संगठित क्षेत्र में भी बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि
इस वृद्धि दर का हम क्या करें?
शिवार्थ, दिल्ली
आजकल पूरे देश में हमारे सकल घरेलू उत्पाद में ज़बर्दस्त उछाल की, हमारे देश के पूँजीपतियों और अमीरज़ादों के लगातार विश्व के अरबपतियों और खरबपतियों के समकक्ष खड़े होने की, शेयर बाज़ारों में रिकॉर्ड उछाल की बातें ज़ोरों पर हैं। ये सभी आँकड़े देश के एक बहुत छोटे से हिस्से की खुशहाली के बारे में तो बता सकते हैं, परन्तु व्यापक स्तर पर ये देश की जनता के बारे में कुछ भी कहने में असमर्थ हैं। जो पैमाने देश की बहुसंख्यक आम आबादी को प्रभावित करते हैं वे हैं बेरोज़गारी, महँगाई, चिकित्सा, बिजली आपूर्ति आदि के आँकड़े।
आइये, इन्हीं में से एक और शायद सबसे महत्वपूर्ण आँकड़े, यानी बेरोज़गारी के आँकड़े की बात करते हैं। असंगठित क्षेत्र में रोज़गार की स्थिति और कामगारों की स्थिति में हम आह्वान में पहले भी लिखते रहे हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की स्थिति वास्तव में उजरती गुलामों जैसी है और यहाँ गुलाम शब्द का प्रयोग किसी साहित्यिक या आलंकारिक भाषा में नहीं किया जा रहा है। इससे हमारा मक़सद यह कत्तई नहीं था कि संगठित क्षेत्र में स्थिति काफ़ी अच्छी है। संगठित क्षेत्र की स्थिति भी कमोबेश उसी दिशा में बढ़ रही है। आइये संगठित क्षेत्र में रोज़गार की स्थिति पर एक नज़र डालते हैं।
प्राप्त आँकड़ों के अनुसार 15–29 वर्ष आयु वर्ग में सन् 2000 में रोज़गार दफ्तर में रोज़गार के लिए पंजीकरण कराने वालों की संख्या 2.92 करोड़ थी। यह 2004 में बढ़कर 2.99 करोड़ हो गयी। और 31 दिसम्बर 2006 में यह संख्या एक भारी उछाल मारकर 4 करोड़ तक पहुँच चुकी थी। स्वयं सरकारी आँकड़ों के अनुसार संगठित क्षेत्र में 2003–2006 के बीच रोज़गार में लगातार गिरावट दर्ज़ की गयी है। इन आँकड़ों में दो-तीन बातें गौर करने वाली हैं। सर्वप्रथम यह कि ये आँकड़े सिर्फ़ उन बेरोज़गारों के हैं जिन्होंने रोज़गार कार्यालयों में अपने नाम पंजीकृत कराए हैं। बेरोज़गारों का एक बहुत छोटा हिस्सा अपना नाम इन (बे)रोज़गार कार्यालयों में दर्ज़ कराता है क्योंकि ज़्यादातर नौजवानों को भरोसा ही नहीं कि इससे उन्हें रोज़गार मिल सकेगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये आँकड़े सिर्फ़ 15–29 वर्ष के बीच के आयु वर्ग के बेरोज़गारों के हैं, लेकिन बेरोज़गारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस आयु वर्ग के बाहर भी मौजूद है।
इन आँकड़ों के पीछे काम करने वाले कारणों को समझना भी महत्वपूर्ण है। एक कारण है संगठित क्षेत्र के उद्योगों में लगातार पूँजी सघन तकनीकों का प्रयोग। पूँजी सघन तकनीकों के प्रयोग का अर्थ है उन्नत तकनोलॉजी का प्रयोग करके उत्पादन की प्रक्रिया में मानवीय श्रम की भूमिका को कम से कम करते जाना। जिन उत्पादन प्रक्रियाओं में श्रम की भूमिका मुख्य होती है उन्हें श्रम सघन प्रक्रियाएँ कहा जाता है। उत्पादन में उन्नत तकनीकों का उपयोग श्रम की उत्पादकता को बढ़ा देता है। इसे अर्थशास्त्र की शब्दावली में श्रम सघनता (लेबर इण्टेंसिटी) को बढ़ाना कहते हैं। अभी भी जो पैदा होता है उसमें श्रम की भूमिका ही मुख्य होती है लेकिन कम श्रम में ही अब अधिक उत्पादन किया जा सकता है। श्रमिकों पर होने वाला व्यय पूँजीपति का नियमित व्यय होता है इसलिए वह हमेशा इस फ़िराक़ में रहता है कि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर इस व्यय को कम किया जाय, यानी श्रमिकों की छँटनी की जाय। मशीनों पर होने वाला व्यय पूँजीपति का नियमित व्यय नहीं होता। यह दीर्घकालिक निवेश होता है। उन्नत तकनीक का विरोध करना हमारा मक़सद कत्तई नहीं है। उन्नत तकनीक तो जनसाधारण के जीवन को अधिक से अधिक विविधतापूर्ण बना सकती है और उत्पादन प्रक्रिया को सरलतम और सर्वाधिक उत्पादक बना सकती है। लेकिन एक ऐसे समाज में जिसमें हर काम मुनाफ़े के लिए किया जाता है और मक़सद जनता के जीवन को वैविध्यपूर्ण और सुन्दर बनाना न हो वहाँ उन्नत तकनीक भी जनता के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होती है। सवाल तकनीक का नहीं है बल्कि उत्पादन सम्बन्धों का है।
कोई सन्त पूँजीपति चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकता कि उन्नत तकनीकों का प्रयोग करके उत्पादकता न बढ़ाए और उत्पादन की लागत कम न करे। क्योंकि ऐसा करने पर वह कीमत गिराने की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएगा तथा कोई और पूँजीपति उसे बाज़ार में निगल जाएगा। पूँजी की अपनी गति होती है और वह पूँजीपति की पीठ पर सवारी गाँठती है।
बेरोज़गारी का कारण उन्नत तकनीक नहीं है बल्कि वह उत्पादन प्रणाली व उत्पादन सम्बन्ध हैं जिनमें इन तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। बेरोज़गारी को तो वैसे ही बेहद कम किया जा सकता है अगर मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेना बन्द कर दिया जाय। मिसाल के तौर पर, भारत में मज़दूरों को आज 10 से 14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। उन्नत तकनीकों को बढ़ाकर तो लागत में सापेक्षिक कटौती की ही जाती है लेकिन साथ ही मज़दूरों के श्रम काल को बढ़ाकर उसमें निरपेक्ष रूप से भी कटौती की जाती है। ये दोनों परिघटनाएँ पूँजीवादी व्यवस्था में साथ-साथ घटित होती हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्नत तकनीकों का प्रयोग करके श्रमकाल को घटाया जाय और कामगारों के जीवन में भी मानसिक, सांस्कृतिक उत्पादन और मनोरंजन की गुंजाइश पैदा की जाय। लेकिन मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग स्वयं एक पशु में तब्दील हो चुका है। मज़दूर उसके लिए महज मशीन का एक विस्तार है, कोई इंसान नहीं, जिसे वह बेतहाशा निचोड़ता है। आज अगर मज़दूरों से 6 घण्टे ही काम लिया जाय तो भी रोज़गार के अवसरों में दो से ढाई गुना की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। लेकिन ऐसा इस पूँजीवादी व्यवस्था में असम्भव है। इसलिए बेहतर है विकल्प के बारे में सोचें।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्बर 2007
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!