Category Archives: साम्‍प्रदायिकता

प्रेम, परम्परा और विद्रोह

दो स्त्री-पुरुष नागरिकों के प्रेम करने की आज़ादी का प्रश्न एक बुनियादी अधिकार का प्रश्न है। व्यक्तिगत विद्रोह इस प्रश्न को महत्ता के साथ एजेण्डा पर लाते हैं लेकिन मध्ययुगीन सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध दीर्घकालिक, व्यापक, रैडिकल सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के बिना इन मूल्यों को अपना हथियार बनाने वाली फासिस्ट शक्तियों के संगठित प्रतिरोध के बिना और इन मूल्यों को अपना लेने और इस्तेमाल करने वाली सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के बिना प्रेम करने की आज़ादी हासिल नहीं की जा सकती। प्रेम की आज़ादी के लिए केवल मध्ययुगीन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष की बात करना बुर्जुआ प्रेम का आदर्शीकरण होगा। पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध के अन्तर्गत सामाजिक श्रम-विभाजन और तज्जन्य अलगाव के होते, न तो स्त्रियों की पराधीनता समाप्त हो सकती है और न ही पूर्ण समानता और स्वतन्त्रता पर आधारित स्त्री-पुरुष सम्बन्ध ही अस्तित्व में आ सकते हैं।

रामसेतु: किसके हेतु??

यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय जनमानस में तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति आग्रह इतना कम क्यों है? इसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण रहा है कि भारतीय समाज का विकास क्रमिक रहा है, यह क्रान्तियों से होकर नहीं गुज़रा। समाज हमेशा गतिमान रहता है, लेकिन क्रान्ति सामाजिक चेतना को एक स्तर से दूसरे तक छलाँग लगाने में मदद करती है। यह छलाँग पूर्व की प्रवृत्तियों से निर्णायक विच्छेद करने में मदद करती है। जब यूरोप प्रबोधन की रोशनी में नहा रहा था उस समय हमारा देश औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत आकर अपने स्वाभाविक विकास की गति को खो रहा था। भारत में धार्मिक सुधार आन्दोलनों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए नये उदीयमान वर्गों का दावा दिखना अभी भ्रूण रूप में शुरू ही हुआ था कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने भारत को उपनिवेश बना लिया। भारत में भी स्वाभाविक विकास होने की सूरत में निश्चित रूप से ऐसे आन्दोलन शुरू हो सकते थे जो तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जनमानस में स्थापित करते और उसे अन्धविश्वास, ढकोसलों, पाखण्ड और अवैज्ञानिकता से मुक्त करते।

आदर प्रकट करने के लिए कानून बनाने के राजनाथ सिंह के विचार के बारे में कुछ बहके-बहके विचार

तुलसीदास ने मानस में कई जगह लिखा है कि रावण अपने दसों सिरों से बोल उठा या दसों मुँह से ठठाकर हँस पड़ा। रावण ज़्यादातर अपने एक मुँह का इस्तेमाल करता था और जब दसों मुँहों से बोलता भी था तो एक ही बात। पर भाजपा एक ऐसे रावण जैसा व्यवहार करती है जो हमेशा दसों मुँह से दस परस्पर विरोधी बातें करता रहता है।