‘मी टू’ मुहिम : एक समालोचना
अपने उत्पीड़न के विरुद्ध किसी व्यक्ति का बोलना तभी एक फलदायी प्रक्रिया बन सकता है जब ऐसी सभी आवाज़ें एक सामूहिकता में संघटित हों और उस सामाजिक व्य़वस्था को निशाने पर लेते हुए सड़कों पर लामबंद होने की दिशा में आगे बढ़ें जो ऐसे तमाम उत्पीड़नों की जन्मदात्री है। ‘मी टू’ के दौरान बेनकाब होने वाले चेहरे, मुमकिन है कि, कुछ समय तक सकपका जायें या चुप्पी साध जायें, चन्द लोग फिल्मों आदि के प्रोजेक्ट से (कुछ समय के लिए) निकाले जा सकते हैं, पर आप देख लीजियेगा, ऐसे तमाम लोग कुछ समय बीतते ही अपने सामाजिक रुतबे और बेशर्म हँसी के साथ फिर से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होंगे क्योंकि समाज में वर्चस्वशील पुरुषस्वामित्ववाद उन्हें पूरा सहारा-संरक्षण और प्रोत्साहन देगा। मीडिया, मनोरंजन उद्योग राजनीति और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद यौन-ड्रैक्युला गले में दाँत धँसा देने के लिए स्त्रियों पर फिर भी घात लगाये रहेंगे। बस, अब वे यह काम थोड़ा अधिक चौकन्ना होकर करेंगे।