महँगाई : कितनी और क्यों ?
कमरतोड़ महँगाई : पूँजीपति वर्ग द्वारा वसूला जाने वाला एक ‘‘अप्रत्यक्ष कर’’
शिशिर
18 सितम्बर को जारी महँगाई–सम्बन्धी आँकड़े के मुताबिक मुद्रास्फीति की दर 12.14 प्रतिशत पर पहुँच गई । हर शुक्रवार को (एकाध अपवादों को छोड़कर) मुद्रास्फीति की दर लगातार ही बढ़ती रही है । यह प्रक्रिया विशेष रूप से पिछले वर्ष के अन्त से शुरू हुई और इस वर्ष के मार्च–महीने से यह ‘टॉप गियर’ में चल रही है । मीडिया में मुद्रास्फीति की बढ़ती दर सुर्खी भी तभी बनी जब मार्च–अप्रैल में ख़तरे की घण्टी बजी । मुद्रास्फीति बढ़ उसके पहले से ही रही थी । देर से सुर्खियों में आने का कारण साफ है । भारत में बढ़ती मुद्रास्फीति एक आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक परिघटना है । भारत के विशाल मेहनतकश वर्ग को जो तनख्वाहें मिलती हैं उसमें महँगाई की दर समायोजित नहीं होती । नतीजतन, अगर मुद्रास्फीति की दर में मामूली वृद्धि भी होती है तो उसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव आम आदमी की वास्तविक आय और क्रय क्षमता पर पड़ता है । ऐसे में, मुद्रास्फीति की बढ़ती दर वोट बैंक राजनीति के समीकरणों को आसानी से खड़बड़ा देती है । सभी पूँजीवादी पार्टियों के लिए वोट बैंक राजनीति की माँग के मुताबिक महँगाई एक केन्द्रीय मुद्दा बन जाता है । अब यह बात दीगर है कि पूँजीपति वर्ग की ही प्रतिनिधि होने के चलते इनकी आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है और इन भूमण्डलीकरण और नवउदारीकरण की नीतियों के तहत मुद्रास्फीति बढ़ेगी ही और महँगाई आम मेहनतकश आबादी की कमर तोड़ेगी ही । महँगाई कांग्रेस, भाजपा, संसदीय वामपंथियों और सपा–बसपा आदि जैसी तमाम पार्टियों के लिए महज़ एक चुनावी मुद्दा है । महँगाई पर काबू पाना न तो उनका इरादा है और न ही उनके बूते की बात है ।
महँगाई के ख़बर बनने में देरी की एक और वजह थी । महँगाई पर जो आँकड़े सरकार जारी करती है वह थोक कीमतों पर आधारित मुद्रास्फीति दर दोहरी संख्या में नहीं आई या जब तक यह स्पष्ट नहीं हो गया कि मुद्रास्फीति की दर दहाई के आँकड़े को पार कर जाएगी तब तक यह मीडिया में ख़बर नहीं बनी । क्योंकि भूमण्डलीकरण के दौर में दहाई से नीचे रहने वाली 6–8 प्रतिशत तक वाली मुद्रास्फीति की दर को सामान्य माना जाता था । मार्च 2008 में जब थोक कीमतों पर आधारित मुद्रास्फीति 7 प्रतिशत के करीब थी, उस समय दुग्ध उत्पादों में इसकी दर 9.28 प्रतिशत, वनस्पति तेल में 19.03 प्रतिशत, लोहे और इस्पात में 26.86 प्रतिशत थी ।
वर्ष 2008 में महंगाई की दर नाटकीय रूप से बढ़ी । फरवरी के पहले सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर 4 प्रतिशत से थोड़ी अधिक थी । 2007 की फरवरी में यह दर साढ़े छह प्रतिशत थी । नवम्बर 2007 तक मुद्रास्फीति की दर लगातार गिरती रही और 3 प्रतिशत के करीब पहुँच गयी । इसके बाद मुद्रास्फीति की दर बढ़नी शुरू हुई और मार्च 2008 का अंत होते–होते मुद्रास्फीति की दर 7 प्रतिशत के करीब पहुँच गयी । और सितम्बर 2008 के मध्य तक मुद्रास्फीति की दर दोहरे आँकड़े को पार करते हुए सवा बारह के करीब पहुँच चुकी है । तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अभी दोहरे अंक की मुद्रास्फीति को लम्बे समय तक झेलना होगा और विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जो दयनीय हालत है उसमें यह दर 17–18 प्रतिशत तक भी पहुँच सकती है । चूँकि खुदरा मूल्यों में यह दर दूनी है, इसलिए यह और भी अधिक चिन्ता का विषय है ।
इस मुद्रास्फीति की दर का क्या कारण है ? वित्तमंत्री महोदय ने इसके तीन कारण बताये हैं । पहला कारण है विश्व भर में बुनियादी वस्तुओं के मूल्यों में बढ़ोत्तरी, मिसाल के तौर पर पेट्रोलियम उत्पादों, खनिजों और धातुओं के मूल्यों में बढ़ोत्तरी । लेकिन आँकड़े बताते हैं कि अगर यह कोई कारण है तो जून 2006 से पहले महँगाई और अधिक होनी चाहिये थी जब ये सभी उत्पाद और अधिक महँगे थे ।
कीमतों में बढ़ोत्तरी का दूसरा कारण चिदम्बरम के अनुसार उच्च आर्थिक वृद्धि की दर है जो उपभोग की दर को बढ़ा देती है जिसके कारण माँग–आपूर्ति का समीकरण अव्यवस्थित हो जाता है और अस्थायी रूप से कीमतों में वृद्धि होती है । अगर कारण यह है तो क्रान्ति के तुरन्त बाद के रूस और चीन में कीमतों में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए थी । यह कारण उत्पादन में होने वाली बढ़ोत्तरी की उपेक्षा कर बाजार के कारण पैदा होने वाली कमी का ठीकरा जनता के सिर फोड़ता है । भारतीय जनता का प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग 1980 के दशक से भी नीचे है, लेकिन खाद्यान्नों की कीमतें फिर भी आसमान छू रही हैं । यह कारण इस परिघटना की व्यख्या नहीं कर सकता ।
चिदम्बरम महोदय ने जो तीसरा कारण बताया वह था फलों के चौपट होने के कारण आपूर्ति में हुई कमी । लेकिन यह आपूर्ति की कमी वास्तव में फसलों के चौपट होने से नहीं बल्कि बुनियादी खाद्य सामग्रियों के बाजार में होने वाली सट्टेबाज़ी, जमाखोरी और इजारेदारी के कारण हुई है ।
चिदम्बरम जी मालिकों, कारपोरेट घरानों और पूँजीपति वर्ग के एक कुशल मुनीम हैं । लेकिन अराजक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मनमौजी गति को नापना कुशल से कुशल मुनीम की औकात के बाहर है । कई बार सबकुछ जानते हुए भी मामला हाथ से निकल जाता है । क्योंकि पूँजी की एक अपनी गति होती है और पूँजीपति वर्ग पूँजीवाद को मन–मुआफिक ढंग से नहीं चला सकता । मुद्रास्फीति के रूप में पूँजीवाद के समक्ष संकट आवर्ती अंतराल पर आता रहता है । पूँजीवादी मुनाफे के दर में सतत गिरते जाने की प्रकृति होती है । इसका कारण यह होता है कि पूँजीवादी उत्पादन बढ़ता ही इस कीमत पर है कि वह व्यापक मेहनतकश जनता को उसकी क्रय क्षमता से वंचित करता जाता है । उत्पादन तो बढ़ता जाता है लेकिन उसे खरीदने की क्षमता से लैस आबादी कम होती जाती है । नतीजतन माल से बाज़ार पटा रहता है लेकिन वह मुद्रा में तब्दील होकर पूँजीपति वर्ग के पास वापस नहीं लौटता । मुनाफे की गिरती दर से निपटने के लिए और अपने लाभ को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग को और अधिक निचोड़ने के लिए मुद्रास्फीति के औज़ार का उपयोग करता है । मज़दूरों की मज़दूरी को सीधे न घटाकर पूँजीवाद मुद्रा का अवमूल्यन करता है जिसके कारण मज़दूरों की तनख्वाहों में कोई कमी नहीं होती (कभी–कभी तो बढ़ोत्तरी होती है) लेकिन उनकी वास्तविक आय घट जाती है । ‘प्रॉफिट क्रंच’ से निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग अक्सर ही मुद्रास्फीति का सहारा लेता है । बढ़ती महँगाई पूँजीपति वर्ग के लिए परेशानी का सबब नहीं होता बल्कि जश्न का मौका होता है । कीमतें जितनी ऊपर हों, उनका उतना ही लाभ होता है । पूँजीवाद जनता से एक कर तो अपनी राजकीय कर व्यवस्था द्वारा लेता है और दूसरा कर वह परोक्ष रूप से महँगाई बढ़ाकर लेता है । यही वह अनौपचारिक अप्रत्यक्ष कर है जिससे पूँजीपति वर्ग अपने घाटे से निपटने की कोशिश करता है । बताने की आवश्यकता नहीं है कि लम्बे दौर में यह पूँजीवाद के लिए आत्मघाती सिद्ध होता है ।
यही वह बुनियादी कारण है जिससे पूँजीवाद में महँगाई हमेशा बढ़ती है । इस कारण के अतिरिक्त वर्तमान मुद्रास्फीति की दर के पीछे कई ढाँचागत और तात्कालिक कारण काम रहे हैं जो पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की कलई खोलकर रख देते हैं । इन कारणों की समीक्षा भी यहाँ अनिवार्य है ।
पहला कारण, जो कि एक ढाँचागत कारण है, वह है उदारीकरण की नीतियाँ । भूमण्डलीकरण के पूरे दौर में यह देर–सबेर होना ही था कि विशाल एग्रो–बिजनेस कम्पनियों को भारत के खाद्यान्न बाजार में सीधा व्यापार करने की इजाजत मिले । इस व्यापार से एक–एक करके सारी बाधाएँ और निषेधाज्ञाएँ खत्म की जा रही हैं । इससे कारगिल आदि जैसी विशाल कम्पनियों के लिए खाद्यान्न की जमाखोरी करना बेहद आसान हो गया है । ये कम्पनियाँ धनी किसानों और कुलकों को कहीं ज्यादा पैसा दे रही हैं और मुनाफे की हवस के चलते ये कुलक और बड़े किसान सरकार को खाद्यान्न बेचने की बजाय निजी कम्पनियों को अनाज बेच रहे हैं । नतीजतन, मौजूदा वित्तीय वर्ष में एफ.सी.आई. के लिए माँग की आपूर्ति के लिए आवश्यक न्यूनतम अनाज स्टॉक जुटाना भी मुश्किल हो रहा है । इसका इलाज पहले सरकार खाद्यान्न का आयात करके कर रही थी । लेकिन पिछले वर्ष से वैश्विक खाद्यान्न कीमतों को दी जाने वाली कीमतों से भी ऊँची कीमतों पर खाद्यान्न का आयात कर रही है । नतीजतन पूरी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ही लकवा मार गया है और महँगाई की सीधी मार आम ग़रीब जनता पर पड़ रही है । एक पूँजीवादी व्यवस्था में इस किस्म का उदारीकरण अवश्यम्भावी था । इस पर ‘कल्याणकारी’ राज्य और कींसियाई नुस्खों की वकालत करना संशोधनवादियों और संसदीय वामपंथी का काम है । सच तो यह है कि पूँजीवाद का वह ‘कल्याणकारी’ युग अब नहीं लौट सकता है ।
महँगाई बढ़ने का दूसरा कारण है भारतीय पूँजीवादी राजनीति में कुलकों–फार्मरों की एक शक्तिशाली लॉबी की मौजूदगी जो वोट बैंक राजनीति के समीकरणों के कारण सभी चुनावी पार्टियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है । सरकार द्वारा धनी किसानों को दिये जाने वाले लाभकारी मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस–न्यूनतम समर्थन मूल्य) में हाल ही में भारी वृद्धि की गयी । किसानों के करोड़ों रुपये के कर्जों को माफ किया गया जिसकी भरपाई सरकार सब्सिडियों में कटौती करके करेगी, जिसकी सीधी मार ग़रीब जनता पर पड़ेगी । धनी किसान देश के बड़े औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के ही कनिष्ठ साझेदार हैं जो मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दबाव डालते रहते हैं । पूँजीपति वर्ग वक्तन–ज़रूरतन कभी इसके सामने झुकता है तो कभी नहीं । यह आन्तरिक दोस्ताना अन्तरविरोध कभी नर्म होता है तो कभी गर्म । लेकिन आम ग़रीब मेहनतकश आबादी के समक्ष ये दोनों एक हैं । अभी हाल ही में धान के लिए प्रति क्विण्टल कीमत को रु. 745 से बढ़ाकर रु. 1050 कर दिया गया । गेहूँ की दर रु. 850 प्रति क्विण्टल से बढ़ाकर रु. 1000 प्रति क्विण्टल कर दी गयी । इस प्रकार धनी किसानों का मुनाफे का लालच भी महँगाई को लगातार बढ़ा रहा है ।
महँगाई बढ़ने का तीसरा कारण है घरेलू बाजार में खाद्यान्न के व्यापार में निजी कम्पनियों को खुली छूट मिलना । इसके कारण भारतीय खाद्य निगम द्वारा अन्न प्राप्ति में भारी गिरावट आयी है । आँकड़ों के मुताबिक 2001–02 में कुल खाद्यान्न उत्पादन का 30 प्रतिशत सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आ रहा था । 2006–07 में यह सिर्फ 15 प्रतिशत रह गया । नतीजतन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली चरमरा गयी । खाद्यान्न बाजार में कम्पनियों की इजारेदारियों पैदा हो रही हैं और सरकारी नियंत्रण व विनियमन समाप्त होने और फ्यूचर्स ट्र्रेड (एक प्रकार से भावी कीमतों की सट्टेबाजी) को बढ़ावा मिलने से खाद्यान्न बाजार में सट्टेबाजी बढ़ रही है जो महँगाई को बढ़ावा दे रही है ।
महँगाई बढ़ने का चौथा कारण है तेल कीमतों में बढ़ोत्तरी । तेल एक बुनियादी वस्तु है और उत्पादन से लेकर वितरण तक इसके ईधन के रूप में उपयोग के कारण इसका मूल्य माल के मूल्य में स्थानान्तरित हो जाता है । लेकिन जनता के लिए तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी को सरकार अप्रत्यक्ष करों को घटाकर रोक सकती थी । इससे तेल कम्पनियों को कम कर देना पड़ता और वे उसी कीमत पर तेल बेचकर भी घाटे से बच सकती थीं । सरकार के राजस्व में इससे थोड़ी कमी आती जो प्रत्यक्ष करों को और बढ़ाकर रोकी जा सकती थी । लेकिन इससे दो लोगों को भार अधिक उठाना पड़ता-एक, इस देश के धनाढ्य वर्गों को और दो, सरकार को । अभी हाल ही में राष्ट्रपति और नेताओं के भत्ते में और बढ़ोत्तरी की गयी है । सरकार को अपने राजस्व में कटौती मंजूर नहीं है और धनिक वर्गों पर वह और बोझ डाल नहीं सकती । वह चाकरी ही इन वर्गों की करती है ।
पाँचवा कारण है धातु, खनिजों और अन्य बुनियादी वस्तुओं की अन्तरराष्ट्रीय कीमतों में वृद्धि । भूमण्डलीकरण से पहले के दौर में इन बदलावों से एक हद तक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बचाना सम्भव था । लेकिन भूमण्डलीकरण (जो कि पूँजीवादी व्यवस्था के समक्ष एकमात्र विकल्प था) के दौर में यह नामुमकिन हो गया है । अब विश्व बाजार में कीमतों को आने वाली हिचकी मात्र से घरेलू बाजार में भूकम्प आ जाता है । भूमण्डलीकरण के दौर में यह अनिश्चितता पूँजीवादी व्यवस्था का एक नैसर्गिक तोहफा है । एक बार हम फिर जयति घोष और सी.पी.चन्द्रशेखर जैसे अर्थशास्त्रियों से अपील करेंगे कि ‘कल्याणकारी राज्य’ और ‘मुक्त व्यापार’ पूँजीवाद की लाश पर स्यापा करना बन्द कर दें! उनकी उम्र पूरी हो चुकी थी । यह साम्राज्यवाद यानी इजारेदार पूँजीवाद का उत्तरतम दौर है-भूमण्डलीकरण का युग । इसके बाद पूँजीवाद ‘अंतरिक्षीकरण’ नहीं कर सकता । यही वह अंतिम सीमान्त है जहाँ तक वह पहुँच सकता था । इसलिए बेहतर है पूँजीवादी व्यवस्था की रूपरेखा से बाहर जाकर सोचें, बजाय ‘कल्याणकारी राज्य’ के प्रति नॉस्टैल्जिक होकर आँसू बहाने के!
आखिरी प्रमुख कारण है निर्यातकों की लॉबी के दबाव में आकर रुपये का सरकार द्वारा अवमूल्यन । पिछले वर्ष रुपया डॉलर के मुकाबले लगातार तगड़ा होता जा रहा था । इसके कारण विदेशी बाज़ार में भारतीय निर्यातकों को जो कमाई हो रही थी वह कम होती जा रही थी । क्योंकि वहाँ वे डॉलर में कमाते थे जो यहाँ आकर रुपये में बदलता था और अगर एक डॉलर में कम रुपये आने लगें तो वे भारत में “ग़रीब” होते जायेंगे । इसलिए रुपये का अवमूल्यन किया गया क्योंकि निर्यातक पूँजीपति लॉबी एक शक्तिशाली लॉबी है । ग़रीबों पर निर्यातकों के मुनाफे का बोझ डालते हुए रुपये का अवमूल्यन किया गया जिससे महँगाई तेजी से बढ़ी ।
इन छ: कारणों के स्वभाव और प्रकृति से आप स्वयं ही समझ गये होंगे कि महँगाई क्यों बढ़ी और इसके लिए कौन ज़िम्मेदार हैं । संसदीय वामपंथी महँगाई पर जुबानी जमाखर्च करते रहते हैं और कल्याणकारी नीतियों की वकालत करते रहते हैं । दरअसल, उन्हें अपने आपको मार्क्सवादी की बजाय कीन्सवादी कहना चाहिये । वे इस व्यवस्था की एक सुरक्षा–पंक्ति के रूप में पूरे मन से इन कल्याणकारी नीतियों की बात करते हैं और शासक वर्ग को जनअसंतोष से आगाह करते रहते हैं और अपनी बात–बहादुरी से जनअसंतोष पर ठण्डे पानी का छिड़काव करते रहते हैं । वे उदारीकरण की अंधाधुंध गति के समक्ष ‘स्पीड–ब्रेकर’ खड़े करने का काम करते हैं । इसे रोकना या व्यवस्था बदलना उनका इरादा भी नहीं होता । वे तो बस कीन्सीयाई खड़ाऊँ पहनकर धीरे–धीरे चलने का सुझाव देते हैं ताकि अधांधुंध पूँजी की लूट की मार के ख़िलाफ़ जनता बग़ावत न कर दे और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को ही न उखाड़ फेंके । जरूरत है कि जनता क्रान्तिकारी सिद्धान्तों से ग़द्दारी कर चुके इन रंगे सियारों को पहचाने और इन्हें किनारे लगा दे ।
इस विस्तृत विश्लेषण के बाद यह बताने की जरूरत नहीं है कि महँगाई की परिघटना पूँजीवादी व्यवस्था की एक स्वाभाविक परिघटना है । पूँजीवाद ऐसा हो ही नहीं सकता जिसमें जनता को महँगाई से निजात मिल सके । एक मुनाफा–केन्द्रित व्यवस्था हमें यही दे सकती है । इससे निजात सिर्फ एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकता है जो निजी मालिकाने के आधार पर मुनाफे की अंधी हवस पर न टिकी हो, जो सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक उत्पादन करती हो, जो सभी प्रकार के संसाधनों के साझे मालिकाने पर आधारित हो और जो योजनाबद्ध ढंग से काम करती हो, न कि अराजक ढंग से । संक्षेप में, महँगाई से मुक्ति एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकती है जिसमें उत्पादन राज–काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में हो ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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