‘मी टू’ मुहिम : एक समालोचना
कविता कृष्णपल्लवी
फिलहाल भारत में ‘मी टू’ का कोलाहल दिग-दिगन्त में व्याप्त है। न सिर्फ सोशल मीडिया पर अतिसक्रिय बुर्जुआ नारीवादी वीरांगनाएँ इसे लेकर अति उत्साह और उद्दाम आशावाद से भरी हुई हैं, बल्कि कई प्रगतिशील और वामपन्थी भी इसमें स्त्री आन्दोलन की नयी उठान का दर्शन करने लगे हैं और भाव-विह्वल होकर इसका स्वागत कर रहे हैं।
पहले ही यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं ‘मी टू’ जैसी किसी मुहिम की सिरे से विरोधी नहीं हूँ। लेकिन इसकी सम्भावनाओं और परिणतियों को जिस तरह अति की सीमा तक बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है, वह ज़रूर आपत्तिजनक है। बेशक़, उस झिझक-संकोच भरी चुप्पी को एक झटके से तोड़ दिया जाना चाहिए जिसका लाभ लम्पट ”शरीफज़ादे” उठाते हैं। इस एक कदम पर स्वतंत्र-स्वायत्त रूप से मूल्य-निर्णय देना हो तो यही कहा जा सकता है कि यह किसी स्त्री के चुप रहने से बेहतर है कि वह अपने यौन-उत्पीड़न के विरुद्ध खुलकर बोले। बेहतर होता कि तुरन्त बोलती, लेकिन अगर देर से भी वह बोलने का साहस जुटा पाती है, तो भी कोई बात नहीं। आपत्ति इस अप्रोच पर है जो वैयक्तिक स्तर पर उठने वाली इन आवाज़ों के कुल योग को एक सामाजिक आन्दोलन का रूप या विकल्प बनाकर पेश कर रहा है। वे स्त्रियाँ (और पुरुष भी) जो सोचती हैं कि स्त्रियाँ अगर अपने विरुद्ध होने वाले किसी यौन-अपराध के विरुद्ध चुप्पी तोड़कर बोलने लगेंगी तो हालात में कुछ आमूलचूल बदलाव आ जायेंगे, भारी मुग़ालते में जी रही हैं। और अहम बात अब यह है कि इस मुग़ालते को ज़ोर-शोर से बढ़ावा दिया जा रहा है। बेशक़ यह अपने-आप में एक सकारात्मक बात है, लेकिन यह प्रतिरोध की शुरुआत भी नहीं है, उसकी भूमिका के तमाम उपक्रमों में से एक उपक्रम मात्र है। स्त्री उत्पीड़न के बुनियादी कारण सामाजिक हैं और इसके प्रतिरोध की कड़ियाँ सामूहिक तौर पर ही संगठित की जा सकती है और याद रखें कि बिखरी हुई वैयक्तिक पहलकदमियों के कुल योग को सामूहिक नहीं कहा जा सकता, चाहे मुख्य धारा की मीडिया और सोशल मीडिया पर उसका शोर जितना भी मच जाये। ‘मी टू’ जैसे प्रतिरोध के फॉर्म की सीमाओं को यदि न समझा जाये तो यह एक चौंक-चमत्कार भरे प्रतीकवाद से आगे कहीं नहीं जायेगा।
पश्चिम में ‘मी टू’ ने एक सोशल मीडिया केन्द्रित मुहिम के रूप में ज़ोर तब पकड़ा जब अमेरिकी अभिनेत्री अलीसा मिलानो ने अक्टूबर 2017 में मीटू हैशटैग फैलाने को प्रोत्साहित किया ताकि समाज मे यौन-उत्पी ड़न की दबी-छुपी घटनाएँ सामने आयें, उत्पीड़िताएँ खुलकर बोलें और उत्पीड़कों पर एक सामाजिक दबाव पैदा हो। लेकिन दरअसल ‘मी टू’ मुहावरे की शुरुआत 2006 में हुई थी जब अमेरिका की ही एक सामाजिक कार्यकर्ता टाराना बर्क ने ‘माइ स्पेस’ नामक सामाजिक नेटवर्क पर इसकी शुरुआत की थी। बर्क की मुहिम की सीमा उसके द्वारा दिये गये नारे से ही समझी जा सकती थी। वह नारा था: ”तदनुभूति के जरिए सशक्तिकरण”, यानी इसका लक्ष्य कोई सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना नहीं, बल्कि आपस में दु:ख बाँटकर स्त्रियों को बल देना था। बहरहाल, आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा गत वर्ष अक्टूबर में अभिनेत्री मिलानो की पहल के बाद और अमेरिका तथा अधिकांश यूरोपीय देशों में (और फिर एशिया, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के कई देशों में भी) कई उत्पीड़िताओं ने मीडिया में सामने आकर या सोशल मीडिया में लिखकर अपने यौन-उत्पीड़न के बारे में बताया और कई नामचीन हस्तियों के चेहरों से नक़ाब उतारने का काम किया। फिल्म, फैशन, विज्ञापन, संगीत और मीडिया जगत के बाद राजनीति, सेना, वित्त, शिक्षा, चिकित्सा, खेल और चर्च के नामी-गिरामी लोगों के भी नाम आये। कुछ पर जाँच और कानूनी कार्रवाइयाँ शुरू हुईं, कुछ इस्ती़फे हुए और कुछ पश्चाताप-प्रकटीकरण भी हुए। अभी यह सिलसिला जारी ही है। भारत में इस मुहिम ने ज़ोर पकड़ा जब गुज़रे ज़माने की एक अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने 2008 में एक फिल्मी शूटिंग के दौरान नाना पाटेकर पर यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाया। फिर लेखिका विनीता नन्दा ने अभिनेता आलोकनाथ पर ऐसा ही आरोप लगाया। फिर तो एक सिलसिला सा चल पड़ा और फिल्म, संगीत, टी.वी., मीडिया और विज्ञापन की दुनिया के दर्ज़नों ‘इज़्जतदार’ सफेदपोशों की दिमाग़ी रुग्णताओं और आततायीपन के बारे में लोगों को ”विस्फोटक” जानकारियाँ मिलीं। कई लोगों को फिल्मों और टी.वी. सीरियल्स आदि के कई प्रोजेक्ट छोड़ने पड़े। ऐसे ही एक आरोपी विनोद दुआ की जाँच होने तक ‘वायर’ न्यूज़ पोर्टल ने उनके कार्यक्रम को रोक दिया। पर सबसे महत्वटपूर्ण घटना थी क़रीब 20 पूर्व सहकर्मियों द्वारा बलात्कार और यौन-उत्पीड़न के आरोपों के बाद मोदी-मंत्रिमण्ड्ल से भूतपूर्व दिग्ग़ज पत्रकार एम.जे. अकबर का इस्तीफा, प्रसंगवश, एक और दिलचस्प तथ्य इस संदर्भ में यह है कि यूँ तो छद्मवामियों, लिबरलों और एन.जी.ओ. पंथियों में लम्पटों की कमी नहीं है, लेकिन भारत मे अबतक ‘मी टू’ के दौरान जो चेहरे नंगे हुए हैं, उनमें चन्द अपवादों को छोड़कर, अधिकांश की संघी राजनीति या धुर-दक्षिणपन्थी राजनीति के किसी न किसी शेड से क़रीबी बनती है। बहरहाल, यह मूल प्रतिपाद्य न होकर अवांतर प्रसंग है, अत: मूल विषय पर वापस लौटें।
मेरी आपत्ति या आलोचना का एक केंद्रीय बिन्दु यह है कि ‘तदनुभूति के ज़रिए सशक्तिकरण’ बुर्जुआ दायरे के किसी जनवादी अधिकार आन्दोनलन जितना भी सम्भावनासम्पन्न नहीं है। अपने उत्पीड़न के विरुद्ध किसी व्यक्ति का बोलना तभी एक फलदायी प्रक्रिया बन सकता है जब ऐसी सभी आवाज़ें एक सामूहिकता में संघटित हों और उस सामाजिक व्य़वस्था को निशाने पर लेते हुए सड़कों पर लामबंद होने की दिशा में आगे बढ़ें जो ऐसे तमाम उत्पीड़नों की जन्मदात्री है। ‘मी टू’ के दौरान बेनकाब होने वाले चेहरे, मुमकिन है कि, कुछ समय तक सकपका जायें या चुप्पी साध जायें, चन्द लोग फिल्मों आदि के प्रोजेक्ट से (कुछ समय के लिए) निकाले जा सकते हैं, पर आप देख लीजियेगा, ऐसे तमाम लोग कुछ समय बीतते ही अपने सामाजिक रुतबे और बेशर्म हँसी के साथ फिर से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होंगे क्योंकि समाज में वर्चस्वशील पुरुषस्वामित्ववाद उन्हें पूरा सहारा-संरक्षण और प्रोत्साहन देगा। मीडिया, मनोरंजन उद्योग राजनीति और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद यौन-ड्रैक्युला गले में दाँत धँसा देने के लिए स्त्रियों पर फिर भी घात लगाये रहेंगे। बस, अब वे यह काम थोड़ा अधिक चौकन्ना होकर करेंगे। और अगर स्थिति में थोड़ा-बहुत मात्रात्मक अन्तर आ ही जाये, तो इससे भला क्या फ़र्क पड़ जायेगा। ज़रूरत इस बात की है कि संघर्ष के निम्न और प्रचारपरक रूपों के साथ-साथ स्त्री -विरोधी सांस्थानिक हिंसा और सांस्थानिक यौन-उत्पीड़न के रूपों के विरुद्ध संघर्ष की एक दीर्घकालिक रणनीति पर काम किया जाये। ‘मी टू’ अगर इस लम्बी यात्रा का एक प्रारम्भिक कदम होता तो हमारी कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन इसे जिस तरह ‘ग्लैमराइज़’ और ‘ग्लोरीफाई’ किया जा रहा है, उससे यह चौंक-चमत्कार भरे कुलीनतावादी प्रतीकवाद की चौहद्दियों में गिरफ्तार होकर रह जा रहा है।
दूसरा नुक्ता इसी पहले नुक्ते से जुड़ा हुआ है। ‘मी टू’ सामाजिक ढाँचे को नहीं, व्यक्ति को निशाने पर लेता है और बात इससे आगे जाती ही नहीं। नतीज़तन, सारा मामला सनसनीखेज बनकर रह जाता है और कालान्तर में बासी पड़कर मर जाता है। एक तीसरा नुक्ता यह भी उठाया जा सकता है कि ‘नेमिंग-शेमिंग’ का यह फॉर्म कानूनी कार्रवाई के दायरे से अलग ‘मीडिया ट्रायल’ का एक ऐसा रूप बन सकता है, जिसमें कोई अपना व्यक्तिगत हिसाब-किताब भी चुकता कर सकता है। बुर्जुआ न्याय सिद्धान्त भी अधिकांश लोगों के अपराधी होने के तर्क से किसी एक बेगुनाह के अपराधी सिद्ध किये जाने का औचित्य-प्रतिपादन नहीं करता। इस कोण से भी इस प्रश्न पर सोचा जाना चाहिए।
चौथा बिन्दु यह है कि घरों और कार्यस्थलों पर यौन-उत्पीड़न के विविध रूपों का सर्वाधिक शिकार होने वाली मेहनतकश स्त्रियों और आम मध्य वर्गीय गृहिणियों की आबादी इस ‘मी टू’ मुहिम के एकदम बाहर है। सोशल मीडिया (जो इस मुहिम का मुख्य ”रणक्षेत्र” है) आम मेहनतकश स्त्रियों का जनवादी स्पेस है ही नहीं। इस रूप में ‘मी टू’ मुहिम न सिर्फ एक आन्दोलन नहीं है, बल्कि इसका एक स्पष्ट कुलीनतावादी चरित्र है।
सामाजिक आन्दोलन वाले मसले को स्पष्ट करने के लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूँगी। फरवरी 2017 में एक मलयालम अभिनेत्री पर कुछ गुण्डों ने हमला किया जिसके पीछे मलयालम अभिनेता दिलीप का हाथ पाया गया और वह जुलाई 2017 में गिरफ्तार हो गया। मामला कोर्ट में आज तक चल रहा है। फिर एक कास्टिंग डायरेक्टर टेस जोसेफ ने टि्वटर पर अभिनेता मुकेश पर यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाया। यह मामला तब तूल पकड़ गया जब मलयालम फिल्म कलाकार संघ ने दिलीप की सदस्यता फिर से बहाल कर दी। फिर मलयालम फिल्मों की स्त्री कलाकारों ने ‘वुमन इन सिनेमा कलेक्टिव’ नामक संगठन बनाकर सड़कों पर मोर्चा खोला। फिल्म कलाकार संघ को बाध्य होकर दिलीप को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा। यह मलयालम फिल्म उद्योग में हावी पुरुष वर्चस्वरवाद के खिलाफ एक संगठित आन्दोलन था, जो तात्कालिक तौर पर भी सफल रहा और जिसने आगे के लिए भी एक रास्ता खोला। यह ‘मी टू’ जैसा सनसनीखेज प्रतीकवाद नहीं था।
एक और उदाहरण। एक बुर्जुआ नारीवादी ने झुँझलाकर कहा कि तुमलोग तो उसी आन्दोलन को सपोर्ट करोगे, जो समाजवाद और स्त्रियों की पूर्ण मुक्ति तक जाता हो। मैंने उन्हें बताया कि ऐसा कत्तई नहीं है। हम बुर्जुआ दायरे के भीतर सुधार और जनवादी अधिकार के हर आन्दोलन का समर्थन करते हैं, सिर्फ सुधारवाद, प्रतीकवाद और कुलीनतावाद का विरोध करते हैं। जैसे ‘पिंजरा तोड़ो’ आन्दोलन दिल्ली और पंजाब में कुछ लड़कियों की व्यक्तिगत पहलकदमी पर शुरु हुआ। पर जल्दी ही देश के दर्जनों विश्वविद्यालयों में यह उन छात्राओं का सड़क का आन्दोलन बन गया जो चाहती थीं कि उनको भी देर रात तक पुस्तकालयों में बैठने की छूट हो और छात्रावासों के फाटक शाम सात बजे ही बन्द करके आवाजाही या मिलने-जुलने पर रोक न लगायी जाये। इस तरह ‘पिंजरा तोड़ो’ प्रतीक के सीमान्तों का अतिक्रमण करके जनवादी अधिकार का एक जुझारू आन्दोलन बन गया जिसे शासन-प्रशासन के दमन तक का सामना करना पड़ा। यह जनवादी अधिकार और सुधार का जुझारू आन्दोलन था, जिसका पुरज़ोर समर्थन लाज़िमी तौर पर किया ही जाना था। यह ‘मी टू’ के प्रतीकवाद से एकदम भिन्न था।
अन्त में, यह बात विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि बुर्जुआ मीडिया और सोशल मीडिया (जिसपर वाम के नाम पर लिबरल और सामाजिक जनवादी छाये हुए हैं) जब ‘मी टू’ जैसी किसी मुहिम के आकार और महत्व को वास्तविकता से कई गुना अधिक बढ़ाकर आच्छादनकारी रूप में पेश करते हैं तो प्रकारान्तर से स्त्री मुक्ति के सभी पक्षों को, सभी सरोकारों को और सभी मुद्दों को यौनिकता और यौन मुक्ति में रिड्यूस कर देते हैं। यही छल-प्रपंच पचास और साठ के दशक में आधुनिकतावादी बुर्जुआ नारीवाद की विविध उपधाराओं ने विविध रूपों में किया था और आज उत्तर-आधुनिकतावादी बुर्जुआ नारीवाद की विविध सरणियाँ भी विविध रूपों में यही कर रही हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018
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