प्रेमचन्द, उनका समय और हमारा समय : निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द्व को लेकर कुछ बातें

कविता कृष्णपल्लवी

प्रेमचन्द की 300 से अधिक कहानियों में से कम से कम 20 तो ऐसी हैं ही, जिनकी गणना विश्व की श्रेष्ठतम कहानियों में की जा सकती है और जिनकी बदौलत उनका स्थान मोपासां, चेखोव आदि श्रेष्ठतम कथाकारों की पाँत में सुरक्षित हो जाता है। ‘कफ़न’, ‘पूस की रात’, ‘ईदगाह’, ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘रामलीला’, ‘गुल्लीडण्डा’, ‘बड़े भाईसाहब’ जैसी कहानियाँ कभी भुलायी नहीं जा सकतीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक पिछड़े हुए सामन्ती समाज के ग्रामीण जीवन के जो यथार्थवादी चित्र प्रेमचन्द की कहानियों में मिलते हैं, वे विश्व के श्रेष्ठतम कथाकारों के यहाँ भी दुर्लभ हैं।
अपने सृजनात्मक जीवन के बड़े हिस्से में गाँधीवादी आदर्शोन्मुखता के प्रभाव के बावजूद प्रेमचन्द ने भारतीय गाँवों के भूमि-सम्बन्धों और वर्ग-सम्बन्धों तथा काश्तकारों और रैय्यतों के जीवन और आकांक्षाओं के जो सटीक यथार्थ-चित्र अपनी रचनाओं में उपस्थित किये, वे अतुलनीय हैं। एक सच्चे कलाकार की तरह यथार्थ का कलात्मक पुनर्सृजन करते हुए प्रेमचन्द ने अपनी विचारधारात्मक सीमाओं का उसी प्रकार अतिक्रमण किया, जिस प्रकार तोल्स्तोय और बाल्ज़ाक ने किया था। रूसी ग्रामीण समाज के अन्तरविरोधों का सटीक चित्रण करने के नाते ही प्रतिक्रियावादी धार्मिक विचारधारा के बावजूद तोल्स्तोय ‘रूसी क्रान्ति का दर्पण’ (लेनिन) थे। इन्हीं अर्थों में प्रेमचन्द भारत की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के अनन्य दर्पण थे और उनका लेखन अर्धसामन्ती-औपनिवेशिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन का ज्वलन्त साहित्यिक-ऐतिहासिक दस्तावेज़ था।
1907-08 से लेकर 1936 तक प्रेमचन्द की वैचारिक अवस्थिति लगातार विकासमान रही। गाँधी को वे अन्त तक एक महामानव मानते रहे, लेकिन गाँधीवादी राजनीति की सीमाओं और अन्तरविरोधों के प्रति जीवन के अन्तिम दशक में उनकी दृष्टि अधिक से अधिक स्पष्ट होती जा रही थी और उन्हीं के शब्दों में वे ‘बोल्शेविज़्म के उसूलों के कायल’ होते जा रहे थे। उनके उपन्यासों के कई पात्र कांग्रेस में ‘रायबहादुरों-खानबहादुरों’ की बढ़ती पैठ और कांग्रेसी राजनीति के अन्तरविरोधों की आलोचना करते हैं और प्रेमचन्द के लेखों और सम्पादकीयों में भी (द्रष्टव्य, ‘माधुरी’ और ‘हंस’ के सम्पादकीय और लेख) हमें उनकी वैचारिक दुविधाओं, विकासमान अवस्थितियों की झलक देखने को मिलती है। प्रेमचन्द को जीवन ने यह मौका नहीं दिया कि वे 1937-39 के दौरान प्रान्तों में कांग्रेसी शासन की बानगी देख सकें। 1936 में उनका देहान्त हो गया। यदि चन्द वर्ष वे और जीवित रहते, तो शायद उनकी वैचारिक अवस्थितियों में भारी परिवर्तन हो सकते थे।
प्रेमचन्द को मात्र 56 वर्षों की आयु ही जीने को मिली। काश! उन्हें कम से कम दो दशकों का और समय मिलता और वे पूरे देश को खूनी दलदल में बदल देने वाले दंगों के बाद मिलने वाली अधूरी-विखण्डित-विरूपित आज़ादी के साक्षी हो पाते, तेभागा-तेलंगाना-पुनप्रा वायलार और नौसेना विद्रोह और देशव्यापी मज़दूर आन्दोलनों का दौर देख पाते। प्रेमचन्द यदि 1956 तक भी जीवित रहते तो नवस्वाधीन देश के नये शासक — देशी पूँजीपति वर्ग और उसकी नीतियों की परिणतियों के स्वयं साक्षी हो जाते। हम अनुमान ही लगा सकते हैं कि तब भारतीय साहित्य को क्या कुछ युगान्तरकारी हासिल होता।
आज़ादी के बाद के 20-25 वर्षों के दौरान भारत के सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग ने विश्व-पूँजीवादी व्यवस्था में साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार की भूमिका निभाते हुए भारत में पूँजीवाद के विकास के रास्ते पर आगे क़दम आगे बढ़ाये। उसने बिस्मार्क, स्तोलिपिन और कमाल अतातुर्क की तरह ऊपर से, क्रमिक विकास की गति से सामन्ती भूमि-सम्बन्धों को पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों में बदल डाला और एक एकीकृत राष्ट्रीय बाज़ार का निर्माण किया। पूँजीवादी मार्ग पर जारी इसी यात्रा का अन्तिम और निर्णायक चरण नव-उदारवाद के दौर के रूप में 1990 से जारी है।
पिछले क़रीब 40-50 वर्षों के दौरान होरी और उसके भाइयों जैसे अधिकांश निम्न-मध्यम काश्तकार मालिक बनने के बाद, सामन्ती लगान की मार से नहीं बल्कि पूँजी और बाज़ार की मार से अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर या तो शहरों के सर्वहारा-अर्धसर्वहारा बन चुके हैं या फिर खेत मज़दूर बन चुके हैं। जो नकदी फसल पैदा करने लगे थे और अपनी ज़मीन बचाने में सफल रहे थे, वे आज उज़रती मज़दूरों की श्रमशक्ति निचोड़कर मुनाफ़े की खेती कर रहे हैं। पर ऐसा ज़्यादातर पुराने धनी और उच्च-मध्यम काश्तकार ही कर पाये हैं, होरी जैसे काश्तकारों का बड़ा हिस्सा तो तबाह होकर गाँव या शहर के मज़दूरों में शामिल हो चुका है। हिन्दी के कुछ साहित्यकार अक्सर कहते हैं कि भारत के किसान आज भी प्रेमचन्द के होरी की ही स्थिति में जी रहे हैं। ऐसे लोग या तो प्रेमचन्द कालीन गाँव और भूमि-सम्बन्धों को नहीं समझते, या आज के गाँवों के भूमि-सम्बन्धों और सामाजिक सम्बन्धों को नहीं समझते, या फिर दोनों को ही नहीं समझते हैं। 1860 के भूमि सुधारों के बाद रूस में भूमि-सम्बन्धों का जो रूपान्तरण हो रहा था, उसके स्पष्ट चित्र हमें तोल्स्तोय के ‘आन्ना करेनिना’ और ‘पुनरुत्थान’ जैसे उपन्यासों में मिलते हैं। भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण के बाद की वर्गीय संरचना और शोषण के पूँजीवादी रूपों की बेजोड़ तस्वीर हमें बाल्ज़ाक के ‘किसान’ उपन्यास में देखने को मिलती है। हिन्दी लेखकों की विडम्बना यह है कि वे ‘गाँव-गाँव’ ‘किसान-किसान’ की रट तो बहुत लगाते हैं लेकिन गाँव की ज़मीनी हक़ीक़त से बहुत दूर हैं। न तो उनके पास पिछले 50 वर्षों के दौरान भारतीय गाँवों के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिदृश्य में आये बदलावों की कोई समझ है, न ही वे सामन्ती और पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों के राजनीतिक अर्थशास्त्र की कोई समझदारी रखते हैं। जो लेखक ग्रामीण यथार्थ का अनुभवसंगत प्रेक्षण कर भी लेते हैं उनमें न तोल्स्तोय-बाल्ज़ाक-प्रेमचन्द की प्रतिभा है और न ही भूमि-सम्बन्धों और अधिरचना के अध्ययन की कोई वैचारिक दृष्टि, इसलिए ऐसे अनुभववादी लेखक भी आभासी यथार्थ को भेदकर सारभूत यथार्थ तक नहीं पहुँच पाते और उनका लेखन प्रकृतिवाद और अनुभववाद की चौहद्दी में क़ैद होकर रह जाता है।
यही कारण है कि आज प्रेमचन्द की थोथी दुहाई देने वाले तो थोक भाव से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेमचन्द की यथार्थवादी परम्परा का विस्तार हमें कहीं नहीं दिखता, या दिखता भी है तो अत्यन्त क्षीण रूप में। इतिहास निरन्तरता और परिवर्तन के तत्वों के द्वन्द्व से होकर आगे बढ़ता है। इसमें कभी एक प्रधान पहलू होता है तो कभी दूसरा। हम प्रेमचन्द से 85 वर्ष आगे के समय में जी रहे हैं। प्रेमचन्द के समय से आज के समय में निरन्तरता का पहलू नहीं बल्कि परिवर्तन का पहलू प्रधान हो चुका है। प्रेमचन्द की परम्परा को भी वही लेखक विस्तार देंगे जो आज के समय की सामाजिक-आर्थिक संरचना, वर्ग-सम्बन्धों और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक अधिरचना के सारभूत यथार्थ को प्रेमचन्द जैसी ही सटीकता के साथ पकड़ेंगे और उनका कलात्मक पुनर्सृजन करेंगे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021

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