वर्ग समाज में भाषा स्वयं वर्ग–संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाती है-न्गूगी वा थ्योंगो

 

न्गूगी वा थ्योंगो व्यवस्था विरोधी, जनपक्षधर लेखकों की उस गौरवशाली परम्परा की कड़ी हैं, जो हर कीमत चुकाकर भी बुर्जुआ सत्ता प्रतिष्ठानों और सामाजिक ढाँचे के अन्तर्निहित अन्यायी चरित्र को उजागर करते रहे, जिन्होंने आतंक के आगे कभी घुटने नहीं टेके और जनता का पक्ष कभी नहीं छोड़ा। कलासाहित्य के क्षेत्र में आज सर्वव्याप्त अवसरवाद के माहौल में उनका जीवन और कृतित्व अनवरत प्रज्वलित एक मशाल के समान है। हिन्दी में उनकी एक और पुस्तक के शीघ्र प्रकाशन के अवसर पर हम आह्वानके पाठकों के लिए इस महान लेखक और भाषा एवं संस्कृति पर उनके विचारों का एक परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्पादक

केन्याई लेखक न्गूगी वा थ्योंगो की गणना बीसवीं शताब्दी के महानतम अफ्रीकी रचनाकारों में की जाती है। लेकिन सर्जनात्मक लेखन (उपन्यास, नाटक, कहानियाँ) के अतिरिक्त भाषा, संस्कृति, समाज और सत्ता के अन्तर्सम्बन्धों पर, और विशेषकर औपनिवेशिक और उत्तर–औपनिवेशिक समाजों में साम्राज्यवादी वर्चस्व (या जनसमुदाय के मानसिक उपनिवेशन के लिए) के सुदृढ़ीकरण के लिए भाषा, संस्कृति और शिक्षा के इस्तेमाल पर न्गूगी ने जो चिन्तन और लेखन किया है, उसके नाते उन्हें बीसवीं शताब्दी के अग्रतम सांस्कृतिक और भाषाशास्त्रीय चिन्तकों की पंक्ति में निर्विवाद रूप से शामिल किया जा सकता है। इसके साथ ही, न्गूगी ने अफ्रीकी महाद्वीप की राजनीतिक स्थिति, सत्तासीन होने के बाद अफ्रीकी बुर्जुआ वर्ग के चरित्र–परिवर्तन, साम्राज्यवाद के सहयोगी के रूप में उसकी भूमिका तथा राजनीतिक वर्चस्व एवं आर्थिक शोषण की जकड़बन्दी बनाये रखने के लिए साम्राज्यवादियों द्वारा अपनाये जाने वाले हथकण्डों का अपने लेखों और भाषणों में जितना प्रभावशाली उदघाटन किया है, उसे देखते हुए राजनीतिक विश्लेषक के रूप में उनकी प्रतिभा असन्दिग्ध है।

Ngugi

न्गूगी ने भाषा और संस्कृति पर विमर्श को आर्थिक– सामाजिक–राजनीतिक तन्त्र के विश्लेषण से अन्तर्सम्बन्धित किया है। उनका यह विश्लेषण निस्सन्देह कुशाग्र वैज्ञानिक विश्लेषण है। न्गूगी ने सभी जनपक्षधर अफ्रीकी लेखकों से, भाषा–संस्कृति विषयक अपनी मान्यता के अनुरूप, यह आह्वान किया कि उन्हें अंग्रेज़ी के बजाय अपनी मातृभाषाओं में लिखकर जनता के साथ संवाद कायम करना चाहिए और जनता के मानसिक उपनिवेशन के शासकवर्गीय षड्यन्त्र और वर्चस्व की राजनीति के विरुद्ध संघर्ष का मोर्चा खोलना चाहिए। उनकी मान्यता है कि औपनिवेशिक सांस्कृतिक हमले के प्रतिरोध के बीज संस्कृति में ही छिपे होते हैं, जो आगे चलकर मुक्ति आन्दोलन के निर्माण और विकास में सहायक होते हैं। भाषा के साम्राज्यवाद और उत्तर–औपनिवेशिक राज्य एवं संस्कृति के चरित्र के अतिरिक्त न्गूगी ने साम्राज्यवाद और क्रान्ति, नस्लवादी विचारधरा, साहित्य में नस्लवाद, राष्ट्रीय संस्कृति के लिए शिक्षा, स्कूलों में साहित्य का अध्ययन, अफ्रीकी साहित्य के विकास में बुद्धिजीवियों की भूमिका और अफ्रीकी साहित्य की भाषा आदि विषयों पर विपुल मात्रा में लिखा है। ये सभी प्रश्न भारतीय उपमहाद्वीप के बुद्धिजीवियों और जागरूक जनसमुदाय के लिए भी जीवन्त–ज्वलन्त प्रश्न हैं।

मगर न्गूगी के जीवन और कृतित्व से भारतीय भाषाओं के पाठक कम ही परिचित हैं। आनन्द स्वरूप वर्मा द्वारा अनूदित–सम्पादित न्गूगी के लेखों के दो संकलन ‘भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता’ तथा ‘औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति : शिक्षा और संस्कृति की राजनीति’ प्रकाशित हो चुके हैं। गत वर्ष नवम्बर में दिवंगत कवि, लेखक, पत्रकार रामकृष्ण पाण्डेय ने भी न्गूगी के कई लेखों का अनुवाद किया था, जो ‘आमुख’ और कुछ अन्य पत्रिकाओं में प्रकशित हुए थे। न्गूगी की पुस्तक पेनप्वाइण्ट्स, गनप्वाइण्ट्स ऐण्ड ड्रीम्स : टुवर्ड्स ए क्रिटिकल थियरी ऑफ दि आर्ट्स ऐण्ड दि स्टेट इन अफ्रीका’ का उनका अनुवाद कलम, बन्दूक की नोक और सपने : अफ्रीका में राज्य और कला के आलोचनात्मक सिद्धान्त की ओर’  शीर्षक से ‘परिकल्पना प्रकाशन’ से जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है। यह ऑक्सप़फोर्ड विश्वविद्यालय में न्गूगी द्वारा दिये गये चार भाषणों का, उन्हीं के द्वारा सम्पादित रूप है। पुस्तक में संकलित अपने भाषणों में न्गूगी कला और विचारों के वैश्विक और ऐतिहासिक परिदृश्य पर, दिक्–काल में स्वच्छन्द विचरण करते हुए प्लेटो से लेकर समकालीन दार्शनिकों तक, प्राक् प्राचीन मिस्‍त्र से लेकर उत्तर–औपनिवेशिक न्यूयॉर्क तक, मैकाले के औपनिवेशिक कार्यक्रमों से लेकर मार्क्स और माऊ–माऊ विद्रोह तक तथा कला और राज्य के बीच संघर्ष से लेकर उन खूबसूरत चीज़ों तक पर अपने विचार रखते हैं, जिनका जन्म अभी आने वाले दिनों की बात है।

न्गूगी वा थ्योंगो एक ऐसे लेखक, संस्कृतिकर्मी और विचारक हैं, जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और जीवन में कोई फाँक नहीं है। वे एक ऐसे रैडिकल वामपन्थी हैं, जो अपने विचारों के साथ–साथ व्यावहारिक क्रियाकलापों में भी आम लोगों के जीवन और संघर्षों से जुड़े रहे हैं तथा जेल, उत्पीड़न, यन्त्रणा और राज्य–प्रायोजित गुण्डों के हमलों का सामना करते हुए इसकी कीमत चुकायी है। वह पुस्तकालयों, सभागारों और अध्ययन–कक्षों तक सिमटे रहने वाले झींगुरी वृत्ति के प्राणी नहीं हैं। बौद्धिक अवसरवाद उन्हें छू तक नहीं गया है। विश्वव्यापी प्रसिद्धि ने न उनकी सरलता छीनी है, न ही उनकी रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाया है। पश्चिमी बौद्धिक प्रतिष्ठानों और पुरस्कार समितियों द्वारा उपेक्षा ने उन्हें कुण्ठित नहीं किया है। भूमण्डलीकरण की शीतलहर से न तो उनके हृदय की ऊष्मा क्षरित हुई है, न ही तमाम उत्तर– आधुनिकतावादी विचार–सरणियों से उनकी वैचारिक दृष्टि धुँधली हुई है।

‘दि ईस्ट अफ्रीकन स्टैण्डर्ड’ (8 सितम्बर, 2002) नामक अखबार में एक टिप्पणीकार ने लिखा था : पूर्वी और मध्य अफ्रीकी लेखकों में न्गूगी महानतम इसलिए हैं क्योंकि वे दक्षिणी अफ्रीका के पीटर अब्राहम और पश्चिमी अफ्रीका के चिनुआ अचेबे की तरह बड़े विषयों पर लिखते हैं।…. साहित्य में इन तीन लेखकों का वही दर्जा है जो राजनीति में क्वामे एन्क्रूमा, जोमो केन्याटा और नेल्सन मण्डेला का है।’‘ न्गूगी को महानतम अफ्रीकी लेखकों में से एक मानते हुए भी, हम समझते हैं कि अफ्रीकी राजनीति की महान हस्तियों के समकक्ष यदि खड़ा करना ही हो तो न्गूगी को अमिल्कर कबराल और पैट्रिस लुमुम्बा के साथ रखा जा सकता है। भूलना न होगा कि घाना में सत्ताच्युत होने से पहले एन्क्रूमा की आकर्षक एवं रैडिकल बातों और उनकी अमली राजनीति की फाँक स्पष्ट हो चुकी थी, केन्या में सत्तासीन होने के बाद जोमो केन्याटा की सरकार अन्तत: एक भ्रष्ट, उत्पीड़क और साम्राज्यवाद–परस्त सरकार बन गयी थी (जिसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की कीमत स्वयं न्गूगी को चुकानी पड़ी थी) और दक्षिण अफ्रीका में सत्तासीन होने के बाद स्वयं नेल्सन मण्डेला ने ही निजीकरण–उदारीकरण की नीतियों पर अमल की शुरुआत की थी, जबकि साहित्य की दुनिया में न्गूगी की प्रतिबद्धताएँ लगातार अविचल–अकुण्ठ बनी रही हैं।

औपनिवेशिक और उत्तर–औपनिवेशिक समाजों में भाषा, शिक्षा और संस्कृति से राजनीति के रिश्ते पर, यूँ कहें कि शिक्षा–संस्कृति और भाषा की राजनीति पर न्गूगी का चिन्तन कई मायनों में मौलिक है और ‘पाथब्रेकिंग’ है। इसमें भी भाषा के प्रश्न पर न्गूगी का चिन्तन विशेष तौर पर विचारोत्तेजक है। भाषा–प्रश्न पर मार्क्सवादी चिन्तन–परम्परा में रूसी भाषाशास्त्री वी–एन– वोलोशिनोव का चिन्तन सम्भवत: सर्वाधिक बुनियादी और मौलिक था। वोलोशिनोव (एन.वाई. मार्र की ‘क्लास रिडक्शनिस्ट’ पद्धति के विपरीत) भाषा के वर्गचरित्र के सिद्धान्त को नहीं मानते थे, न ही उसे अधिरचना का अंग मानते थे। वह भाषा को एक सामाजिक–विचारधरात्मक परिघटना मानते थे, पर भाषाई समुदायों के बीच के भेद को वह वर्ग–विभेद का सम्पाती नहीं मानते थे क्योंकि विभिन्न वर्ग एक ही भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उनकी महत्त्वपूर्ण स्थापना यह थी कि वर्ग समाज में भाषा स्वयं वर्ग-संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाती है, या यूँ कहें कि स्वयं भाषा के भीतर वर्ग-संघर्ष जारी रहता है। न्गूगी के पहले मार्क्सवादी भाषाशास्त्र ने भी इस प्रश्न पर सुसंगत और सांगोपांग ढंग से विचार नहीं किया था कि उपनिवेशवादियों ने किस प्रकार शिक्षा और संस्कृति के माध्यम के तौर पर, अपनी भाषा को उपनिवेशों की जनता पर लादते हुए, भाषा के मानसिक- बौद्धिक-सांस्कृतिक उपनिवेशन के उपकरण के तौर पर, राजनीतिक वर्चस्व (हेजेमनी) कायम करने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया। इसी भाषा में शिक्षा पाने वाले मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा औपनिवेशिक प्रशासनिक तन्त्र का कल-पुर्जा, उसके प्रति निष्ठावान था और जन-विरोधी था। इस शिक्षित मध्यवर्ग का जो व्यापक आम संस्तर राष्ट्रीय भावनाओं से प्रभावित हुआ और जनसमुदाय के साथ राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्षों का भागीदार बना, वह भी उपनिवेशवादियों की आरोपित भाषा में शिक्षित होने और उसी भाषा के जरिए सांस्कृतिक प्राणी बनने के नाते आम मेहनतकश जनता से दूर था, उसके साथ उसका परस्पर अविश्वास का रिश्ता था। इसी मध्यवर्ग के भीतर से अफ्रीका का नया राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग विकसित हुआ था, जिसने उग्र मुक्ति संघर्षों के बाद सत्ता हासिल की। लेकिन सत्ता हासिल करते ही इस बुर्जुआ वर्ग का राष्ट्रीय चरित्र तेज़ी से क्षरित-विघटित हुआ और जनता से दूरी तेज़ी से बढ़ी। यह देशी बुर्जुआ वर्ग भी हर बुर्जुआ वर्ग की तरह एक शोषक वर्ग था और सत्तासीन होने के बाद इसका नग्न रूप सामने आना ही था। साम्राज्यवादी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक पिछड़े देश का बुर्जुआ वर्ग न तो विश्व-पूँजीवाद से निर्णायक विच्छेद कर सकता था, न ही बुर्जुआ जनवाद का व्यापक सामाजिक-आर्थिक आधार तैयार कर सकता था। फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि एक साम्राज्यवादी देश की प्रत्यक्ष गुलामी के बजाय कई साम्राज्यवादी देशों से पूँजी आमन्त्रित करने (और मोलतोल करने) की देशी बुर्जुआ वर्ग को छूट मिल गयी, पूँजीवादी विकास हुआ, लेकिन जनसमुदाय का शोषण-उत्पीड़न न सिर्फ जारी रहा, बल्कि उसका तन्त्र और कार्यप्रणाली और अधिक संश्लिष्ट हो गयी। एक छोटा-सा शिक्षित निम्न बुर्जुआ अभिजातों का संस्तर था, जो शासन-प्रशासन और शिक्षा-संस्कृति के तन्त्र पर काबिज़ था। इसकी कार्य संस्कृति और जीवन-शैली कमोबेश औपनिवेशिक बौद्धिक तबके जैसी ही थी। इन्हीं के बीच से आने वाले नेता, नौकरशाह और अभिजात बुद्धिजीवी आपादमस्तक भ्रष्टाचार में डूबे थे और अफ्रीका  सहित  सभी  उत्तर- औपनिवेशिक समाजों में बुर्जुआ जनवाद का प्रहसनात्मक परिदृश्य सामने था। इस नये बुर्जुआ वर्ग और मध्यवर्गीय अभिजातों को भी जनता को शासन-प्रशासन के ‘’अन्दरूनी रहस्यों’’ से दूर रखना था, इनको भी आन्तरिक मानसिक उपनिवेशन और राजनीतिक वर्चस्व के उपकरण के रूप में शिक्षा, संस्कृति और भाषा का इस्तेमाल करना था और इन्हें भी अपने सांस्कृतिक आभिजात्य और विशेषाधिकारों के द्वीप को जनसमुदाय से सुरक्षित एवं अछूता रखना था। इसीलिए नये शासक वर्ग ने भी अंग्रेज़ी/फ़्रेंच जैसी उपनिवेशवादी शासकों की भाषा को एवं औपनिवेशिक काल की शिक्षा प्रणाली एवं संस्कृति की विरासत को (कुछ रंगरोगन और पैबन्दसाज़ी के साथ) बरकरार रखा। आज भूमण्डलीकरण के दौर में जब एक विश्वभाषा के रूप में अंग्रेज़ी की स्वीकार्यता की बातें की जा रही है तो इसके पीछे भी एक वस्तुगत आवश्यकता की विवशता नहीं, बल्कि पश्चिम के वर्चस्व की स्वीकार्यता बुनियादी बात है।

केन्या के किआम्बु जिले में गिकुयू जनजाति के एक परिवार में 1938 में जन्मे न्गूगी का पूरा परिवार उपनिवेशवाद-विरोधी माऊ-माऊ सशस्त्र जनविद्रोह के ताप से प्रभावित हुआ था। उनका सौतेला भाई उसमें मारा गया और माँ को औपनिवेशिक पुलिस ने दारुण यन्त्रणा दी। 1955-59 के दौरान अलायंस हाई स्कूल में पढ़ने के बाद न्गूगी उगाण्डा की राजधानी कम्पाला चले गये। वहाँ उन्होंने मैकरेरे यूनिवर्सिटी कॉलेज से 1964 में अंग्रेज़ी भाषा-साहित्य में स्नातक उपाधि हासिल की। कम्पाला में पढ़ते समय ही उनके पहले नाटक ‘दि ब्लैक हरमिट’ का मंचन हुआ और इसे काफ़ी सराहा गया। 1962 में इसका पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। 1963 में साहित्य में अपना अध्ययन जारी रखने के लिए ब्रिटेन के लीड्स विश्वविद्यालय जाने से पहले न्गूगी ने छह महीने तक नैरोबी के एक अख़बार ‘डेली नेशन’ के लिए बतौर पत्रकार काम किया।

लीड्स के छात्र-जीवन के दौरान ही न्गूगी का पहला उपन्यास ‘वीप नॉट, चाइल्ड’ 1964 में प्रकाशित हुआ। यह किसी पूर्वी अफ्रीकी व्यक्ति द्वारा अंग्रेज़ी में लिखा गया पहला उपन्यास था। ‘वीप नॉट, चाइल्ड’ की पृष्ठभूमि माऊ-माऊ सशस्त्र जनविद्रोह की है। यह समय था, जब पूरे अफ्रीकी महाद्वीप में जनमुक्ति संघर्ष का ज्वार शिखर पर था। अफ्रीकी साहित्य-कला-संस्कृति में भी राष्ट्रीय नवजागरण की लहर उभार पर थी। न्गूगी के पहले उपन्यास ने ही उन्हें समूचे पूर्वी अफ्रीका के चर्चित एवं स्थापित लेखकों की कतार में ला खड़ा किया। 1965 में डकार संस्कृति समारोह (सेनेगल) में इस उपन्यास के लिए न्गूगी को अश्वेत कला पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

1963 में केन्या पर ब्रिटिश आधिपत्य का खात्मा हुआ। लगभग एक दशक के जनसंघर्षों के बाद उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता की औपचारिक घोषणा की गयी। 1965 में केन्या लौटने के बाद न्गूगी विभिन्न स्कूलों में अध्यापन करते हुए खाली समय में लेखन-कार्य करते रहे। 1967 से लेकर जनवरी 1969 तक वे नैरोबी यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग में प्रवक्ता रहे। फिर एक छात्र हड़ताल के दौरान प्रशासन का विरोध करते हुए उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। 1970-71 के दौरान उन्होंने नॉर्थ वेस्ट यूनिवर्सिटी, इलिनॉयस में कुछ दिनों तक अफ्रीकी साहित्य पढ़ाया और फिर नैरोबी यूनिवर्सिटी लौट आये जहाँ उन्हें अंग्रेज़ी विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया। इस पद पर वे 1977 तक रहे।

1965 में न्गूगी का दूसरा उपन्यास ‘दि रिवर बिटवीन’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भी माऊ-माऊ जनविद्रोह मौजूद है। इसमें गिकुयू पारिवारिक जीवन एवं परिवेश पर जनविद्रोह के प्रभाव की तथा ग्रामीण गिकुयू समाज पर स्वतन्त्र स्कूल आन्दोलन के आमूलगामी और उद्वेलनकारी प्रभाव का प्रामाणिक ऐतिहासिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। न्गूगी के तीसरे उपन्यास ‘ए ग्रेन ऑफ ह्वीट’ (1967) पर फ़्राज फ़ैनन टाइप मार्क्सवाद का स्पष्ट प्रभाव लक्षित किया जा सकता है। इसकी कहानी माऊ माऊ जनविद्रोह के समय से लेकर केन्या की स्वतन्त्रता की पूर्वबेला तक के समय को अपने कलेवर में समेटती है। जैसा कि न्गूगी ने स्वयं लिखा है, ‘’यह समय (आज़ादी मिलने से ऐन पहले का समय)घनघोर कटुता का समय था। अंग्रेज़ों से लड़ने वाले किसान अब देख रहे थे कि उन सभी चीज़ों को, जिनके लिए वे लड़े, उठाकर एक किनारे रख दिया गया है।‘’ यही समय था जब न्गूगी शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में उपनिवेशवाद के प्रभाव और मानसिक-उपनिवेशन में विदेशी भाषा के प्रभाव को न केवल महसूस कर रहे थे, बल्कि उसका गहन अध्ययन-विश्लेषण कर रहे थे। उन्होंने उपनिवेशवादियों द्वारा ईसाइयत के राजनीतिक-सांस्कृतिक इस्तेमाल पर गौर किया। इन सबका परिणाम था कि उन्होंने नैरोबी विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग को बदलकर अफ्रीकी भाषाओं और साहित्य के विभाग की स्थापना के लिए आन्दोलन चलाया और इसमें उन्हें सफलता भी मिली। इसी दौरान अपना अंग्रेज़ी ईसाई नाम जेम्स न्गूगी को बदलकर (क्योंकि वे उसे एक औपनिवेशिक प्रभाव मानते थे) गिकुयू जातीय परम्परा का नाम न्गूगी वा थ्योंगो अपना लिया। अब न्गूगी ने अंग्रेज़ी के अतिरिक्त गिकुयू और स्वाहिली में भी लिखने की शुरुआत की। 1977 में अपने चौथा उपन्यास ‘पेटल्स ऑॅफ ब्लड’ के बाद तो उन्होंने यह निर्णय ले लिया कि अब वे अपना सारा सृजनात्मक लेखक गिकुयू भाषा में ही करेंगे।

1970 के दशक के मध्य तक न्गूगी के अध्ययन का विषय और आक्रमण का निशाना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सत्तासीन वह देशी बुर्जुआ वर्ग बन चुका था जो राष्ट्रीय मुक्ति की जन आकांक्षाओं के साथ विश्वासघात करके साम्राज्यवाद के साथ अपवित्र गठबन्धन कर रहा था। उनके अध्ययन का दायरा व्यापक था जिसमें उत्तर-औपनिवेशिक सत्ता की प्रकृति, सामाजिक संरचना, भाषा, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में साम्राज्यवादी मूल्यों, नीतियों एवं ढाँचे के देशी बुर्जुआ वर्ग द्वारा आत्मसात्करण तथा सांस्कृतिक प्रतिरोध के आयामों एवं रूपों पर विमर्श शामिल था। उनके इन विचारों को न केवल वैचारिक लेखन में, बल्कि सर्जनात्मक लेखन में भी स्पष्टतः लक्षित किया जा सकता है। 1976 में उन्होंने विश्वविद्यालय के अपने एक सहकर्मी मिसेरे थिए म्युगो के साथ मिलकर ‘दि ट्रायल ऑफ देदॉन किमाथी’ नामक नाटक लिखा। किमाथी माऊ माऊ विद्रोह का नेता था, जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासकों ने 1957 में फाँसी दे दी थी। इस नाटक का मंचन जब नेशनल थियेटर में होना था, उसी समय युनेस्को का आम सम्मेलन नैरोबी में होने वाला था। थियेटर के यूरोपीय प्रबन्धकों ने इसका मंचन रोकने के लिए एक माह तक के लिए थियेटर को एक अन्य नाटक के लिए बुक कर दिया। केन्या की सरकार भी नहीं चाहती थी कि माऊ-माऊ विद्रोह के नायक और मुक्ति संघर्ष के आदर्शों-स्वप्नों की याद दिलाकर प्रकारान्तर से सत्तारूढ़ देशी बुर्जुआ वर्ग के ऐतिहासिक विश्वासघात को दर्शाया जाये। नतीजा यह हुआ कि न्गूगी की प्रताड़ना का दौर शुरू हो गया। बड़ी मुश्किल से चार रातों के लिए नाट्य प्रदर्शन की इजाज़त के बाद नाटक के शो हुए तो उसे अपार लोकप्रियता मिली। फिर न्गूगी को नैरोबी स्थित क्रिमिनल इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेण्ट के हेडक्वार्टर्स में बुलाकर उनसे पूछताछ की गयी और धमकियाँ दी गयीं। इस समय तक न्गूगी देश के शीर्षस्थ बुद्धिजीवियों में गिने जाने लगे थे, पर यह प्रतिष्ठा उन्हें शासकीय प्रताड़ना से न बचा सकी।

1977 में ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ के प्रकाशन के बाद न्गूगी के लिए आतंक के काले दिनों की शुरुआत हो गयी। संरचना और औपन्यासिक कला की दृष्टि से न्गूगी का यह वृहद् उपन्यास संश्लिष्ट है और इसकी गणना सर्वश्रेष्ठ अफ्रीकी उपन्यासों में की जाती है (कुछ आलोचक तो इसे पहले स्थान पर रखते हैं)। यह उपन्यास अपने विशद् आख्यान के ज़रिये उत्तर-औपनिवेशिक केन्याई समाज की विसंगतियों को, जन समुदाय के मोहभंग की, राजनेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार की, बौद्धिक कुलीनों की जनविमुखता की और सत्तातन्त्र की निरंकुश स्वेच्छाचारिता की मुखर, तीक्ष्ण एवं प्रभावशाली आलोचना प्रस्तुत करता है। प्रकारान्तर से यह आलोचना समूचे अफ्रीका और सभी उत्तर-औपनिवेशिक समाजों के शासक वर्ग की और सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे की ऐतिहासिक आलोचना बन गयी है। ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ हत्या के लिए जेल की सज़ा भुगत रहे चार चरित्रों की कहानी के माध्यम से केन्या के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य का चित्र प्रस्तुत करता है, इनमें से एक करेगा, शिक्षक और ट्र्रेड यूनियन ऐक्टिविस्ट है; दूसरा चरित्र मुनीरा का है जो कभी स्कूल में हेडमास्टर था; तीसरा अब्दुल्ला एक आहत भारतीय केन्याई जिसने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था, और चौथा चरित्र वांजा नाम की एक भूतपूर्व वेश्या का है जो बाद में बार मेड के रूप में काम करती थी।

इसी समय न्गूगी ने सिर्फ गिकुयू में लिखने का निर्णय लिया और ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ के प्रकाशन के तुरन्त बाद 1977 में ही गिकुयू भाषा में न्गूगी का मिरी के साथ मिलकर लिखा गया उनका नाटक ‘न्गाहिका न्देना’ (जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में ‘आइ विल मैरी व्हेन आइ विल वाण्ट’ नाम से छपा और उसे विश्वव्यापी ख्याति मिली) छपा। इस नाटक में नये सत्ताधारियों की और ग्रामीण केन्या के जालिम भूस्वामियों की मुखर आलोचना थी। इसके छपते ही राजनीतिक हलकों में भूचाल-सा आ गया। ‘’विद्रोह भड़काने वाला’’ घोषित करके नाटक को प्रतिबन्धित कर दिया गया। तत्कालीन उपराष्ट्रपति दानियल अराय मोई (राष्ट्रपति तब जोमो केन्याटा थे) के निर्देश पर पहले न्गूगी के घर की तलाशी ली गयी, उनके निजी पुस्तकालय को ज़ब्त कर लिया गया और फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक वर्ष तक बिना मुकदमा चलाये न्गूगी को कामिटी मैक्सिमम सिक्योरिटी जेल में बन्द रखा गया जहाँ टॉयलेट पेपर पर उन्होंने गिकुयू भाषा का पहला आधुनिक उपन्यास ‘कैटानी मुथारबा-इनी’ (जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद 1980 में ‘डेविल ऑन दि क्रास’ नाम से प्रकाशित हुआ) लिखा। इस दौरान उन्हें नैरोबी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पद से भी बख़ार्स्त कर दिया गया। जेल से रिहाई के बाद भी न्गूगी को नौकरी वापस नहीं मिली। उनके परिवार को लगातार आतंक के साये में जीना पड़ रहा था। लेकिन न्गूगी को टूटना या झुकना गवारा नहीं था। उन्होंने अपनी मुहिम जारी रखने के लिए देश से बाहर जाने का फ़ैसला किया और वे 1980 के दशक की शुरुआत में इंग्लैण्ड चले गये।

अपने आत्मनिर्णीत निवार्सन के दौरान गिकुयू भाषा में सर्जनात्मक लेखन करने के साथ-साथ न्गूगी अंग्रेज़ी भाषा में निरन्तर धुँआधार वैचारिक लेखन भी करते रहे। अंग्रेज़ी में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक निबन्ध लेखन का मुख्य कारण यह था कि न्गूगी अपनी स्थापनाओं को दुनिया भर के प्रबुद्ध पाठकों और संस्कृतिकर्मियों-लेखकों तक पहुँचाना और उन्हें बहस-मुबाहिसे का विषय बनाना चाहते थे। न्गूगी का अब तक का प्रतिनिधि वैचारिक लेखन इन पुस्तकों में संकलित होकर प्रकाशित हुआ है: ‘होम कमिंग: एस्सेज़ ऑन अफ्रीकन ऐण्ड कैरीबियन लिटरेचर, कल्चर ऐण्ड पॉलिटिक्स’ (1971), ‘राइटर्स इन पॉलिटिक्स’ (1981), ‘एजुकेशन फ़ॉर ए नेशनल कल्चर’ (1981), ‘बैटल ऑफ ए पेन: रेजिस्टेंस टू रिप्रेशन इन नियो-कोलोनियल केन्या’ (1983), डीकालोनाइिज़ंग दि माइण्ड: दि पॉलिटिक्स ऑफ लैंग्वेज इन अफ्रीकन लिटरेचर’ (1986), ‘राइटिंग अगेंस्ट नियो-कोलोनियलिज़्म (1986), ‘मूविंग दि सेण्टर्स: दि स्ट्रगल फ़ॉर कल्चरल फ्रीडम (1993), ‘पेन प्वाइण्ट्स, गनप्वाइण्ट्स ऐण्ड ड्रीम्स’ (1996) और ‘समथिंग टॉर्न ऐण्ड न्यू: ऐन अफ्रीकन रेनेसाँ (2009)।

जेल में एक वर्ष गुज़ारने के दौरान न्गूगी ने एक आत्मकथात्मक कृति ‘डिटेण्ड: ए राइटर्स प्रिज़न डायरी’ भी लिखी थी जो 1981 में प्रकाशित हुई। गिकुयू भाषा में न्गूगी का दूसरा उपन्यास था ‘मातिगारिमा न्जीरूंगी’, जिसका अर्थ है: ‘देशभक्त, गोलियाँ जिन्हें मार न सकीं’। यह उपन्यास 1986 में छपा और केन्याई तानाशाह डैनियल अराम मोई की हुकूमत ने इसे भयंकर विस्फोटक सामग्री जैसा महसूस किया। इस उपन्यास की कथा मातिगारी नामक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है जो कुछ समय तक एक पूर्वी अफ्रीकी जंगल में रहने के बाद बिछुड़े हुए परिवार से मिलने के लिए घर वापस लौट आता है। रास्ते में वह उत्पीड़नकारी राजनीतिक परिवेश का शिकार होता है और गिरफ्ऱतार करके जेल भेज दिया जाता है। लेकिन वह वहाँ से भाग निकलता है और शान्ति के लिए अपनी मुहिम जारी रखता है। स्थितियाँ उसे एक मानसिक चिकित्सालय तक पहुँचा देती हैं, पर वहाँ से भी वह भाग निकलता है। अनुभव मातिगारी को इस नतीज़े पर पहुँचाते हैं कि एक सशस्त्र जन-उभार ही उसके देश में न्याय के शासन की स्थापना का एकमात्र रास्ता है। इस उपन्यास ने केन्या में उथल-पुथल पैदा कर दिया। अधिकारियों ने तो कुछ समय के लिए यकीन कर लिया कि मातिगारी एक वास्तविक व्यक्ति है और उन्होंने उसकी तलाश भी शुरू कर दी।

1995 में न्गूगी ने बच्चों के लिए दो किताबें लिखीं ‘न्जाम्बा नेने ऐण्ड दि फ्लाइंग बस’ और ‘न्जाम्बा नेने’ज़ पिस्टल।’ ये पुस्तकें अफ्रीका के अतिरिक्त पश्चिमी दुनिया में भी काफ़ी लोकप्रिय हुईं। 1992 में न्गूगी न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में एरिक मारिया रेमार्क चेयर पर नियुक्त हुए और तुलनात्मक साहित्य एवं ‘परफ़ॉर्मेंस स्टडीज़’ के प्रोफ़ेसर के रूप में शिक्षण कार्य करने लगे। इस समय वे कैलिप़फ़ोर्निया विश्वविद्यालय में ‘लेखन एवं अनुवाद के अन्तरराष्ट्रीय केन्द्र’ के निदेशक के तौर पर काम करने के साथ ही अंग्रेज़ी और तुलनात्मक साहित्य के प्रोफ़ेसर की जि़म्मेदारी भी सम्हाल रहे हैं।

डैनियल अराय मोई की तानाशाह सत्ता के पतन के बाद अपना निर्वासन समाप्त करके न्गूगी 8 अगस्त 2004 को दो दशकों से भी अधिक समय बाद केन्या लौटे। यह वापसी पूर्वी अफ्रीका के एक माह लम्बे उनके दौरे का हिस्सा थी। 11 अगस्त को उनके अपार्टमेण्ट में कुछ गुण्डे घुस आये। न्गूगी का कम्प्यूटर और पैसे लूटने के साथ ही उन्होंने उनके साथ मारपीट की और उनकी पत्नी के साथ बलात्कार किया। उस समय यह चर्चा आम थी कि यह घटना सत्ता-प्रायोजित थी। इस घटना के बाद की स्थितियों से भी साफ हो गया कि केन्या की चुनी गयी बुर्जुआ सरकार को भी न्गूगी का व्यवस्था-विरोधी स्वर बरदाश्त नहीं और उसकी स्थिति पहले की तानाशाही से ज़्यादा भिन्न नहीं है। उस घटना के बाद न्गूगी अमेरिका वापस लौट गये और तबसे वहीं रह रहे हैं।

2004 में गिकुयू भाषा में न्गूगी का उपन्यास ‘मुरोगी वा कागोगा’ लगभग दो दशक बाद प्रकाशित होने वाली उनकी नयी औपन्यासिक कृति थी। फिर इसका गिकुयू से अंग्रेज़ी में उन्होंने स्वयं अनुवाद किया जो 2006 में ‘विज़र्ड ऑफ दि क्रो’ नाम से प्रकाशित हुआ।

न्गूगी वा थ्योंगो व्यवस्था विरोधी, जनपक्षधर लेखकों की उस गौरवशाली परम्परा की कड़ी हैं, जो हर कीमत चुकाकर भी बुर्जुआ सत्ता प्रतिष्ठानों और सामाजिक ढाँचे के अन्तर्निहित अन्यायी चरित्र को उजागर करते रहे, जिन्होंने आतंक के आगे कभी घुटने नहीं टेके और जनता का पक्ष कभी नहीं छोड़ा। कला-साहित्य के क्षेत्र में आज सर्वव्याप्त अवसरवाद के माहौल में उनका जीवन और कृतित्व अनवरत प्रज्जवलित एक मशाल के समान है। उपनिवेशवाद और समकालीन साम्राज्यवाद की सांस्कृतिक नीति और भाषानीति का तथा उत्तर-औपनिवेशिक समाजों के शासक बुर्जुआ वर्ग की राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति का उनका विश्लेषण अपनी कुशाग्रता और मौलिकता की दृष्टि से अनन्य है। यह बहुत अच्छी बात है कि न्गूगी उसी अनन्य वैचारिक निष्ठा के साथ आज हमारे बीच मौजूद हैं और निरन्तर सृजनरत हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010

 

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