ओलम्पिक में भारत की स्थिति: खेल और पूँजीवाद के अन्तरसम्बन्धों का वृहत्तर परिप्रेक्ष्य

अपूर्व मालवीय

मिल्खा सिंह का जूता:
ओलम्पिक पर बात शुरू करने से पहले बात करते हैं मिल्खा सिंह के जूतों की। शायद आपने ‘भाग मिल्खा भाग’ फिल्म देखी होगी। मिल्खा सिंह शुरुआती दौर में नंगे पैर ही दौड़ा करते थे। पहली बार मिल्खा सिंह के कोच ने उन्हें स्पाइक्ड जूते दिये और इसे पहनकर दौड़ने के लिए कहा। कोच ने उनसे पूछा कि इन जूतों में तुम कैसा महसूस कर रहे हो? तो मिल्खा सिंह का जवाब था कि ‘इन जूतों में निकली कीलों से जूझ रहा हूँ ‘।
इस पूरी घटना के कई पहलू हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर के खेल में भाग लेने से पहले मिल्खा सिंह को एक जूता तक उपलब्ध नही हो सका। इसमें उनकी जीवन की व्यक्तिगत त्रासदी के अलावा जो दूसरा पहलू है वो राज्य का खेल और खिलाड़ियों के प्रति उपेक्षित दृष्टिकोण को बताता है। तीसरा पहलू यह है कि जूता तकनीक का भी प्रतीक है जो बताता है कि हम किस प्रकार खेलों में उन्नत तकनीक के प्रयोग के आदी नहीं हुए हैं और ज़ाहिर सी बात है कि ये तभी हो सकता है जब हमें इस्तेमाल के लिए तकनीक ही उपलब्ध न हो।
अब चलते हैं इस घटना के लगभग 70 सालों बाद ओलम्पिक 2021 में। जैवलिन थ्रो में गोल्ड मेडल जीतने वाले नीरज चोपड़ा ने 16 जुलाई को एक ट्वीट में लिखा था कि, ”टोक्यो ओलम्पिक की तैयारी में मेरी सारी ज़रूरतें पूरी कर दी गयी हैं। मैं अभी यूरोप में ट्रेनिंग कर रहा हूँ….” यानी नीरज चोपड़ा को उनका जूता यूरोप में मिला। आज़ादी के इतने सालों बाद भी सरकार खेलों के प्रशिक्षण के लिए बेसिक आधारभूत ढाँचा भी खड़ा नहीं कर पायी है।
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना तो कोई गोदी मीडिया और मोदी जी से सीखे:
मीडिया और सरकार इस पर गदगद है कि भारत ने ओलम्पिक में क्या शानदार प्रदर्शन किया है। अब तक के ओलम्पिक में सबसे ज़्यादा पदक हासिल करने की उपलब्धि को मीडिया और मोदी सरकार ऐसे पेश कर रही है जैसे ये उसी का कारनामा हो! वरना कहाँ ऐसा चमत्कार होता! ख़ुद अपनी पीठ ठोकने और अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने में गोदी मीडिया और मोदी जी का कोई सानी नहीं है। मीडिया के हिसाब से ओलम्पिक 2021 में भागीदारी करते हुए हमने एक गोल्ड, दो सिल्वर और चार कांस्य मिलाकर कुल सात पदक ही जीते और महान हो गये! इतिहास रच दिया! बहुत बड़ा कारनामा कर लिया! बात-बात में चीन से तुलना करने वाली गोदी मीडिया को इस बार बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका मिल गया! ये मीडिया वाले इसी से फूलकर कुप्पा थे कि ये पड़ोसी देश कोई भी पदक हासिल नहीं कर पाये और हम सात पदक! उनके लिये सबसे बड़ी खुशी तो यह भी थी कि पाकिस्तान तो तीन दशकों से ओलम्पिक में कोई भी पदक हासिल नहीं कर पाया है। लेकिन ये मीडिया वाले यह नहीं बताते कि हमने पाकिस्तान, श्रीलंका और बंग्लादेश की तुलना में कितने ऐथलीटों को ओलम्पिक में भेजा है! पाकिस्तान ने जहाँ दस, बंग्लादेश ने छ: और श्रीलंका ने नौ ऐथलीटों को भेजा था, वहीं हमने 127 ऐथलीटों की पूरी बटालियन ही भेजी थी, जो इन तीनों देशों के ऐथलीटों को मिलाकर भी इनसे पाँच गुना ज़्यादा थी, जिनमें सिर्फ़ सात को ही पदक मिले। बात-बात पर चीन से तुलना करने वाली गोदी मीडिया को इस बार चीन की याद नहीं आयी। कोई बात नहीं। हम याद कर लेते हैं!
1949 में चीनी क्रान्ति सफल होने से पहले चीन ओलम्पिक में 1924 से 1948 तक ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ (ROC) के नाम से भाग लेता था। लेकिन सबसे पहले 1952 के ओलम्पिक में ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ (PRC) नाम से भाग लिया, जिसमें उसने कोई पदक हासिल नहीं किया। उसके बाद 1980 तक वह ओलम्पिक से दूर रहा। 32 वर्षों बाद 1984 के ओलम्पिक में जब चीन ने भाग लिया तो 15 स्वर्ण पदक के साथ कुल 32 पदक जीता। यह जीत अनायास ही नहीं थी। 1949 से 1976 तक चीन में जो समाजवादी निर्माण का दौर चला उसमें सिर्फ़ खेल ही नहीं शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने में अभूतपूर्व क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। चीन की क्रान्ति और 1976 तक हुए समाजवादी निर्माण के दौर ने उस बुनियाद की नींव रखी जिस पर आज चीन विभिन्न क्षेत्रों में तमाम विकसित और साम्राज्यवादी देशों को चुनौती देता है और ख़ुद भी साम्राज्यवादी महात्वाकांक्षा पाले हुए है। भारत ने अपने 121 साल के ओलम्पिक के सफ़र में अबतक मात्र 35 पदक ही जीते हैं। वहीं चीन 69 साल के ओलम्पिक सफ़र में अबतक 696 पदक जीत चुका है। अगर सर्वाधिक पदक जीतने वाले देशों से हम अपनी तुलना करेंगे तो पायेंगे कि हम उनसे सैकड़ों गुना पीछे हैं।
देश —– पदकों की संख्या
अमेरिका —– 2941
रूस —— 1275
ब्रिटेन —– 948
चीन —— 696
जापान —– 555
भारत —- 35
आधुनिक ओलम्पिक खेलों का इतिहास और उसका राजनीतिक अर्थशास्त्र!
वर्ग समाज में उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग का प्रभुत्व होता है वह वर्ग आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर वर्चस्वकारी भूमिका में होता है। खेल और उससे जुड़े हुए आयोजन भी वर्ग निरपेक्ष नहीं है बल्कि वे भी किसी न किसी रूप में शासक वर्ग के हितों की ही सेवा करने का काम करते हैं। ओलम्पिक से लेकर एशियाड व कॉमन वेल्थ गेम्स तक और क्रिकेट वर्ल्ड कप से लेकर फीफा वर्ल्ड कप तक तमाम अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के दौरान जो अन्धराष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया जाता है वह वर्ग संघर्ष की धार को कुन्द करने का ही काम करता है। एक तरफ़ खेलों की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के दौरान पूँजीपति वर्ग को खेल, मनोरंजन और विज्ञापन उद्योग से अकूत मुनाफ़ा कमाने की ज़मीन मुहैय्या होती है, तो वहीं इन आयोजनों में जो अन्धराष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया जाता है वह वर्ग संघर्ष की आँच पर छीटें मारने का काम ही करता है। आइये अब एक नज़र आधुनिक ओलम्पिक के इतिहास और इसकी वर्गीय पक्षधरता पर भी डालते हैं !
आधुनिक ओलम्पिक खेलों का जनक फ़्रांस का शिक्षाविद और इतिहासकार कुबिर्तान (Baron Pierre de Coubertin) था, जो नस्लवादी होने के साथ ही घोर स्त्री विरोधी भी था। आधुनिक ओलम्पिक खेल ऐतिहासिक पेरिस कम्यून (1871) के ठीक 25 सालों बाद 1896 में शुरू हुआ। कुबिर्तान अपने एक लेख (France Since 1814) में ओलम्पिक खेलों के उद्देश्य को साफ़़-साफ़़ रखते हुए कहता है – ‘खेल वर्ग संघर्ष को शान्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, ताकि दुबारा पेरिस कम्यून जैसी घटना न घटित हो’। उसके इस कथन से ही ओलम्पिक खेलों की राजनीति को समझा जा सकता है। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में किस प्रकार हिटलर ने इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल उग्र राष्ट्रवाद और फ़ासीवाद के प्रचार के लिए किया, ये आज हम सभी जानते हैं। यदि हम भारत के सन्दर्भ में ही बात करें तो स्टार खिलाड़ियों और फ़िल्म स्टारों का इस्तेमाल किस प्रकार संघ और मोदी सरकार अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को फैलाने के लिए करती है ये भी किसी से छिपा नहीं है। जो खिलाड़ी अपनी खेल की प्रतिभा से करोड़ों लोगों का दिल जीत लेते हैं वही खिलाड़ी आगे चलकर भाजपा और संघ की नीतियों के प्रचारक बन जाते हैं। वर्तमान ओलम्पिक में ही हॉकी खिलाड़ी वन्दना कटारिया को एक ‘दलित आइकन’ की तरह पेश किया गया और उसके दो दिन बाद ही वो ‘भाजपा आइकन’ में बदल गयी। उन्हें ‘बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओ’ आन्दोलन का उत्तराखण्ड का ब्राण्ड एम्बेस्डर घोषित कर दिया गया। यह सिर्फ़ एक तात्कालिक उदाहरण है। इसके पहले भी बहुत सारे क्रिकेट से लेकर अन्य खेलों के खिलाड़ी और फ़िल्म स्टार्स तक संघ और मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के साथ खड़े हुए दिखायी देते हैं।
पूँजीवादी समाज में खेल भी पूँजीपतियों के लिए अधिशेष निचोड़ने का एक साधन है। दुनियाभर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बड़े-बड़े खेल आयोजनों की प्रायोजक होती हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने के बाद से खेल उद्योग, मनोरंजन उद्योग, और विज्ञापन उद्योग आपस में बहुत ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। खेल का काम है स्टार पैदा करना जिन्हें ये कम्पनियाँ अपने उत्पादों का ब्राण्ड एम्बेस्डर बनाकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं। ओलम्पिक खेल की बुनियादी प्रकृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यह सामूहिक सर्जना, सामूहिक रचनात्मकता, और सामूहिक शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं रह गया है बल्कि ये मुनाफ़े के पूरे तन्त्र का एक अंग बन गया है। जिन देशों में ओलम्पिक का आयोजन होता है वहाँ सरकारें खेलों के लिए बहुत बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करती हैं जो जनता के टैक्स से बनता है। लेकिन इन आयोजनों में होने वाले अकूत मुनाफ़े को बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपनी जेबों में भर लेती हैं। इन बड़े-बड़े खेल आयोजनों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि जिन शहरों में ये आयोजित किये जाते हैं वहाँ की गरीब मेहनतकश आबादी के ऊपर आफ़त बनकर टूटते हैं। बड़े पैमाने पर ग़रीब बस्तियों को उजाड़ा जाता है। हजारों-लाखों लोग बेघर हो जाते हैं। वहाँ के नागरिकों पर तमाम तरह की बन्दिशें लागू कर दी जाती हैं। पूरे शहर को पुलिस-फ़ौज की छावनी में तब्दील कर दिया जाता है। इस पूरी घटना को हम 2010 में हुए दिल्ली के कॉमनवेल्थ गेम से भी समझ सकते हैं जो ओलम्पिक की तरह बहुत बड़ा और भव्य तो नहीं होता है, लेकिन 2010 में हुए कॉमन वेल्थ गेम ने दिल्ली की ढाई लाख ग़रीब आबादी को विस्थापित कर दिया। अरबों रुपये के घोटाले हुए। जनता के टैक्स के दम पर खेल गाँव से लेकर स्टेडियम, फ़ाइव स्टार होटल, फूड कोर्ट आदि बनाये गये। लेकिन उससे होने वाले अकूत मुनाफ़े को बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ले गयीं।
सच तो यही है कि ओलम्पिक का आयोजन विश्व उपभोक्ता बाज़ार को चार साल में एक बार एक मंच पर ले आना है। इसे ओलम्पिक के भूतपूर्व मार्केटिंग डायरेक्टर ‘मिशेल पाने’ ने साफ़़ शब्दों में कहा है कि ‘कम्पनियों के लिए ओलम्पिक से अच्छा प्लेटफॉर्म और कहाँ मिल सकता है, जहाँ वे अपने विश्व उपभोक्ताओं को इतने ताकतवर तरीके से आपस में जोड़ सकें और अपने उत्पाद का प्रचार उन तक पहुँचा सके’।
1917 की रूसी क्रान्ति के बाद समाजवादी रूस ने ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार किया और ओलम्पिक पर यह कहते हुए हमला किया कि यह अन्तररराष्ट्रीय बुर्ज़ुआ के हाथों की कठपुतली है और अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा को वर्ग संघर्ष से हटाकर प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद और युद्ध के लिए तैयार करता है। 1921 के तीसरे कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल में ‘रेड स्पोर्ट इण्टरनेशनल’ (RSI) की स्थापना की गयी। सामाजिक जनवादियों ने भी ओलम्पिक के विरुद्ध ‘सोशलिस्ट वर्कर स्पोर्ट इण्टरनेशनल’ (SWSI) का गठन किया। 1936 में हिटलर के बर्लिन ओलम्पिक के ख़िलाफ़ कम्युनिस्ट समाजवादियों ने स्पेन के बर्सिलोना में ‘जन ओलम्पिक’ का आयोजन किया। उसी समय तानाशाह फ़्रांकों ने नव स्थापित रिपब्लिक के ख़िलाफ़़ युद्ध छेड़ दिया। ‘जन ओलम्पिक’ के लिए पूरे यूरोप से जो एथलीट बार्सिलोना में इकट्ठा हुए थे उनमें से अधिकांश ने रिपब्लिक की रक्षा में बन्दूक उठा ली थी और फ़्रांको के ख़िलाफ़ इण्टरनेशनल ब्रिगेड का हिस्सा हो गये थे। खेल और क्रान्तिकारी राजनीति का यह शानदार मेल था। बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बदली राजनीतिक परिस्थितियों में रूस ओलम्पिक में शामिल होने लगा।
ओलम्पिक जैसे खेलों के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने के बावजूद हमें यह समझना होगा कि खेल की प्रकृति शुरू से ही मुनाफ़े के तन्त्र की नहीं थी बल्कि खेल का विकास मानव सभ्यता के तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक विकासों के साथ ही नैसर्गिक रूप से जुड़ा हुआ है। आज भले ही खेल एक ख़ास छोटे तबके का विशेषाधिकार बना हुआ है और बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी इससे वंचित हो गयी है। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के साथ ही खेल भी इंसान की एक नैसर्गिक ज़रूरत है और इसे हासिल करने के लिए भी हमें संघर्ष करना होगा।
”दुनिया के सर्वाधिक कठिन प्रश्न का जवाब” :
ओलम्पिक जैसे खेलों के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने के बावजूद भी कुछ दूसरे महत्वपूर्ण सवाल ज़रूर उठते हैं कि आख़िर क्या कारण है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश जहाँ की युवा ऊर्जा सबसे ज़्यादा है वहाँ से बेहतरीन खिलाड़ी नहीं निकल पाते। बहुत सारे खेल विशेषज्ञ और पत्रकार जब ”दुनिया के इस सर्वाधिक कठिन प्रश्न पर” आते हैं तो कुछ ख़ास-ख़ास मुद्दों को बताते हुए कुछ नैतिक उपदेश सुनाते हुए इस समस्या का समाधान प्रस्तुत कर देते हैं। उनके हिसाब से सबसे बड़ी समस्या खेलों में नेताशाही और नौकरशाही की दखल है और इस दखल से वे बेइन्तहां नफरत करते हैं क्योंकि उनके हिसाब से नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार, गुटबाज़ी और भाई-भतीजावाद के कारण खेल प्रतिभाएँ निकलकर सामने नहीं आ पातीं। उनकी चाहत यह रहती है कि अगर एक ईमानदार नेता या नौकरशाह खेल संघों या मन्त्रालयों में आता है तो ही कुछ हो सकता है नहीं तो इन संघों और मन्त्रालयों में खिलाड़ियों को ही पद-ओहदे दिये जाने चाहिये। तभी खेल और खिलाड़ियों का भविष्य बेहतर हो सकता है। आंशिक रूप से इन बातों में सच्चाई है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ये तमाम खेल विशेषज्ञ और पत्रकार खेल संघों, परिषदों और मन्त्रालयों के ढाँचे और उसकी कार्यप्रणाली की बात क्यों नहीं करते। वे यह भी सवाल नहीं उठाते कि क्या ये संस्थाएँ जनवादी तरीके से काम करती हैं, और क्या इन पर जन निगरानी रहती है या नहीं! ये विशेषज्ञ व्य़क्तियों में ईमानदारी और नैतिक चरित्र के इतने आग्रही हैं कि इन्हें सारी समस्याओं की जड़ इन्हीं दो चीज़ों की कमी लगती है। ये मौजूदा पूँजीवादी राजनीतिक-आर्थिक ढाँचे पर कोई सवाल नहीं उठाते। इस ढाँचे में सिर्फ़ नेता या नौकरशाह ही नहीं अगर खिलाड़ियों को भी पद-ओहदा दे दिया जाये तो वे भी गुटबाज़ी, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार आदि में लिप्त हो जायेंगे और हुए भी हैं। नेता और अफसर तो उन देशों में भी हैं, जिनके सैकड़ों खिलाड़ी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी रचनात्मकता और सर्जनात्मकता से पूरी दुनिया में नाम कमा रहे हैं। उनकी सफलता कोई तात्कालिक नहीं है बल्कि उनके बेहतरीन प्रदर्शन को कई दशकों से निरन्तरता में देखा जा सकता है, जहाँ नेता और अफसर तो आते-जाते रहते हैं। खेल और खिलाड़ियों की दुर्दशा के जिस मुख्य कारण को बताते हुए यहाँ के खेल विशेषज्ञ लाल-पीले होते रहते हैं वो मुख्य कारण है ही नहीं।
खेल में पिछड़ेपन होने का रोना फण्डिंग की कमी को भी बताया जाता है। यह भी आंशिक सच है लेकिन खेल और खिलाड़ियों की दुर्दशा का कारण सिर्फ़ फण्ड की कमी ही नहीं है। असल में पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में खेल भी एक माल है। और हर माल की एक मार्केट वैल्यू होती है। इसी वैल्यू के हिसाब से पूँजीपति इसमें पैसा लगाते हैं। सरकारें भी एक हद तक उसी खेल को ज़्यादा प्रमोट करती हैं जो पूँजीपतियों के तात्कालिक लाभ की पूर्ति करता है। यही कारण है कि भारत में क्रिकेट से लेकर अन्य खेलों तक में जो पूँजी लगती है वो उस खेल की मार्केट वैल्यू के हिसाब से ही लगती है। यह अनायास ही नहीं है कि ज़्यादातर खिलाड़ी ख़ुद से ही आर्थिक संसाधन जुटाकर अपने खेल को जारी रख पाते हैं। सरकार का ध्यान भी तब जाता है जब उनमें से कोई राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके अपनी मार्केट वैल्यू को ऊँचा उठा देता है।
खेल में पिछड़ेपन की एक वजह ये भी बता दी जाती है कि जनता के बीच खेलों को लेकर कोई उत्साह नहीं है। यहाँ तो ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे ख़राब’ जैसी कहावत चलती है। ऐसे में खेलों को नौजवानों के बीच में कैसे स्थापित किया जा सकता है? ज़ाहिर सी बात है कि किसी भी कहावत की एक भौतिक ज़मीन होती है। भारत जैसे देश में जहाँ अस्सी फ़ीसदी आबादी जीवन जीने की बुनियादी शर्तों को पूरा करने में ही ज़द्दोजहद करती हो, वहाँ ये उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि लोग एक ऐसे क्षेत्र में अपनी ऊर्जा और क्षमता को लगाना पसन्द करेंगे, जो उनकी तात्कालिक समस्या को हल न कर सके।
असल में देखा जाये तो शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार-भोजन-आवास व मनोरंजन की तरह खेलकूद भी नौजवानों की एक मूलभूत आवश्यकता है, और हर बुनियादी आवश्यकता से वंचित बहुसंख्यक आबादी खेलकूद और इसके स्रोत-संसाधन से भी वंचित है। भारत के पिछड़े पूँजीवादी राज्य के आर्थिक राजनीतिक ढाँचे ने जो सामाजिक-सांस्कृतिक संकुचन को जन्म दिया है उसमें किसी भी क्षेत्र में प्रतिभाओं का प्रस्फुटन सम्भव नहीं है। यह पूँजीवादी ढाँचा इस रूप में काम करता है जैसे – पहाड़ों से निकलकर जब नदियाँ तेजी से नीचे की तरफ उछलती-कूदती, बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती, उन्हें तोड़ती, बहाती, हरहराती हुई नीचे आती है, लेकिन आगे बाँध बनाकर उनकी पूरी ऊर्जा और गति को रोक दिया जाता है और फिर जब बाँधों से नदियाँ निकलती हैं तो उनकी गति एक़दम मंथर, धीमी, बिना किसी आवाज़, जोश और उत्साहविहीन हो जाती हैं। इसी प्रकार देश के नौजवानों की पूरी रचनात्मक सर्जनात्मक क्षमता भी पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक-सामाजिक सांस्कृतिक माहौल में ख़त्म हो जाती है।
प्रोमेथियस की तरह अपने हिस्से की आग को लेना होगा :
अब बहुत से महानुभाव यह कहेंगे कि पूँजीवाद तो अमेरिका में भी है, यूरोप में भी है, जापान में भी है (वैसे तो चीन और रूस में भी है)। लेकिन वहाँ तो प्रतिभाएँ ख़त्म नहीं होतीं। ओलम्पिक जैसे खेलों में मेडलों की बारिश तक हो जाती है। तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता! तो उसका कारण यह है ज़नाब कि इन देशों में सामाजिक जीवन की समृद्धि को बेहतर बनाने, सिर्फ़ खेल ही नहीं बल्कि अनेक क्षेत्रों में उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करने में जो प्रचुर पूँजी और संसाधन लगते हैं उसका सबसे बड़ा हिस्सा तीसरी दुनिया के देशों की लूट से आता है। उस लूट के एक हिस्से से वहाँ के नौजवानों और नागरिकों को खेल से लेकर अनेक क्षेत्रों में राज्य़ द्वारा भविष्य की सुरक्षा और संरक्षण भी मिल जाता है। दूसरी बात वहाँ पूँजीवाद सामन्तवाद के ख़िलाफ़ एक क्रान्तिकारी परिवर्तन के द्वारा आया है, इस कारण वहाँ के नागरिकों के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में जनवाद के बुनियादी मूल्य और चेतना मौजूद है जो उन्हें रचनात्मकता और प्रयोगों के व्यापक सामाजिक परिवेश मुहैय्या कराते हैं। भारत जैसे देश में पूँजीवादी विकास कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन से नहीं बल्कि ऊपर से थोपी गयी क्रमिक और मंथर गति से हुआ है। इस पूँजीवादी विकास में सामन्ती मूल्य और संस्कृति के बहुत सारे तत्व अभी भी शामिल हैं। जिस कारण भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में वो माहौल और रचनात्मकता प्रस्फुटित नहीं हो पाती। पुरुषवादी पितृसत्तात्मक सोच बहुसंख्यक लड़कियों को खेल से बाहर कर देती है। जातिगत पार्थक्य, धार्मिक भेदभाव और पूँजीवादी अलगाव ने भी समूह भावना और खेल भावना को बढ़ाने में बहुत बड़ी बाधा पहुँचायी है। इसके अलावा गाँव-बस्तियों-शहरों आदि का जो पूरा परिवेश है उसमें प्रतिभाओं को निखरने और माँजने का कोई स्कोप ही नहीं है। जिन बस्तियों में पतली-पतली गलियाँ और बजबजाती नालियाँ ही मुख्य सड़क हो, वहाँ खेलना तो दूर, चलना भी मुश्किल है। भारतीय शहरों और कस्बों के पूरे ढाँचे में पार्क, जिम, स्टेडियम, स्पोर्ट्स क्लब, पुस्तकालय, साहित्य-कला-संगीत केन्द्रों का बेइन्तहां अभाव है। ऐसे में बहुसंख्यक नौजवानों की पहुँच इन तक हो ही नहीं पाती।
ये सारे सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोधक इसी पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के ही एक अंग और उसकी ज़रूरत है। इन्हें तोड़ने के लिए व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रान्ति की ज़रूरत है। कहने को तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। लेकिन क्या भारतीय शासक वर्ग किसी लोकतान्त्रिक देश के बुनियादी कर्तव्य यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, भोजन और आवास के साथ ही भविष्य सुरक्षा की गारण्टी देते हैं। तो जवाब है नहीं! बिना इसके ये उम्मीद करना कि खेलों में भी नयी प्रतिभाएँ आ जायेंगी, बहुत ही मुश्किल है। मिल्खा सिंह तो एक गिलास दूध पीने के लिए सेना की दौड़ में शामिल हुए और वहाँ उनकी प्रतिभा का पता चला। लेकिन देश के करोड़ों नौजवानों की किस्मत मिल्खा सिंह की तरह नहीं होती। उन्हें अपने रोज़गार और भोजन की तलाश में कहीं न कहीं भटकना ही पड़ता है। फिर चाहे उनके अन्दर किसी भी तरह की प्रतिभा क्यों न छिपी हो। यह अकारण नहीं है कि जिन देशों में समाजवादी क्रान्तियाँ हुई और वहाँ के नौजवानों को भविष्य की सुरक्षा की गारण्टी मिली तो वहाँ जीवन के हर क्षेत्र में चाहे वो विज्ञान, कला, साहित्य , संस्कृति, खेल आदि हो आश्चर्यजनक तरक्की हुई।
कहते हैं ओलम्पिक में जो मशाल जलायी जाती है, वो प्रोमेथियस द्वारा इंसानों के लिए देवताओं से चुरा कर लायी गयी आग के प्रतीक के तौर पर और उसके सम्मान में जलायी जाती है। भारत की जनता और नौजवानों को भी जो तमाम स्रोत-संसाधनों से वंचित कर दिये गये हैं और जिनके हिस्से पर चन्द मुट्ठी भर पूँजी के देवताओं का कब्ज़ा है, प्रोमेथियस बनना होगा और अपने हिस्से की आग को उनसे छीन लेना होगा। तभी हम जीवन के हर एक क्षेत्र को चाहे वो खेल ही क्यों न हो मशाल की तरह रौशन कर सकते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021

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