अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयुद्धः प्रकृति, चरित्र और नियति

सम्‍पादक

अन्ततः ‘सबकी इज़्ज़त बचाओ’ फार्मुले के तहत अण्णा हज़ारे और कांग्रेस सरकार के बीच समझौता हो गया। समझौते की घोषणा के लिए अण्णा हज़ारे के मंच पर कांग्रेस के नेता विलासराव देशमुख भी मौजूद थे ताकि यह सन्देश जा सके कि कांग्रेस ने अण्णा हज़ारे की माँगों पर कितनी सुचिन्तित प्रतिक्रिया दी है। अण्णा हज़ारे और उनकी टीम के लिए भी विजय और कांग्रेस.नीत सं.प्र.ग. सरकार के लिए भी विजय! अभी जनलोकपाल बिल या किसी भी लोकपाल बिल का क्या होना है, इसका जवाब नहीं दिया जा सकता। लेकिन अब जबकि भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयुद्ध का तामझाम रामलीला मैदान से हट चुका है; “अगस्त क्रान्ति” को लेकर मीडिया का उन्माद थोड़ा ठण्डा पड़ चुका है, तो कुछ बातें विवेकपूर्ण और आलोचनात्मक दृष्टि के साथ की जा सकती हैं। जिस समय रामलीला मैदान देश के सबसे बड़े शो का स्थान बना हुआ था, भारत के शहरी मध्यम वर्गों के विभिन्न संस्तर अपने ताज़े-ताज़े अर्थबोध के साथ सड़कों पर ‘मैं भी अण्णा हूँ’ की टोपी लगाये घूम रहे थे और मीडिया ‘आज़ादी की दूसरी लड़ाई’, ‘भारत के तहरीर चौक’ और ‘दूसरे गाँधी’ के पागलपन भरे गुणगान में लगा हुआ था, तब तक किसी भी किस्म के आलोचनात्मक स्वर के लिए स्थान नहीं बचा हुआ था। उस समय आप न चाहते हुए भी पक्ष या विपक्ष में धकेल दिये जातेः भ्रष्टाचारी नेता-नौकरशाह या शुद्ध-स्वच्छ अण्णा हज़ारे! जबकि सच्चाई यह है कि उदार पूँजीवादी राज्य (अपनी नेताशाही और नौकरशाही समेत, जिसकी कि नियति और फितरत ही भ्रष्टाचार में डूब जाने की है), हमेशा अपनी नैसर्गिक गति से अण्णा हज़ारे जैसे मसीहाओं को पैदा करता रहता है और पैदा करता रहा है। ये दोनों एक ही व्यवस्था की गति के दो विपरीत दिखने वाले गुण हैं। लेकिन वास्तव में ये एक ही हैं। मसीहावाद एक उदार पूँजीवादी राज्य के कार्यकलाप का नैसर्गिक और नियमित अन्तराल पर प्रकट होने वाला उपोत्पाद है। इसलिए कुछ बिनोबा, कुछ बहुगुणा, कुछ हज़ारे और कुछ बेदी-केजरीवाल हमेशा पैदा होते रहेंगे। ऐतिहासिक तौर पर मुनाफ़े पर टिकी हर लुटेरी व्यवस्था को ऐसे सन्तों, भले मानुषों की ज़रूरत होती है। इनके बिना वह चल ही नहीं सकती। जब हज़ारे का आन्दोलन पूरे ज़ोर पर था, उस समय कोई तीसरा आलोचनात्मक पक्ष लेना असम्भव-सा बन गया था, हालाँकि हमने तब भी इस “अण्णा परिघटना” पर लिखा था। लेकिन अब शायद विवेक और आलोचनात्मकता के साथ कुछ बातें ज्यादा प्रभाविता के साथ की जा सकती हैं।

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Anna hazareअण्णा हज़ारे और उनकी मण्डली ने एक ऐसे समय में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया जब देश की आम जनता में भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ नफ़रत अपने चरम बिन्दु पर पहुँच रही थी। कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, और छोटे-मोटे कई घोटालों का हाल ही में खुलासा हुआ है। इन खुलासों ने आम जनता के बीच भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के प्रति घृणा और नफ़रत को बेइन्तहाँ बढ़ाया। अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ अभियान का आह्वान विशेष तौर पर मध्यम वर्ग के विभिन्न संस्तरों में काफी प्रभावी सिद्ध हुआ। यह वर्ग भ्रष्टाचार के सबसे प्रसिद्ध, प्रचारित और प्रत्यक्ष रूपों से रोज़-ब-रोज़ रूबरू होता है। बिजली कनेक्शन लगवाने से लेकर राशन कार्ड बनवाने, टेलीफोन बिल जमा करने, घर का नक्शा पास कराने, विभिन्न प्रकार के औद्योगिक और व्यापारिक लाईसेंस लेने तक, हर काम के लिए इस वर्ग को नौकरशाही के निचले से ऊँचे स्तर तक घूस खिलानी पड़ती है। इन दिक्कतों का सामना करने वाले इन दरम्याने वर्गों के सामने जब अरबों-खरबों रुपये के घोटालों का पर्दाफाश हुआ तो ये वर्ग नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध और भी रुष्ट हो गये। इसी मौके पर अण्णा हज़ारे और उनकी “सिविल सोसायटी” मण्डली अपने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान को लेकर उपस्थित हो गयी। अण्णा हज़ारे की इन वर्गों में ज़बर्दस्त लोकप्रियता के पीछे मीडिया द्वारा फैलायी गयी सनसनी के अलावा इस गुस्से ने अहम भूमिका निभायी।

आम तौर पर, देश के ग़रीब मज़दूर, किसान, दलित, मुसलमान और पिछड़े वर्ग पहले जन्तर-मन्तर और फिर रामलीला मैदान में आयोजित इस शो से ग़ायब थे। इसलिए नहीं कि ये वर्ग अपने हितों के प्रति अचेत हैं या उन्हें पता नहीं है कि भ्रष्टाचार क्या होता है। वास्तव में, ये वे वर्ग हैं जिनके लिए भ्रष्टाचार महज़ आमदनी में कमी लाने वाली कोई शक्ति नहीं है, बल्कि उनके लिए तो यह वह ताक़त है जो भुखमरी के कगार पर जी रहे इन लोगों के जीवन को और ज़्यादा तबाह और बरबाद करती है। संविधान-सम्मत और कानूनी तौर पर की जाने वाली लूट और शोषण से आम मेहनतकश जनता को दरिद्रता के गर्त में पहुँचाने के बाद भ्रष्टाचार के जरिये पूँजीपति, व्यापारी, नेता और नौकरशाह उन्हें उन तौर-तरीकों से लूटते हैं, जिन्हें पूँजीवादी संविधान और कानून मान्यता नहीं देते। यह सच है कि यह भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाये तो आम ग़रीब मेहनतकश जनता के जीवन में कुछ परिमाणात्मक बेहतरी ज़रूर आयेगी। लेकिन एक मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था और लोभ-लालच की संस्कृति पर टिके समाज के रहते इस भ्रष्टाचार के ख़त्म हो जाने की आकांक्षा करना आकाश कुसुम की अभिलाषा के समान ही है। लेकिन आम ग़रीब मेहनतकश जनता अण्णा हज़ारे के महा-शो से शुरू से अन्त तक कमोबेश अनुपस्थित थी क्योंकि वह जानती है कि इस भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम से उस भ्रष्टाचार का बाल भी बाँका नहीं होने वाला है जिसका शिकार मुख्य तौर पर वह होती है।

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दूसरा अहम सवाल यह है कि क्या अण्णा हज़ारे की मण्डली द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल इस भ्रष्टाचार को दूर कर सकता है? आज जिस भ्रष्टाचार की बात की जा रही है वह सरकारी संस्थाओं और विशेषकर नौकरशाही द्वारा किया जाने वाला भ्रष्टाचार है। आप नौकरशाही के भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए एक ऐसा नौकरशाह (यानी, प्रस्तावित जनलोकपाल) बनाना चाहते हैं जो अब तक का सर्वाधिक शक्तिशाली नौकरशाह होगा। इस बात को समझने के लिए बस थोड़ा-सा आलोचनात्मक विवेक इस्तेमाल करने की ज़रूरत है कि नौकरशाही तन्त्र के भ्रष्टाचार को कोई नौकरशाह या किसी भी किस्म का नौकरशाहाना विकल्प नहीं दूर कर सकता है। एक ऐसी संस्था जिस पर जनता का कोई नियन्त्रण नहीं होगा, जिस पर जनसमुदायों की कोई निगरानी नहीं होगी, वह वास्तव में एक भस्मासुर साबित होगी। संविधान में पहले भी बहुत से प्रगतिशील दिखने वाले अधिनियम और कानून लाये गये हैं। उन सबका क्या हश्र हुआ है? मिसाल के तौर पर, आज मनरेगा और सूचना के अधिकार के कानून का क्या हश्र हो रहा है? हाल ही में, शेहला मसूद की हत्या और उससे पहले देश भर में हुई सूचना के अधिकार और मनरेगा को लेकर काम करने वाले दज़र्नों कार्यकर्ताओं की हत्याओं ने साफ़ तौर पर दिखलाया है कि बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, ग़रीबी आदि जैसी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान कोई कानून बनाकर नहीं किया जा सकता है। जब तक समाज के संसाधनों पर कारपोरेट घरानों, छोटे-बड़े और मँझोले पूँजीपतियों, ठेकेदारों, तरह-तरह के दलालों, नेताओं और नौकरशाहों, अपराधियों और व्यापारियों का नियंत्रण रहेगा तब तक आम मेहनतकश आबादी शोषित और उत्पीड़ित होती रहेगी। जिस समाज में मुनाफ़े, लालच और सम्पत्ति की संस्कृति हावी रहेगी, उसमें अव्वलन तो भ्रष्टाचार को आप प्रवचन देकर, भय या आतंक पैदा करके ख़त्म नहीं कर सकते; और दूसरी बात यह कि आज महाशक्तिशाली कारपोरेट घरानों की पूँजी की ताक़त अगर विधायिका से लेकर कार्यकारिणी और न्यायपालिका तक को ख़रीद लेती है, तो ऐसा शुद्ध, पावन और पवित्र व्यक्ति कोई नहीं जो भ्रष्ट ही न हो सके। अगर जनलोकपाल भ्रष्ट हो जाता है, तो क्या? इस बात की क्या गारण्टी है कि ज़बर्दस्त शक्तियों से लैस जनलोकपाल भ्रष्ट नहीं हो सकता? दुनिया भर के समकालीन इतिहास में इस बात के सैकड़ों उदाहरण मिल जाते हैं जब इस प्रकार की संस्थाएँ बिक गयी हैं, या न बिकने पर ऐसे व्यक्तियों की हत्याएँ की गयी हैं। स्कैण्डिनेवियाई देशों से लेकर पश्चिमी यूरोप के तमाम देशों में ओम्बड्समैन नामक संस्था है, जो काफ़ी हद तक हज़ारे मण्डली द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल जैसी है। लेकिन इन देशों में भी ये संस्थाएँ या तो बिक जाती हैं या फिर दैत्याकार बहुराष्ट्रीय निगमों के सामने शक्तिहीन हो जाती हैं।

समस्या यह है कि अण्णा हज़ारे जिस प्रकार के जनलोकपाल की बात कर रहे हैं वैसे किसी भी विकल्प में एक ऐसे पूँजीवाद की कल्पना की जाती है जो कि दोषरहित, शुद्ध, ईमानदार, न्यायपूर्ण और स्वच्छ हो। ऐसे पूँजीवाद का सपना अपने आप में एक विभ्रम है। हज़ारे मण्डली का सवाल इस पूरी व्यवस्था पर है ही नहीं। उनका सवाल इस बात पर नहीं है होता कि सरकारें ‘मेमोरैण्डम ऑफ़ अण्डरस्टैण्डिंग’ पर हस्ताक्षर करके आनन-फानन में देश की प्राकृतिक और मानव सम्पदा को कारपोरेट घरानों को बेच देती हैं; गुजरात में निवेशक सम्मेलन में मोदी की फासीवादी सरकार ने 3 दिनों के भीतर सैकड़ों ऐसे समझौते कर डाले जिसके तहत गुजरात में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये जाएँगे, सरकारी उद्यमों का निजीकरण कर दिया जाएगा, मज़दूरों के न्यायसम्मत अधिकारों को छीन लिया जाएगा, ग़रीब किसानों और आदिवासियों से उनकी जगह-ज़मीन विकास के नाम पर छीन ली जाएगी; हज़ारे कभी इस बात पर सवाल नहीं उठाते कि विशेष आर्थिक क्षेत्र का पूरा कानून ही असंवैधानिक है, जिसके तहत विशेष आर्थिक क्षेत्रों में पूँजीपतियों को कानूनी तौर पर इस बात की इजाज़त मिल जाती है कि वे तमाम श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ायें; हज़ारे के दिमाग़ में कभी यह बात नहीं आयी कि इस देश की सरकार एक तरफ़ कारपोरेट घरानों को 13 लाख करोड़ रुपये के बजट में से करीब 9 करोड़ रुपये कर छूट, शुल्क रियायत और कर्ज़ माफ़ी के तौर पर दे देती है और दूसरी तरफ़ इस देश में 1998 से लेकर अब तक करीब ढाई लाख किसानों ने कर्ज़ के तले दबकर आत्महत्या कर ली है; हज़ारे के मन में कभी इस बात को लेकर सवाल नहीं पैदा होता कि जब कृषि ऋण माफ़ी की योजना आती है तो उसमें केवल उच्च मध्यम किसानों तक को छूट मिलती है, छोटे कर्ज़ लेने वाले ग़रीब किसान अभी भी बैंकों और टुच्चे सूदखोरों के अँगूठे के नीचे दम तोड़ रहे हैं; हज़ारे कभी झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में लाखों आदिवासियों को मुनाफ़े की ख़ातिर उनकी ज़मीन से उजाड़े जाने पर सवाल नहीं खड़ा करते; उनका दिल कभी हज़ारों ग़रीब मुसलमानों की गुजरात में बर्बरता से साम्प्रदायिक फासीवादियों द्वारा हत्या कर दिये जाने पर नहीं पिघलता; उल्टे उन्हें गुजरात का वह “विकास” नज़र आता है जिसकी मलाई गुजरात के धनाढ्य वर्ग चाट रहे हैं और जिसकी नींव में मज़दूरों की लाशें हैं; हज़ारे जिस समय अपना भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयुद्ध चला रहे थे, उसी के ठीक बाद मारूती के मज़दूर गुड़गाँव में अपने जायज़ हक़ों को लेकर सड़कों पर थे; लेकिन हज़ारे मण्डली में से किसी ने भी इस पर एक बयान तक नहीं जारी किया; हज़ारे का रामलीला शो ख़त्म होने के ठीक बाद ही सरकारी जाँच एजेंसी ने कश्मीर में हज़ारों बेनाम कब्रों की मौजूदगी की पुष्टि कर दी, जिसने भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीर के बेकसूर बेटे-बेटियों पर ढाये गये जुल्मों को बेपर्दा कर दिया, लेकिन हज़ारे मण्डली में से किसी ने भी इस पर एक शब्द कहना भी ज़रूरी नहीं समझा। ऐसे दर्ज़नों और जलते प्रश्न आज देश की आम मेहनतकश जनता के सामने उपस्थित हैं जो प्राथमिकता में सबसे ऊपर आते हैं। क्या ये सब भ्रष्टाचार नहीं हैं? क्या यह न्यायपूर्ण है? नहीं! लेकिन अण्णा हज़ारे मण्डली को इस पर कुछ नहीं कहना! यहाँ तक कि उनके जनलोकपाल बिल के दायरे में कारपोरेट भ्रष्टाचार और एन.जी.ओ. संगठनों द्वारा की जाने वाली अरबों रुपये की हेरा-फेरी आती ही नहीं! आएगी भी कैसे? केजरीवाल के एन.जी.ओ. को वित्त-पोषण देने वाले औद्योगिक घरानों में स्वयं टाटा है! यह वही टाटा है जो नीरा राडिया नामक दलाल के जरिये लॉबीइंग करके सरकारी नीति निर्धारण को खरीद रहा था! यह भ्रष्टाचार अण्णा हज़ारे मण्डली की नज़र में सदाचार है! वास्तव में, नौकरशाही का भ्रष्टाचार सबसे प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार होने के नाते जनता के गुस्से का सीधा निशाना बनता है। इसकी पहचान आसान है और इसलिए यह एक ‘सॉफ़्ट टार्गेट’ बन जाता है। कारपोरेट घराने और एन.जी.ओ. मिलकर जो अरबों का भ्रष्टाचार करते हैं वह हज़ारे मण्डली को कभी नज़र नहीं आयेगा क्योंकि केजरीवाल से लेकर किरण बेदी तक करोड़पति स्वयंसेवी संगठनों के कर्ता-धर्ता हैं। ऐसे एन.जी.ओ. टाटा जैसे पूँजीपतियों को कर से बचने के लिए अपने निवेश को वैविध्यपूर्ण बनाने में काफ़ी मदद करते हैं।

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अण्णा हज़ारे और उनकी मण्डली संविधान सम्मत लूट और शोषण के प्रति अन्धी है। यही कारण है कि टाटा से लेकर बिड़ला तक और अंबानी से लेकर हिन्दुजा तक ने अण्णा हज़ारे की मुहिम को खुले दिल से समर्थन दिया। यह अनायास नहीं था। यह तो पूँजीपति वर्ग भी चाहता है कि उसकी संविधान सम्मत लूट में से नौकरशाही जो हिस्सा असंवैधानिक लूट के जरिये मारती है (यानी, रिश्वत-घूस आदि के जरिये), वह न मार सके और राजसत्ता के जरिये इस लूट-तन्त्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए जो वेतन मिलता है, उसी से सन्तुष्ट रहे। लेकिन पूरी पूँजीवादी संस्कृति ही सम्पत्ति संचय, धन संचय, लालच और लोभ पर टिकी है; ऐसे में, बेचारे नौकरशाहों से बेजा उम्मीद ही तो की जाती है! अगर नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर कोई जनलोकपाल थोड़ी भी लगाम लगा पाता है तो जनता की लूट से प्राप्त होने वाले कुल अधिशेष में से अनौपचारिक तौर पर पूँजीपति वर्ग को कोई हिस्सा नौकरशाहों को नहीं देना पड़ेगा! इसका लाभ जनता को तो नाममात्र का ही मिलेगा, लेकिन पूँजीपति कारपोरेट घरानों को इससे ख़ासा फ़ायदा मिलेगा। लेकिन असल सवाल तो कहीं और है। इन कारपोरेट घरानों को कानूनी तौर पर ही जो हक़ हासिल हैं, वह मेहनतकश जनता के खि़लाफ़ अपराधी भ्रष्टाचार है। क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है कि इस देश में मज़दूरों के लिए कानूनी तौर पर तय न्यूनतम मज़दूरी उनके जीविकोपार्जन के लिए भी अपर्याप्त है? वास्तव में तो वह भी लागू नहीं होती! क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है कि जनता की गाढ़ी कमाई जो राष्ट्रीय बचत के रूप में बैंकों और राष्ट्रीयकृत वित्तीय संस्थानों में संचित थी, उससे पहले सार्वजनिक क्षेत्र को खड़ा किया गया और अब उसे औने-पौने दामों पर पूँजीपतियों को बेचा जा रहा है? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है कि देश के कुल सरकारी ख़ज़ाने का 97 प्रतिशत ग़रीब जनता द्वारा दिये जाने वाले करों से एकत्र होता है और हर बजट में उसका 80 फीसदी पूँजीपतियों, मालिकों को सौंप दिया जाता है या फिर सट्टेबाज़ों के हवाले कर दिया जाता है? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है कि कानूनी तौर पर देश भर में राज्य सरकारें और केन्द्रीय सरकार देशी-विदेशी पूँजीपति घरानों को देश के प्राकृतिक और मानव संसाधनों को लूटने की खुली छूट दे रहे हैं? लेकिन हज़ारे मण्डली की नज़र में यह भ्रष्टाचार कहीं नहीं आता है। वह जिस संसद को भ्रष्ट और चोर कहती है, उसी के पास जनलोकपाल बनाने की माँग को लेकर जाती है।

संसदीय वामपंथियों ने संसद की गरिमा बचाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया है! प्रभात पटनायक ने एक पूरा लेख लिख मारा है जिसमें उन्होंने बताया है कि महान पूँजीवादी संसद की गरिमा को हज़ारे कैसे नुकसान पहुँचा रहे हैं! वास्तव में, संसद में बैठने वाले ये सबसे घाघ उठाईगीर संसद की गरिमा को लेकर सबसे ज़्यादा चिन्तित हो गये हैं, और बेवजह ही चिन्तित हो गये हैं! हज़ारे मण्डली ने बार-बार स्पष्ट किया है कि संसद की संस्था पर उन्हें पूरा भरोसा है और उनका मकसद कहीं भी संसद की साख और गरिमा को चोट पहुँचाना नहीं है! संसदीय वामपंथियों में जिन्हें अवसरवाद का गोल्ड मेडल दिया जाना चाहिए, यानी कि सी.पी.आई. (एम.एल.) लिबरेशन, वे दूसरे ही छोर पर चले गये हैं! पहले तो उन्होंने अण्णा हज़ारे की गोद में बैठने की कोशिश की; लेकिन उन्होंने पाया कि इस गोद में बैठने के लिए तो काफ़ी लम्बी लाइन लगी हुई है और उनका नम्बर वेटिंग में भी नहीं आ रहा है, तो उन्होंने भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ अपनी अलग दुकान खोल ली! जन्तर-मन्तर पर स्वयं दीपांकर भट्टाचार्य भ्रष्टाचार-विरोधी प्रदर्शन में आये और बेख़याली में न जाने क्या-क्या बोल गये! अब यह तो कोई आला दर्जें का संसदीय वामपंथी ही बता सकता है कि यह कौन-सा मार्क्सवाद है जो पूँजीवाद के कुर्ते से भ्रष्टाचार के दाग़ को मिटाने में अण्णा की पूँछ बनना चाहता है! लिबरेशन की कविता कृष्णन एक लेख में लिखती हैं अण्णा हज़ारे के प्रदर्शन में शामिल सभी लोग फासीवादी या कारपोरेट घरानों के दलाल नहीं हैं! निश्चित तौर पर, यह एक सत्य कथन है! टटपुंजिया वर्गों के ऐसे किसी भी आत्मिक उभार और मसीहावाद के छाते में पनपने वाले नपुंसक असंलग्न एक्टिविज़्म में शामिल भीड़ में सभी फासीवादी या कारपोरेट दलाल नहीं होते! इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि सर्वहारा वर्ग का हिरावल में उसमें सुर मिलाने के लिए भागा चला जायेगा! इसका यह अर्थ जनता में किसी भी प्रकार की लहर उठने का किनारे पर ‘सर्फिंग पैड’ लेकर इन्तज़ार कर रहे लिबरेशन जैसे अवसरवादी संसदीय वामपंथी ही लगा सकते हैं! और कोई ताज्जुब नहीं कि “जनता को सड़क पर” देखकर कविता कृष्णन जैसे सभी लोगों की आँखें बाहर आ गयी! काफ़ी स्वाभाविक था।

यह अपेक्षित था कि संसदीय वामपंथियों की विभिन्न प्रजातियाँ इस मौके पर ऐसा ही बर्ताव करेंगी। यहाँ उदार (भ्रष्ट) पूँजीवादी राज्य बनाम टटपुंजिया लोकरंजक मसीहावाद के रूप में जो छद्म विकल्पों का युग्म देश की जनता के समक्ष पेश किया गया है, उसके किसी न किसी छोर को पकड़कर जनता के बीच इस मसले पर सर्वहारा दृष्टिकोण पर पर्दा डालने का काम संसदीय वामपंथी काफी कुशलता से कर रहे हैं। इस मुद्दे पर एक सही क्रान्तिकारी दृष्टिकोण क्या होना चाहिए, इसे बताने की उम्मीद उनसे करना भी व्यर्थ होगा।

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अण्णा हज़ारे एक ओर शहरी मध्यम वर्गों के तमाम संस्तरों को और एक हद तक गाँवों के भी खाते-पीते मध्यम वर्ग को अपने अभियान के समर्थन में रामलीला मैदान तक लाने में सफ़ल रहे; देश भर में उनके पक्ष में कारों के पीछे, होर्डिंगों पर, मोटरसाईकिलों पर और घरों की छतों पर समर्थन के नारे देखे जा सकते थे; दिल्ली में और देश के तमाम बड़े शहरों में जगह-जगह ख़ास तौर पर व्यापारियों ने, उच्च मध्यवर्गीय छात्रों और युवाओं की आबादी ने अण्णा हज़ारे के पक्ष में प्रदर्शन किया, कारों और मोटरसाईकिलों से जुलूस भी निकाला। इसके अलावा, अण्णा हज़ारे की टीम कारपोरेट मीडिया को अपने पक्ष में गोलबन्द करने में भी सफल रही। इन दोनों के कारण इस “आन्दोलन” के दो महत्वपूर्ण पहलुओं में निहित थे।

पहला पहलू है निम्न पूँजीवादी लोकरंजकतावाद। अण्णा हज़ारे ने जो मुद्दा, जिस समय और जिस रूप में उठाया वह उनके भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के निम्न पूँजीवादी या मध्यवर्गीय लोकरंजक चरित्र को दिखलाता है। पहली बार जन्तर-मन्तर पर और फिर बाद में रामलीला मैदान में जनता की नेताओं और नौकरशाहों के प्रति जो नफ़रत है उसके आधार पर लोकप्रियता बटोरने का काम जमकर हुआ। इस लोकप्रियता का एक कारण मीडिया और अण्णा की मण्डली द्वारा और मध्यवर्गों के अधैर्य द्वारा पोषित यह यक़ीन भी था कि जनलोकपाल जैसी कोई संस्था आनन-फानन में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का वारा-न्यारा कर देगी। ‘नेताओं को चील-कौव्वों को खिला दो!’, ‘भ्रष्टाचारियों को मृत्यु दण्ड दो!’, और इसी प्रकार के बेहद हिंस्र किस्म के नारे (जो किसी कोण से गाँधीवादी तो नहीं ही दिखते हैं!) दोनों ही जगहों पर लगाये जा रहे थे! किरण बेदी ने तो चुन्नी लेकर जो डांस किया और नेताओं का मज़ाक बनाया, वह मीडिया में छा गया! यह सब टटपुंजिया वर्गों के नपुंसक गुस्से को अपील करने वाला था। मीडिया में मध्यवर्ग की फ्नींद टूटने” की बात की जा रही थी; लेकिन वास्तव में बीच-बीच में मध्यवर्ग की नींद इस तरीके से पहले भी टूटती रही है। लेकिन उसके जागने का अब तक कोई ठोस फल नहीं दिखा है! इस पूरी नौटंकी के दौरान देखने में आया कि किस तरह से कुछ आदर्शवादी लोगों के अलावा मध्यवर्गों, और विशेषकर उच्च और मध्य मध्य वर्ग के लिए यह राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति का जश्न मनाने का मौका था! इसके लिए सामाजिक और राजनीतिक तौर पर इजाज़त प्राप्त थी कि सड़कों पर बीयर पीकर बाइकें और कारें दौड़ायी जाएँ, देशभक्ति के गाने बजा दिये जाएँ, ‘मैं भी अण्णा हूँ’ के नारे लगा दिये जाएँ। यह एक ख़ास तौर का एक्टिविज़्म था, एक एकदम कोर तक एक टटपुंजिया असंलग्न एक्टिविज़्म था। और पूरी भीड़ में अलग-अलग रूपों में यह असंलग्न एक्टिविज़्म ही दिख रहा था। जनता राजनीतिक तौर पर सचेत, गोलबन्द, संगठित और सक्रिय नहीं थी। वह खुशी-खुशी असक्रिय और असचेत थी, क्योंकि एक मसीहा और नायक अति-सक्रिय होकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठा था! इस बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि एक मसीहा और नायक अति-सक्रिय होकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठा था, इसलिए भीड़ खुशी-खुशी असक्रिय और असचेत थी! इसे हम एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन का नाम नहीं दे सकते। क्रान्तिकारी जनान्दोलन जनता के राजनीतिक तौर पर सचेत होने, गोलबन्द होने, संगठित होने और संगठित रूप में सक्रिय कार्रवाई करने पर टिका होता है। वह किसी मसीहा या नायक की सचेत अतिसक्रियता और जनता की (आनन्दमय?!) अचेत अ(संलग्न)सक्रियता पर आधारित नहीं होता।

यहीं से हम इस आन्दोलन के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू पर आते हैं। यह पहलू है मसीहावाद और सर्वसत्तावाद। निश्तिच रूप से, अण्णा हज़ारे का मक़सद कोई सर्वसत्तावादी शासक बनना नहीं है। लेकिन सवाल यहाँ अण्णा हज़ारे के सपनों और आकांक्षाओं का नहीं है। वास्तव में, इस पूरे “आन्दोलन” का चरित्र शुरू से ही गैर-जनवादी रहा है। और इसका कारण अण्णा हज़ारे की अपनी विचारधारा और राजनीति है, जिसके बारे में हम ‘आह्वान’ के पिछले अंक में लिख चुके हैं। इस पर हम यहाँ विस्तार से चर्चा नहीं कर सकते और इसमें दिलचस्पी रखने वाले साथी पिछले दो अंकों में किश्तों में प्रकाशित लेख (‘अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल’ दो किश्तों में मार्च-अप्रैल और मई-जून 2011 में प्रकाशित) को देख सकते हैं। लेकिन यहाँ कुछ नारों से हम अण्णा हज़ारे के अभियान के चरित्र की शिनाख़्त कर सकते हैं। मिसाल को तौर पर एक नारा लगाया गया, ‘अण्णा इज़ इण्डिया, इण्डिया इज़ अण्णा’। हमारे जो अग्रज साथी 55 की उम्र को पार चुके होंगे, उन्हें शायद देजावू की अनुभूति हो रही होगी; ऐसा कोई नारा शायद वह पहले चुन चुके हैं। जी हाँ, ऐसा नारा वह इन्दिरा गाँधी के समय में आपातकाल के दौरान चुन चुके हैं जब वह अपने लोकरंजक 20-सूत्रीय कार्यक्रम के साथ सत्ता में आयी थीः ‘इंदिरा इज़ इण्डिया, इण्डिया इज़ इंदिरा’! उस समय भी आलोचनात्मक स्वर, विरोध, असन्तोष या संवाद की कोई जगह नहीं थी और इस समय भी ऐसा ही था। इस आन्दोलन का सर्वसत्तावादी और गैर-जनवादी चरित्र जन्तर-मन्तर पर भी बार-बार उजागर हुआ था। अण्णा हज़ारे का धार्मिक रुझान रखने वाला पुनरुत्थानवाद, अतीतोन्मुखता, जनता के प्रति अवहेलना, अन्धराष्ट्रवाद और प्रबुद्ध निरंकुश सुधारवाद और उद्धारवाद इस आन्दोलन को गैर-जनवादी, गैर-सेक्युलर रूप और चरित्र देता है। इस पूरी सोच का एक टटपुंजिया प्रतिक्रियावादी चरित्र है और अगर यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि यह फासीवादी सोच और राजनीति है, तो इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि अण्णा हज़ारे की सोच और राजनीति के फासीवादी राजनीति द्वारा समाहित कर लिये जाने और विनियोजित कर लिये जाने की ज़बर्दस्त सम्भावना है। बहुत से टीकाकार तो अभी से अण्णा हज़ारे के आन्दोलन में सबकुछ ‘मैनेज’ किये जाने को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम बता रहे हैं। कुछ ने कहा है कि अरविन्द केजरीवाल की पूरी पारिवारिक पृष्ठभूमि आर.एस.एस. की है और वह संघ का ‘ट्रोजन हॉर्स’ है; यह भी सच है कि केजरीवाल के आडवाणी से करीबी रिश्ते रहे हैं; कुछ ने इस तथ्य की ओर इशारा किया है आर.एस.एस. के शेषाद्री ने अण्णा हज़ारे के रालेगण सिद्धी प्रयोग पर किताब लिखी है और उस समय से संघ ने इसे हमेशा एक आदर्श प्रयोग की संज्ञा दी है और उसे ‘रामराज्य’ जैसा बताया है! अण्णा हज़ारे ने संघ के खि़लाफ़ कभी कोई स्पष्ट अवस्थिति नहीं अपनायी है। कई पत्रकारों ने 1995 तक अण्णा हज़ारे और संघ के बीच के करीबी रिश्तों के बारे में भी लिख है। 1995 में महाराष्ट्र में भाजपा के कुछ नेताओं के भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाने के बाद से अण्णा हज़ारे के रिश्ते आर.एस.एस. से कुछ तनावपूर्ण हुए थे, लेकिन आर.एस.एस. ने उसके बाद भी अण्णा हज़ारे की लगातार बड़ाई की है और उनके रालेगण सिद्धी के प्रयोग को हिन्दुत्व के प्रयोग का मॉडल माना है, जो कि दलितों और स्त्रियों की आज्ञाकारिता, पाकिस्तान से नफ़रत, वर्ग निगमवाद (क्लास कारपोरेटिज़्म), प्रबुद्ध संरक्षक के शासन के सिद्धान्त और प्रबुद्ध निरंकुश सुधारवाद और उद्धारवाद पर आधारित है। कई टीकाकारों ने आर.एस.एस. की प्रचार रणनीति और हज़ारे के मौजूदा अभियान के प्रचार के तौर-तरीकों में समानताओं की ओर ध्यान खींचा है। बी-एम. दत्ते नामक संघी नेता ने पुणे में हज़ारे के समर्थन में कई प्रदर्शनों का आयोजन किया। कई लोगों ने अण्णा हज़ारे के मंच पर जन्तर-मन्तर पर संघ के नेताओं की मौजूदगी पर भी उंगलियाँ उठीं। ग़ौरतलब है कि स्वयं राम माधव अण्णा हज़ारे के मंच पर पहुँचा था। संघ का कुमार विश्वास रामलीला मैदान में 13 दिनों की भूख हड़ताल के दौरान लगातार मंच पर था। संघ ने रामदेव के प्रदर्शन के दौरान भी इसी कुमार विश्वास को रामलीला मैदान में भेजा था। विश्व हिन्दू परिषद का नेता अशोक सिंघल खुले तौर पर मीडिया के सामने विहिप के कार्यकर्ताओं का हज़ारे के अभियान को सफल बनाने के लिए धन्यवाद दे रहा था और बता रहा था कि विहिप के धर्मयात्रा संघ ने हज़ारे के अनशन के दौरान भोजन का स्टॉल लगाया और प्रतिदिन 20 हज़ार लोगों को खिलाया। संघ के शीर्ष नेताओं में से एक भैयाजी जोशी ने बताया कि हज़ारे के अभियान को सफल बनाने के लिए संघ के कार्यकर्ताओं ने पूरी ताक़त झोंक दी थी और उनके संगठनकर्ताओं ने बहुत कुशलता से अपना काम किया। यह दावा सही भी हो सकता हैं क्योंकि पूरे 13 दिन जो नारे रामलीला मैदान में सबसे ज़्यादा लग रहे थे, वह थे ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम’। वैसे भी फासीवादी उभार अक्सर उदार पूँजीवाद के गर्भ से ही भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की प्रतिक्रिया के रूप में पैदा होता है। लेकिन ये सभी अन्दाज़े हैं और राजनीतिक कलर-फ़्लेवर देखकर निगमनात्मक पद्धति से निकाले गये नतीजे हैं जो सही भी हो सकते हैं और ग़लत भी! इस पर बहुत देर तक चर्चा करना व्यर्थ होगा। बेहतर यही होगा कि अण्णा हज़ारे की मण्डली के इस दावे को ही फिलहाल सही मान लिया जाय कि उनका संघ से “कोई सीधा लेना-देना नहीं है।” लेकिन फिर भी अण्णा हज़ारे के पूरे आन्दोलन के मसीहावाद और सर्वसत्तावाद से इंकार नहीं किया जा सकता है। ऐसा टटपुंजिया मसीहावाद इतिहास में हमेशा उन दौरों में पैदा हुआ है जब उदार पूँजीवादी सत्ता और व्यवस्था अपनी पतनशीलता और असफलता के चरम पर होती हैं। एक नायकनुमा चरित्र पैदा होता है जो सबकुछ अपने नायकत्व से ठीक कर देने का दावा करता है। मुसोलिनी और हिटलर भी ऐसे ही सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भों में पैदा हुए थे। यहाँ हम अण्णा हज़ारे को हिटलर या मुसोलिनी नहीं कह रहे हैं। लेकिन जहाँ तक मसीहावाद का सम्बन्ध है, यह विश्लेषण यहाँ भी लागू होता है।

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अन्त में, हम अपनी पूरी बात को कुछ नुक्तों में रखना चाहेंगे। पहली बात, भ्रष्टाचार निश्चित रूप से मुद्दा है। लेकिन इसे सही ढंग से परिभाषित किये बिना इसके खि़लाफ़ किसी जंग का ऐलान करना वैसा ही है जैसा शान्ति को बढ़ावा देने का आह्वान करना है, जिसके एक दर्ज़न लोगों के लिए एक दर्ज़न मतलब हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर, शान्ति स्थापित करने का अर्थ जॉर्ज बुश के लिए अलग है और मार्टिन लूथर किंग के लिए अलग! अगर लक्ष्यों, उद्देश्यों और प्रक्रिया को परिभाषा के तात्विक धरातल तक स्पष्ट नहीं किया जाता तो यह एक अस्पष्ट और धुंधला आह्वान बन जायेगा जिसका अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मतलब हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे कि रामलीला मैदान में कोई ट्रैफिक पुलिस द्वारा ग़लत चालान काट लिये जाने, कोई समय पर बिजली कनेक्शन न लग पाने, कोई पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज़ कराने में आनाकानी करने, कोई जल बोर्ड या विद्युत बोर्ड के छोटे बाबू द्वारा रिश्वतखोरी से परेशान होकर आया था, तो कोई कांग्रेस-नीत सरकार में वंशवाद से दुखी था; कोई घोटालों से परेशान था तो कोई इस बात से कि सारी मलाई ऊपर ही चाँप ली जा रही है! इसलिए सबसे पहली बात है यह स्पष्ट करना कि भ्रष्टाचार से क्या मतलब है? इसमें क्या शामिल है और क्या नहीं?

दूसरी बात, यदि हम सिर्फ उस भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं जो सरकारी दफ़्तरों में होता है और जिसके ज़िम्मेदार नेता और नौकरशाह हैं, तो हम भ्रष्टाचार के रूप में सिर्फ़ सरकारी कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली रिश्वतखोरी, घूसखोरी और भाई-भतीजावाद को देख रहे हैं। अभी अगर पूँजीवादी लूट की बात न भी करें तो भी इसमें प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार के बहुत से स्रोतों को शामिल नहीं किया जैसे कि कारपोरेट और एन.जी.ओ. भ्रष्टाचार।

तीसरी बात, अगर इन सभी स्रोतों को शामिल करके भ्रष्टाचार के उन सभी प्रत्यक्ष रूपों को शामिल भी कर लिया जाय जिन्हें मौजूदा संविधान और कानून भी भ्रष्टाचार मानते हैं तो भी इसका कोई कार्यकारी या नौकरशाहाना समाधान सम्भव नहीं है। यानी, नौकरशाही, नेताशाही, कारपोरेट व एन.जी.ओ. भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए आप कोई और शक्तिशाली नौकरशाही ढाँचा खड़ा कर भी दें, तो उससे किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद करना व्यर्थ है। उल्टे यह भस्मासुर पैदा करने जैसा है, क्योंकि जिस व्यवस्था और समाज में सबकुछ बिकता और खरीदा जाता हो, वहाँ जनलोकपाल भी बिक सकता है। और अगर जनलोकपाल बिकता है तो यह किसी बड़े बाबू के बिकने से ज़्यादा घातक होगा। यह एक अतिराज्य जैसी संस्था या निकाय है, जिस पर कोई प्रभावी चेक की व्यवस्था नहीं होगी। नौकरशाही के भ्रष्टाचार को नौकरशाही नहीं दूर कर सकती। इसे वास्तविक क्रान्तिकारी जनवाद और समानता की व्यवस्था में संगठित जनसमुदायों द्वारा व्यवस्थित जन निगरानी और जन पहलकदमी द्वारा ही दूर किया जा सकता है। और वह मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में सम्भव ही नहीं है। लुब्बेलुबाब यह कि मौजूदा व्यवस्था की को बदले बिना आप किसी स्वच्छ, शुद्ध, सदाचारी पूँजीवाद की कल्पना नहीं कर सकते। किसी भी किस्म का कानून, अधिनियम या अधिकारी भ्रष्टाचार को दूर नहीं कर सकता है। यह इस मुनाफे की व्यवस्था का नैसर्गिक उपोत्पाद है। यह इसके साथ ही समाप्त हो सकता है।

चौथी बात, भ्रष्टाचार को सही तरीके से परिभाषित किया जाना चाहिए। अगर भ्रष्टाचार की एक सही परिभाषा निर्मित की जाय, तो यह समझ आ जाता है कि वास्तव में पूरी पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं ही एक भ्रष्टाचार है। इसके भीतर मेहनत की लूट को कानूनी और संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। जब तक इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ कर फेंका नहीं जाता और उसकी जगह एक समानतामूलक समाज की स्थापना नहीं की जाती जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में हो, तब तक अलग से महज़ भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ लड़ाई एक भ्रामक सोच है और यह जनता के बीच व्यवस्था के विभ्रमों को और दीर्घजीवी ही बनायेगा।

पाँचवी बात, अण्णा हज़ारे का पूरा आन्दोलन वास्तव में मध्यम वर्गों के एक आत्मिक उभार के समान है। यह पूरा आन्दोलन व्यवस्था को कहीं भी कठघरे में खड़ा नहीं करता। यह अलग से भ्रष्टाचार को दूर कर देने का एक मसीहावादी, गैर-जनवादी, जन-विरोधी प्रतिक्रियावादी मॉडल पेश करता है, जो जनता से ज़्यादा प्रबुद्ध निरंकुश संरक्षक-नुमा नायकों पर भरोसा करता है। प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के प्रावधानों से इसका पूरा चरित्र उजागर हो जाता है। इसमें मध्यम वर्गों की हिस्सेदारी की निश्चित वजहें थीं, और यह हिस्सेदारी भी राजनीतिक रूप से संलग्न, सचेत, संगठित और सक्रिय हिस्सेदारी नहीं थी, बल्कि एक मसीहा की अति-सक्रिय हिस्सेदारी के साथ टटपुंजिया असंलग्न, अचेत और निष्क्रिय हिस्सेदारी थी। यह भागीदारी देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के नाम पर जश्न मनाने का मौका ज़्यादा था और मीडिया इसमें पूरी मुस्तैदी से अपनी भूमिका निभा रहा था।

छठीं बात, अण्णा हज़ारे के अभियान के वर्ग चरित्र को समझे बिना हम संशोधनवादी और संसदीय वामपंथी पार्टियों की दो प्रकार की प्रतिक्रियाओं को नहीं समझ सकते हैं। जिसके संशोधनवाद का तापमान जैसा था उसने वैसी अवस्थिति अपनायी। सी.पी.आई. और सी.पी.एम. संसदीय गरिमा की बहाली में लगे हुए थे, जिसे अण्णा हज़ारे और उनके चेलों ने काफ़ी नुकसान पहुँचाया था, तो दूसरी ओर सी.पी.आई. (एम.एल.) लिबरेशन अपनी पुरानी आदत से मजबूर जनता की “लहर” देख उस पर सवारी के लिए मचली जा रही थी। लेकिन दोनों ही छद्म विकल्पों के युग्म के दो छोर पकड़कर लटके थे और दोनों ही व्यवस्था के भ्रम को अपनी-अपनी तरह से बढ़ाने के काम को वफ़ादारी के साथ अंजाम दे रहे थे।

आखि़र में बस इतना ही कहा जा सकता है कि हर परिवर्तनकामी छात्र-युवा को अण्णा हज़ारे के अभियान के वर्ग चरित्र, विचारधारा और राजनीति को गहरायी से समझना चाहिए; हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार का सवाल व्यवस्था के सवाल से अलग नहीं बल्कि नाभिनालबद्ध है। भ्रष्टाचार अपने आप में रोग नहीं, बल्कि एक गम्भीर रोग का लक्षण है। और लक्षणों को दबाने वाला उपचार रोग को घटाता नहीं बल्कि रोग को बढ़ाता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2011

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