दावा कर रहे थे कि JNU में 27 सालों के बाद कोई दलित अध्यक्ष बनने जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ BAPSA ने चुनावों में ख़ुद के सबसे ज़्यादा तरक़्क़ीपसन्द ताक़त होने का दावा किया क्योंकि इसके द्वारा मैदान में उतारा गया पैनल सबसे ज़्यादा विविधतापूर्ण था जिसमें दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, क्विअर लोगों, विकलांगों व धार्मिक अल्पसंख्यकों की नुमाइन्दगी करने वाले लोग शामिल थे। इस तर्क के आधार पर तो ABVP भी दावा कर सकता है और इसने वाकई में ऐसा दावा किया कि यह आदिवासी-समर्थक है, क्योंकि इसने एक आदिवासी उम्मीदवार को मैदान में उतारा था। हम इस खण्ड को अमेरिका के तरक़्क़ीपसन्द हिस्सों के बीच प्रचलित एक चुटकुले के साथ ख़त्म करेंगे। जब हिलैरी क्लिण्टन डोनाल्ड ट्रम्प के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रही थीं और जीत की ओर अग्रसर थीं (हालाँकि वह हार गयीं!), तो अस्मितावादियों में से कई ख़ासे उत्साहित और ख़ुश थे: हमारा राष्ट्रपति एक अश्वेत था और अब एक महिला हमारी राष्ट्रपति बनने जा रही है। क्या कहेंगे इसे आप! एक फ़िलिस्तीनी तरक़्क़ीपसन्द ने जवाब दिया: अन्तरअनुभागीय साम्राज्यवाद (intersectional imperialism)! पाठकों को याद दिला दें कि सबसे क्रूर ज़ायनवादी निज़ामों में से एक निज़ाम की अगुवाई गोल्डा मीयर नाम की एक औरत ने की थी जिसने नृजातीय संहार के लिये फ़िलिस्तीन की धरती में ज़हर मिला दिया था। अतएव: राजनीतिक लाइन को पहचान से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।

BAPSA की बहुजन राजनीति

BAPSA बहुजन राजनीति करने का दावा करता है और इसकी बहुजन की परिभाषा में एससी+एसटी+ओबीसी+मुस्लिम शामिल हैं। इस योगात्मक समीकरणवाद का आधार यह है कि बहुजनों की कुल आबादी बहुसंख्या में होगी और सवर्ण अल्पसंख्यक होंगे, और इस तरह उत्पीड़ितों की संख्या उत्पीड़कों से ज़्यादा होगी। मगर ज़मीनी हक़ीक़त से दूर का नाता रखने वाला शख़्स भी बता सकता है कि दलितों और पिछड़ों के बीच एकता शेख़चिल्ली के ख़्वाब बुनने जैसा ही है। असल में, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में जट्ट व जाटों, महाराष्ट्र में मराठों, आन्ध्र और तेलंगाना में रेड्डियों और कम्माओं, तमिलनाडु में तेवरों जैसी विभिन्न पिछड़ी जातियों के बीच से उच्च-मध्यम और समृद्ध किसानों और कुलकों की एक अच्छी-ख़ासी अल्पसंख्या के उभार के बाद से, इन जातियों के ऊपरी तबक़े दलित-विरोधी अत्याचारों के प्रमुख अपराधियों के रूप में सामने आये हैं। बस डेटा पर एक नज़र डालें और यह तथ्य आपको फ़ौरन स्पष्ट हो जायेगा। वजह साफ़ है: भूमिहीन दलित मज़दूरों की बहुसंख्यक आबादी के हित और पिछड़ी जतियों से ताल्लुक़ रखने वाले उच्च-मध्यम व धनी किसानों/कुलकों के हित एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत हैं। ऐसे में किस आधार पर कोई एकता बनायी जा सकती है? जाति के आधार पर शोषकों और शोषितों के बीच एकता की कल्पना करना हास्यास्पद है। इसीलिए, पहचान के आधार पर बहुजन एकता का विचार न केवल यूटोपियाई है, बल्कि प्रतिक्रियावादी भी है।
यहाँ तक कि सम्पूर्ण दलित आबादी भी कोई समरूप या एकाश्मी चीज़ नहीं है। जहाँ तक पहचान की बात है, रामनाथ कोविन्द, रामदास अठावले, मायावती, रामविलास पासवान भी दलित हैं। हम जानते हैं कि दलित जातियों के बीच भी सामाजिक दर्ज़े का एक पदानुक्रम मौजूद है। जैसे कि महाराष्ट्र में, महार, मांग और चमार जातियों के बीच अन्तरजातीय विवाह एक दुर्लभ बात है, जबकि ये तीनों ही दलित जातियाँ हैं। इन सबसे यह बात साबित होती है कि राजनीतिक लाइन को न तो पहचान से प्रतिस्थापित किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिये।
हमारा मानना है कि क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन दलितों के असली आर्थिक, राजनीतिक, व सामाजिक मुद्दों पर खड़े किये जाने चाहिये। हर दलित उत्पीड़ित होता है, मगर अपनी आर्थिक अरक्षितता के चलते मेहनतकश ग़रीब दलित सबसे क्रूर तरह के उत्पीड़न का सामना करते हैं। दूसरी ओर, हर मेहनतकश ग़रीब शोषित होता है, मगर एक दलित मेहनतकश ग़रीब अपनी सामाजिक असुरक्षा के अतिरेक के चलते सबसे ज़्यादा शोषित होते हैं। इसलिए, क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन को हर जाति के मेहनतकश लोगों के बीच लम्बे समय तक जाति-विरोधी अभियान व प्रचार करना होगा और उन्हें सचेत करना होगा कि उनके असली दुश्मन अन्य जातियों के मेहनतकश लोग नहीं हैं, बल्कि शोषकों और उत्पीड़कों का शासक वर्ग है। कौतूहल होता है कि पहचान की राजनीति के सबसे बड़े समर्थक सबसे क्रूर क़िस्म के दलित-विरोधी अत्याचारों (जिनमें पीड़ित ज़्यादातर मेहनतकश ग़रीब पृष्ठभूमि से आते हैं) के ख़िलाफ़ जुझारू ढंग से आन्दोलन करते हुए नज़र क्यों नहीं आते? दलित उत्पीड़न के असल भौतिक मुद्दों पर, वे ख़ामोश होते हैं और सभी तरह के प्रतीकात्मक मुद्दों पर, वे सबसे ज़्यादा मुखर होते हैं। खोखला प्रतीकवाद पहचान की राजनीति की ही एक और विशेषता है। दूसरी बात, स्कूल सबसे अहम विचारधारात्मक उपकरणों में शामिल हैं और ये उत्पीड़क व शोषक सामाजिक सम्बन्धों का पुनरुत्पादन करते हैं। जाति-आधारित असमानताओं को ख़ुद स्कूल में ही बढ़ावा मिलता है। इसलिये, क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन को सभी के लिये मुफ़्त और समान शिक्षा की माँग करनी चाहिए। तीसरी बात, हालाँकि पूरा देश ही बेरोज़गारी के एक गम्भीर संकट से जूझ रहा है, मगर दलितों और अन्य उत्पीड़ित वर्गों को इसका सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है। इसलिये, क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन को सभी के लिये रोज़गार की माँग एक मौलिक अधिकार के रूप में करनी चाहिए। चौथी बात, दलितों और उत्पीड़ित जातियों में भूख, कुपोषण, शिशु मृत्यु दर और आवासहीनता भी सबसे ज़्यादा है। इसलिये, क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन में भोजन के अधिकार और राजकीय आवास के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने की माँग शामिल होनी चाहिए। सभी के लिये सार्वजनिक आवास, विशेष रूप से गाँवों में, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भी पाये जाने वाले जाति-आधारित पृथक्करण को भी चोट पहुँचा सकता है। पाँचवीं बात, ऐतिहासिक रूप से, मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच विभाजन ने विभिन्न जातियों की श्रेष्ठता और हीनता के लिये एक भौतिक आधार प्रदान किया है, जैसा कि कांचा इलैया ने भी स्वीकार किया है। इसलिये, स्कूलों और कॉलेजों में उत्पादक शारीरिक श्रम को शामिल किये जाने की माँग इस फ़र्क़ को मिटाने के लिये एक आवश्यक क़दम है।
हम जानते हैं कि ये क़दम अकेले ही जाति के ख़ात्मे का काम पूरा नहीं करेंगे, जिसके लिये नीचे से एक आमूलगामी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूपान्तरण की आवश्यकता होगी। मगर इन माँगों से राज्य और वर्तमान व्यवस्था के दलित-विरोधी चरित्र का पर्दाफ़ाश होगा और दलित मेहनतकश ग़रीब आबादी अपने लिये कुछ महत्वपूर्ण अधिकार हासिल करेगी।
हमारा मानना है कि क्रान्तिकारी जाति-विरोधी आन्दोलन को राज्यसत्ता के साथ टकराना ही होगा। सिर्फ़ सामाजिक कार्यक्रम के होने का मतलब यह मानकर चलना है कि जातिवादी उत्पीड़न को बरक़रार रखने में शासक वर्गों के राज्य की कोई भूमिका नहीं है और यह उत्पीड़न विशुद्ध रूप से धार्मिक ग्रन्थों और विचारधाराओं पर आधारित है। जाति-आधारित उत्पीड़न महज़ एक विमर्श नहीं है। यह एक वास्तविक और भौतिक चीज़ है। जाति उत्पीड़न के भौतिक आधार को समाप्त किया जाना अनिवार्य है। यह सच है कि जाति व्यवस्था का वैचारिक आयाम इसके साथ ही ख़ुद-ब-ख़ुद ग़ायब नहीं हो जायेगा। इसके लिये पीढ़ियों तक सांस्कृतिक उथल-पुथल और बदलाव की ज़रूरत होगी। लेकिन समस्या के मूल से निपटे बिना, शुरुआत करना भी मुमकिन नहीं है।
यह साबित करने की कोशिश में कि BAPSA पहचान की राजनीति नहीं करती, BAPSA के हमारे महज़ हमदर्द मित्र ने दावा किया है कि BAPSA में कभी-भी किसी को उसकी पहचान की वजह से शामिल किये जाने से इन्कार नहीं किया गया है। सहमत। लेकिन BAPSA क्या किसी एक ऐसे सदस्य को नेतृत्व देगा जो एक सवर्ण जाति में पैदा हुआ है, लेकिन BAPSA के लक्ष्यों और उद्देश्यों से पूरी तरह से सहमत है? क्या ऐसा कोई कार्यकर्ता जाति-विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व कर सकता है? महासचिव उम्मीदवारों के लिये दर्शकों की तरफ़ से पूछे गये सवालों के दौरान, एक ऐसा ही प्रश्न सामने आया। ज्योतिबा फुले को उद्धृत करते हुए (यदि कोई जाति-विरोधी संघर्ष में आपके साथ है, तो उसकी जाति न पूछें) पूछा गया कि क्या BAPSA एक सवर्ण जाति में पैदा हुए सदस्य को स्वीकार करेगा। BAPSA के महासचिव उम्मीदवार ने जवाब दिया कि एक जन्मजात सवर्ण एक जाति-विरोधी संगठन/आन्दोलन का हिस्सा बन सकता है, लेकिन वह उत्पीड़ित जातियों को यह नहीं बता सकता कि कैसे लड़ना है और वह आन्दोलन का नेतृत्व नहीं कर सकता। अस्मितावादी राजनीति की ठीक यही मूलभूत भ्रान्ति है। यदि कोई व्यक्ति जाति-विरोधी संगठन/आन्दोलन का सदस्य बन सकता है, तो उसका मतलब है वह संगठन/आन्दोलन के उद्देश्यों के प्रति सही मायनों में प्रतिबद्ध है। फिर ऐसे व्यक्ति को नेतृत्व से किन आधारों पर वंचित किया जा सकता है? यह किस क़िस्म का जनवादी संगठनात्मक सिद्धान्त है? हम इस सवाल का फ़ैसला पाठकों पर छोड़ते हैं।

अम्बेडकर के दार्शनिक आधार और राज्य के प्रश्न के बारे में

पाठकों को यह समझाने की असफल कोशिश करने के बाद कि BAPSA पहचान की राजनीति नहीं करती, हमारे महज़ हमदर्द मित्र शिकायत करते हैं कि दिशा BAPSA के किसी विचारधारा पर आधारित होने की बात को स्वीकार नहीं करता है। पुनश्च, कृपया लिखने से पहले पढ़ लिया करें! हमने कब कहा कि BAPSA विचारधारा पर आधारित नहीं है? विचारधारा पर आधारित संगठन भी पहचान की राजनीति कर सकता है। असल में, अस्मितावाद उत्पीड़ितों व शोषितों के सभी आन्दोलनों में ट्रोजन हॉर्स का काम करने के लिए चुनी गयी तमाम विचारधाराओं में से एक है। BAPSA ने हमेशा से यही राजनीति की है और यहाँ तक कि तथाकथित वाम भी प्रकारान्तर से कुछ समय से यही करता आ रहा है, हालाँकि कुछ अलग अन्दाज़ में। असल में, हम यह समझते हैं कि BAPSA अस्मितावाद व अम्बेडकरवादी विचार, जोकि स्वयं जॉन ड्यूई के उपकरणवादी व्यवहारवादी दर्शन पर आधारित है, के मिश्रण पर आधारित है। अम्बेडकर ने स्वयं कहा था, मेरे पूरे बौद्धिक जीवन के लिए मैं प्रो. जॉन ड्यूई का ऋणी हूँ। क्या जनाब हमदर्द को मालूम है कि व्यवहारवाद 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिका के मध्यवर्गीय लोकरंजकतावादी आन्दोलन से जन्मा था और यह अमेरिका में उदारतावाद के स्तम्भों में गिना जाता है? ड्यूईवादी व्यवहारवाद के मुताबिक़, राज्य सबसे तार्किक अभिकर्ता और ‘महान मध्यस्थ’ होता है। दूसरे, सभी बदलाव एक क्रमिकतावादी और अभिवृद्धिवादी ढंग से होते हैं और इसलिये प्रकृति या समाज में कोई विच्छेद/छलाँग/क्रान्तिकारी बदलाव नहीं हो सकता। इसलिए, अपने अधिकारों का दावा करने वाले किसी भी समूह को राज्य के समक्ष महज़ याचिकाएँ प्रस्तुत करनी चाहिए और सीधे राज्य से नहीं टकराहट मोल नहीं लेनी चाहिये। ड्यूईवादी व्यवहारवाद का यह पहलू अम्बेडकर की राजनीति में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है, सबसे स्पष्ट रूप से महाड़ सत्याग्रह के दौरान, नासिक मन्दिर प्रवेश आन्दोलन में, और आज़ादी के बाद तेलंगाना किसान आन्दोलन के दमन के दौरान। राजनीतिक रूप से, अम्बेडकर ने कभी भी ब्रिटिश राज्य या नेहरू सरकार (जिसमें अम्बेडकर श्रम मन्त्री थे) से सीधे-सीधे टक्कर नहीं ली, हालाँकि इन दोनों ही उदाहरणों में राज्य ने ब्राह्मणवादी ताक़तों का पक्ष लिया था। ऐसा इसलिए था क्योंकि डॉ. अम्बेडकर का ड्यूई के इस तर्क में दृढ़ विश्वास था कि सरकार सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली संस्था होती है। सरकार का जो सोचने का तरीक़ा होता है, उसके परिणामस्वरूप ही चीज़ें होती हैं। (महाड़ सम्मेलन, मार्च, 1927 में अम्बेडकर का भाषण) क्या BAPSA को लगता है कि जाति व्यवस्था की रक्षा और इसका पोषण करने वाले राज्य के साथ सीधे टकराव से बचकर आज यह एक सुसंगत जाति-विरोधी संघर्ष चला सकता है? अध्यक्ष पद की बहस में क्रॉस-क्वेश्चन राउण्ड के दौरान BAPSA के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार से दिशा के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के द्वारा ठीक यही सवाल किया गया था। सभी ने देखा कि कैसे BAPSA के अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बड़ी चतुराई से इस सवाल से बच निकला। लेकिन सवाल अभी भी बना हुआ है। कोई भी छात्र किसी ऐसे संगठन को गम्भीरता से नहीं लेगा जो कहता हो कि उत्पीड़क दमनकारी राज्य के साथ सीधे संघर्ष किये बिना ही जाति के अन्त की परियोजना को पूरा किया जा सकता है। हम जानते हैं कि छात्रों के बीच लज्जित होने से बचने के लिये BAPSA कहेगा कि वह राज्य-विरोधी है। मगर ठीक यहीं पर एक विरोधाभास है। कोई भी एक साथ राज्य-विरोधी और ड्यूईवादी व्यवहारवाद का अनुयायी नहीं हो सकता है। इसलिये, BAPSA के हमारे महज़ हमदर्द मित्र से हमारा विनम्र निवेदन है कि दिशा के ख़िलाफ़ बेसब्र होकर पोलेमिकल लेख लिखने से पहले वे BAPSA की विचारधारा व राजनीति पर स्पष्टीकरण हासिल कर लें।
इसके अलावा, BAPSA का दावा है कि यह पूँजीवाद के साथ-साथ ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ है और अम्बेडकर का एक उद्धरण पेश करता है जो उन्होंने ILP (इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी) के दौर (1936 -1942) में कहा था कि भारत के श्रमिकों के दो दुश्मन हैं – एक पूँजीवाद और दूसरा ब्राह्मणवाद। लेकिन क्या BAPSA ILP के पहले या बाद के दौर से कोई ऐसा उद्धरण दिखा सकता है जब डॉ. अम्बेडकर ने पूँजीवाद के ख़िलाफ़ बात की हो? अगर डॉ. अम्बेडकर ताउम्र पूँजीवाद के ख़िलाफ़ थे, तो वे उस नेहरू सरकार की पहली कैबिनेट में मन्त्री क्यों बनें जिसने भारत में पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया शुरू की? क्या डॉ. अम्बेडकर द्वारा परिकल्पित और उनके सबसे क़रीबी साथियों द्वारा बनायी गयी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ने का कार्यक्रम शामिल है? यदि डॉ. अम्बेडकर पूँजीवादी-विरोधी विचारक थे, तो उन्होंने पूँजीवादी राज्य को उखाड़ फेंकने के लिये किस तरह की क्रान्ति का प्रस्ताव रखा है? जैसा कि डॉ. अम्बेडकर के प्रसिद्ध निबन्ध ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है, उनका आर्थिक कार्यक्रम है एक कल्याणकारी राज्य का होना। 2018 में JNUSU के चुनावों के दौरान BAPSA के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार ने भी यह बात स्पष्ट रूप से कही थी (https://youtu.be/XFROYeN5phY?si=3GvTyqUDlXHny20f)।
डॉ. अम्बेडकर का कल्याणकारी मॉडल कमोबेश फ़ेबियन आर्थिक कार्यक्रम की ही नक़ल है। हर कोई जानता है कि राजकीय समाजवाद का फ़ेबियन कल्याणकारी आर्थिक कार्यक्रम राजकीय पूँजीवाद का कार्यक्रम है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूर वर्ग के लिये काम करने व रहने की तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थितियों का एक यूटोपिया है। यहाँ भी, यह राजकीय समाजवाद नीचे से लोगों का नहीं, बल्कि राज्य का काम होगा। हमारे BAPSA-हमदर्द जनाब इस फ़र्क़ को नहीं समझते और मानते हैं कि कल्याणवाद पूँजीवाद का विपरीत है, जबकि कल्याणवाद पूँजीवाद के रखवालों में से एक है! कीन्स को कल्याणकारी राज्य मॉडल के सबसे बड़े समर्थकों में गिना जाता है। क्या हमारे दोस्त कीन्स को पूँजीवाद-विरोधी अर्थशास्त्री मानते हैं? हमें लगा था कि AISA और SFI जैसे तथाकथित वाम संगठनों की तुलना में BAPSA के सदस्य और समर्थक अपनी विचारधारा से ज़्यादा बेहतर ढंग से परिचित होंगे। मगर अफ़सोस! कितनी ग़लत थीं हमारी उम्मीदें!
इस खण्ड को समाप्त करने से पहले एक आख़िरी बात। पहले BAPSA जय भीम, लाल सलाम जैसे लोकरंजकतावादी और अवसरवादी नारों के लिये तथाकथित वाम संगठनों का मज़ाक उड़ाता था। निस्सन्देह यह नारा दो बिलकुल विरोधी विचारधाराओं का एक मिश्रण बनाने की कोशिश करता है और इस प्रक्रिया में दोनों ही विचारधाराओं के साथ अन्याय करता है। लेकिन, हम अपने महज़ हमदर्द मित्र से पूरी हमदर्दी रखते हुए अनुरोध करेंगे कि उन्हें अपने संगठन से पूछना चाहिये कि ड्यूईवादी व्यवहारवाद का अनुकरण करके और साथ ही, पूँजीवाद-विरोधी होने का दावा करके BAPSA कैसी सस्ती राजनीतिक खिचड़ी पका रहा है? वैसे तो हम ड्यूईवादी व्यवहारवाद को नहीं मानते, मगर हम फुले, अय्यंकाली, कम्युनिस्टों और अन्य तमाम लोगों के साथ-साथ डॉ. अम्बेडकर के योगदानों को, जैसे कि जाति के सवाल को राष्ट्रीय आन्दोलन के एजेण्डा में प्रमुखता से लेकर आना, स्वीकार करते हैं और जाति के नाश की परियोजना के प्रति उनकी आजीवन प्रतिबद्धता के लिये उनका सम्मान करते हैं। लेकिन मौजूदा अम्बेडकरवादी संगठनों के साथ समस्या यह है कि वे अम्बेडकर की विचारधारा और राजनीति को भी नहीं समझते हैं।
अन्त में, चौथे पन्ने पर हमारे मित्र लिखते हैं, आपने यह भी उल्लेख किया है कि आप धार्मिक हिन्दुओं को लामबन्द करेंगे, और साथ ही, आपने यह भी कहा कि आप जाति व्यवस्था का विरोध करेंगे। क्या आपको लगता है कि एक धार्मिक हिन्दू जाति व्यवस्था का विरोध कर सकता है? सबसे पहली बात, यह पूरा सवाल ही तमाम निहितार्थों से लदा हुआ है। धार्मिक हिन्दुओं से हमारे मित्र का अर्थ क्या है? क्या हमारे मित्र सिर्फ़ नास्तिक हिन्दुओं के साथ मिलकर एक अखिल भारतीय स्तर का जाति-विरोधी आन्दोलन खड़ा करना चाहते हैं? क्या वे सभी हिन्दू जो नास्तिक नहीं हैं, जातिवादी हैं? क्या वे पहले 90 करोड़ दलितों और पिछड़ों को नास्तिक बनाने और उसके बाद उन्हें जाति-विनाश परियोजना के लिये संगठित करने की योजना बना रहे हैं? इस शानदार परियोजना के लिये शुभकामनाएँ! हिन्दू धर्म के भीतर पनपने वाले उन सुधारवादी सम्प्रदायों (प्रायः एकेश्वरवादी) का क्या जो ठीक वर्चस्वकारी ब्राह्मणवादी तौर-तरीक़ों के ख़िलाफ़ ही दलितों और शूद्रों की बग़ावतों के रूप में पनपे? क्या वे धार्मिक हिन्दू नहीं हैं? उन धार्मिक हिन्दुओं का क्या जो हिन्दू धर्म के जाति-आधारित कर्मकाण्ड नहीं करते, मगर फिर भी ईश्वर के किसी न किसी रूप में या किसी न किसी अलौकिक ताक़त में यक़ीन रखते हैं? क्या आप पहले लोगों से यह माँग करेंगे कि वे हिन्दू धर्म के शास्त्रीय प्राधिकार (ध्यान दें: हिन्दू धर्म में ऐसा कोई इकलौता प्राधिकार नहीं है, और ठीक इसी वजह से, दार्शनिक नज़रिये से, इस धर्म में निहित प्रत्ययवाद ज़्यादा वर्चस्वकारी है) को अस्वीकार कर दें या फिर पहले आप उन्हें यह बतायेंगे कि जाति-व्यवस्था और जाति-आधारित भेदभाव क्यों मूलभूत रूप से ग़ैर-जनवादी हैं और इस प्रक्रिया में उन्हें और ज़्यादा सचेत बनायेंगे व जाति-व्यवस्था को अस्वीकार करने में सक्षम बनायेंगे? निस्सन्देह, हिन्दू धर्म के भीतर मौजूद सभी वर्चस्वकारी परम्पराओं ने लोगों को जाति व्यवस्था के आधार पर बाँटने का काम किया। वैसे यह भी एक तथ्य है कि हर धर्म ने किसी न किसी तरह से उत्पीड़न व शोषण के विभिन्न रूपों के लिये विचारधारात्मक कवच उपलब्ध कराया है। हमारा दृढ़ता से मानना है कि कोई शख़्स अपने मज़हब का अनुयायी हो सकता है (बेशक, जाति पदानुक्रम को मज़बूत बनाने वाले मान्यताओं, कर्मकाण्डों व तौर-तरीक़ों के बिना) और जाति-विरोधी, धर्मनिरपेक्ष व जनवादी उसूलों से सहमत होने पर वह जाति-विरोधी आन्दोलन में शामिल भी हो सकता है। जाति व्यवस्था भारतीय उपमहाद्वीप के हर धर्म की पोर-पोर में घुसा हुआ है और अगर अपने जनाब हमदर्द के तर्कों को मानकर चलें, तो जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ने के लिये एक नास्तिक समाज जैसा संगठन बनाकर ही सन्तोष करना होगा। इसके अलावा, किसी जातिवादी नास्तिक से मिलना बड़ा सरल है और आये दिन ऐसे लोगों से हमारा सामना होता रहता है। असल में, सावरकर स्वयं एक नास्तिक था। इसलिये जाति-व्यवस्था को हिन्दू धर्म में अपचयित कर देने का मतलब है जाति-व्यवस्था को सामाजिक उत्पीड़न की एक भौतिक व्यवस्था के रूप में नहीं समझना। यह बिलकुल भौतिक और वास्तविक जाति-व्यवस्था ही थी जिसने इसको विचारधारात्मक औचित्य प्रदान करने वाले मनुस्मृति जैसे ग्रन्थों को जन्म दिया, न कि इसका उलटा! इसी तरह, हिन्दू धर्म के खोल के अन्दर होने वाले विभिन्न जाति-विरोधी सुधार आन्दोलन भी कुछ नयी विचारधारात्मक निर्मितियों का परिणाम नहीं थे, बल्कि उत्पीड़ित जातियों से आने वाले मेहनतकशों के वास्तविक संघर्ष का परिणाम थे। कोई भी अन्य दृष्टिकोण सबसे अज्ञानतापूर्ण क़िस्म का प्रत्ययवाद ही होगा।
BAPSA के हमारे महज़ हमदर्द मित्र के द्वारा लिखा गया पर्चा ऐसी ऊटपटांग बातों से भरा हुआ है। लेकिन उन बातों का जवाब देकर हम अपने पाठकों का क़ीमती समय नहीं गँवायेंगे। हमारा जवाब पहले से ही बड़ा हो चुका है, सब्र रखने के लिये हम अपने पाठकों के शुक्रगुज़ार हैं। हम जानते हैं कि BAPSA के हमारे मित्र ने जिस तरह की राजनीतिक अश्लीलताएँ पेश की हैं, उनसे आलोचनात्मक रूप से निपटना बड़े ही सब्र का काम है। एक क्रान्तिकारी छात्र संगठन के रूप में हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इस तरह के राजनीतिक और बौद्धिक बहुरूपियों द्वारा फैलाये गये मिथ्या और भ्रामक विचारों का सक्रिय रूप से जवाब दें, क्योंकि लम्बे समय में यह छात्र आन्दोलन को नुकसान पहुँचा सकता है। हम सभी प्रगतिशील छात्रों से यह भी अपील करेंगे कि वे BAPSA और ऐसे अन्य संगठनों द्वारा अमल में लायी जा रही पहचान की राजनीति के जाल में न फँसें और न सिर्फ़ छात्रों के मुद्दे पर बल्कि फ़ासीवाद और सभी प्रकार के शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ भी एक क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन खड़ा करने के लिये एकजुट हों। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि हमारे मित्र राजनीतिक बहस की नैतिकता का पालन करते हुए उन सभी व्हाट्सएप समूहों में हमारी प्रतिक्रिया साझा करेंगे जहाँ उन्होंने अपना बयान साझा किया है।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : शिशिर

(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)

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