Category Archives: साम्‍प्रदायिकता

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असली जन्मकुण्डली

संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है। यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही!

देश में नये फासीवादी उभार की तैयारी

इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ मानवतावादी अपीलों और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुकाबला न तो किया जा सका है और न ही किया जा सकता है। फ़ासीवादी ताकतों और फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा करके जनता के बीच लाना होगा और जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी। फ़ासीवाद का मुकाबला हमेशा मज़दूर वर्ग ने किया है। क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग को उनकी आर्थिक माँगों पर तो संगठित करना ही होगा, साथ ही उनके सामने इस पूरी व्यवस्था की सच्चाई को बेपर्द करना होगा और राजनीतिक तौर पर उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। हम अपनी आँखों के सामने नये सिरे से फासीवादी उभार देख रहे हैं। न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पूँजीवादी संकट के इस दौर में यूनान, पुर्तगाल, फ्रांस और स्पेन से लेकर अमेरिका और इंग्लैण्ड तक में। हमारे देश में यह उभार शायद सर्वाधिक वर्चस्वकारी और ताक़तवर ढंग से आ रहा है। जनता के बीच शासन से मोहभंग की स्थिति को पूरी व्यवस्था से मोहभंग में तब्दील किया जा सकता है और हमें करना ही होगा। मौजूदा संकट ने जो दोहरी सम्भावना (क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी) पैदा की है, उसका लाभ उठाने में क्रान्तिकारी ताक़तें फिलहाल बहुत पीछे हैं, जबकि फासीवादी ताक़तें योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही हैं। हमें अभी इसी वक़्त इस स्थिति से निपटने की तैयारी युद्धस्तर पर करनी होगी, नहीं तो बहुत देर हो जायेगी।

ज़ख़्म

बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की ख़बरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे “गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या “अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी ख़बरें सुनी जाती हैं। दंगों की ख़बर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा कर्फ्यूग्रस्त हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम.काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की ख़बरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिये पर ही छाप देते हैं। हाँ मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में ख़बर छपती है, नहीं तो सामान्य।

क्यों ज़रूरी है रूढ़िवादी कर्मकाण्डों और अन्धविश्वासी मान्यताओं के विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष?

ग़ौर करने वाली बात यह है कि पूरी दुनिया के हर धर्म में जो रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रचिलित हैं उनमें से ज़्यादातर असमानता को सही ठहराती हैं। यही कारण है कि शासक वर्ग शोषित उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने के लिए इन कर्मकाण्डों और रूढ़ियों का प्रचार करते हैं। टीवी में, अखबारों में और पत्रिकाओं में इन मूर्खताओं के लिए चलाए जा रहे कई कूपमण्डूक विज्ञापन देखे जा सकते हैं, और साथ ही धर्म गुरुओं के आश्रम भी इन्हीं रूढ़ियों के प्रचार के अड्डे बने हुए हैं जो लोगों को गुमराह करके करोड़ों का धन्धा चला रहे हैं। इन परिस्थितियों में धार्मिक कर्मकाण्डों को मानना और पण्डे-पुजारियों (या मुल्ला-मौलवियों) तथा पितृसत्तात्मक मूल्यों को बढ़ावा देना समाज-विरोधी, प्रगति-विरोधी काम है, जिसे हर व्यक्ति को सचेतन रूप से समझना चाहिए और इनके विरुद्ध वैचारिक रूप से तथा व्यवहारिक रूप में प्रचार करना चाहिए।

अमृतानन्दमयी के कुत्तों, आधुनिक धर्मगुरुओं और विघटित-विरूपित मानवीय चेतना वाले उनके भक्तों के बारे में चलते-चलाते कुछ बातें…

पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली अपनी स्वतःस्फूर्त आन्तरिक गति से धार्मिक विश्वास के पुराने रूपों का पोषण करती है और नये-नये आधुनिक रूपों को जन्म देती रहती है। माल उत्पादन और अधिशेष-विनियोजन की मूल गतिकी जनता की नज़रों से ओझल रहती है और अपने जीवन की तमाम आपदाओं का कारक उसके लिए अदृश्य बना रहता है। इसी अदृश्यता का विरूपित परावर्तन सामाजिक मानस में अलौकिक शक्तियों की अदृश्यता के रूप में होता है। इसी से धार्मिक चेतना नित्य प्रति पैदा होती रहती है और आम लोग अलौकिक शक्तियों और उनके एजेण्टों (धर्मगुरुओं) के शरणागत होते रहते हैं। ये अलग-अलग धर्मगुरु अलग-अलग बीमा कम्पनियों के एजेण्ट के समान होते हैं जो तरह-तरह के प्रॉडक्ट ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षक बनाकर उपभोक्ताओं को बेचते रहते हैं।

इशरत जहाँ…एक निरन्तर सवाल

एक तरफ धर्म, क्षेत्र और सर्वापरि वर्ग-आधारित वर्चस्व के साथ राज्य अपने प्रचार माध्यमों और संस्कृति प्रतिष्ठानों के जरिये समाज के एक हिस्से में “विकास” व “कानून” तथा “वैधानिकता” को इस तरह से सामने लाने की कोशिश में लगा है कि जो कुछ उसकी परिभाषा के दायरे में सही है, मात्र वही सत्य है। दूसरी तरफ प्रतिरोध और जनाधिकारों के प्रत्येक संघर्ष को कुचलने के लिए उसे “विकास”, “विरोध” , “आतंकवाद”, “अलगाववाद” और “माओवाद” व “नक्सलवाद” से जोड़ दिया जाता है। यह सामान्य आबादी में ही नहीं बल्कि पढ़े लिखे तबके तक के लिए सोचने की सीमा से बाहर चला जाता है कि विकास के क्रान्तिकारी और जनपक्षधर रूप भी हो सकता है। जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है वह राज्य आतंकवाद की उपज है; जिसे अलगाववाद कहा जा रहा है वह वर्चस्ववाद और शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष हो सकता है। ये सारे सवाल बेहद संवेदनशीलता से उस आबादी के सामने खड़े हैं जो अपने भविष्य के सपनों को संजोने में मग्न है और उसके सामने भी जो दो वक्त की रोटी के लिए हाड़-तोड़ खट रही है।

चेतन भगत: बड़बोलेपन और कूपमण्डूकता का एक साम्प्रदायिक संस्करण

चेतन भगत जैसे भाड़े के कलमघसीट जिन्हें समाज, विज्ञान, इतिहास के बारे में ज़रा भी ज्ञान नहीं होता केवल अपने मूर्खतापूर्ण बड़बोलेपन के बूते ही अपनी बौद्धिक दुकानदारी खड़ी कर लेते हैं। महानगरों में मध्यम वर्ग के युवा आपको मेट्रो आदि में चेतन भगत की “रचनाएँ” पढ़ते आसानी से दिख जायेंगे। भारत जैसे देश में जो औपनिवेशिक दौर से ही बौद्धिक कुपोषण का शिकार है, चेतन भगत जैसों की दाल आसानी से गल जाती है। किन्तु इस प्रकार के बगुला भगतों की ख़बर लेना बेहद ज़रूरी है। इनके बौद्धिक ग़रूर को ध्वस्त करना मुश्किल नहीं है, किन्तु ज़रूरी अवश्य है।

और कितने बेगुनाहों की बलि के बाद समझेंगे हम? आपस में लड़ना छोड़, अपने असली दुश्मन को पहचानना ही होगा!!

इस वारदात ने एक बार फिर से साबित किया है कि जब आम लोगों को जीविकोपार्जन के साधन हासिल नहीं होते हैं, उन्हें रोज़गार नसीब नहीं होता, और महँगाई से उनकी कमर टूट जाती है तो यह व्यवस्था जनता को आपस में लड़वाती है, जिसमें शासक वर्गो के सभी हिस्सों में पूरी सर्वसम्मति होती है। असली गुनहगार वह व्यवस्था है जो एक शस्य-श्यामला धरती वाले देश में सभी को सहज रोज़गार, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और बेहतर जीवन स्थितियाँ और एक खुशहाल इंसानी जिन्दगी मुहैया नहीं करा सकती। ज़ाहिर है, कि ऐसे में व्यवस्था जनता के बीच एक नकली दुश्मन का निर्माण करती है। कभी वह मुसलमान होता है, कभी ईसाई, कभी दलित तो कभी कोई और अल्पसंख्यक समुदाय। हम सभी को समझना चाहिए कि हमारा असली दुश्मन कौन है! मेहनत करने वालों का न तो कोई धर्म होता है और न कोई देश वह जहाँ भी जाता है अपना शोषण करवाने के लिए मज़बूर होता है। साफ है, जब तक इस व्यवस्था को चकनाचूर नहीं कर दिया जाता देश की आम मेहनतकश जनता को मुक्ति नहीं मिल सकती।

फैजाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के निहितार्थ

जनता की लाशों पर राजनीति करने वाले ये पूँजीवादी चुनावी मदारी अपने खूनी खेल में लगे हैं। जो सीधे या परोक्ष रूप में इसमें नहीं शामिल हैं वे अपने को जनता का हितैषी होने, प्रगतिशील होने के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं और बड़े शातिराना तरीके से अपना चुनावी खेल खेल रहे हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि सभी चुनावी मदारी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं उनके नारों व झण्डों में ऊपरी फर्क ही होता है। आज के दौर में दक्षिण व ”वाम” की विभाजक रेखाएँ काफी धुंधली होती जा रही हैं। दूसरा संसद और विधान सभाओं में अल्पमत-बहुमत की नौटंकी करके इन साम्प्रदायिक दंगों को नहीं रोका जा सकता है। इतिहास इसका गवाह है।

संस्कृति-रक्षकों और धर्म ध्वजाधारियों का असली चेहरा

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें या यूँ कहें कि सभी तरह की फ़ासीवादी ताक़तें मिथकों को यथार्थ और ‘कॉमन सेंस’ बनाकर और प्रतिक्रिया की ज़मीन पर खड़े होकर कल्पित अतीत से अपनी राजनीतिक ताक़त और ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जर्मनी में नात्सियों ने यही किया और भारत में संघ परिवार और उसके तमाम आनुषंगिक संगठन यही कर रहे हैं। स्त्रियों, दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और आम ग़रीब आबादी के प्रति इनका फासीवादी रवैया बार-बार हमारे सामने आता है। ये ताक़तें इसे धर्म-सम्मत और संस्कृति-सम्मत बताकर सही ठहराती हैं और अनुशासित और निरन्तरतापूर्ण तरीके से मस्तिष्कों में विष घोलने का काम करती रहती हैं। ये ताक़तें जनता के बीच सतत् मौजूद हैं और इसलिए जनता के तमाम संघर्षों की एकजुटता के लिए नुकसानदेह हैं। इसलिए आज इन संस्कृति-रक्षकों और धर्मध्वजाधारियों के दोगले और पाखण्डी चेहरे को पूरे देश की जनता के सामने बेनक़ाब करने की ज़रूरत है। साथ ही, इन साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों के खि़लाफ़ समझौताविहीन संघर्ष चलाने की भी उतनी ही ज़रूरत है।