Category Archives: साम्‍प्रदायिकता

श्रीराम सेने की ‘राष्ट्रभक्ति’ का एक और नमूना

ये समस्त प्रतिक्रियावादी ताकतों की एक पहचान सर्वव्यापी है। ये झुण्ड में पौरुष दिखाते हैं। इनकी कायराना हरकत इस ताज़ा घटना में भी देखने को मिली। बीजापुर में सड़कों पर प्रदर्शन के दौरान बहुमुखी हिन्दुत्ववादी एक साथ जयघोष कर रहे थे। इनके सारे मुखौटे एकजुट थे, पर जैसे ही इनकी असलियत खुलकर सामने आ गयी, ये सब हर बार की तरह मैं नहीं-मैं नहीं, कहकर अपना-अपना दामन पाक-साफ बताने में लग गये। श्रीराम सेना के कर्ताधर्ता प्रमोद मुतालिक बयान देने लगे कि यह गिरफ्तारी श्रीराम सेना को बदनाम करने के लिए की गयी है और पकड़े गये सभी युवक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के सदस्य हैं। वैसे तो आर.एस.एस. इस मामले पर अपने मुँह पर टेप चिपका के बैठ गयी है, अगर बोली तो मेरी मानो यही कहेगी कि आर.एस.एस. एक सांस्कृतिक संगठन है! ऐसे राष्ट्रविरोधी कुकृत्य का हम कतई समर्थन नहीं करते! यह राष्ट्र विरोधियों की सोची समझी साजिश है! आदि-आदि। यह गोयबल्सीय भाषा शैली का सुन्दर समन्वय कब तक करते रहेंगे। जब तथ्य इनके चेहरे पर पुते नकाब को बारम्बार खुरच रहे हों!

फासीवादियों के सामने फिर घुटने टेके उदार पूँजीवादी शिक्षा तन्त्र ने

स्पष्ट है कि हमेशा की तरह शिक्षा का प्रशासन अपने सेक्युलर, तर्कसंगत और वैज्ञानिक होने के तमाम दावों के बावजूद तर्क की जगह आस्था को तरजीह दे रहा है और फासिस्ट ताकतों के सामने घुटने टेक रहा है। यह प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। आपको याद होगा कि मुम्बई विश्वविद्यालय ने रोहिण्टन मिस्त्री की पुस्तक को शिवसेना के दबाव में आकर पाठ्यक्रम से हटा दिया। इस तरह की तमाम घटनाएँ साफ़ तौर पर दिखलाती हैं कि पाठ्यक्रमों का फासीवादीकरण केवल तभी नहीं होगा जब साम्प्रदायिक फासीवादियों की सरकार सत्ता में होगी। धार्मिक बहुसंख्यावाद के आधार पर राजनीति करने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतें जब सत्ता में नहीं होंगी तो भी भावना और आस्था की राजनीति और वर्ग चेतना को कुन्द करने वाली राजनीति के बूते नपुंसक सर्वधर्म समभाव की बात करने वाली सरकारों को चुनावी गणित के बूते झुका देंगी। ऐसा बार-बार हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में भी और राजनीति के क्षेत्र में भी।

कांग्रेसी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की असली कहानी

पिछली 14 सितम्बर को राजस्थान-उत्तर प्रदेश सीमा पर स्थित भरतपुर जिले के गोपालगंज कस्बे में ज़मीन के विवाद को लेकर मेव मुस्लिम समुदाय और गुर्जर समुदाय के बीच साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी, जिसमें दस लोग मारे गये और करीब दो दर्जन लोग घायल हो गये। मारे गये सभी दस लोग और घायलों में से भी ज़्यादातर मेव मुस्लिम समुदाय के हैं। कुछ मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह आँकड़ा और भी ज़्यादा हो सकता है, क्योंकि मुस्लिम समुदाय के कई लोग अभी भी लापता हैं। पी-यू-सी-एल-, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राजस्थान मुस्लिम फोरम और यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी द्वारा इलाका का दौरा करने भेजे गये जाँच दल के अनुसार इस हिंसा में हताहत हुए लोग दंगों का शिकार नहीं, बल्कि पुलिस की गोलियों का शिकार हुए हैं।

भारतीय पूँजीवादी राजनीति का प्रहसनात्मक यथार्थ

भारत की पूँजीवादी राजनीति आजकल ऐसी हो गयी है जिस पर कोई कॉमेडी फिल्म नहीं बन सकती। कॉमेडी शैली का मूल होता है अलग-अलग तत्वों का व्यंग्यात्मक रूप से छोर तक खींच दिया जाना, अत्युक्तिपूर्ण प्रदर्शन करना। लेकिन जब यथार्थ में यह प्रक्रिया पहले ही घटित हो गयी हो, तो!!?? जैसे कि सितम्बर महीने में गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने “सद्भावना मिशन” के नाम से एक जमावड़ा किया और तीन दिन का उपवास रखा!

अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयुद्धः प्रकृति, चरित्र और नियति

अण्णा हज़ारे का पूरा आन्दोलन वास्तव में मध्यम वर्गों के एक आत्मिक उभार के समान है। यह पूरा आन्दोलन व्यवस्था को कहीं भी कठघरे में खड़ा नहीं करता। यह अलग से भ्रष्टाचार को दूर कर देने का एक मसीहावादी, गैर-जनवादी, जन-विरोधी प्रतिक्रियावादी मॉडल पेश करता है, जो जनता से ज़्यादा प्रबुद्ध निरंकुश संरक्षक-नुमा नायकों पर भरोसा करता है। प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के प्रावधानों से इसका पूरा चरित्र उजागर हो जाता है। इसमें मध्यम वर्गों की हिस्सेदारी की निश्चित वजहें थीं, और यह हिस्सेदारी भी राजनीतिक रूप से संलग्न, सचेत, संगठित और सक्रिय हिस्सेदारी नहीं थी, बल्कि एक मसीहा की अति-सक्रिय हिस्सेदारी के साथ टटपुंजिया असंलग्न, अचेत और निष्क्रिय हिस्सेदारी थी। यह भागीदारी देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के नाम पर जश्न मनाने का मौका ज़्यादा था और मीडिया इसमें पूरी मुस्तैदी से अपनी भूमिका निभा रहा था।

फ़ार्बिसगंज पुलिस दमन : बर्बरों के “सुशासन” का असली चेहरा

वास्तव में नीतीश का “सुशासन” फ़ासीवादियों के शासन का एक आदर्श उदाहरण है जहाँ ग़रीब किसानों और मज़दूरों और अल्पसंख्यकों के जीवन का इसके अलावा और कोई मायने नहीं होते हैं कि वे चुपचाप बड़े किसानों और पूँजीपतियों के निजी मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करें और चुपचाप मर जायें, क्योंकि विरोध में अगर कहीं कोई आवाज़ उठी तो वही हश्र होगा जो फ़ार्बिसगंज में हुआ। साथ ही देश की मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा नीतीश के फ़ासीवादी शासन की लगातार बड़ाई और नीतीश को विकास के एक नये नायक के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना अभूतपूर्व संरचनागत क्राइसिस के भँवर में फँसी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की एक निरंकुश फ़ासीवादी राजतन्‍त्र की आवश्यकता के प्रति बढ़ते झुकाव को ही रेखांकित करता है।

पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था का घिनौना सच

जाँच एजेंसियों के इन भारी मतभेदों और कृत्रिम गवाहों के झूठे बयानों के बावजूद न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी मानते हुए सज़ाएँ दीं। जबकि इसके उलट गुजरात दंगों (विशेषकर बेस्ट बेकरी) में जहाँ हज़ारों अल्पसंख्यक लोग मारे गये, जहाँ हैवानियत का नंगा नाच किया गया, जहाँ मानवजाति को शर्मसार किया गया, जहाँ छोटे-छोटे बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया, जहाँ वे चीख़ते-चिल्लाते रहे, जहाँ हज़ारों सबूत चीख़-चीख़कर आज भी उस मंजर की हुबहू कहानी कह रहे हैं, वहाँ यह न्याय-व्यवस्था अपंग नज़र आती है, शैतानों के पक्ष में खड़ी नज़र आती है, पीड़ितों से दूर नज़र आती है।

हिन्दू आतंकवाद के नाम पर तिलमिलाहट क्यों?

आर.एस.एस. और भा.ज.पा. जिन कार्यों के लिए सिमी, तालिबानियों और नक्सलियों को आतंकवादी कहते हैं, उन्हीं गतिविधियों और कार्यों के लिए ख़ुद को आतंकवादी कहा जाना उन्हें पसन्द क्यों नहीं? पूरे गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाकर हज़ारों निर्दोषों को सरकारी मशीनरी का प्रयोग करते हुए सरेआम जिन्दा जला देने का काम हो या उड़ीसा में ईसाई समुदाय के लोगों का कत्लेआम या भण्डारकर शोध संस्थान को आग के हवाले करने का काम हो, या नागपुर, मालेगाँव और कानपुर में बम विस्फोट करने का काम हो, या दिल्ली के करोलबाग में न्यूज़ चैनल के ऑफिस को तोड़फोड़कर नष्ट कर देने का या मुम्बई में ग़ैर-महाराष्ट्रीय लोगों को सड़क पर सरेआम कत्ल करने का काम; ये सब आतंकवादी कार्यवाही नहीं हैं क्या?

शिवसेना की ‘नज़र’ में एक और किताब ‘ख़राब’ है!

दरअसल इस घटना में और ऐसी ही तमाम घटनाओं में भी, जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटा जा रहा हो तो मुठ्ठी भर निरंकुश फासिस्ट ताकतों के सामने यह व्यवस्था साष्ट्रांग दण्डवत करती नज़र आती है। दिनों-दिन इस व्यवस्था के जनवादी स्पेस के क्षरण-विघटन को साफ-साफ देखा जा सकता है। अगर ग़ौर से देखें तो यह इस पूँजीवादी व्यवस्था की मौजूदा चारित्रिक अभिव्यक्ति है। ज्यों-ज्यों पूँजी का चरित्र बेलगाम एकाधिपत्यवादी होता जा रहा है, त्यों-त्यों इसका जनवादी माहौल का स्कोप सिकुड़ता चला जा रहा है।

तुम राम भजो, हम राज करें।

एक दमनकारी राज्यसत्ता को चलाने के लिए यह ज़रूरी है कि वे तमाम लोग, जिनका इस व्यवस्था में स्वर्ग है, एक ऐसे दर्शन का प्रचार करें ताकि जनता की सोचने-समझने की शक्ति को ख़त्म किया जा सके। बड़े-बड़े राजनेता से लेकर फिल्मी एक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर आदि जो करोड़ों की कमाई कर रहे हैं, ऐसे दर्शन का ख़ूब प्रचार करते दिख जायेंगे। शोषणकारी पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने तमाम सत्ता-संस्थानों द्वारा चाहे वह शिक्षा केन्द्र हो, न्यायालय व संविधान हों अथवा तथाकथित लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ मीडिया का टी-वी, रेडियो, अख़बार हो – चारों तरफ कूपमण्डूकता, अन्धविश्वास, अवैज्ञानिकता फैलाते हैं।