कद्दाफ़ी की सत्ता का पतनः विद्रोह की विजय या साम्राज्यवादी हमले की जीत?
शिशिर
त्रिपोली में विद्रोहियों के प्रवेश के साथ ही वैश्विक कारपोरेट मीडिया हर्षोन्माद में डूब गया। नाटो की हमलावर सेना की मदद से त्रिपोली में कद्दाफ़ी की सत्ता के पतन और उसके पलायन को “अत्याचारी कद्दाफ़ी की तानाशाही” के खात्मे और “जनता की क्रान्ति की विजय” के तौर पर पेश किया गया। सीएनएन और फॉक्स न्यूज़ जैसे चैनलों और भारत में कारपोरेट मीडिया के चैनलों पर विशेषज्ञों के पैनल बैठकर लीबिया में “जनता की सत्ता” के उदय पर चर्चाएँ कर रहे हैं। लेकिन लीबिया की इस “मुक्ति” की असलियत ठीक इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरी दुनिया का कारपोरेट मीडिया इसका जश्न मना रहा है! निश्चित रूप से से कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है।
गड़बड़ गम्भीर है। वास्तव में लीबिया में इस वक्त जो हो रहा है वह और कुछ नहीं बल्कि स्पष्ट रूप में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप है। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के नेतृत्व में नाटो ने लीबिया पर जो हमला किया था उसका मकसद कभी भी लीबिया की जनता को कद्दाफ़ी की सर्वसत्तावादी सरकार से मुक्ति दिलाना नहीं था। इसका असली मकसद था लीबिया के विशाल तेल व प्राकृतिक गैस भण्डारों पर कब्ज़ा और साथ ही लीबिया के अथाह भूजल भण्डार का दोहन। कद्दाफ़ी की शासन में जनवादी अधिकारों के हनन और तानाशाही को तो अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने बस इसलिए मुद्दा बनाया है कि वे अपने हमले को सही ठहरा सकें। कद्दाफ़ी ने भी फरवरी 2011 में अपनी सरकार के खि़लाफ़ हुए प्रदर्शनों का जो बर्बर दमन किया वह साम्राज्यवादियों के लिए एक सौग़ात के समान था। इस दमन को आधार बनाकर नाटो ने अपने हमले को “मानवतावादी हस्तक्षेप” का नाम दिया।
नाटो के हमले का वास्तविक लक्ष्य है लीबिया में किसी ऐसी सरकार को बिठाना जो पश्चिमी साम्राज्यवादी हितों के लिए अनुकूल हो। फिलहाल, विद्रोहियों की नेशनल ट्रांज़िशनल काउंसिल को लगभग सभी साम्राज्यवादी देशों और उनके शिविर के विकासशील देशों ने मान्यता दे दी है। हम इस पर बाद में आएँगे कि इस काउंसिल में कौन-कौन सी ताक़तें मौजूद हैं। लेकिन इतना तय है कि एन.टी.सी. के नेतृत्व में बनने वाली सरकार के साथ साम्राज्यवादियों का इस बात पर पहले ही समझौता हो चुका है कि वह फ्रांसीसी, ब्रिटिश, इतालवी और अमेरिकी तेल व प्राकृतिक गैस कम्पनियों को लीबिया के कच्चे तेलों और प्राकृतिक गैसों की खोज, दोहन, परिष्करण और उत्पादन का अधिकार देगी। इसके अलावा, फ्रांस की ईधन कम्पनियों की निगाह लीबिया के भूजल भण्डारों का इस्तेमाल एग्रो फ़्यूल बनाने के लिए करने पर हैं। ग़ौरतलब है कि पहले इस पानी का उपयोग अफ्रीका के उन देशों के लिए किया जाना था, जो दीर्घकालिक सूखे और मरुस्थलीकरण का शिकार हैं। लेकिन अब उन देशों की जनता पेय जल के अभाव में तड़पती रहेगी और लीबिया के पानी का इस्तेमाल साम्राज्यवादी देशों की कारों और उनके टैंकों में फूँके जाने वाले कृषि ईंधन के उत्पादन के लिए होगा! यह बात भी ग़ौर करने वाली है कि पूरे अफ्रीकी महाद्वीप में लीबिया के पास सबसे बड़ा कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का भण्डार है और लम्बे समय से इस साम्राज्यवादी देशों की निगाहें टिकी हुई थीं। 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर हमले में बाद अमेरिका की धमकी से डरकर कद्दाफ़ी ने पश्चिम के प्रति अपने रवैये को नर्म किया था और पश्चिम के तुष्टीकरण की नीति का अपनाया था। इससे पहले कद्दाफ़ी पश्चिम के लिए आँख के काँटे के समान था। लेकिन वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर हमले के बाद बुश के आक्रामक तेवर के आगे कद्दाफ़ी ने काफी हद तक आत्मसमर्पण कर दिया। इस पर भी हम आगे चर्चा करेंगे कि कद्दाफ़ी की नीति में किस तरह से परिवर्तन आए।
नाटो का लीबिया पर मौजूदा हमला नागरिकों का जीवन बचाने के नाम पर किया गया था। लेकिन कद्दाफ़ी और विद्रोहियों के बीच संघर्ष में जितने बेगुनाह लोग मारे गये, उससे ज़्यादा लोग नाटो के हमलों में मारे जा चुके हैं। हमले के पहले दिन से लेकर अन्तिम दिन तक नाटो ने लीबिया पर 2000 बम गिराए। यह साम्राज्यवादियों द्वारा एक प्रकार से दुनिया के पहले साम्राज्यवादी हवाई हमले के सौ साल पूरे होने का बर्बर जश्न था। ग़ौरतलब है कि 1911 में इटली ने लीबिया पर हवाई बमबारी की थी, जो कि विश्व के इतिहास में की गयी पहली हवाई बमबारी थी। और फिर 100 वर्ष बाद एक बार फिर लीबिया की जुझारू जनता को साम्राज्यवादियों के हवाई हमले का शिकार होना पड़ा। लीबिया की जनता ने इटली के औपनिवेशिक शासन को लीबिया में कभी भी चैन से नहीं रहने दिया था। ताज़ा हमले में नाटो ने पहले से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से मंजूरी ले ली थी और सुरक्षा परिषद ने नाटो का नागरिक जीवन बचाने के लिए हर वह कदम उठाने का अधिकार दे दिया था जो नागरिक जीवन बचाने के लिए आवश्यक हो। भारत से लेकर चीन तक और रूस से लेकर तुर्की तक सभी ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया था। स्पष्ट है कि सभी को युद्ध के बाद की लूट में हिस्सा मिलने की उम्मीद है। नाटो ने अपना हमला उस समय शुरू किया था जब शुरुआती झटकों के बाद कद्दाफ़ी के समर्थकों ने विद्रोहियों के कदम पीछे धकेल दिये थे और कद्दाफ़ी की सेनाएँ विद्रोहियों की राजधानी बेनग़ाज़ी पर हमले के लिए आगे बढ़ रही थीं। साफ़ था कि कद्दाफ़ी समर्थक विद्रोहियों पर भारी पड़ रहे थे। ठीक उसी समय विद्रोहियों ने नाटो से मदद की अपील की और इसके बाद एन.टी.सी. के रूप में संगठित विद्रोहियों ने साम्राज्यवादियों के साथ लीबिया के संसाधनों का सौदा किया।
यहाँ पर यह जान लेना भी ज़रूरी है कि ये विद्रोही कौन हैं। वास्तव में, इनमें सबसे बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जो कद्दाफ़ी के ही भरोसेमन्द हुआ करते थे और वास्तव में कद्दाफ़ी की तानाशाही को लागू करने वाले कुलीन गिरोह के सदस्य थे। इनका नेतृत्व मुस्तफ़ा अब्दुल जलील कर रहा है। वह स्वयं कद्दाफ़ी का न्याय मन्त्री था। यह वही व्यक्ति है जिसने बुल्गारिया की नर्सों को मृत्यु दण्ड दिया था। यही कारण है कि बुल्गारिया नाटो के हमले का समर्थन नहीं कर रहा था। विद्रोहियों ने जो नेशनल ट्रांज़िशनल काउंसिल बनायी है उसमें मुख्य ताक़त है धार्मिक कट्टरपंथियों की। इसके बाद विभिन्न प्रकार के जातीय और जनजातीय क्षेत्रीय समूह हैं जो पहले कद्दाफ़ी के शासक वर्ग समूह का ही अंग थे। लेकिन 2001 में कद्दाफ़ी ने जो नवउदारवादी नीतियां लागू कीं, उसने कालान्तर में शासक वर्गों के बीच बनी आम सहमति को तोड़ दिया। यही कारण था कि 2008-09 के बाद से ही कद्दाफ़ी के खि़लाफ़ लीबिया के भीतर बड़े पैमाने पर आवाज़ उठने लगी थी। कद्दाफ़ी कभी पश्चिम के इशारों पर काम करने वाला शासक नहीं था। वह लीबिया में अपनी नीतियों को काफी स्वायत्त तरीके से लागू करता रहा था और अधिकांश मौकों पर उसने साम्राज्यवाद-विरोधी तेवर अपनाया था। कद्दाफ़ी नासिराइट अरब अफ्रीकी क्रान्ति का एक सिपहसालार रहा था और वह पूरे अरब अफ्रीका में उस पीढ़ी का आख़िरी व्यक्ति था। 1960 और 1970 के दशकों के दौरान अल्जीरिया, ट्यूनिशिया व अन्य कई अफ्रीकी देशों में मिस्र के जनरल नासिर के नेतृत्व में हुई क्रान्ति के प्रभाव में रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्गों की सत्ताएँ आईं थी। इन देशों में इन नेताओं के नेतृत्व में कल्याणकारी राज्य वाले सार्वजनिक क्षेत्र के पूँजीवादी ढाँचे को खड़ा किया गया। 1990 आते-आते पूँजीवादी संचय की प्रक्रिया का इन देशों के पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के दायरे के भीतर दम घुटने लगा था। नतीजतन, इन देशों में पब्लिक सेक्टर का ढाँचा टूटने की ज़मीन तैयार हो गयी थी। इसके अलावा, पुराने रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के तेज़-तर्रार नेताओं की पीढ़ी अब गुज़र चुकी थी। उस पीढ़ी के अधिकांश नेता या तो मर चुके थे या इतने बूढ़े हो चुके थे कि अब अगली पीढ़ी ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हुए इस संक्रमण ने इन देशों के बुर्जुआ वर्ग के चरित्र में भी एक राजनीतिक संक्रमण को देखा। नया शासक वर्ग न तो ओजस्वी था, न तेज़-तर्रार, न पश्चिमी साम्राज्यवाद के सामने अड़ कर अपने राष्ट्रीय पूँजीवादी हितों के लिए लड़ने वाला और न ही कल्याणकारी राज्य का हिमायती। यह एक भ्रष्ट, पतित, भयंकर जनविरोधी, तानाशाह और नौकरशाह किस्म का बुर्जुआ शासक वर्ग था, जिसका नायकत्व खण्डित हो चुका था। कद्दाफ़ी इस मामले में एक अपवाद था। निश्चित रूप से, समय बीतने के साथ उसकी सत्ता का चरित्र अधिक से अधिक दमनकारी और तानाशाह किस्म का होता गया था, लेकिन फिर भी तेल से मिलने वाले अधिशेष के बूते पर उसने अपने देश में 2001 तक कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य का ढाँचा काफ़ी हद तक बचाकर रखा था; 2001 तक कद्दाफ़ी साम्राज्यवाद के लिए भी लगातार अफ्रीका में दिक्कतें पैदा करता रहता था या फिर समर्थन करने से इंकार करता रहता था; लीबिया के तेल के परिष्करण और उत्पादन को उसने राज्य की इजारेदारी बनाकर रखा था और उससे मिलने वाले अधिशेष को अलग-अलग कबीलों में तेल किराये के रूप में बाँटा जाता था; शिक्षा, आवास और चिकित्सा की ज़िम्मेदारी को भारी सब्सिडी देकर काफ़ी हद तक राज्य उठा रहा था; सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए कई योजनाएँ अतीत से चलती चली आ रही थीं, जिन्हें कद्दाफ़ी ने 2001 में ‘वाशिंगटन सहमति’ को अपनाने के बाद में तिलांजलि देना शुरू कर दिया। लेकिन 2001 तक कद्दाफ़ी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए अरब अफ्रीका में लगातार दिक्कत पैदा करता आ रहा था। और यह काम वह लीबिया में सत्तासीन होने के बाद से ही करता रहा था। 1969 में कद्दाफ़ी ने साम्राज्यवादी शक्तियों से माँग की थी कि वे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अफ्रीका में स्थापित सभी सैन्य अड्डों को हटायें। लीबिया में उसने किसी भी साम्राज्यवादी सैन्य चौकी को नहीं रहने दिया। और बाद में पूरे अरब अफ्रीका से साम्राज्यवादी सैन्य चेक पोस्टों को हटवाने में कद्दाफ़ी की एक अहम भूमिका रही है। अमेरिका का नाटो के मौजूदा हमले में यह हित था कि उसे अपने अफ्रीकी सैन्य कमाण्ड के लिए त्रिपोली में एक जगह मिल जाएगी जो अफ्रीका का कोई भी देश अमेरिका को देने के लिए तैयार नहीं था। जाहिर है कि अफ्रीका में अपने साम्राज्यवादी हितों की हिफ़ाज़त के लिए अमेरिका को अपने अफ्रीकी सैन्य कमाण्ड का पाँव टिकाने के लिए एक जगह की बुरी तरह ज़रूरत थी। अब यह ज़रूरत पूरी हो जाएगी क्योंकि कद्दाफ़ी सत्ता में नहीं रह गया है। कद्दाफ़ी 2001 के बाद भी पश्चिम की जी-हुजूरी करने वाला व्यक्ति नहीं था। और 2001 के बाद तेल व प्राकृतिक गैस का क्षेत्र विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने और अन्य आर्थिक क्षेत्रों को भी साम्राज्यवादी देशों की विशालकाय कम्पनियों के लिए खोलने के बावजूद कद्दाफ़ी को लेकर साम्राज्यवादी शक्तियाँ कभी आश्वस्त नहीं हो सकती थीं, क्योंकि कद्दाफ़ी कभी भी पलट सकता था।
लेकिन वास्तव में 2001 में साम्राज्यवादी नवउदारवाद के सामने घुटने टेककर कद्दाफ़ी ने पाँव पर कुल्हाड़ी नहीं बल्कि कुल्हाड़ी पर पाँव मार लिया था। 2001 के बाद से कद्दाफ़ी ने अपने देश के तेल और प्राकृतिक गैस क्षेत्र को एक हद तक साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोलना शुरू किया। जिन कल्याणकारी नीतियों को राज्य लागू कर रहा था उनसे धीरे-धीरे विनिवेश किया जाने लगा। पिछले एक दशक में लीबिया में ग़रीबी और बेरोज़गारी की दर में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण जनता में असन्तोष लगातार गहरा रहा था। इसके अलावा लीबिया कभी भी एक एकीकृत राष्ट्र रहा ही नहीं था। जो चीज़ उसे एक एकीकृत राष्ट्र के तौर पर कायम रखे हुए थी वह था कल्याणकारी पूँजीवादी राज्य की नीतियाँ जिन्हें कद्दाफ़ी तेल से आने वाले अधिशेष के बूते चला रहा था। तेल किराये के बन्द होने के बाद से विशेष रूप से आम जनता में ग़रीबी और बेकारी बढ़ी है। लीबिया एक बहुजातीय, बहुधार्मिक और बहु-जनजातीय देश है। ऐतिहासिक तौर पर लीबिया उत्तरी अफ्रीका के पूरब और पश्चिम को अलग करता है। पश्चिम और पूरब को अलग करने वाली रेखा लीबिया के ठीक बीच से होकर जाती है। पूर्वी हिस्सा ऐतिहासिक तौर पर यूनानी और हेलनिस्टिक साम्राज्य और संस्कृति के अन्तर्गत आया और पश्चिमी हिस्सा रोमन संस्कृति और साम्राज्य के अन्तर्गत। यह क्षेत्र बँटवारा पूरी तरह ख़त्म कभी नहीं हुआ। दोनों ओर रहने वाले कबीलों के कद्दाफ़ी की सत्ता में हित बंधे हुए थे। और ये हित भी कल्याणकारी राज्य और तेल किराये के वितरण पर आधारित थे। नव उदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद से एक बहु-जनजातीय देश को, जो एक एकीकृत राष्ट्र के तौर पर कभी अस्तित्वमान नहीं रहा था, जो कल्याणकारी नीतियाँ जोड़े हुए थीं, उनका ढाँचा छिन्न-भिन्न होने लगा। शासक वर्गों के गठजोड़ में फूट पड़ गयी। और जनता के बीच तो बेरोज़गारी, ग़रीबी और असुरक्षा के कारण असन्तोष लगातार गहरा ही रहा था। लीबिया में इस वर्ष की शुरुआत से शुरू हुई उथल-पुथल इन्हीं परिवर्तनों के अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने की अभिव्यक्ति थी। चूँकि वह एकता टूट गयी थी जो शान्ति और प्रगति का आधार थी, इसलिए अब राष्ट्र या राष्ट्रवाद की ज़मीन से साम्राज्यवाद के दबाव का प्रतिरोध कर पाना सम्भव नहीं था। कद्दाफ़ी की सत्ता के पतन का भी प्रमुख कारण यही था।
विद्रोहियों की एन.टी.सी. में जो ताक़तें मौजूद हैं उनमें एक अच्छी-खासी संख्या उनकी है जो कद्दाफ़ी के नेतृत्व वाले शासक वर्गों के गठबन्धन का अंग हुआ करते थे, लेकिन नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद वह गठबन्धन टूट गया और इसके अलग-अलग हिस्सों ने कद्दाफ़ी-समर्थक या कद्दाफ़ी-विरोध की अवस्थितियाँ अपना लीं। कद्दाफ़ी के पूर्व वफादारों के अलावा एन.टी.सी. का एक दूसरा बड़ा हिस्सा धार्मिक कट्टरपंथियों का है। इन धार्मिक कट्टरपंथियों को कद्दाफ़ी ने अपनी सत्ता रहते कभी ज़्यादा आगे नहीं बढ़ने दिया था। तीसरा हिस्सा अलग-अलग हिस्सों की नुमाइन्दगी करने वाले विभिन्न कबीलाई क्षेत्रवादियों का है जिन्होंने कद्दाफ़ी के विरोध की अवस्थिति को अपनाया है। यह एक ऐसा समूह है जिसे शंकर की बारात कहा जा सकता है! इसमें अलग-अलग हितों और अलग-अलग राजनीतिक रुझानों वाले दज़र्नों समूह हैं। कद्दाफ़ी की सत्ता के पतन के बाद और एन.टी.सी. की सरकार के गठन के बाद लीबिया की जनता की साम्राज्यवादी लूट और उसके माल के लिए जो छीना-झपटी मचने वाली है उसमें इस समूह के अलग-अलग हिस्से भी जमकर हिस्सेदारी करने वाले हैं। ये विद्रोही कद्दाफ़ी के दमनकारी राज्यतन्त्र की जगह कोई नया राज्यतन्त्र स्थापित नहीं करने जा रहे हैं, बल्कि ये उसी दमनकारी राज्यतन्त्र, यानी पुलिस, फ़ौज, न्यायपालिका के ऊपर काबिज़ होने जा रहे हैं। और ऐसा यक़ीन करने की हर वजह मौजूद है कि आने वाले समय में ये नये शासक जो साम्राज्यवादियों की मदद और शह पर लीबिया के पूँजीवादी राज्यतन्त्र पर काबिज़ हुए हैं, कद्दाफ़ी से कहीं ज़्यादा दमनकारी, उत्पीड़नकारी और साम्राज्यवाद के टट्टू साबित होने वाले हैं। लीबिया में किसी एकता के स्थापित न हो पाने की सूरत में उसका हश्र सूडान जैसा भी हो सकता है और यह भी साम्राज्यवाद के हित में ही होगा।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कद्दाफ़ी की सत्ता का पतन किसी जनविद्रोह के बूते नहीं हुआ है। यह लीबिया में नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के बाद पैदा हुआ पूँजीवाद और पूँजीवादी शासक वर्गों के गठबन्धन का संकट था; यह कद्दाफ़ी की अधिक से अधिक गैर-जनवादी और तानाशाह होती जा रही सत्ता का संकट था; जिसका अन्त हमें एक ऐसे नतीजे के रूप में मिला है, जिसे जनता की जीत या विजय का नाम कतई नहीं दिया जा सकता है। लीबिया की जनता को अपने देश के मामलों का फैसला करने का हक़ है। लेकिन साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने उस प्रक्रिया को बाधित कर दिया है और एक रूप में यह प्रगति की रथ को पीछे ले गया है। लेकिन लीबिया वह देश है जहाँ कोई औपनिवेशिक सत्ता कभी चैन से नहीं टिक पायी; यह वह देश है जहाँ की जनता ने साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ मुसलसल लड़ाई लड़ी है और यह उम्मीद की जा सकती है कि नये सत्ताधारी पश्चिमी साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर लीबिया की जनता की लूट को चैन से नहीं चला सकेंगे। निश्चित रूप से, आने वाला समय लीबिया में और भी बड़े उथल-पुथल का साक्षी बनने वाला है। यह समय कुछ महीनों बाद आ सकता है या फिर कुछ वर्षों बाद। लेकिन यह होना अवश्य है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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