अवसाद के अँधेरे में भटकते युवा
कविता कृष्णपल्लवी
कौन-सा घुन है जो हमारे युवाओं को भीतर ही भीतर खाये जा रहा है? उम्मीदों और सपनों से भरी उम्र में नाउम्मीदी, चुप्पी, अकेलेपन और मौत का दामन क्यों थाम रहे हैं इस देश के नौजवान?
चारों ओर अवसाद का अँधेरा छाया हुआ है। खोखली हँसी, मोबाइल पर बतियाते, इंटरनेट पर चैटिंग करते, मशीनों की तरह भागते-दौड़ते, अकेलेपन के रौरव नरक में जीते लोग। आत्मनिर्वासित आत्माएँ। चमकदार चीजों के बीच बुझे हुए चेहरे। इस अँधेरे से कैसे निकलें?
यह पूरा समाज ही जैसे एक लम्बी उदास रात से होकर गुज़र रहा है। लोग भीड़ में अकेले हैं, अपने आप में खोये हुए, खुद से बातें करते हुए, ज़िन्दगी की जद्दोजहद से थके हुए, उचाट और उदास। अपने आसपास निगाहें दौड़ाइए, आपको ऐसा ही कुछ देखने को मिलेगा। ज़्यादा लोगों के पास कहने को मुख्तसर-सी बातें हैं और हैं ढेरों चुप्पियाँ, पर आसपास के भागते-दौड़ते अजनबी चेहरों के बीच ऐसा कोई नज़र नहीं आता, जिससे दिल की चन्द बातें की जायें और हाथ में हाथ दिये कुछ देर तक चुपचाप बैठा जाये।
एक महामारी लम्बे समय से दुनिया को अपनी चपेट में लिये हुए है, बिना किसी शोर-शराबे के, चुपचाप। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया अनुमानों के मुताबिक तीस करोड़ से ज़्यादा लोग गम्भीर अवसाद (डिप्रेशन) से ग्रस्त हैं। इनमें से 2.3 करोड़ लोगों को शीज़ोफ़्रेनिया है और लगभग 8 लाख लोग हर साल आत्महत्या कर लेते हैं। विकसित पूँजीवादी देशों में यह समस्या विकराल रूप में है जहाँ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ अब हृदय रोगों और कैंसर के बाद जीवन प्रत्याशा में कमी का सबसे बड़ा कारण बन चुकी हैं। मगर भारत जैसे देशों में यह समस्या शायद और भी भीषण रूप में मौजूद है जहाँ विकृत पूँजीवादी विकास और पुराने, बंद समाज की विकृतियों का घालमेल एक ओर तरह-तरह की मानसिक जटिलताएँ पैदा कर रहा है और दूसरी ओर इन समस्याओं को सँभालने के लिए न तो समाज तैयार है और न ही स्वास्थ्य तंत्र।
भारत की तरह ही पूरी दुनिया में युवाओं की भारी आबादी अवसाद और मानसिक परेशानियों से ग्रस्त है। अमेरिका में लगभग आधे लोग अपने जीवन में कभी न कभी किसी मानसिक रोग से परेशान होते हैं और किसी भी वर्ष में क़रीब 4.5 करोड़ लोग मनोविकारों का सामना कर रहे होते हैं। इनमें बड़ी संख्या युवाओं की होती है। आज वहाँ आत्महत्या की दरें पिछले 30 वर्ष में सबसे अधिक हैं, नशाख़ोरी महामारी बन चुकी है और ऑनलाइन जुड़े रहने की बढ़ती संस्कृति इस तथ्य को छिपा नहीं पा रही कि सामाजिक अलगाव और अकेलापन बढ़ता जा रहा है।
क्या आप इस तथ्य से वाकिफ़ हैं कि पूरी दुनिया में होने वाली आत्महत्याओं में से क़रीब एक तिहाई भारत में होती हैं? चिकित्साविज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका ‘लांसेट’ के अनुसार दुनिया में होने वाली आत्महत्याओं में भारत का हिस्सा स्त्रियों में 1990 के 25.3% से बढ़कर 2016 में 36.6% हो गया और पुरुषों में 18.7% से बढ़कर 24.3% हो गया। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 में पता चला कि 13-17 वर्ष उम्र के 98 लाख किशोर अवसाद और दूसरी मानसिक समस्याओं का सामना करते हैं। ‘वैश्विक स्तर पर बीमारियों की स्थिति 1990–2017’ नामक अध्ययन से पता चला था कि हर सात में से एक भारतीय अलग-अलग स्तर के मानसिक विकारों से परेशान था और भारत में रोगों के कुल बोझ में मानसिक विकारों का अनुपात 1990 से 2017 तक दोगुना हो गया है। क्या आप विश्वास करेंगे कि हमारे देश में 15-29 वर्ष और 15-39 वर्ष के बीच के लोगों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है, किसी भी संक्रामक रोग या दूसरी किसी बीमारी से भी ज़्यादा? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2018 में 10,159 विद्यार्थियों ने अपनी जान ले ली। 2017 में यह संख्या 9905 थी 2016 में 9478।
समाज में डिप्रेशन या अवसाद की असामान्य मानसिक अवस्था या मानसिक अव्यवस्था (मेण्टल डिसऑर्डर) तेज़ी से पसर रही है। बहुसंख्यक कामगार आबादी तो आज भी विकास के तमाम दावों के बावजूद दो जून की रोटी और जिन्दगी की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करने के लिए सुबह से शाम तक खटती और जूझती है और रात में सारी परेशानियों-तनावों को देसी दारू के गिलास में डुबोकर हलक के नीचे उतार लेती है और थोड़ी चीख-पुकार, गाली-गलौज और मारपीट के बाद उनकी झोपड़ियाँ नींद और अँधेरे में डूब जाती हैं। हालाँकि उनके बीच भी मानसिक बीमारियाँ और आत्महत्याएँ बढ़ रही हैं लेकिन अवसाद की समस्या उनसे बहुत अधिक मध्यवर्गीय आबादी के बीच दीखती है और इसमें निम्न-मध्य वर्ग से ले कर खाते-पीते खुशहाल परिवार तक शामिल हैं। कहीं न कहीं जैसे लोगों के जीवन का कुतुबनुमा खो गया है और वे अँधेरे समुद्र में भटके हुए नाविक जैसा व्यवहार कर रहे हैं।
अवसादग्रस्त व्यक्ति कई बार एकाकी जीवन वाली अपनी उदास दुनिया से बाहर निकल किसी सार्थक दिशा में चल पड़ने का फैसला लेता है और कई बार दोस्तों, काउंसलिंग और मनोचिकित्सा तथा अपनी संकल्प शक्ति और तर्क शक्ति के सहारे सफल भी हो जाता है। पर कई बार ऐसा भी होता है कि बार-बार विफल होने के बाद अपने उदास एकान्त को ही वह अपनी नियति मान लेता है। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि वह अपने घुटन -भरे अलगाव से बाहर निकलने का फैसला लेता है, यह तय करता है कि चल पड़ने की घड़ी आ गयी है और मौत की अन्धी खाई की तरफ चल पड़ता है।
बहुत से लोग बेहद संवेदनशील और भावप्रवण हुआ करते हैं, लेकिन उनमें प्रतिकूल स्थितियों से लड़ने के लिए ज़रूरी संकल्पशक्ति और चीमड़पन तथा तर्कणा की कमी होती है। पुराने दिनों में, ऐसे ही लोग विपरीत परिस्थितियों से टकराने और असफल होने पर अवसाद की गिरफ़्त में आ जाते थे। लेकिन, विशेषकर 1990 के बाद, नवउदारवाद के घटाटोप वाली दुनिया में हम जी रहे हैं, वह सिर्फ़ धार्मिक उन्माद, चरम पतनशील निरंकुश दमन की राजनीति और अपराध, भ्रष्टाचार, मँहगाई, बेरोजगारी आदि में अभूतपूर्व रफ़्तार से बढ़ोत्तरी की दुनिया ही नहीं है। यह भयंकर आत्मिक-सांस्कृतिक क्षरण और समाज में गहराते अलगाव, एकाकीपन, व्यक्तित्व के विघटन और दमघोंटू अवसाद की दुनिया भी है। इस दुनिया में आम नागरिकों के बीच, विशेषकर मध्य वर्ग के लोगों के बीच अवसाद और मानसिक अव्यवस्था की समस्या बड़े पैमाने पर और बहुत तेज़ी से फैली है। कई शोध-अध्ययन इस बात की गवाही देते हैं और मेरे परिचित कई मनोचिकित्सकों और काउंसिलिंग करने वालों ने भी इसकी तस्दीक की है। सामाजिक कामों के दौरान मैं सैकड़ों ऐसी स्त्रियों और पुरुषों से मिल चुकी हूँ जो महीनों से लगातार ‘लो फ़ील’ करते हैं, अन्यमनस्क रहते हैं, किसी चीज़ से उन्हें खुश होने को दिल नहीं करता, या तो सोते रहते हैं या फिर सोते ही नहीं, अपनी पुरानी प्रकृति के विपरीत बहुत कम बोलते हैं (या कभी-कभी बहुत बोलने लगते हैं), जीवन में उनकी दिलचस्पी ख़त्म हो जाती है और जीने को दिल नहीं चाहता। कई संगठनों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक को मैंने डिप्रेशन का क्रॉनिक मरीज़ पाया है।
क्यों हैं ऐसे हालात? कौन-सा घुन है जो हमारे युवाओं को भीतर ही भीतर खाये जा रहा है? उम्मीदों और सपनों से भरी उम्र में नाउम्मीदी, चुप्पी, अकेलेपन और मौत का दामन क्यों थाम रहे हैं इस देश के नौजवान?
पूँजीवादी समाज में जब तक कुछ गति और ऊर्जस्विता बची हुई थी, तब तक समाज में अलगाव का घटाटोप इतना गहरा नहीं था। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक तक का समय साम्राज्यवाद के साथ ही क्रान्तियों का भी कालखण्ड था। संघर्षों का वह दौर सपनों, उम्मीदों, सामूहिकता और सामाजिक सरगर्मियों का दौर था। इसलिए, तब अलगाव के परिणाम इतने बड़े पैमाने पर समाज में मानसिक अवसाद के घटाटोप के रूप में सामने नहीं आ सकते थे। मगर पिछले तीन दशकों का समय क्रान्तियों की पराजय और ऐतिहासिक गतिरोध का वह दौर रहा है, जब पूँजी के अश्वमेध का घोड़ा नवउदारवाद का परचम लहराते हुए पूरी दुनिया को रौंद रहा है। गतिरोध की स्थिति ने लोगों को जकड़ लिया है। उन्होंने शोषणमुक्त, न्यायपूर्ण समाज और सामाजिक मुक्ति-परियोजना के बारे में फ़िलहाली तौर पर सोचना बन्द कर दिया है। दूसरी ओर, पूँजीवादी विकास के साथ ही समाज में अलगाव और अकेलापन, आत्मग्रस्तता, स्वार्थपरता और कुण्ठाएँ बढ़ रही हैं। ऐसे में, लाज़िमी तौर पर, पूरे समाज में सघन उदासी और मायूसी का दमघोंटू धुआँ भरा कोहरा छा गया है और मानसिक अवसाद की बीमारी में व्यापक बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है। ज़ाहिर है कि जो रुग्ण सामाजिक ढाँचा इसके लिए जिम्मेदार है, उसे नष्ट किये बिना इस समस्या से निजात पाना सम्भव नहीं।
मानसिक अवसाद के कारण, मूलत: और मुख्यत:, अलग-अलग लोगों के व्यक्तिगत जीवन के और व्यक्तिगत पारिवारिक इतिहास में न होकर इस सामाजिक ढाँचे या व्यवस्था के भीतर निहित हैं। यह रुग्ण पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था ही है जो लोगों को मानसिक रोगी बना रही है। इस बात को सुसंगत रूप में समझने के लिए एलियनेशन या अलगाव की मनो-सामाजिक परिघटना के बारे में हमें जानना-समझना होगा। सब से पहले इसकी चर्चा हमें कार्ल मार्क्स की कृति ‘1844 की आर्थिक और दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ’ में मिलती है। फिर इसके अलग-अलग पक्षों पर ग्योर्गी लुकाच, इस्तेवान मेस्जारोस, शैफ, शाक्तेल, ओलमान, व्रैनिकी, जोसेफ़सन आदि विद्वानों ने विस्तार से लिखा। मार्क्स की बुनियादी स्थापना यह थी कि पूँजीवादी समाज में उत्पादन प्रक्रिया में जो श्रम-विभाजन होता है उसमें पृथक्कृत या वियोजित श्रम किसी व्यक्ति, समूह, संस्था या समाज को उसकी उत्पादक कार्रवाई के उत्पाद या गतिविधि के नतीजे से काट कर अलग कर देता है, फिर उस प्रकृति से काट कर अलग कर देता है जिसमें वह रहता है, फिर अन्य इंसानों से काट कर अलग कर देता है, फिर मानवीय गुणों और ऐतिहासिक रूप से सृजित मानवीय सम्भावनाओं से काट देता है और अन्तत: ख़ुद अपने आप से बेगाना बना देता है (सेल्फ़-एलियनेशन)।
थोड़े में कहें, तो पूँजीवाद मनुष्य को अधिशेष (सरप्लस) पैदा करने वाली मशीन में तब्दील कर उसके मानवीय गुणों, सामूहिकता, साहचर्य-भावना और सृजनात्मकता का अपहरण कर लेता है। जन-समुदाय सामूहिक तौर पर संगठित होकर जब पूँजीवाद की आपदाओं का प्रतिकार करता है तो प्रकारान्तर से वह अलगाव या एलियनेशन का भी प्रतिकार करता है। जब यह प्रतिकार पराजय और बिखराव का शिकार होता है और समाज ठहराव और उलटाव के दौर से गुज़रने लगता है तो लोगों का अलगाव और अकेलापन बढ़ने लगता है, जिसकी तार्किक परिणति समाज में बढ़ते मानसिक अवसाद और मानसिक अव्यवस्था के रुझान के रूप में सामने आती है। मक्सिम गोर्की ने अपने लेख ‘व्यक्तित्व का विघटन’ में इस परिघटना की अलग नज़रिए से व्याख्या की है। उनके अनुसार, पूँजीवाद के युग में, और विशेषकर साम्राज्यवाद की चरम अवस्था में पहुँचकर, मनुष्य के समष्टिगत, सामाजिक व्यक्ति के विघटन की प्रक्रिया अपने चरम पर जा पहुँचती है जो रुग्ण व्यक्तिवाद, जनवाद-विरोधी प्रवृत्तियों, विविध सांस्कृतिक व्याधियों और मनोरोगों से समाज को भर देती है।
वयोवृद्ध पूँजीवाद ने समाज की ज़मीन को भाँति-भाँति के ज़हरीले रसायनों से पाटकर इंसानों की तरह-तरह के उदास नस्लों की फसलें तैयार की हैं। ये फसलें खुद भी अपनी ज़मीन को तबाह कर रही हैं, ऊसर बना रही हैं। चारों ओर अवसाद का अँधेरा छाया हुआ है। खोखली हँसी, मोबाइल पर बतियाते, इण्टरनेट पर चैटिंग करते, मशीनों की तरह भागते-दौड़ते, अकेलेपन के रौरव नरक में जीते लोग। आत्मनिर्वासित आत्माएँ। चमकदार चीजों के बीच बुझे हुए चेहरे।
अलगावग्रस्त, अवसादग्रस्त ऐसे लोगों की तो बात ही क्या की जाये, जिनकी कोई स्पष्ट जीवन दृष्टि, राजनीति या सामाजिक सरोकार नहीं होते। इण्टरनेट की आभासी दुनिया, उच्छृंखल इन्द्रिय-भोग, शराब और डिप्रेशन की गोलियों के सहारे दिन काटते निरर्थकता-बोध से ग्रस्त लोग मध्यवर्गीय समाज में तो, ऐसा लगता है, 50-60 फीसदी के आसपास पहुँच गये हैं। बाक़ी एक भारी आबादी उनकी है, जिन्होंने एक अदद नौकरी, एक बीवी, कुछ बच्चों और कुछ छोटे-छोटे निजी सपनों का पीछा करते हुए टुच्चई, ओछापन और कूपमण्डूकता भरी ज़िन्दगी काट देने के लिए अपने दिमाग को अनुकूलित कर लिया है। उनके बारे में तुलसी बाबा काफी पहले कह गये हैं: ‘सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत-गति।’ और जो सुरक्षित जीवन के चौहद्दी में प्रचुर सुख-सुविधाओं में लोट लगाते नौकरशाह, प्रोफेसर, पत्रकार, डॉक्टर, इंजीनियर वगैरह-वगैरह हैं – उनकी ज़िन्दगी में अगर झाँककर देखें तो पता चलेगा कि तमाम क्लब, पार्टियाँ, शराब, पर्यटन, आवारागर्दी – उनकी शाश्वत ऊब और बोरियत को दूर नहीं कर पातीं। पर ये लोग अपना जीवन छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते। वर्ग-स्वभाव इनके रोम-रोम में बसा होता है, इनका संस्कार होता है।
पूँजीवाद की शायद यह सब से बड़ी ताक़त है कि लोग चीज़ों की भीड़ में अकेले हो गये हैं। वे व्यस्त हैं, वे तमाम अपने जैसे लोगों के बीच हैं, लेकिन अकेले हैं। मन की शान्ति के लिए वे हास्ययोग कर रहे हैं, पर चतुर्दिक उदासी का सामूहिक अट्टहास गूँज रहा है।
ऐसे लोगों से मेरा कहना है, “यह अकेलापन आपको मार रहा है। अकेलापन एक जेल है। इस जेल में जीने की आदत मत डालिए। इससे बाहर निकलने की तरकीबें ईजाद कीजिए। टीवी का रिमोट रख दीजिए। हर समय कम्प्यूटर के सामने बैठकर आँखें फोड़ना बन्द कीजिए। किचेन में जा कर कुछ पकाइए। एक कप बढ़िया चाय पीजिए। आस-पास कुछ पेड़-पौधे लगाइए। मामूली लोगों से इतनी दूरी क्यों बरतते हैं? पास वाली मज़दूर बस्ती के चाय वाले की बेंच पर जा कर अड्डा जमाइए और गप्पें मारिए। वहीं फ़ुटपाथ वाले नाई से दाढ़ी बनवाइए। मज़दूरों से उनकी ज़िन्दगी के बारे में बातें कीजिए। उन्हें दोस्त बनाइए। इसमें कुछ समय लगेगा, पर यह मुमकिन है। इस तरह धीरे-धीरे अवसाद का ज़हर उतर जायेगा। अकेलेपन के दंश की पीड़ा कम हो जायेगी। आप एक बार फिर सहज-सामान्य मानवीय गुणों को अपने भीतर महसूस करने लगेंगे। जब आप इंसान की तरह जीना सीख जायेंगे, तो उन तमाम लोगों की लड़ाई में शामिल होने की ज़रूरत शिद्दत के साथ महसूस करने लगेंगे जो इंसान की तरह जीना चाहते हैं, लेकिन हाड़-तोड़ मेहनत वाली दिहाड़ी गुलामी, अभाव और अनिश्चितता के कारण ऐसा कर नहीं पाते। उनके लिए जीने की शर्त है विद्रोह करना। उनके विद्रोह में भागीदार बन कर आप भी अपनी ज़िन्दगी के नये मायने ढूँढ़ सकते हैं, उसकी ख़ूबसूरती को नये सिरे से पहचान सकते हैं और उसकी सार्थकता एवं सृजनशीलता का नये सिरे से संधान कर सकते हैं।’
कहा जाता है, दु:ख बाँटने से हल्का होता है। जो हरदम अपना निजी दु:ख बाँटकर जी हल्का करते रहते हैं, वे बहुत कमजोर व्यक्तित्व के लोग होते हैं। उनमें अपने निजी दु:खों का बोझ सँभाल पाने – झेल पाने की कूव्वत और माद्दा नहीं होती। ऐसे लोग ज़माने के दु:खों के साथ तदनुभूति की क्षमता नहीं हासिल कर पाते। वे आत्मग्रस्त होते हैं और आत्मकातर भी। हमदर्दीख़ोरी भी हरामख़ोरी से कम बुरी चीज़ नहीं होती। कुछ लोग अपनी कविताओं में या सोशल मीडिया पर भी अपने निजी दु:खों, उदासियों, तनहाइयों वगैरह का खोमचा सजाकर बैठ जाते हैं। ऐसे लोग आत्मकेन्द्रित तो होते ही हैं, प्राय: सामाजिक सरोकारों का दिखावा करते हुए भी उनसे रिक्त होते हैं। अपने निजी दु:खों-त्रासदियों के बोझ को तो हर ख़ुद्दार और संजीदा इंसान स्वयं ही लेकर चलता है। दु:ख और त्रासदियाँ तो उदात्त और काव्यात्मक जीवन का हिस्सा होती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि अपने निजी दु:खों का बोझ ढोते रहने में ही अपने को खपा न दिया जाये। यह भी व्यक्तित्व की कमज़ोरी और आत्मग्रस्तता ही होगी। जो निजी दु:ख किसी मानवीय त्रासदी या इत्तफ़ाक़ के चलते हमारे मत्थे आ जाते हैं, उन्हें तो अपने ही स्तर पर झेलकर व्यक्तित्व का इस्पातीकरण और उदात्तीकरण किया जाना चाहिए। जिन दु:खों के कारण सामाजिक हों, उनका आलोचनात्मक विवेक के साथ विश्लेषण किया जाना चाहिए, उनका सामान्यीकरण किया जाना चाहिए, उन्हें ज्ञानात्मक संवेदन और फिर संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में ढाला जाना चाहिए। फिर सामाजिक कारणों से उत्पन्न उस दु:ख की शिकार बहुसंख्या के साथ जुड़कर उस दु:ख से मुक्ति के सामूहिक उद्यम में भागीदारी में अपने जीवन की सार्थकता का संधान किया जाना चाहिए।
अलगाव (एलियनेशन) का शिकार विघटित व्यक्तित्व वाला, बुर्जुआ समाज का औसत नागरिक निजी त्रासदियों और ‘चांस’ से टूट पड़े दु:खों को ही नहीं, बल्कि सामाजिक कारणों से पैदा हुए दु:खों को भी नितान्त अतार्किक ढंग से एकदम निजी स्तर पर जीता है। वह तर्क और वैज्ञानिक विश्लेषण से रिक्त होता है। सामाजिक जीवन और उत्पादक गतिविधियों से कटाव के चलते उसे जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति और समाज-परिवर्तन के सचेतन उपक्रमों में भरोसा नहीं होता। जन समुदाय उसके लिए अमूर्त प्रत्यय होता है और इतिहास पढ़कर भी वह इतिहास-बोध नहीं हासिल कर पाता। जनता और विज्ञान से कटकर ऐसा आत्मग्रस्त व्यक्ति दुर्बलमना और कायर हो जाता है। वह बस अपने ही दु:खों में घुलता-छीजता रहता है, अपने पर दया करता रहता है, अपने क़रीबी लोगों से भी यही चाहता है और ऐसा नहीं होने पर अमूर्त मनोगत शिक़ायतों-झुँझलाहटों से भरा रहता है। आश्चर्य नहीं कि आज के रुग्ण और सांस्कृतिक-आत्मिक रूप से दिवालिया बुर्जुआ समाज में अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। डॉक्टर इस रोग के शिकार व्यक्ति को दवाओं के सहारे बस ताउम्र नॉर्मल बनाये रखने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसा रोगी वास्तव में स्वस्थमानस तभी हो सकता है, जब वह अपनी मानसिक व्याधि के सामाजिक कारणों को विश्लेषण करके समझ सके और अपनी पूरी संकल्पशक्ति जुटाकर जनता के बीच जाये तथा सामाजिक सरगर्मियों में ख़ुद को दिलो-जान से झोंक दे।
अक्सर कई वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी डिप्रेशन का शिकार होते और आत्महत्या तक करते सुना गया है। अक्सर यह उन्हीं के साथ होता है जो मध्यवर्गीय रूमानी भावुकता के साथ क्रान्ति करने तो आ जाते हैं, लेकिन लम्बा समय गुज़रने के बाद भी क्रान्ति के विज्ञान को नहीं समझ पाते, जनता की इतिहास निर्मात्री शक्ति को नहीं जान पाते, अवचेतन रूप से क्रान्ति को नायकों का (जिनमें वे स्वयं को भी शामिल मानते हैं) कारनामा मानते हैं और हार-जीत से भरी एक विश्व-ऐतिहासिक प्रक्रिया की जगह उसे यांत्रिक ढंग से तयशुदा एक समयबद्ध लक्ष्य मानते हैं। पराजय, विचलन, विपर्यय और विघटन के दौर ऐसे लोगों के आशावाद और रोमानी यूटोपियाई आदर्शों को चूर-चूर कर देते हैं और तब ऐसे लोग निराशा और फिर अवसाद की अतल गहराइयों में डूबते चले जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहास-बोध को लगातार मज़बूत बनाते हुए, जनता की ज़िन्दगी और संघर्षों से लगातार अटूट और गहरा रिश्ता बनाने की कोशिश करते हुए, तथा, अपने सहयोद्धा साथियों के साथ विश्वास और कामरेडशिप के बाण्ड को लगातार दृढ़ से दृढ़तर बनाते हुए ही एक क्रान्तिकारी निराशा और अवसाद के प्रेतों से लड़ सकता है, साहस, ताज़गी, ऊर्जस्विता और सृजनशीलता के अक्षय स्रोतों से अपना रिश्ता बनाये रख सकता है, और शोक को शक्ति में बदलने का जादुई हुनर हासिल कर सकता है।
पूँजीवादी शोषण के साथ-साथ अलगाव और सांस्कृतिक रिक्तता मेहनतकशों से भी इंसान की तरह जीने की बुनियादी शर्तें छीन लेती है, विमानवीकरण का शिकार उनका भी एक हिस्सा होता है। उनके पास अन्य वर्गों की तरह जीवन का कोई भी (मिथ्याभासी या रुग्ण) विकल्प नहीं होता, इसलिए वे विद्रोह करते हैं। फिर एक वैज्ञानिक विचारधारा को पकड़ते हैं और क्रान्ति की दिशा में आगे बढ़ते हैं। जबतक वे लड़ते नहीं, तबतक उनकी ज़िन्दगी असह्य घुटन भरी होती है। यदि वे स्फुट, छोटे-छोटे आन्दोलनों में भी उतरने लगते हैं तो सक्रिय एकजुटता उनके जीवन में व्याप्त अलगाव का विष पीने लगती है और ‘भविष्य की कविता’ उनके जीवन को संवेदित करने लगती है।
मेरा मानना है कि यदि आपके साथ हर समय कुछ समान लक्ष्य, समान विचार और समान कार्यदिशा वाले लोग हों (बेशक़ उनमें से कुछ साथ छोड़ते रहेंगे, कुछ पतित भी होते रहेंगे) यदि आप उन साथियों को लेकर समाज के सबसे दबे कुचले लोगों के बीच काम करते हों, उनके जीवन, संघर्षों और सपनों से जैविक ढंग से जुड़े हों, और यदि, पूर्वज पीढ़ियों के विचारों और संघर्षों की विरासत से आपने इतिहास-बोध एवं वैज्ञानिक दृष्टि हासिल की हो, तो आप कभी भी अवसाद या अकेलेपन के हाथों मारे नहीं जायेंगे। आप उनका मुकाबला करने में सक्षम होंगे। ऊर्जा के यही तीन अक्षय स्रोत हैं – जन समुदाय से एकता, समान लक्ष्य वाले साथियों का साथ और जनता के जीवन और संघर्षों के इतिहास से अर्जित जीवन दृष्टि। वर्ग समाज में परवरिश ने हमें संस्कार दिये हैं कि हम जीवन में भी ”नियंत्रित अनुकूलित विद्रोह” चाहते हैं, क्रान्ति को जीने का तरीक़ा बनाने के बजाय गारण्टीशुदा समयबद्ध क्रान्ति की स्कीम चाहते हैं, उड़ान भरना भी चाहते हैं तो चौहद्दी नापकर, सम्पति की व्यवस्था की आपदाओं-अभिशापों से लड़ना भी चाहते हैं तो सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक तो क्या आंशिक तक विच्छेद किये बिना। ऐसे में बीच राह में निराशा और पस्ती के गड्ढों में धँस जाने का ख़तरा हमेशा मौजूद रहता है।
भारत ही नहीं, हर पूँजीवादी समाज में मानसिक स्वास्थ्य की पूरी समझ पर जैववैज्ञानिक व्याख्याएँ हावी हैं। चिकित्सकों से लेकर आम लोगों के बीच प्रचलित समझ इसी सोच से प्रभावित है कि सारी दिमाग़ी परेशानियों की जड़ में कुछ केमिकल लोचा होता है। इसके इलाज का सारा फ़ोकस सेरोटोनिन और डोपामाइन जैसे न्यूरोट्रांसमिटर्स के काम करने पर रहता है। अब मानसिक परेशानियों के आनुवंशिक कारणों पर काफ़ी ज़ोर दिया जाने लगा है। अलग-अलग मामलों में मानसिक विकारों को समझने में जैववैज्ञानिक व्याख्याओं से मदद ज़रूर मिलती है, लेकिन अपनेआप में ये कतई नाकाफ़ी होते हैं। जो बात बहुत साफ़ है वह यह कि मानसिक स्वास्थ्य सबसे अधिक सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है।
मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक परिस्थितियों के बीच करीबी रिश्तों पर अक्सर पर्दा डाला जाता है और सामाजिक कारणों को जैव-चिकित्सीय फ़्रेमवर्क के भीतर रखकर ही समझने की कोशिश की जाती है और जटिल वैज्ञानिक शब्दावली से इसे ढँक दिया जाता है। ज़्यादातर मामलों में रोग निदान व्यक्ति या परिवार तक सीमित रहता है। लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर समाज के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संगठन के प्रभाव को आम तौर पर मान्यता नहीं दी जाती। इसीलिए, मानसिक अवसाद की बीमारी का फ़ौरी इलाज भले ही मनोचिकित्सा और काउंसिलिंग द्वारा हो, पर इसका मुकम्मिल इलाज तो सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर ही सम्भव है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021
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