राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना
आखिर गारण्टी किसकी और कैसे?

अजय

पिछले साल संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने दावा किया था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना के द्वारा वह बेरोज़गारों की एक बड़ी आबादी को रोज़गार मुहैया करा देगी। हालाँकि ऐसी कई योजनाएँ और दावे पहले भी औंधे मुँह गिर चुके हैं। इस योजना ने भी कोई नया तथ्य उद्घाटित नहीं किया है। अब तक के परिणामों पर नज़र डालने के साथ ही इस योजना की सच्चाई सामने आ जाती है। इस योजना के अन्तर्गत 11,300 करोड़ रुपये का मद निर्धारित किया गया था और 200 ग़रीब जिलों को इसे लागू करने के लिए चिन्हित किया गया था। लोगों को समस्या न हो इसके लिए 5 कि.मी. के दायरे में रोज़गार उपलब्ध कराने की बात की गयी, और नहीं तो 10 प्रतिशत अधिक मज़दूरी देने की बात कही गयी। मज़दूरी तय की गयी 50 रुपये प्रतिदिन तथा 15 दिन में रोज़गार उपलब्ध न करा पाने की स्थिति में “क्षमा“ माँगते हुए कुछ मज़दूरी देकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाने की पूरी व्यवस्था की गयी। इस योजना के तहत आने वाले व्यक्तियों को साल में 100 दिन रोज़गार देने की बात की गयी। अब यह सोचना तो उस व्यक्ति का काम है कि बाकी के 265 दिन वह क्या खाकर ज़िन्दा रहेगा! फ़िर भी कुछ लोगों को यह सुनकर खुशी हुई कि चलो सरकार कुछ तो कर रही है। उन्होंने सोचा कि 100 दिन के रोज़गार के एवज में 50 रुपये प्रतिदिन की दर से सालभर में 5000 रुपये तो मिल ही जाएँगे। हाँ, वे लोग भी बड़े खुश हुए जिन्हें इस योजना का कार्यान्वयन करना था!

यह रोज़गार गारण्टी योजना कारगर है या नहीं यह बात हम आगे रखेंगे, लेकिन पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि यदि वह कारगर होती तो भी यह सरकार का जनता पर कोई अहसान नहीं है। यह संविधान में किये गये रोज़गार के अधिकार के वायदे को ही पूरा करना होता। काश ऐसा ही होता! लेकिन इस योजना के तहत आवण्टित की गयी राशि ही सरकार के इस झुनझुने की असलियत को उजागर कर देती है। शुरुआत में 200 जिलों में 11,300 करोड़ रुपये की राशि के साथ इस योजना की शुरुआत ढोल-नगाड़े के साथ की गयी थी। गणना करने पर निकलता है कि प्रत्येक जिले के लिए औसतन 56.5 करोड़ रुपये की राशि की व्यवस्था की गयी थी। अभी पूरा साल भी न गुज़रा था कि कुल आवण्टित राशि तो 11,300 करोड़ से बढ़ाकर 12,000 करोड़ कर दी गयी लेकिन दूसरी तरफ़ जिलों की संख्या में 130 की अप्रत्याशित वृद्धि कर दी गयी। यानी अब प्रत्येक जिले को औसतन 56.5 करोड़ के स्थान पर 36.36 करोड़ ही मिल पाएँगे।

अब भी इस योजना के कुछ हिमायती यह दावा कर सकते हैं कि चलो कुछ लोगों को तो कुछ मिल ही रहा होगा। चलिये, एक बार फ़िर मान लिया जाय कि सरकार के मन में कोई खोट नहीं है। लेकिन मिली जानकारी के अनुसार इस योजना के पहले साल में 200 जिलों के 1.5 करोड़ से अधिक परिवारों ने पंजीकरण करवाया, लेकिन उसमें से सिर्फ़ 140 लाख परिवारों को ही रोज़गार मुहैया कराया जा सका, अर्थात 10 लाख से अधिक परिवारों को खाली हाथ रहना पड़ा। यदि 140 लाख परिवारों पर व्यय की गयी राशि की गणना 50 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 100 दिन के लिए की जाय तो कुल राशि 7000 करोड़ निकलती है अर्थात सरकारी मद में 4,300 करोड़ रुपये की बचत! यह तो बात रही कुछ बड़े आँकड़ों की। लेकिन समस्या यहीं ख़त्म नहीं होती बल्कि यहाँ शुरू होती है। जिन परिवारों को इस योजना के तहत रोज़गार मिला उन्हें भी यह रोज़गार साल में 100 दिन के लिए नहीं बल्कि औसतन 30 दिन के लिए ही मिला। ग्रामीण विकास मन्त्रालय के रिकॉर्ड स्वयं यह स्वीकारते हैं कि इस योजना के 33 प्रतिशत उद्देश्य ही प्राप्त किये जा सके हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ग्रामीण विकास मन्त्रालय जिस 67 प्रतिशत असफ़लता को स्वीकार करता है उसके अन्तर्गत 100 में से 70 दिनों की भुगतान राशि किसकी जेब में गयी?

इस योजना के निष्प्रभावी होने को समझने के लिए आँकड़ों को और स्पष्ट करना पड़ेगा। ग्रामीण मन्त्रालय के अनुसार योजना के शुरुआती वर्ष में योजना के व्यय हेतु 6201 करोड़ रुपये नकद के रूप में जुटाए गए और 3,500 करोड़ रुपये के मूल्य के अनाज की व्यवस्था की गयी। यानी कुल मिलाकर 9,701 करोड़ रुपये की व्यवस्था हुई जबकि कुल निर्धारित राशि 11,300 करोड़ थी। यानी 1,799 करोड़ की बचत! इसके बाद चकित करने वाली बात यह रही कि 9,701 करोड़ रुपये की राशि से सरकार केवल 4875 लाख मानव दिन के रोज़गार अवसर ही उपलब्ध करा पायी। यानी रोज़गार के दिन एक व्यक्ति को रोज़गार मुहैया कराने में सरकार करीब 199 रुपये का व्यय करती है, जबकि रोज़गार पाने वाले को मिलती है 50 रुपये की दिहाड़ी। बाकी 149 रुपये किसकी जेब में जाते हैं, यह कोई नहीं जानता।

समस्या यहाँ भी ख़त्म नहीं होती। अगर थोड़ी देर के लिए यह भी मान लिया जाय कि ऐसी योजना को चलाने में ख़र्च तो होता ही है, तो भी यह प्रश्न उठता है कि धरातल पर कितने लोग इससे लाभान्वित होते हैं। यदि ख़र्च की बजाय रोज़गार अवसर पर ही केन्द्रित करें तो भी सरकारी नीति पैबन्दसाज़ी के अलावा कुछ नज़र नहीं आती। जिन दो सौ जिलों में यह योजना लागू की गयी है उनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या 540 लाख है। सरकार वास्तव में इनके लिए 4460 लाख मानव दिन के रोज़गार अवसर ही सृजित कर सकी। इस लिहाज़ से एक परिवार को मात्र 14 दिन ही रोज़गार उपलब्ध हो पाएगा, यानी कि 50 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 700 रुपये प्रति परिवार। अब यह तो वित्तमन्त्री महोदय ही बता सकते हैं कि 5 लोगों के परिवार के लिए 700 रुपये सालाना क्या मायने रखता है! इस दर से हर व्यक्ति को 140 रुपये सालाना प्राप्त होंगे, यानी हर व्यक्ति को प्रति दिन 38 पैसे!! हालाँकि सरकार स्वयं मानती है कि किसी भी व्यक्ति को अपने आहार के लिए ही इससे कहीं ज़्यादा राशि की आवश्यकता पड़ती है। सरकार मेहनतकशों और ग़रीबों को 351 दिनों तक यह आश्वासन खिलाकर जिलाती है कि तुम्हारे रोज़गार के 14 दिन आने वाले हैं। ऐसी कोई योजना बेरोज़गारी को दूर नहीं कर सकती है। हाँ, वह सरकारी भ्रष्टाचारियों और घूसखोरों के लिए नियमित आमदनी का तोहफ़ा लेकर ज़रूर आती है।

हो सकता है कि कुछ लोगों को अब भी लग रहा हो कि जो भी हो इस योजना से कुछ तो होता है। इसलिए आइये, कुछ और आँकड़ों से सच्चाई को साफ़ करें। इस योजना के क्रियान्वयन के राज्य स्तर पर हुए सर्वेक्षणों के परिणाम तो इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से नंगा कर देते हैं। अपनी ग़रीबी और भुखमरी के लिए कुख्यात उड़ीसा के कालाहाण्डी जिला के जूनागढ़ ब्लॉक के बलदेवमल गाँव में नयी रोज़गार गारण्टी योजना के लिए 350 जॉब कार्ड दिये गये। वहाँ की ग्राम पंचायत के मन्त्री ने गाँव में 450 मानव दिन के रोज़गार के अवसर प्रदत्त कराने का दावा किया है। यानी एक परिवार को सिर्फ़ सवा दिन का रोज़गार ही प्राप्त होगा। सम्पूर्ण उड़ीसा की कुल जनसंख्या, जो 3 करोड़ 70 लाख है, में कुल 32 लाख जॉब कार्ड जारी किये गये, जिन पर महज 450 लाख मानव दिन का रोज़गार दिया गया। यानी एक परिवार को 14 दिन का रोज़गार मिला। उत्तर प्रदेश में यह संख्या 16 दिन है। गुजरात में सेण्टर फ़ॉर डेवेलपमेण्ट ऑल्टरनेटिव्स के सर्वेक्षण के अनुसार राज्य के छह जिलों के 5389 गाँवों को शामिल किया गया है। केन्द्र से इस योजना के अन्तर्गत 100 करोड़ रुपये का अनुदान मिला। लेकिन छह माह में 15.5 करोड़ रुपये का ही उपयोग किया जा सका है। इस प्रकार यह आँकड़े स्वयं यह स्पष्ट कर देते हैं कि सरकार वास्तव में किस वर्ग का भला चाहती है। इस तरह की योजनाएँ नौकरशाही और सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचारियों के लिए वरदान बनकर आती हैं जबकि उस ग़रीब जनता के जीवन को बेहतर बनाने में ये रत्ती भर भी योगदान नहीं करतीं जिसकी हालत पर घड़ियाली आँसू बहाते हुए सरकारें ऐसी योजनाएँ बड़े शोरगुल के साथ लागू करती हैं। ऐसी कुछ योजनाएँ हैं मिड डे मील, अन्त्योदय योजना, अन्नपूर्णा, लाडली, कन्याधन, आशा, आदि। लेकिन इनमें से किसी भी योजना के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सका है।

दरअसल, एक पूँजीवादी व्यवस्था के तहत बेरोज़गारी दूर की ही नहीं जा सकती। पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार भी यह नहीं चाहेंगे कि बेरोज़गारी पूरी तरह से दूर हो जाये। बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी की पूँजीवाद को हमेशा ही आवश्यकता रहती है जो रोज़गारशुदा मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता को कम करने के लिए पूँजीपतियों द्वारा इस्तेमाल की जाती है। अगर बेरोज़गार मज़दूर न हों और श्रम आपूर्ति श्रम की माँग के बिल्कुल बराबर हो, तो पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की हर माँग को मानने के लिए विवश होगा। इसलिए पूँजीपति वर्ग तकनोलॉजी को उन्नत करके, मज़दूरों का श्रमकाल बढ़ाकर एक हिस्से को छाँटकर बेरोज़गारों की जमात में शामिल करता रहता है। लेकिन जब बेरोज़गारी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है और सामाजिक अशान्ति का कारण बनने लगती है और सम्पत्तिवानों के कलेजे में भय व्यापने लगता है तो सरकार के दूरदर्शी पहरेदार कुछ ऐसी योजनाओं के लॉलीपॉप जनता को थमाकर उनके गुस्से पर ठण्डे पानी का छिड़काव करते हैं। यह व्यवस्था की रक्षा के लिए आवश्यक होता है कि कुछ ऐसे ‘चेक्स एण्ड बैलेंसेज़’ का तंत्र हो जो व्यवस्था की दूरगामी रक्षा का काम करता हो। जब पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की हवस में अन्धा होकर जनता को लूटने लगे और सड़कों पर धकेलने लगे तो कुछ कल्याणकारी नीतियाँ लागू कर दी जाती हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार में ऐसे तमाम पहरेदार–चौकीदार बैठे हैं जो समझते हैं कि कब जनता को भरमाने के लिए कोई कल्याणकारी झुनझुना उनके हाथ में थमा देना है। रोज़गारी गारण्टी योजना, अन्त्योदय योजना आदि ऐसे ही कुछ कल्याणकारी झुनझुने हैं जिनसे होता तो कुछ भी नहीं है लेकिन शोर बहुत मचता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्‍बर 2007

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।