Category Archives: साम्‍प्रदायिकता

रामसेतु: किसके हेतु??

यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय जनमानस में तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति आग्रह इतना कम क्यों है? इसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण रहा है कि भारतीय समाज का विकास क्रमिक रहा है, यह क्रान्तियों से होकर नहीं गुज़रा। समाज हमेशा गतिमान रहता है, लेकिन क्रान्ति सामाजिक चेतना को एक स्तर से दूसरे तक छलाँग लगाने में मदद करती है। यह छलाँग पूर्व की प्रवृत्तियों से निर्णायक विच्छेद करने में मदद करती है। जब यूरोप प्रबोधन की रोशनी में नहा रहा था उस समय हमारा देश औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत आकर अपने स्वाभाविक विकास की गति को खो रहा था। भारत में धार्मिक सुधार आन्दोलनों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए नये उदीयमान वर्गों का दावा दिखना अभी भ्रूण रूप में शुरू ही हुआ था कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने भारत को उपनिवेश बना लिया। भारत में भी स्वाभाविक विकास होने की सूरत में निश्चित रूप से ऐसे आन्दोलन शुरू हो सकते थे जो तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जनमानस में स्थापित करते और उसे अन्धविश्वास, ढकोसलों, पाखण्ड और अवैज्ञानिकता से मुक्त करते।

आदर प्रकट करने के लिए कानून बनाने के राजनाथ सिंह के विचार के बारे में कुछ बहके-बहके विचार

तुलसीदास ने मानस में कई जगह लिखा है कि रावण अपने दसों सिरों से बोल उठा या दसों मुँह से ठठाकर हँस पड़ा। रावण ज़्यादातर अपने एक मुँह का इस्तेमाल करता था और जब दसों मुँहों से बोलता भी था तो एक ही बात। पर भाजपा एक ऐसे रावण जैसा व्यवहार करती है जो हमेशा दसों मुँह से दस परस्पर विरोधी बातें करता रहता है।