शिक्षा में सुधार बनाम एनजीओकरण
(समयांतर, अगस्त 2005 में छपे देवेश्वर नारायण के लेख की संपादित प्रस्तुति)
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में शिक्षा के साम्प्रदायीकरण की जो मुहिम चली उसे यूपीए सरकार के राज में रोकने और शिक्षा को नई दिशा देने का काफ़ी शोर मचाया जा चुका है। लेकिन तमाम शोर–शराबे के बावजूद आज तक कुछ ठोस नहीं हुआ है। साम्प्रदायिक ज़हर से भरी पाठ्यपुस्तकें अब भी जारी हैं। जो कुछ हो रहा है, वह कई मामलों में इससे कम ख़तरनाक नहीं है।
‘बिन बोझ के शिक्षा’ के नारे के साथ एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और मॉडल पुस्तक निर्माण की योजना से तो ऐसा लग रहा है कि इससे जुड़े शिक्षाविद, शिक्षक और बुद्धिजीवी छात्रों का बोझ कम अपना बोझ ज्यादा कम करना चाह रहे हैं। प्रो. यशपाल जैसे वैज्ञानिक की अध्यक्षता में गठित 35 सदस्यों वाली राष्ट्रीय संचालन समिति और 21 राष्ट्रीय फ़ोकस समूहों का गठन कर लोगों में उम्मीद पैदा की गयी थी कि बदलते हुए विश्व ज्ञान और शिक्षण प्रणाली के संदर्भ में कुछ सार्थक काम होगा और सूचनाओं के अम्बार के बदले ज्ञान, पुस्तकों और परीक्षाओं को लेकर नई अवधारणा सामने आयेगी। लेकिन राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की समीक्षा से उभरे विचारों ने इन समितियों की कई सीमाओं को उजागर कर दिया है जिसका अन्तिम स्वरूप तो तब सामने आयेगा जब देश की नई पीढ़ी के भविष्य को निर्मित करने वाली मॉडल पुस्तकें और पाठ्यक्रम तैयार हो जायेंगे।
आरम्भ में एनसीईआरटी के पाठ्यचर्या निर्माण के राष्ट्रीय फ़ोकस समूहों में स्थानीय शिक्षाओं को नहीं के बराबर शामिल किया गया। इस घटना के बाद एन.सी.ई.आर.टी. के अकादमिक संगठन नासा ने आपसी सदस्यों की बैठक कर कृष्णकुमार के विरुद्ध एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें एक ओर यह आरोप लगाया गया कि निदेशक ने एन.सी.ई.आर.टी. के चार दशकों की शानदार अकादमिक परम्परा का अनादर किया है वहीं यह भी मांग हुई कि राष्ट्रीय फ़ोकस समूहों में स्थानीय शिक्षकों को शामिल किया जाये तथा एन.जी.ओ. तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय की अनावश्यक सहभागिता को खत्म किया जाये। इस प्रस्ताव का ड्राफ्ट केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को सौंपा गया जिसके बाद एन.सी.ई.आर.टी. के अकादमिशियनों को बड़े पैमाने पर पाठ्यचर्या निर्माण समितियों में सम्मिलित किया गया।
सर्वप्रथम निदेशक कृष्ण कुमार के नेतृत्व में निर्मित पाठचर्या निर्माण समितियों, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की नवीन रूपरेखा के कुछ हिस्से और भाषा शिक्षण के लिए निर्मित फ़ोकस समूह के अग्रणी सदस्यों के स्वरूप पर ध्यान दिया जाये तो स्पष्ट हो जायेगा कि इस कारवाँ की मंज़िल किस तरफ़ होगी। पहली बात तो यह कि निदेशक ने पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पुस्तक निर्माण का आधार दिल्ली प्रदेश के लिए एस.सी.ई.आर.टी. के माध्यम से अपने नेतृत्व में किये गये कार्य को बनाया है और बड़ी संख्या में लोगों को वहाँ से लाये हैं। उल्लेखनीय है कि एस.सी.ई.आर.टी. का पाठ एक प्रदेश के परिवेश को ध्यान में रखकर बनाया गया था और तथ्यों, अशुद्धियों को लेकर उसकी पुस्तकों की जबर्दस्त आलोचना भी हुई थी। जबकि एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ-निर्माण में एक व्यापक दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। इस दृष्टिकोण की पूर्ति के लिए निदेशक ने जिन लोगों को चुना है उनकी मुख्य भूमिका में अनेक ऐसे बुद्धिजीवी हैं जिनका प्राइमरी शिक्षा और शिक्षण की तकनीक एवं प्रणाली का कोई अनुभव और प्रकाशन नहीं है। मसलन हिंदी पाठ निर्माण की 6 से 12वीं कक्षाओं के लिए पुरुषोत्तम अग्रवाल मुख्य सलाहकार हैं जिनका ज्ञान विश्वविद्यालय के छात्र भी कम समझ पाते हैं। वहीं प्राइमरी स्तर के लिए मुकुल प्रियदर्शनी हैं, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कालेज के शिक्षा विभाग में भाषा विज्ञान पढ़ाती हैं। इसी समिति में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के रीडर अपूर्वानन्द भी हैं जिनका स्कूली शिक्षा पर क्या कार्य है, संभवतः कृष्ण कुमार ही बता सकते हैं। हाल में चमत्कारिक ढँग से हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू और संस्कृत भाषाओं और उनके साहित्य के पाठ निर्माण के मुख्य सलाहकार राष्ट्रीय सहारा के सलाहकार संपादक और आलोचक नामवर सिंह बनाये गये हैं। वह एक साथ कितनी संस्थाओं को सहारा देंगे और क्या नवीनतम जोड़ेंगे, गौरतलब है। पूरे राष्ट्रीय फ़ोकस समूहों में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से योग्यतम प्रतिनिधियों की खोज के बजाय ज्यादा स्थान दिल्ली विश्वविद्यालय को दिया गया है जहाँ से कृष्ण कुमार स्वयं एक अर्से तक जुड़े रहे हैं। तीसरी, केन्द्रीय संसाधन मंत्री अजुर्न सिंह के निर्देशन में निर्मित हो रहे इस पाठ-आन्दोलन में उनके सहित सुदीप बनर्जी, कृष्ण कुमार, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अशोक बाजपेयी आदि की लम्बी फ़ेहरिस्त है।
इस सन्दर्भ में एक नैतिक सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि नैतिकता कि दुहाई देने वाले कृष्ण कुमार ने महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की अनियमितताओं की जाँच समिति में होने के बावजूद अशोक वाजपेयी और अपूर्वानन्द को संस्थान की समितियों में क्यों रखा? या कम से कम उन्हें स्वयं उस समिति से हट जाना चाहिए था। अशोक वाजपेयी तो उसके कुलपति थे ही अपूर्वानन्द भी महत्वपूर्ण प्रशासनिक पद पर थे।
पाठ निर्माण और अन्यान्य क्षेत्र में एन.सी.ई.आर.टी. की भावी भूमिका किस तरह महत्वपूर्ण होने जा रही है, यह जान लेना भी जरूरी है। आज़ादी के 58 साल के अनुभव के बाद साफ़ है कि सरकारों की समानता पर आधारित शिक्षा की लाख घोषणाओं के बावजूद प्राइवेट स्कूलों और निजी प्रकाशकों की महँगी व तोड़ी-मरोड़ी गई पाठ सामग्रियों के कारण शिक्षा क्षेत्र में भयावह विषमता और अराजकता बढ़ी है। मूल्य निर्माण का नतीजा तो सामने है। ऐसे में निदेशक का यह कहना कि एन.सी.ई.आर.टी. का काम किताब निर्माण का व्यवसाय नहीं है, शिक्षा में आगामी सुधारों का संकेत दे देता है।
निदेशक ने बड़े पैमाने पर एनजीओ के हस्तक्षेप को पाठ-निर्माण में केवल स्वीकार ही नहीं किया है बल्कि किताब बनाने-छापने से लेकर पाठ्यक्रम बनाने आदि तक में भूमिका अदा करने का आह्वान किया है। हालाँकि नासा ने अर्जुन सिंह को दिये पत्र में एन.जी.ओ. के अनावश्यक हस्तक्षेप का कड़ा विरोध किया था, लेकिन इस दिशा में सक्रियता घटी नहीं है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की नवीनतम रूपरेखा में उपलब्ध विचार देखिए: ‘‘पिछले दशक की एक उल्लेखनीय घटना रही है शिक्षा से गैर सरकारी संगठनों और नागरिक समाज समूह से बड़े पैमाने पर जुड़ाव। गैर सरकारी संगठनों ने स्कूलों, शिक्षण-प्रशिक्षण, पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी, पाठ्य सामग्री के समुदाय में प्रचार-प्रसार करने में बड़ी भूमिका निभाई है। स्कूलों से उनका औपचारिक जुड़ाव, पाठ्यचर्या विकास, अकादमिक सहयोग, निरीक्षण और शोध के लिए आवश्यक है।’’ बात सिर्फ़ इतने पर ही नहीं ठहरी है। दो कदम और आगे बढ़कर सुझाव दिया गया है: ‘‘पाठ्य पुस्तकों को बढ़ावा देने के लिए जो अधिकाधिक तौर पर स्कूल द्वारा अनुमोदित हों, पाठ्यपुस्तक निर्माण में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देंगे।…गैर सरकारी संगठनों ने काफ़ी अच्छी पाठ्यपुस्तकें और सहायक सामग्री तैयार की है जिनका स्कूलों में उपयोग किया जा सकता है।’’
स्कूली शिक्षा के पूरे ढाँचे में निजी क्षेत्र और एनजीओ की बड़ी भूमिका की मांग के पीछे की मंशा को समझा जा सकता है। कोई भी निजी संस्था या एनजीओ मुनाफ़े के लिए ही प्रकाशन चलायेगा और सरकार की तरह रियायत देना तो किसी के लिए भी सम्भव नहीं है, यह किससे छिपा है। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि समाज के प्रति किसी भी तरह की जवाबदेही से मुक्त एनजीओ को मनमाने ढंग से शिक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र की विषयवस्तु तय करने का ज़िम्मा सौंपा जा रहा है। अनेक एनजीओ किस तरह पर्दे के पीछे से तय किये जाने वाले एजेंडे पर काम करते हैं यह कई मामलों में साफ़ हो चुका है। मज़े की बात यह है कि अपूर्वानन्द और पुरुषोत्तम अग्रवाल प्रत्यक्ष-परोक्ष एनजीओ से जुड़े रहे हैं। कहा जाता है कि एन.सी.ई.आर.टी. के उत्तर पूर्व क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान में प्रोफ़ेसर, रीडर और प्रिंसिपल की तकरीबन 10 सीटों पर एनजीओ से जुड़े लोगों की बहाली के लिए ही विज्ञप्ति में इन पदों के लिए किसी तरह के अकादमिक अनुभव की माँग नहीं की गयी है।
इतने अन्तरविरोधों और संकटों के बीच यदि शिक्षाविद हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी की वकालत और साहित्य के इतिहास एवं व्याकरण के अंत की बात कर रहे हैं तो हमें बड़े संकेत को समझ लेना चाहिए। बहुभाषिकता की बात नये पाठ निर्माण में केन्द्रीय मुद्दा बनी हुई है जिसमें भाषा के विभिन्न रूपों, मातृभाषा, बोलियों की बात तो समझ में आती है लेकिन इसकी ओट में पहली कक्षा से अंग्रेजी का समर्थन, वह भी हिन्दी की रोटी खाने वाले शिक्षकों के द्वारा समझ से परे की बात है। हिन्दी शिक्षक एवं लेखक अपूर्वानन्द का अंग्रेज़ी समर्थन में गोष्ठी में दिया तर्क दिलचस्प है। उनके विचार सुनिए: ‘‘गाँव-गाँव में अंग्रेज़ी के स्कूल पसर रहे हैं, हिन्दी प्रदेशों में अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह फ़ैल रहे हैं…और सोसलियोजी ऑफ़ लिटरेचर से सम्बन्धित पुस्तकें एम.ए. (हिन्दी) के विद्यार्थी न पढ़ पाते हैं, न समझ पाते हैं। इसलिए अंग्रेज़ी पहली कक्षा से लेकर 12वीं कक्षा तक अनिवार्य होनी चाहिए।’’ हमें नहीं भूलना चाहिए कि आज़ाद भारत के केन्द्रीय विद्यालयों में 10वीं कक्षा तक हिन्दी मातृभाषा या द्वितीय भाषा के रूप में अनिवार्य है। अब महज़ 8वीं कक्षा तक ही हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जायेगी। बहुभाषिकता के नाम पर अब तक राष्ट्रभाषा व राजभाषा न बन पाने वाली हिंदी के संसार को संकुचित करना और इस बिन्हा पर अंग्रेज़ी का समर्थन साम्राज्यवाद के एजेंडे को आगे ले जाना नहीं है तो क्या है।
एक दिलचस्प परिघटना हिन्दी भाषा और साहित्य के संक्षिप्त इतिहास के 11वीं-12वीं कक्षा से अंत करने को लेकर है और दूसरी व्याकरण शिक्षण को लेकर। अब तक विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित इतिहास 11–12वीं के छात्रों को पढ़ाया जाता था जिसको विगत संस्करण में काफ़ी सरल कर दिया गया है। इतिहास चेतना के आलोचक नामवर सिंह की मुख्य सलाहकार का पद मिलते ही टिप्पणी थी कि इतिहास पढ़ाकर हमने जो भूल की इसके लिए क्षमा माँगता हूं। पुरुषोत्तम अग्रवाल मानते हैं कि लेखक परिचय में ही थोड़ी बहुत जरूरी चीजें डाल दी जायेंगी। बोझ कम करने के नारे में फ़ँसे ये लेखक इतिहास को रोचक, सरल और आस्वाद मूलक बनाने के बदले उसका अन्त करने पर तुले हैं। हाईस्कूल के छात्र अगर समाज, राष्ट्र और सभ्यता का इतिहास समझ सकते हैं तो साहित्य का इतिहास समझने में क्या दिक्कत है। दूसरी बात साहित्य के इतिहास से अलग साहित्यिक विधाओं का देरिदाई–फ़ूकोआई पाठ हमारे देश की इतिहास-चेतना के लिए कितना अनर्थकारी है, इस बात पर ये गौर नहीं करते। कितनी हैरानी की बात है कि पहली से अंग्रेजी चाहिए पर 11वीं से साहित्य का इतिहास नहीं। व्याकरण शिक्षण को लेकर इन शिक्षकों का कहना है कि भाषा की शुद्धता और व्याकरण फ़िजूल की बोरिंग चीज है। बच्चे चाहे तो बाज़ार से खरीद कर पढ़ें।
पाठ की मुक्ति और ख़ामोश इंकलाब के नाम पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि पाठ-निर्माण अनुभवहीनता की कार्यशाला नहीं है। तीन साल की उम्र में पांच हजार शब्द भण्डार वाले छात्रों को हाईस्कूल से भाषा की व्यवस्था के लिए व्याकरण जरूरी है, जिसके बिना एक शुद्ध और मानक भाषा की कल्पना कठिन है। यह सच है कि एक सरल, वर्णनपरक और व्यावहारिक व्याकरण तैयार करना बहुत मुश्किल है और यह बच्चों के संग बिताये गये लम्बे अनुभव का परिणाम होगा।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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