उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के नाम पर सिब्बल जी ने दिखाया निजी पूँजी के प्रति प्रेम!
लालचन्द
अभी हाल में ही केन्द्रीय मानव संसाधन मन्त्री कपिल सिब्बल मुम्बई में भारत-अमेरिकी सोसाइटी द्वारा संचालित एक आयोजन में गये। सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में उन्होंने एक भविष्यवाणी की कि 2020 तक हम 30 फीसदी बच्चों को विश्वविद्यालय में पहुँचा देंगे। यह बयान कुछ वैसा ही है जैसेकि 2020 तक भारत को विश्व महाशक्ति बना देने का बयान। क्या वाकई वह ऐसा कर पायेंगे! यदि ऐसा हो भी जायेगा तो आम युवा आबादी को इससे क्या हासिल होगा?
आइये देखते हैं कि सिब्बल जी के इस दावे के पीछे का सच क्या है! सिब्बल जी ने आँकड़ा दिया कि देश में 500 विश्वविद्यालय हैं और 25000 महाविद्यालय हैं। और कॉलेज- विश्वविद्यालय तक छात्रों की पहुँच की दर 12.5% है। हालाँकि यह दावा भ्रम पैदा करने वाला है, क्योंकि यह पढ़नेवाली कुल योग्य आबादी के हिसाब से नहीं, बल्कि स्कूल में जा पाने वाली आबादी के हिसाब से लिया गया है। सिब्बल जी के अनुसार 22 करोड़ बच्चे स्कूल जा पाते हैं, और उसमें से महज़ 40% बच्चे ही 12वीं पास कर पाते हैं। उसमें से महज़़ 1 करोड़ 40 लाख बच्चे ही कॉलेज पहुँच पाते हैं। सवाल यह उठता है कि देश की आज़ादी के तिरसठ साल बीत जाने पर भी केवल 22 फीसदी बच्चे ही स्कूल क्यों जा पाते हैं? कारण साफ है कि जिस देश की 77 फीसदी आबादी ग़रीबी, भुखमरी की मार झेलती है, वह शिक्षा के बारे में सोचे भी तो कैसे! जिसके सामने जिन्दा रहना ही सबसे बड़ी चुनौती है! और उसकी शिक्षा के बारे में सरकार को भी क्या ही सोचना जो कि उनका सबसे बड़ा वोट बैंक है! सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून बनाकर 6 से 14 साल तक के बच्चों की शिक्षा को मुफ्त एवं अनिवार्य कर दिया। लेकिन यह भी कोई कारगर उपाय नहीं बन सकता, क्योंकि 6 साल तक के बच्चों को इसमें शामिल नहीं किया गया। दूसरी बात, केवल आठवीं तक की पढ़ाई ही वह इस कानून के अनुसार कर सकता है जोकि उसको कोई रोज़गार की गुणवत्ता भी नहीं देता। और भी कई छेद हैं इस शिक्षा का अधिकार कानून में। मसलन एक पाठ्यक्रम का न होना, न एक स्कूल व्यवस्था का होना और न ही एक जैसे संसाधन। सबसे निचले दर्जे के स्कूल में केवल ग़रीबों के बच्चे जाते हैं, जहाँ कि शिक्षा का कोई स्तर नहीं रह गया है। ऐसे में सहज ही अन्दाज़़ा लगता है कि शिक्षा के प्रति सरकार की जो नीति है, वही संविधान विरोधी है, जिसमें कहा गया है कि समान शिक्षा बच्चों का जन्मसिद्ध अधिकार है। मगर पूँजीवादी व्यवस्था अपने कर्तव्यों से बचने के लिए तमाम कानूनों को बनाने में सिद्धहस्त हो चुकी है।
कपिल सिब्बल कहते हैं कि शिक्षा एक माल है, और वे यहाँ उसे और अधिक कंज्यूमर फ्रेण्डली बनाने के लिए ही हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि मौजूदा बाज़ार व्यवस्था में इस देश के 80 फीसदी ग़रीबों को कंज़्यूमर माना ही नहीं जाता। खाता-पीता मध्यवर्ग और पूँजीपति वर्ग ही कंज़्यूमर की परिभाषा में आते हैं और उन्हीं की सम्प्रभुता है। ऐसे में शिक्षा के और अधिक कंज़्यूमर-फ्रेण्डली बनने का क्या अर्थ है, सहज ही समझा जा सकता है। जब इस देश की अर्थव्यवस्था को ही देशी-विदेशी पूँजीपतियों द्वारा लूट के लिए खुला छोड़ दिया गया है तो शिक्षा का क्षेत्र उससे अछूता कैसे रह सकता है।
इसी आयोजन में उन्होंने कहा कि विस्तार के बाद भी केवल छः करोड़ बच्चे ही कॉलेज-विश्वविद्यालय पहुँच पा रहे हैं। देश इस क्षेत्र में इस तरह के खण्डित प्रयासों से आगे नहीं बढ़ सकता है। उन्होंने उसका रास्ता बताया कि संयुक्त उपक्रम खड़े करने पड़ेंगे। मतलब कि सरकारी व्यवस्था नाकाफी है। अब देशी-विदेशी निजी पूँजी को भी साथ में लिया जाये। और यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की अवधारणा है, जिसे सरकार हर सरकारी उपक्रम में लाने की चालाकी भरी साजिश कर रही है। और उपने हाथ को क्रमशः सार्वजनिक क्षेत्रों से खींचती जा रही है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण देश/प्रदेश के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी, भ्रष्टाचार का बोलबाला, विश्वविद्यालयों को पंसारी की दुकान बनाना, इसमें लिप्त कुलपतियों/अधिकारियों के ऊपर कार्यवाही की खानापूर्ती करना जिससे उसे बन्द करने के लिए उन्हें आधार मिल सके। इसके बदले में विदेशी या निजी विश्वविद्यालयों व शिक्षकों द्वारा उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की गारण्टी करने के नाम पर उच्च शिक्षा को बिकाऊ माल बना देने की साजिश की जा रही है। संयुक्त उपक्रम के सहारे 800 विश्वविद्यालय और 35-40 हज़ार महाविद्यालय खोले जाने की बात कपिल सिब्बल कर रहे हैं, जिनमें चार करोड़ 60 लाख बच्चे शिक्षा ग्रहण करेंगे। साफ है कि जो भी देशी व विदेशी कॉलेज व विश्वविद्यालय खुलेगा, उसमें अमीरज़ादों को ही प्रवेश मिल सकेगा, जोकि 35-40 लाख सालाना दे पाने की क्षमता रखते हैं। बाकी छात्रों को केवल झुनझुना ही थमा दिया जायेगा। उन्हें तो केवल कुशल मज़दूर ही बनने की शिक्षा दी जायेगी, क्योंकि इस व्यवस्था की नज़र में उन्हें यही पाने का हक है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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