पॉल क्रुगमान का दर्द
शिशिर
2006 के अन्त से विश्व पूँजीवाद जो मन्दी के भँवर में फँसा, तो अभी तक उबर नहीं सका है। वित्तीय पूँजीपतियों, जुआरियों और सट्टेबाज़ों के तुरत-फुरत मुनाफ़ा कमा लेने की हवस का शिकार एक बार फिर से दुनियाभर के मज़दूर और आम मेहनतकश लोग बने हैं। वास्तव में, जिसे मीडिया ने वित्तीय संकट का नाम दिया था, वह वास्तविक अर्थव्यवस्था में आया संकट ही था। साम्राज्यवाद के इस दौर में जब वित्तीय पूँजी पूरी तरह नियन्त्रक की स्थिति में है, तो वास्तविक अर्थव्यवस्था में आने वाले संकटों की अभिव्यक्ति भी कुछ ऐसी ही हो सकती है। 1870 में आये पहले विश्वव्यापी पूँजीवादी आर्थिक संकट के रूप में अब संकट सामने पेश होगा, इसकी उम्मीद कम ही है। वित्तीय इज़ारेदार पूँजीवाद के भूमण्डलीकरण के इस दौर में आर्थिक संकटों की अभिव्यक्ति भी इसी रूप में होगी। 2009 के अन्त और 2010 के शुरुआती महीनों में संकट की मार से ढिमलायी पूँजीवादी व्यवस्था थोड़ा-बहुत सँभलने की हालत में आती नज़र आ रही थी। लेकिन अब साबित हो गया है कि यह महज़ दृष्टिभ्रम था और एक मन्द संकट लम्बे समय तक जारी रहेगा, जो बीच-बीच में महामन्दी के गड्ढे में भी गिर सकता है। इस दीर्घकालिक संकट ने (जो वास्तव में 1970 के दशक से ही जारी है, क्योंकि पूँजीवाद ने उसके बाद से एक भी विचारणीय तेज़ी का दौर नहीं देखा है और समय-समय पर फुलाये गये वित्तीय पूँजी के सभी बुलबुले फूट गये) एक बार फिर साबित किया है कि पूँजीवाद इतिहास और विचारधारा का अन्त नहीं है।
लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सबसे किरकिरी हुई है पूँजीवाद की सेवा करने वाले तमाम अर्थशास्त्रियों की। आजकल के सबसे चर्चित और अर्थशास्त्र का नोबेल प्राप्त करने वाले अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमान की स्थिति काफ़ी निराशाजनक है। यही स्थिति पूँजीवाद के क्लासिकीय हकीम कीन्स के सभी चेलों की है। इन चेलों में भारत के प्रभात पटनायक से लेकर जयति घोष और सी.पी. चन्द्रशेखर शामिल हैं। ये सभी कल्याणवादी पूँजीवाद के पुजारी लगातार अपने-अपने देश की सरकारों के कन्धे पर बैठकर उनके कान में कीन्सियाई नुस्खों का जाप करते रहते हैं। लेकिन हमेशा की तरह कीन्सियाई नुस्खे मन्दी की मार खाये और जनअसन्तोष से भयाक्रान्त पूँजीवाद को केवल कुछ समय की राहत देते हैं। कारण यह है कि कीन्सियाई नुस्खों का मकसद पूँजीवाद का विकल्प पेश करना नहीं, बल्कि उसे विनाश से बचाना है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मुनाफ़े का तर्क आत्मघाती तरीक़े से काम करता है क्योंकि यह निजी मालिकाने और मुनाफ़े पर आधारित है। महँगाई और बेघरी का भी यही आलम है। क्रुगमान लगातार अख़बारों में कॉलम पर कॉलम रँगे जा रहे हैं। उनका कहना है कि अमेरिका और यूरोप के देशों को अभी लम्बे समय तक बजट घाटा उठाकर कल्याण कार्यों पर ख़र्च करना चाहिए। यह मन्दी अभी जाने वाली नहीं है। उनका कहना है कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो वही कहानी दोहरायी जायेगी, जो 1937 में हुई थी। उस समय भी 1931 तक चली महामन्दी के बाद 1937 में पहली बार अर्थव्यवस्था में सुधार आया था और सारे पूँजीवादी लुच्चे-लफंगे शेयर बाज़ारों के जुआघरों पर टूट पड़े थे और अर्थव्यवस्था बुरी तरह डगमगाकर फिर से औंधे मुँह गिर पड़ी थी। क्रुगमान का डर काफ़ी हद तक सही भी साबित हो रहा है। अमेरिका समेत यूरोप के तमाम उन्नत पूँजीवादी देशों में बेरोज़गारी और महँगाई पर काबू पाना फ़िलहाल तो बहुत दूर की कौड़ी नज़र आ रही है।
लेकिन क्रुगमान जैसे कल्याणवादी पूँजीवादी अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था में अपवादस्वरूप आने वाले तेज़ी के दौरों को छोड़ दिया जाये तो यह सम्भव नहीं होता कि कल्याणकारी कार्यक्रमों पर ख़र्च बढ़ाकर, रोज़गार पैदा करके, घरेलू माँग को बढ़ावा देकर, और ऐसे ही अन्य कार्यक्रमों को अपनाकर मन्दी को दूर करना सम्भव नहीं होता है। ऐसा क्यों होता है, इस पर हम कभी विस्तार से लिखेंगे। लेकिन फ़िलहाल एक सरल से तर्क को समझ लेना उपयोगी होगा। अगर पूँजीवादी राज्य बजट घाटा उठाते हुए कल्याणकारी कार्यक्रमों पर ख़र्च करते हुए रोज़गार पैदा करता है तो इससे मज़दूर वर्ग की मोलभाव करने की क्षमता बढ़ती है और मज़दूरी या वेतन में वृद्धि होती है। यह निजी पूँजीपतियों के मुनाफ़े के मार्जिन को घटाता है। पूँजीवादी राज्य पूरे पूँजीपति वर्ग की इच्छा के विरुद्ध जाकर ऐसे कार्यक्रम नहीं चला सकता है। कारण साफ है – पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती है और पूँजीवादी राज्य पूँजीवादी लूट की मशीनरी को सुचारू रूप से चलाते रहने वाले उपकरण की भूमिका निभाता है। यही कारण है कि भयंकर संकटों के दौरों को छोड़ दिया जाये तो पूँजीवादी राज्य और सरकार निजी पूँजीपतियों के फ़ायदे को निगाह में रखते हुए उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को ही लागू करता है। जनता की तकलीफ़ें जब तक विस्फोटक होने की हद तक न बढ़ जाये, तब तक पूँजीवादी राज्य हस्तक्षेप नहीं करता है।
लेकिन ज़ाहिर है क्रुगमान जैसे व्यवस्था-सेवक इस सच्चाई को नहीं समझ सकते या फिर समझ कर भी नासमझ बनते हैं और ‘विवेकवान पुरुषों’ की तरह पूँजीवादी व्यवस्था के संचालकों को भावी भयंकर विस्फोटों के बारे में सचेत करते रहते हैं। वास्तव में पॉल क्रुगमान, जोसेफ स्टिग्लिट्ज़, प्रभाट पटनायक, जयति घोष और सी.पी. चन्द्रशेखर जैसे अर्थशास्त्री कीन्सियाई अर्थशास्त्र के गुरुमन्त्र मुनाफ़े की हवस में आत्मघाती अराजक गति करती पूँजीवादी व्यवस्था की गति को कुछ नियमित करने में अपनी सारी ऊर्जा ख़र्च करते हैं। वास्तव में, सत्ता प्रतिष्ठानों में मोटी तनख़्वाहें उठाने वाले ये अर्थशास्त्री इसी सेवा का ही मेवा पाते हैं। जब इनकी ‘विवेकपूर्ण’ सलाहें नहीं मानी जाती हैं तो ये कुछ दुखी और बेचैन हो जाते हैं। पॉल क्रुगमान और उनके जैसे सभी कीन्स के चेलों का आज यही दर्द है कि पूरी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ता उनकी बात नहीं सुन रहे हैं और पूँजीवाद को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। लेकिन ये अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाते हैं कि व्यवस्था के पास भी और कोई विकल्प नहीं है। नियोजन और अराजकता के बीच जारी द्वन्द्व इस व्यवस्था के दायरे के भीतर हमेशा अराजकता की विजय के साथ समाप्त होता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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