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कद्दाफ़ी की सत्ता का पतनः विद्रोह की विजय या साम्राज्यवादी हमले की जीत?

कद्दाफ़ी की सत्ता का पतन किसी जनविद्रोह के बूते नहीं हुआ है। यह लीबिया में नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के बाद पैदा हुआ पूँजीवाद और पूँजीवादी शासक वर्गों के गठबन्धन का संकट था; यह कद्दाफ़ी की अधिक से अधिक गैर-जनवादी और तानाशाह होती जा रही सत्ता का संकट था; जिसका अन्त हमें एक ऐसे नतीजे के रूप में मिला है, जिसे जनता की जीत या विजय का नाम कतई नहीं दिया जा सकता है। लीबिया की जनता को अपने देश के मामलों का फैसला करने का हक़ है। लेकिन साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने उस प्रक्रिया को बाधित कर दिया है और एक रूप में यह प्रगति की रथ को पीछे ले गया है।

पॉल क्रुगमान का दर्द

क्रुगमान जैसे व्यवस्था-सेवक इस सच्चाई को नहीं समझ सकते या फिर समझ कर भी नासमझ बनते हैं और ‘विवेकवान पुरुषों’ की तरह पूँजीवादी व्यवस्था के संचालकों को भावी भयंकर विस्फोटों के बारे में सचेत करते रहते हैं। वास्तव में पॉल क्रुगमान, जोसेफ स्टिग्लिट्ज़, प्रभाट पटनायक, जयति घोष और सी.पी. चन्द्रशेखर जैसे अर्थशास्त्री कीन्सियाई अर्थशास्त्र के गुरुमन्त्र मुनाफ़े की हवस में आत्मघाती अराजक गति करती पूँजीवादी व्यवस्था की गति को कुछ नियमित करने में अपनी सारी ऊर्जा ख़र्च करते हैं। वास्तव में, सत्ता प्रतिष्ठानों में मोटी तनख़्वाहें उठाने वाले ये अर्थशास्त्री इसी सेवा का ही मेवा पाते हैं। जब इनकी ‘विवेकपूर्ण’ सलाहें नहीं मानी जाती हैं तो ये कुछ दुखी और बेचैन हो जाते हैं। पॉल क्रुगमान और उनके जैसे सभी कीन्स के चेलों का आज यही दर्द है कि पूरी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ता उनकी बात नहीं सुन रहे हैं और पूँजीवाद को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। लेकिन ये अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाते हैं कि व्यवस्था के पास भी और कोई विकल्प नहीं है। नियोजन और अराजकता के बीच जारी द्वन्द्व इस व्यवस्था के दायरे के भीतर हमेशा अराजकता की विजय के साथ समाप्त होता है।

कश्मीर समस्या का समाधान

इस बार कश्मीर का उभार एक इन्तिफादा या जनविद्रोह का रूप लेकर सामने आया है। अगर यह भारतीय सैन्य दमन से जीत नहीं सकता तो भारतीय सैन्य दमन भी इसे हरा नहीं सकता है। भारतीय शासक वर्ग भी इस बात को समझ रहा है। यही कारण है कि सैन्य समाधान की बजाय किसी राजनीतिक समाधान और इस समाधान में पाकिस्तान को भी शामिल करने की बात प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह कर रहे हैं। यह काफी समय बाद है कि किसी भारतीय प्रधानमन्त्री ने खुले तौर पर कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए पाकिस्तान की भागीदारी आमन्त्रित की है। गिलानी की सारी माँगों को मानने के लिए भारतीय शासक वर्ग कतई तैयार नहीं है। कश्मीर पर अपने दमनकारी रुख़ को ख़त्म करने के लिए भी भारतीय शासक वर्ग तैयार नहीं है, क्योंकि उसे भय है कि कश्मीर पर शिकंजा ढीला करते ही वह पाकिस्तान के पास चला जायेगा। लेकिन हाल में दिये गये राजनीतिक पैकेज में भारतीय शासकों ने कुछ बातें मानी हैं। गिरफ्तार लोगों को छोड़ने की बात की गयी है और साथ ही सर्वपक्षीय प्रतिनिधि मण्डल को कश्मीर भेजा गया।

खाप पंचायतों के फ़रमान और पूँजीवादी लोकतंत्र की दुविधा

खाप पंचायतों और इस प्रकार के सभी निरंकुश सामाजिक-आर्थिक निकायों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए तर्कप्रसार, वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार, जाति-विरोधी प्रचार-प्रसार के कामों को हाथ में लेना होगा। युवाओं के बीच विशेष रूप से इन अभियानों को सांस्कृतिक रूपों के सहारे चलाना होगा। लेकिन इन सभी कार्यभारों को पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को आमूल-चूल रूप से बदल डालने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन का हिस्सा बनाना होगा। युवाओं को इस पूरे काम में ख़ास तौर पर आगे आना चाहिए और भारतीय समाज में एक नये प्रकार के पुनर्जागरण और प्रबोधन के आन्दोलन का अगुआ बनना चाहिए। इसके बग़ैर हम इस मामले में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा सकते हैं।

साम्प्रदायिक दंगों का निर्माण

साफ़ है कि यह दंगे कोई स्वत:स्फूर्त रूप से दो समुदायों के बीच नहीं हुए। इन्हें योजनाबद्ध ढंग से संघी फासीवादियों ने अंजाम दिया। अफवाहों और झूठों के जरिये नफ़रत फैलायी गयी और दोनों समुदायों को आपस में लड़ा दिया गया। पुलिस के एक आला अधिकारी ने बताया कि बरेली पारम्परिक तौर पर साम्प्रदायिक तनाव से मुक्त शहर है। लेकिन पिछले तीन–चार सालों के दौरान साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएँ सुनने में आने लगी हैं। बरेली में सबसे अधिक बिकने वाले हिन्दी दैनिक अमर उजाला के एक भूतपूर्व सम्पादक ने बताया कि रोहिलखण्ड के पूरे क्षेत्र से ही हाल में साम्प्रदायिक तनाव की ख़बरें आने लगी हैं। वरुण गाँधी ने पिछले साल पड़ोस के पीलीभीत जिले में एक भड़काऊ भाषण दिया था। आरएसएस ने पूरे रोहिलखण्ड इलाके में जगह–जगह सरस्वती शिशु मन्दिर खोलने शुरू कर दिये हैं।

पूँजीवाद के गुप्त रोग विशेषज्ञ

ये सभी दिल ही दिल जानते हैं कि पूँजीवाद के इस गुप्त रोग का कोई इलाज नहीं है। उसको कुछ भी सकारात्मक दे पाने की नपुंसकता से कोई मुक्ति नहीं मिल सकती है। इसलिए जो अधिक से अधिक किया जा सकता है कि उसके नकारात्मक उपोत्पादों, जैसे भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, मन्दी आदि पर पर्दा डाला जाय, उसके असर के अहसास को जनता के मस्तिष्क पर धुंधला बनाया जाय। लेकिन यह गुप्त रोग पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है। सारे शाही शफ़ेखाने और वेनरल डिज़ीज़ सेण्टर पहले भी फ़ेल हो चुके हैं और फ़िर फ़ेल ही होंगे। पूँजीवाद का असल इलाज पौरुष की दवा देने वाले इन हकीमों के पास नहीं है। वह जनता के पास है। और वह इलाज है पूँजीवाद को हर प्रकार के दुनियावी ताप से मुक्ति देकर ताबूत में पहुँचा देना!

गुण्डे चढ़ गये हाथी पर–मूँग दल रहे छाती पर!

आम घरों से आने वाले दलित नौजवानों को यह समझ लेना चाहिए कि बसपा और मायावती की माया बस एक धोखे की टट्टी है। यह भी उतनी ही वफ़ादारी से प्रदेश के दबंग शासक वर्गों, गुण्डों और ठेकेदारों की सेवा करती है। इस बात को आम जनता अब धीरे-धीरे समझने भी लगी है। मनोज गुप्ता की हत्या के बाद जिस कदर जनता प्रदेश में और ख़ास तौर पर औरैया में सड़कों पर उतरी उसे देखकर साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि यह सिर्फ़ एक इंजीनियर की आपराधिक हत्या के जवाब में पैदा हुआ गुस्सा नहीं था। यह पूरी शासन–व्यवस्था और बसपा सरकार की नंगी गुण्डई, भ्रष्टाचार और तानाशाही के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने वाले लोग थे जो मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं और किसी परिवर्तन की बेचैनी से तलाश कर रहे हैं।

कमरतोड़ महँगाई : पूँजीपति वर्ग द्वारा वसूला जाने वाला एक ‘‘अप्रत्यक्ष कर’’

महँगाई की परिघटना पूँजीवादी व्यवस्था की एक स्वाभाविक परिघटना है । पूँजीवाद ऐसा हो ही नहीं सकता जिसमें जनता को महँगाई से निजात मिल सके । एक मुनाफा–केन्द्रित व्यवस्था हमें यही दे सकती है । इससे निजात सिर्फ एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकता है जो निजी मालिकाने के आधार पर मुनाफे की अंधी हवस पर न टिकी हो, जो सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक उत्पादन करती हो, जो सभी प्रकार के संसाधनों के साझे मालिकाने पर आधारित हो और जो योजनाबद्ध ढंग से काम करती हो, न कि अराजक ढंग से । संक्षेप में, महँगाई से मुक्ति एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकती है जिसमें उत्पादन राज–काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में हो ।

वर्जीनिया गोलीकाण्ड – अमेरिकी संस्कृति के पतन की एक और मिसाल

वर्जीनिया गोलीकाण्ड ने इस बात को एक बार फ़िर उजागर कर दिया है कि पूँजीवाद और उसके द्वारा प्रसारित और समर्थित रुग्ण व्यक्तिवाद समाज और मानवता को सिर्फ़ यही दे सकता है। आज के दौर में जब दुनिया की सभी बुनियादी उत्पादक प्रक्रियाओं का चरित्र सामूहिक हो चुका है, आज जबकि दुनिया की समस्त समृद्धि और सम्पदा के स्रोत के तौर पर मेहनतकश समूह सामने है, ऐसे में व्यक्तिवाद की सोच और पूँजीवादी विचारधारा एक अनैतिहासिक विचारधारा है। इसके नतीजे के तौर पर हमें इसी तरह के गोलीकाण्ड और नरसंहार मिलते रहेंगे; इसी तरह के मानसिक रुग्ण पैदा होते रहेंगे; और इसके ज़िम्मेदार वे स्वयं नहीं होंगे बल्कि वह समाज होगा जिसमें व्यक्तिगत लाभ और पहचान ही सबकुछ होगा और सामूहिक हित का कोई स्थान नहीं रहेगा। सामूहिकता वैयक्तिकता का निषेध नहीं है। उल्टे सामूहिकता में ही वैयक्तिकता पूरी तरह से फ़लफ़ूल सकती है।