अमेरिकी ”जनतन्त्र” की एक और भयावह तस्वीर!
अजय स्वामी
आजकल अमेरिकी सरकार की विदेशी मन्त्री हिलेरी बिल क्लिण्टन विश्व भर में ”शान्तिदूत” बनकर यात्रा कर रही हैं। वहीं दूसरी तरफ शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कने वाले राष्ट्रपति बराक ओबामा साहब भी दुनिया से “आंतकवाद” मिटाने की शपथ लेते हुए दिखते हैं और अब अफगास्तिान, इराक के बाद लीबिया और सीरिया में ”जनतन्त्र” कायम करने पर आमादा हैं। वैसे इन सबको ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि अमेरिका ”शान्ति” और ”जनतन्त्र” कायम करने में विश्व-गुरू की भूमिका निभा रहा है। लेकिन आप अगर अमेरिकी जनतन्त्र की असलयित देखना चाहते है तो आपको सिर्फ अमेरिकी जेलों पर ही एक नज़र डालने की ज़रूरत होगी। हमारे सामने अमेरिकी समाज की ऐसी भयावह तस्वीर पेश होगी जो असल में पूँजीवाद की लाइलाज बीमारियों से पैदा हुई हैं।
दुनिया में सबसे ज़्यादा कैदी अमेरिकी जेलों में है। आज कुल मिलाकर 29 लाख लोग अमेरिकी जेलों में बन्द हैं जिनमें से 16 लाख कैदी सज़ायाफ्ता हैं और बाकी न्यायाधीन हैं। केवल कैलिफोर्निया प्रान्त की जेलों में कैदियों की संख्या सबसे ज़्यादा 16 लाख है जो संख्या किसी छोटे शहर की आबादी के बराबर हो सकती है। दुनिया भर के कैदियों की कुल संख्या का पच्चीस प्रतिशत सिर्फ अमेरिका में है। वहीं अमेरिकी पूँजीपति वर्ग ने इसे भी एक उद्योग का दर्जा दे दिया हैं जिसके चलते अमेरिका में प्राइवेट जेलें भी खुल रही हैं! यहाँ कैदी अपनी हैसियत के हिसाब से अपनी सज़ा काटते हैं। इन प्राइवेट जेलों के मालिक राजनीतिक रूप से अपनी लामबन्दी कर रहे हैं जिसका उदाहरण पिछला चुनाव है जिसमें कि उन्होंने 22 लाख डालर चन्दे में दिए थे ताकि ज़्यादा से ज़्यादा कैदी प्राइवेट जेलों में आ सके। मौजूदा समय में तकरीबन 1,29,336 कैदी प्राइवेट जेलों में कैद हैं जिनमें महिला कैदियों की संख्या 1 लाख चौदह हज़ार है। वैसे भी कैदियों में ग़रीबों, अश्वेतों और बुजुर्गों की संख्या बहुत ज़्यादा हैं। इसका कारण यह है कि अमेरिकी समाज में ग़रीबी स्वयं एक अपराध है। वहाँ एक कहावत है कि आप तबतक दोषी हैं जब तक कि आप ग़रीब हैं। इस कारण ढेरों कैदी ऐसे हैं जो जेल से कभी जिन्दा बाहर ही नहीं आ पाते।
दूसरी तरफ अश्वेत कैदियों की संख्या श्वेत कैदियों के मुकाबले आठ गुना ज़्यादा हैं इनमें ज़्यादातर नशीले पदार्थों के सेवन के आरोप में बन्द हैं। जबकि नशीले पदार्थों के बारे में अनुसन्धान करने वाली तमाम संस्थाओं का कहना है कि इनका सेवन करने वालों की संख्या में अश्वेत और श्वेत लोगों के अनुपात में कोई अन्तर नहीं हैं। साफ तौर पर अश्वेत लोगों की ज़्यादा संख्या का ताल्लुक ग़रीबी और नस्लीय भेदभाव की सोच से है।
जाहिरा तौर पर अमेरिकी जेलों में कैदियों की बेतहाशा बढ़ती आबादी, विभिन्न किस्म के सामाजिक अपराधों में हो रही बढ़ोत्तरी, अमेरिकी न्याय व्यवस्था के अन्याय और उग्र होते नस्लवाद की परिघटना कोई अबूझ सामाजिक-मनोवज्ञैानिक पहेली नहीं है। हर घटना-परिघटना की तरह इसके भी सुनिश्चित कारण हैं क्योंकि अपराधों का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है। बढ़ते अपराधों का कारण आज अमेरिकी समाज के बुनियादी अन्तरविरोध में तलाशा जा सकता है। यह अन्तरविरोध है पूँजी की शक्तियों द्वारा श्रम की ताक़तों का शोषण और उत्पीड़न। जब तक कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन दमित-शोषित आबादी को कोई विकल्प मुहैया नहीं कराता, तब तक इस आबादी का एक हिस्सा अपराध के रास्ते को पकड़ता है। शुरुआत विद्रोही भावना से होती है, लेकिन अन्त अमानवीकरण में होता है। विश्वव्यापी मन्दी ने इस अन्तरविरोध को और भी तीख़ा बना दिया है।
इस मन्दी के कारण आज बेरोज़गारी की दरों में अभूतपर्व वृद्धि हो चुकी है, असमानता बढ़ी है और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा की बढ़ोत्तरी की ज़मीन तैयार हुई है। नस्लवाद और क्षेत्रवाद को भी खाद-पानी मिला है। ये सभी कारक अमेरिकी समाज के वंचित तबकों, खास तौर पर युवाओं में असन्तोष पनपने और अपराध बढ़ने के मुख्य कारण हैं। अमेरिकी पूँजीवाद की रुग्ण संस्कृति ने ही बन्दूक की संस्कृति को भी जन्म दिया है और बढ़ते अपराधों का एक कारण यह भी है कि अमेरिका में खिलौनों से भी आसानी से बन्दूक उपलब्ध होती हैं। साफ है कि दुनिया भर में ”जनतन्त्र” की ठेकेदारी करने वाला अमेरिकी शासक वर्ग अपने देश में ”जनतन्त्र” को कायम करने में नाकाम है! वास्तव में हम सभी जानते हैं अमेरिकी शासक वर्ग दुनिया की आम जनता पर जो युद्ध थोपता है उसका कारण जनतन्त्र की स्थापना नहीं होता। उसके पीछे असली इरादा होता है अमेरिकी कम्पनियों का मुनाफा सुरक्षित करना। और यही वह कारण है जिसके चलते अमेरिकी शासक वर्ग स्वयं अपने देश की आम जनता का भी दमन करता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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