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हरियाणा में पंजाबी भाषा के प्रश्न पर कतिपय कॉमरेडों के अज्ञान पर संक्षिप्त चर्चा

कोई भी पहचान या अस्मिता चाहे वह भाषाई हो, क्षेत्रीय हो, जातीय हो, धार्मिक हो या फिर राष्ट्रीय ही क्यों न हो, न तो फूलकर कुप्पा होने की चीज़ होती है और न ही शर्मिन्दगी से मुँह छुपा लेने की चीज़ होती है। ये पहचानें व्यक्ति को पूर्व प्रदत्त होती हैं। मार्क्सवाद का मानना है कि ये अपने आप में अन्तरविरोध का स्रोत या स्थल नहीं होतीं। ये वर्ग अन्तरविरोधों की ग़लत समझदारी या मिसआर्टिक्युलेशन के कारण अन्तरविरोध का स्रोत बन जाती हैं।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनका प्रभाव

यह बात बेहद गौर करने लायक है कि आज देश की तमाम चुनावी पार्टियाँ उदारीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण की जनविरोधी नीतियों को लागू करने की हिमायती हैं। कांग्रेस, भाजपा समेत क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या फ़िर सीपीआई, सीपीएम सरीखी नामधारी मार्क्सवादी पार्टियाँ ही क्यों न हों, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन नीतियों को बढ़ावा देती रही हैं। विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है। उदाहरण के लिए भाजपा और वामपन्थी पार्टियों की बात की जाये तो स्थिति साफ़ हो जाती है। भाजपा और संघ परिवार से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच एक तरफ़ छोटी पूँजी को रिझाने के मकसद से व अपने पुश्तैनी वोट बैंक को साथ रखने की मजबूरियों के चलते विदेशी निवेश का कड़ा विरोधी रहा है वहीं भाजपा सत्ता में आते ही तुरन्त पलटी मारने में माहिर है।

16 दिसम्बर; ‘दिल्ली निर्भया काण्ड’ के पाँच बरस : मूल सवाल अब भी ज्यों का त्यों 

आज जिस रूप में पूँजीवाद यहाँ विकसित हुआ है उसने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी बस खरीदे-बेचे जा सकने वाले सामान में तब्दील कर दिया है। पूँजीवाद के बाज़ार मूल्यों ने अश्लीलता फैलाना भी मोटे पैसे कमाने का धन्धा बना दिया है। कई सर्वेक्षणों में अनुमान हमारे सामने हैं। स्कूल से निकलने की उम्र तक एक बच्चा औसतन परदे पर 8,000 हत्याएँ और 1,00,000 (एक लाख) अन्य हिंसक दृश्य देख चुका होता है। 18 वर्ष का होने तक वह 2,00,000 (दो लाख) हिंसक दृश्य देख चुका होता है जिनमें 40,000 (चालीस हज़ार) हत्याएँ और 8,000 स्त्री विरोधी अपराध शामिल हैं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में ‘इण्टरनेट’ पर अश्लील सामग्री ‘पोर्न’ का कुल बाज़ार क़रीब 97 बिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है। 34 प्रतिशत ‘इण्टरनेट’ उपभोक्ता बताते हैं कि किस तरह से उन्हें न चाहते हुए भी पोर्न आधारित विज्ञापन देखने पड़ते हैं। कुल डाउनलोड की जाने वाली सामग्री का 45 प्रतिशत अश्लील और पोर्न सामग्री का ही होता है। एक शोध यह भी बताता है कि ‘पोर्न’ के कारण वैवाहिक बेवफाइयाँ 300 प्रतिशत तक बढ़ी हैं।

आरक्षण की लड़ाई: एक अनार सौ बीमार

सरकारों के द्वारा जब शिक्षा को महँगा किया जाता है व इसे आम जनता की पहुँच से लगातार दूर किया जाता है और जब सार्वजनिक क्षेत्र (‘पब्लिक सेक्टर’) की नौकरियों में कटौती करके हर चीज़ का ठेकाकरण किया जाता है तब जातीय ठेकेदार चूं तक नहीं करते! ‘रोज़गार ही नहीं होंगे तो आरक्षण मिल भी जायेगा तो होगा क्या?’ यह छोटी सी और सीधी-सच्ची बात भूल से भी यदि इनके मुँह से निकल गयी तो इन सभी की प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जायेगी इस बात को ये घाघ भलीभाँति जानते हैं।

विवेकहीनता का मौजूदा दौर और इसके विरोध के मायने

आज जनवादी-नागरिक अधिकारों पर फासीवादी हमला जब लोगों के शयनकक्ष तक में प्रवेश कर गया है, तब तमाम उदारवादी बुद्धिजीवियों ने आजिज आकर आवाज़ उठायी है, और इसकी हिमायत की जानी चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि फासीवादी उभार के इस कदर आक्रामक बन पाने में कुछ योगदान उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग का भी है, जो कि, जब फासीवादी नाग अपना फन उठाने की शक्ति संचित कर रहा था तो विचारधारात्मक-राजनीतिक निष्पक्षता के ‘हाई मॉरल ग्राउण्ड’ पर विराजमान थे! आज फासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ाई को सड़कों तक ले जाने के लिए व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों को इस पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई से रूबरू कराना होगा और उसे क्रान्तिकारी विचारों व राजनीति पर जीतना होगा। यदि जनमत हमारे पक्ष में नहीं होगा तो वह किसी न किसी रूप में चाहे-अनचाहे फासीवाद के पक्ष में होगा क्योंकि यदि वह तटस्थ भी होगा तो भी वह साम्प्रदायिक शक्तियों का मददगार ही होगा।

हरियाणा के रोहतक में हुई एक और ‘निर्भया’ के साथ दरिन्दगी

स्त्री विरोधी मानसिकता का ही नतीजा है कि हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या होती है और लड़के-लड़कियों की लैंगिक असमानता बहुत ज़्यादा है। हिन्दू धर्म के तमाम ठेकेदार आये दिन अपनी दिमागी गन्दगी और स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की अपनी मंशा का प्रदर्शन; कपड़ों, रहन-सहन और बाहर निकलने को लेकर बेहूदा बयानबाजियाँ कर देते रहते हैं लेकिन तमाम स्त्री विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ बेशर्म चुप्पी साध लेते हैं। यह हमारे समाज का दोगलापन ही है कि पीड़ा भोगने वालों को ही दोषी करार दे दिया जाता है और नृशंसता के कर्ता-धर्ता अपराधी आमतौर पर बेख़ौफ़ होकर घूमते हैं। अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए जब हरियाणा के मौजूदा मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर फरमा रहे थे कि लड़कियों और महिलाओं को कपड़े पहनने की आज़ादी लेनी है तो सड़कों पर निर्वस्त्र क्यों नहीं घूमती!

भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव: किसका, किसके लिए और किसके द्वारा

भारत के “स्‍वर्णिम” चुनावी इतिहास में मौजूदा चुनाव ने पैसा ख़र्च करने के मामले में चार चाँद लगा दिये हैं। भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे महँगा चुनाव है। यदि ख़र्च होने वाले काले धन को भी जोड़ दिया जाये तो अमेरिका क्या पूरी दुनिया के चुनावों के कुल ख़र्च को भी हमारा भारत देश टक्कर दे सकता है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र जो ठहरा! सिर्फ़ धन ख़र्च करने और काले धन की खपत करने के मामले में ही नहीं बल्कि झूठे नारे देकर, झूठे वायदे करके जनता को कैसे उल्लू बनाया जाये, जाति-धर्म के झगड़े-दंगे कराकर ख़ून की बारिश में वोट की फ़सल कैसे काटी जाये, जनता-जनता जपकर पूँजीपतियों का पट्टा गले में डलवाने में कैसे प्रतिस्पर्धा की जाये, इन सभी मामलों में भी भारतीय नेतागण विदेशी नेताओं को कोचिंग देने की कूव्वत रखते हैं!

चेतन भगत: बड़बोलेपन और कूपमण्डूकता का एक साम्प्रदायिक संस्करण

चेतन भगत जैसे भाड़े के कलमघसीट जिन्हें समाज, विज्ञान, इतिहास के बारे में ज़रा भी ज्ञान नहीं होता केवल अपने मूर्खतापूर्ण बड़बोलेपन के बूते ही अपनी बौद्धिक दुकानदारी खड़ी कर लेते हैं। महानगरों में मध्यम वर्ग के युवा आपको मेट्रो आदि में चेतन भगत की “रचनाएँ” पढ़ते आसानी से दिख जायेंगे। भारत जैसे देश में जो औपनिवेशिक दौर से ही बौद्धिक कुपोषण का शिकार है, चेतन भगत जैसों की दाल आसानी से गल जाती है। किन्तु इस प्रकार के बगुला भगतों की ख़बर लेना बेहद ज़रूरी है। इनके बौद्धिक ग़रूर को ध्वस्त करना मुश्किल नहीं है, किन्तु ज़रूरी अवश्य है।

पूरे देश को फासीवाद की प्रयोगशाला में तब्दील करने की पूँजीपतियों की तैयारी

हत्यारों को नायकों जैसा सम्मान दिलाने में इस मीडिया का भी बड़ा हाथ है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से लेकर आज तक यह बात सही साबित होती रही है कि वैज्ञानिक और तार्किक विचारों की बजाय सड़ी पुरातन मान्यताओं और पुनरुत्थानवादियों से मानसिक खुराक लेने वाला समाज फासीवादी वृक्ष की बढ़ोत्तरी के लिए अच्छी ज़मीन मुहैया कराता है। 2002 में मौत का तांडव रचने वाले मोदी को विकास पुरुष के तौर पर प्रचारित करना मीडिया के बिकाऊ होने का ही एक सबूत है। जबकि गुजरात के कच्छ की खाड़ी में नमक की दलदलों में काम करने वाले मज़दूरों का किसी को पता भी नहीं है जिनको मौत के बाद नमक में ही दफन कर दिया जाता है क्योंकि उनके शरीर में इतना नमक भर जाता है कि वह जल ही नहीं सकता। अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूरों से लेकर तमाम मेहनतकश अवाम लोहे के बूटों तले जीवन जी रहे हैं, यह किसी को नहीं बताया जाता। इन्हीं सब चीजों से ‘जनतन्त्र के चौथे स्तम्भ’ की असलियत बयान होती है।

एक जुझारू जनवादी पत्रकार – गणेशशंकर विद्यार्थी

भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में जिन्होंने त्याग बलिदान और जुझारूपन के नये प्रतिमान स्थापित किये, उनमें गणेशशंकर विद्यार्थी भी शामिल हैं। अपनी जनपक्षधर निर्भय पत्रकारिता के दम पर विद्यार्थी जी ने विदेशी हुकूमत तथा उनके देशी टुकड़खोरों को बार-बार जनता के सामने नंगा किया था। वे आजीवन राष्ट्रीय जागरण के प्रति संकल्पबद्ध रहे। विद्यार्थी जी ने तथाकथित वस्तुपरकता का नाम लेते हुए कभी भी वैचारिक तटस्थता की दुहाई नहीं दी। हिन्दी प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय जागरण का वैचारिक आधार तैयार करने में तथा उसे और व्यापक बनाने में उन्होंने अहम भूमिका अदा की थी। उस दौर में विद्यार्थी जी के द्वारा सम्पादित पत्र ‘प्रताप’ ने साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय पत्रकारिता की भूमिका तो निभायी ही साथ-साथ जुझारू पत्रकारों तथा क्रान्तिकारियों की एक पूरी पीढ़ी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का काम भी किया था।