पूँजीवाद के गुप्त रोग विशेषज्ञ

शिशिर

वैश्विक आर्थिक संकट से शायद ही कोई अनजान हो। आए दिन अखबारों में इस उथल-पुथल से होने वाली तबाही के बारे में छपता रहता है। कभी किसी बैंक के तबाह होने की बात आती है तो कभी निवेशकों के तबाह होने और औद्योगिक उत्पादन के घटने की ख़बर। निस्सन्देह, 2007 में अमेरिका में शुरू हुई इस मन्दी ने पूरे पूँजीवादी विश्व को जड़ से हिलाकर रख दिया है। इस मन्दी का कारण पूँजीवाद का वही घृणित क्षुद्र रहस्य है जिसके कारण वह एक ओर आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को अधिक से अधिक उत्पादन करने और मुनाफ़ा पीटने की हवस में क्रय शक्ति से मरहूम करता जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि उत्पादों को ख़रीदने के लिए ख़रीदार नहीं बचते। क्योंकि जितनी आबादी के पास क्रय क्षमता होती है वह पूरे उत्पादन को सोख पाने के लिए काफ़ी कम होती है। पहले यह मुनाफ़ा वास्तविक अर्थव्यवस्था में आता था, यानी की वास्तविक वस्तुओं के उत्पादन की अर्थव्यवस्था में। लेकिन 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में पूँजीवाद की अन्तिम मंज़िल साम्राज्यवाद के उदय के साथ वित्तीय पूँजी ने पूँजीवाद के इंजन की चालक सीट हासिल कर ली और पूँजीवाद के भाग्य की नियन्ता बन गई। द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में वित्तीय पूँजी का अनुत्पादक चरित्र अचम्भित कर देने वाली गति से बढ़ा। पूँजी का बड़े से बड़ा हिस्सा शेयर मार्केट, विज्ञापन जगत और सट्टेबाज़ी में लगने लगा। उत्पादक पूँजी का अनुपात कुल पूँजी में घटते हुए आज 10 से 20 प्रतिशत रह गया है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अतिउत्पादन को खपाने का एक नायाब तरीका साम्राज्यवाद ने निकाला। यह था उपभोक्ताओं को ऋण देकर उपभोग करवाना और उस ऋण के सूद पर मुनाफ़ा कमाना। ऐसे में एक वित्तीय बाज़ार का सामने आना लाज़िमी था। अब वित्तीय पूँजी उत्पादन को ही नहीं उपभोग को भी संचालित कर रही थी। ऋण भी एक माल बन गया और उसी तरह वित्तीय बाज़ार में बिकने लगा जैसे मालों के बाज़ार में माल बिकते हैं। लेकिन इस बाज़ार में भी देर-सबेर वही संकट आना था जो मालों के बाज़ार में पहले ही आ चुका था। यह था पूँजी की प्रचुरता, जिसे माल के बाज़ार के मामले में हम अति-उत्पादन कहते हैं। मौजूदा संकट वित्तीय बाज़ार में पहले तो पूँजी की प्रचुरता के संकट के रूप में सामने आया और अब और विकराल रूप में मुद्रा की कमी के संकट के रूप में सामने आया। कारण यह है कि अब जनता के पास इतनी क्रय शक्ति भी नहीं रह गयी है कि वह वित्तीय पूँजी दैत्यों को सूद के रूप में मुनाफ़ा नियमित रूप से आपूर्ति कर सके। नतीजे के तौर पर लोगों ने ऋण लेकर उपभोक्ता खरीदारी तो की लेकिन उस ऋण को चुका नहीं पाए। लिहाज़ा, सारी पूँजी वस्तु रूप ग्रहण करके बैठ गई और बैंकों और वित्तीय संस्थानों के पास तरलता का संकट पैदा हो गया, जिसका अर्थ है मुद्रा पूँजी का अभाव। लेकिन साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि यह मूलतः पूँजीवाद के उसी गुप्त रोग के कारण पैदा हुआ है जिसका इलाज पूँजीवाद के पहले बड़े गुप्त रोग विशेषज्ञ कीन्स ने करने की असफ़ल कोशिश की थी। दरअसल, पूँजीवाद की अन्धी हवस उसे इस गुप्त रोग से मुक्त होने ही नहीं देगी। यह पूँजीवाद की प्रकृति और स्वभाव है। गुप्त रोग विशेषज्ञ इस पर सिर्फ़ संयम की राय दे सकते हैं। संयम बरतना या न बरतना तो पूँजीवाद के हाथ में होता है। और इतिहास बताता है कि थोड़ा बहुत संयम बरतने के बाद ही फ़िर उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फ़िर वह अपनी हवस के वशीभूत होकर उसी काम में लग जाता है जिसके कारण उसे गुप्त रोगों का कोप झेलना पड़ता है।

आज के गुप्त रोग विशेषज्ञों की नयी पौध भी यही काम कर रही है। इसमें कई प्रकार के गुप्त रोग विशेषज्ञ हैं। कुछ शाही शफ़ाखाना खोलकर बैठे हैं और वहाँ इलाज की गारण्टी देने का दावा कर रहे हैं। कुछ थोड़ा ज़्यादा प्रशिक्षित हैं जो वेनरल डिज़ीज़ सेण्टर खोलकर बैठे हैं। लेकिन सबकी सलाह एक ही है-आत्म संयम! क्योंकि वे भी जानते हैं कि इस बीमारी का कोई इलाज मौजूद नहीं है।

ऐसे ही एक प्रमुख गुप्त रोग विशेषज्ञ हैं जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़। यह आज के ज़माने के नामी-गिरामी अर्थशास्त्री हैं और गुप्त रोग के इलाज में इनकी सेवाओं के लिए इन्हें पूँजीपतियों ने नोबेल पुरस्कार से भी नवाज़ा है। जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ मन्दी के शुरू होने के बाद भारत आए थे। एक भाषण में उन्होंने मन्दी और पूँजीवाद के भविष्य के बारे में बताते हुए कहा कि यह मन्दी पूँजीवाद का अन्त नहीं करेगी। लेकिन इसके लिए पूँजीवाद को चाहिए कि वह थोड़ा संयम बरते। मुनाफ़ा कमाने की हवस को पूरी तरह खुल्ला न छोड़ दे। स्टिग्लिट्ज़ महोदय ने बताया कि अगर विनियामक एजेंसियों को ठीक-ठाक कर दिया जाय और सरकार कुछ क्षेत्रों को बाज़ार की अन्धी शक्तियों की दया पर न छोड़ दे तो पूँजीवाद टिका रह सकता है। ज्ञात हो कि यह महोदय भूमण्डलीकरण के मानवीय चेहरे की बात करते हैं और दुनिया भर की सरकारों और वित्तीय एजेंसियों को भूमण्डलीकरण को कारगर बनाने के नुस्खे सुझाते हैं। इनकी एक पुस्तक का नाम ही मेकिंग ग्लोबलाइज़ेशन वर्क है। यह पूँजीवाद के लिए एक अच्छे गुप्तरोग विशेषज्ञ साबित हुए हैं।

एक अन्य प्रमुख गुप्तरोग विशेषज्ञ के बारे में हम गर्व से कह सकते हैं कि वह हमारे महान देश से सम्बन्ध रखते हैं। इन्हें भी इनकी चिकित्सीय सेवाओं के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। जी हाँ, हम महान चिकित्सक, माफ़ कीजियेगा, अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की बात कर रहे हैं। यह तो पूँजीवाद को और ज़्यादा सन्त बन जाने की सलाह देते हैं और बाज़ार में राज्य हस्तक्षेप की वकालत करते हैं। अमर्त्य सेन क्लासिकीय गुप्त रोग विज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं। इन्होंने पूँजीवाद के दायरे में रहते हुए ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसे रोगों पर काबू पाने के लिए अचम्भित कर देने वाली पुस्तकें लिखी हैं। इन्होंने भी इस मन्दी पर दिये गये भाषण में सरकार को चेताया है कि अगर सार्वजनिक मदों पर ख़र्च नहीं बढ़ाया गया तो गुप्त रोग के परिणाम गम्भीर हो सकते हैं।

लेकिन पूँजीवाद के गुप्त रोगों के इलाज के लिए रिसर्च एण्ड डेवेलपमेण्ट विंग में तो कुछ और ही धुरन्धर काम कर रहे हैं। ये हैं नकली वामपंथी अर्थशास्त्री, जैसे कि प्रभात पटनायक, उत्सा पटनायक, सी.पी.चन्द्रशेखर, जयति घोष आदि, आदि। इन लोगों ने जो ज़बर्दस्त सेवाएँ प्रदान की हैं अब तक उन्हें उनके लिए नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया है। लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि बुढ़ाते-बुढ़ाते उनको भी मिल ही जाएगा! मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के इनके ज्ञान का पूँजीवादी सत्ता आजकल काफ़ी इस्तेमाल कर रही है। ज्ञात हो कि आर्थिक संकट से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया है। इसमें चार सदस्य हैं जिनमें से एक प्रभात पटनायक हैं। कल तक पूँजीवाद की आर्थिक आलोचना करने वाले मार्क्सवादी अर्थशास्त्री आज पूँजीवाद को उसके संकट से निजात पाने के नुस्खे बताएँगे। ग़ौरतलब है कि इस समिति के अध्यक्ष जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ हैं। यह है संशोधनवादी मार्क्सवादियों की असली नस्ल। इन्होंने वाकई साबित कर दिया है कि ये पूँजीवाद की आख़िरी सुरक्षा पंक्ति हैं। इससे ज़्यादा किसी सबूत की आवश्यकता नहीं हो सकती है। सी.पी.चन्द्रशेखर और जयति घोष जैसे गुप्त रोग विशेषज्ञ तमाम पत्र-पत्रिकाओं में कीन्सियाई नुस्खे सुझाते रहते हैं। इनका ज़्यादा ज़ोर इस बात पर रहता है कि राज्य को बाज़ार और कल्याण में एक “द्वन्द्वात्मक” तालमेल स्थापित करना चाहिए! क्योंकि ऐसे कल्याण के बग़ैर छुट्टा पूँजीवाद को समाज को बग़ावत की तरफ़ ले जाएगा। इसलिए छुट्टे पूँजीवाद के कन्धे पर बैठकर उसके कान में संयम मंत्र जपते रहते हैं और कल्याण का राग सुनाते रहते हैं।

लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि ये सभी दिल ही दिल जानते हैं कि पूँजीवाद के इस गुप्त रोग का कोई इलाज नहीं है। उसको कुछ भी सकारात्मक दे पाने की नपुंसकता से कोई मुक्ति नहीं मिल सकती है। इसलिए जो अधिक से अधिक किया जा सकता है कि उसके नकारात्मक उपोत्पादों, जैसे भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, मन्दी आदि पर पर्दा डाला जाय, उसके असर के अहसास को जनता के मस्तिष्क पर धुंधला बनाया जाय। लेकिन यह गुप्त रोग पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है। सारे शाही शफ़ेखाने और वेनरल डिज़ीज़ सेण्टर पहले भी फ़ेल हो चुके हैं और फ़िर फ़ेल ही होंगे। पूँजीवाद का असल इलाज पौरुष की दवा देने वाले इन हकीमों के पास नहीं है। वह जनता के पास है। और वह इलाज है पूँजीवाद को हर प्रकार के दुनियावी ताप से मुक्ति देकर ताबूत में पहुँचा देना!

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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