ब्रिटेन के दंगेः स्वर्ग के तलघर में फूट रहा है असन्तोष
अन्तरा घोष
साम्राज्यवादी स्वर्ग के तलघर में सुलग रहा असन्तोष फूट रहा है। विश्वव्यापी मन्दी ने विश्व पूँजीवाद के शिखरों पर दिखायी पड़ने वाला खुशहाल सन्नाटा अब अराजकतापूर्ण तरीके से टूट रहा है। निश्चित रूप से, यह इन जगहों पर किसी जनक्रान्ति की शुरुआत नहीं है। लेकिन 6 से 11 अगस्त तक ब्रिटेन के तमाम शहरों की सड़कों पर जो गुस्सा फूट बहा, वह कई ग़ौरतलब बातों की ओर इशारा करता है।
लंदन में एक अश्वेत युवक मार्क डुगन की पुलिस द्वारा गोली मारकर हत्या कर दिये जाने के विरोध में लंदन में एक शान्तिपूर्ण विरोध जुलूस निकाला गया जो कि जल्द ही दंगों और लूटपाट में तब्दील हो गया। 6 अगस्त से शुरू हुए ये दंगे 11 अगस्त तक चलते रहे। ये दंगे लंदन से शुरू हुए और फिर ब्रिस्टल, लिवरपूल, मैनचेस्टर, नॉटिंघम, सैलफोर्ड, बर्मिंघम और अन्य कई शहरों तक फैल गये। डेविड कैमरून और उनकी सरकार के कई मन्त्रियों ने इन दंगों के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को नज़रअन्दाज़ करने की कोशिश की और इसे पूरी तरह से आपराधिक युवाओं की हरक़त करार दिया। ब्रिटेन का मीडिया भी इन दंगाइयों की लानत-मलामत करने में सरकार के पूरी तरह से साथ था। ऐसी तस्वीर पेश की गयी मानो ब्रिटिश समाज के सभी अराजक और अपराधी तत्वों ने कोई आपसी तालमेल करके ब्रिटेन भर को पाँच दिनों के लिए अराजकतापूर्ण लूटपाट, आगजनी और दंगों में धकेल दिया हो। लेकिन वास्तविक तस्वीर इससे कहीं अलग थी।
वैश्विक मन्दी के शुरू होने के बाद से ब्रिटेन में बेरोज़गारी, अमीर-ग़रीब के बीच की खाई और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा तेज़ी से बढ़ी है। इन समस्याओं के बढ़ने के साथ ही नस्लवाद और क्षेत्रवाद ने भी तेज़ी से सिर उठाया है। इन सबके अलावा पुलिस उत्पीड़न में पिछले एक दशक के दौरान अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। इन सभी कारकों ने ब्रिटिश समाज के दमित, उत्पीड़ित और ग़रीब तबकों में और ख़ास तौर पर युवाओं में असन्तोष को बढ़ाया है। 2011 में इन दंगों के अलावा कुछ और बड़ी घटनाएँ हुईं जिन्होंने इस बढ़ते असन्तोष को प्रतिबिम्बित किया है। इससे पहले स्कूली छात्रों ने इस वर्ष के शुरू में फीस बढ़ोत्तरी के खि़लाफ़ ज़बर्दस्त आन्दोलन किया। उस आन्दोलन के दौरान भी पुलिस पर हमले, लूटपाट और स्कूलों पर कब्ज़े जैसी कई घटनाएँ हुई थीं। इसके बाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी फीस को तीन गुना बढ़ाये जाने के खि़लाफ़ एक जुझारू आन्दोलन चलाया जिसमें कैम्पस पर कब्ज़े की 11 घटनाएँ हुई थीं। इसके अलावा, कैमरून सरकार द्वारा सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती, विनिवेश और बैंकों को बेल-आउट पैकेज देने के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में कमी करने के खि़लाफ़ ब्रिटेन की ट्रेड यूनियनों ने मिलकर एक बड़ा जुलूस निकाला जिसमें लाखों मज़दूरों ने हिस्सा लिया। इस जुलूस के दौरान भी राजसत्ता के प्रतीकों पर जमकर हमला किया गया। ये सभी घटनाएँ दिखलाती हैं कि ब्रिटिश समाज का पूरा ताना-बाना एक भयंकर संकट का शिकार है। और यह संकट विशेष तौर पर आर्थिक संकट पैदा होने के बाद से ख़ास तौर पर बढ़ा है।
पुलिस उत्पीड़न में बढ़ोत्तरी होने का एक कारण स्वयं पुलिस बलों में फैलती ज़बर्दस्त हताशा और गुस्सा है। इसके पीछे का कारण यह है कि डेविड कैमरून की सरकार ने पुलिस पर होने वाले ख़र्च में 2 बिलियन पाउण्ड की कटौती की घोषणा की है। इसका अर्थ होगा पुलिस बलों को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों में कटौती, पुलिस बल के आकार में कटौती और नयी भर्तियों में कमी या फिर बन्दी। इन सभी कारकों के कारण पुलिस बलों में एक प्रतिक्रिया का माहौल है। किसी संगठित और राजनीतिक नेतृत्व से लैस जनान्दोलन की अनुपस्थिति में पुलिस का यह असन्तोष जनता के खि़लाफ़ ही निकल रहा है। अल्पसंख्यकों, एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों और आम ग़रीब आबादी पर पुलिस के उत्पीड़न और दमन में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। मौजूदा मामले में भी जिस अश्वेत युवक मार्क डुगन की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी, उस पर पुलिस ने यह आरोप लगाया था कि गोली पहले उसने चलायी थी। लेकिन इण्डिपेण्डेण्ट पुलिस इंक्वायरी की रपट ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि डुगन की तरफ़ से किसी प्रकार का कोई हमला नहीं हुआ था। इस रपट के बाद हालात और भी बिगड़ गये।
ब्रिटेन में अगस्त माह में जो कुछ हुआ उसके व्यापक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों को समझे बग़ैर दंगे, अराजकता या फिर इस प्रकार की उथल-पुथल की बढ़ती घटनाओं को समझ पाना मुश्किल होगा। ब्रिटेन का शासक वर्ग जनता को यह विश्वास दिलाना चाह रहा है कि इन दंगों के पीछे का कारण ख़राब परवरिश, गिरता नैतिक स्तर, और सांस्कृतिक टकराव है। सरकार के सभी प्रतिनिधि देश की जनता को नैतिक सदुपदेश देने में लगे हुए हैं। और न सिर्फ़ सरकार के प्रतिनिधि बल्कि विपक्ष की लेबर पार्टी ने कैमरून पर इस बात का आरोप लगाया कि वह दंगाइयों ने निपटने में पर्याप्त सख़्त नहीं थे! ऐसे अराजक और अनैतिक तत्वों को नैतिकता का पाठ और सख़्ती से पढ़ाया जाना चाहिए था! और बाद में शायद कैमरून की समझ में यह बात आ भी गयी! दंगाइयों के ऊपर चले मुकदमों में बेरोज़गार और ग़रीब नौजवानों को सख़्ती से सज़ाएँ दी गयीं और जो वयस्क नहीं थे उनके नाम प्रकाशित करके उन्हें सामाजिक तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया। मिसाल के तौर पर, एक पानी की बोतल डिपार्टमेण्टल स्टोर से उठाने पर एक नौजवान को कई महीने की कैद मुकर्रर की गयी! दंगों के दौरान हुई अराजकता से जान-माल का जो “नुकसान” हुआ, उससे कहीं ज़्यादा नुकसान ब्रिटेन में शासक वर्ग की नीतियों से हुआ है। कैमरून ने दावा किया कि दंगों की वजह से लंदन की कुछ रिहायशों को नुकसान पहुँचा। लेकिन कैमरून की आवास नीति में परिवर्तन की वजह से 300 से ज़्यादा परिवारों ने अपने घर खो दिये! अब आप स्वयं फैसला कर सकते हैं कौन बड़ा अपराधी है। आइये कुछ आँकड़ों पर निगाह दौड़ा लें।
वैसे तो थैचरवाद के उदय के समय से ही चाहे लेबर की सरकार रही हो या फिर कंज़रवेटिव सरकार रही हो, नवउदारवाद की नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया गया है। एक-एक करके सभी सार्वजनिक संस्थानों से विनिवेश करना, पेंशन बन्द करना, छात्रों को राज्य से मिलने वाली सहूलियतों में कटौती की जाती रही है। इस समय लंदन के कम आय वाले इलाकों में बाल ग़रीबी दर पूरे देश में सबसे ज़्यादा है; इन्हीं इलाकों में बेरोज़गारी दर इस समय 8.8 प्रतिशत पर है, जो कि विकासशील देशों के स्तर के करीब है; हर 1 नौकरी के लिए 54 दावेदार हैं; वहीं सभी स्नातकों के लिए मौजूद नौकरियों में एक नौकरी के लिए 88 दावेदार हैं; ब्रिटेन के 10 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों की आय ग़रीबों की आय से 100 गुना ज़्यादा है; सिर्फ़ 2011 में ब्रिटेन के 1000 सबसे धनी लोगों की आय में 60 गुना की बढ़ोत्तरी हुई जबकि मज़दूर वर्ग की वास्तविक आय में कमी आयी है; कैमरून सरकार इस समय सार्वजनिक ख़र्चों में 81 बिलियन पाउण्ड की कटौती कर रही है, जिसका अर्थ होगा आने वाले कुछ वर्षों में कई लाख नौकरियों में कटौती; यह प्रक्रिया जारी है; लन्दन में युवाओं के लाभ के लिए चलाए जाने वाले 13 यूथ सेण्टरों में से सरकार 8 को बन्द कर चुकी है; छात्रों को सरकार की तरफ़ से दी जाने वाली छात्रवृत्ति को बन्द कर दिया गया है। यह सारी किफ़ायतशाजी सरकार इसलिए कर रही है ताकि मन्दी के दौरान तबाह हो रहे बैंकों और वित्तीय संस्थानों को वह बेल-आउट पैकेज दे सके। जनता की कमाई को लूट कर वित्तीय संस्थानों को बचाने की कैमरून की नीति की शुरुआत टोनी ब्लेयर की लेबर सरकार के दौरान ही शुरू हो चुकी थी। और लिबरल निक क्लेग और कंज़रवेटिव कैमरून की गठबन्धन सरकार ने इन नीतियों को एक नीयी ऊँचाई पर पहुँचाया है। यही कारण है कि वर्ष 2011 में पूरा ब्रिटिश समाज भयंकर सामाजिक उथल-पुथल की ओर तेज़ी से बढ़ा है। स्पष्ट है कि पूरी अर्थव्यवस्था को बाज़ार की अराजकता के हवाले कर दिया गया है। वास्तव में, इस अराजकता ने जनता की हालिया “अराजकताओं” से कहीं ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है।
विश्व पूँजीवाद 1970 के दशक से ही लगातार एक मन्दी का शिकार है। अपनी अन्तिम जीत की तमाम घोषणाओं के बावजूद यह अपने संकट के भँवर में और भी गहरा डूबता जा रहा है। 2006 में शुरू हुई मन्दी 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे बड़ी मन्दी है और इसने अभूतपूर्व रूप से विकसित पूँजीवादी विश्व को भी अपनी चपेट में ले लिया है। आर्थिक संकट ने इन सभी देशों के राजनीतिक संकट को और गहरा बना दिया है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन, यूनान और पुर्तगाल में हाल में पैदा हुए राजनीतिक संकट इसी वैश्विक पूँजीवादी संकट को अभिव्यक्त करते हैं। ब्रिटेन में पूँजीवादी आर्थिक कट्टरवाद की शुरुआत कुख्यात मार्गरेट थैचर ने की थी। थैचर की सरकार के दौरान भोगवाद, बीमार किस्म के व्यक्तिवाद, माल अन्धभक्ति, स्वार्थ की संस्कृति को सरकार ने और मीडिया ने जमकर बढ़ावा दिया था। थैचर ने एक बार कहा था “समाज जैसी कोई चीज़ नहीं होती।” थैचर के काल से लेकर अभी तक का समय ब्रिटेन में कल्याणकारी राज्य के पतन का दौर रहा है। उस समय से लेकर जॉन मेजर, टोनी ब्लेयर और अब कैमरून के समय तक, यह प्रक्रिया कभी धीमी तो कभी तेज़ रफ़्तार से जारी रही है। ब्रिटिश समाज का भोगवाद हालिया दंगों में भी प्रतिबिम्बित हुआ है।
निश्चित रूप से, ये दंगे भोगवादी अराजक युवाओं द्वारा नहीं किये गये थे, जो कैमरून के शब्दों में “स्नीकर जूतों और एलसीडी टीवी की चाहत रखने वाले पतित तत्व थे।” और ऐसा बोलने से पहले कैमरून और ब्रिटिश पूँजीवादी शासकों को अपने गिरेबाँ में झाँकना चाहिए। हाल ही में, एक जाँच ने प्रदर्शित किया कि ब्रिटिश सांसदों को कानूनी तौर पर भी इतनी सुविधा और वेतन प्राप्त है कि वह उन्हें देश के अतिधनी अल्पसंख्यक कुलीनों में रख देता है। इसके बाद, देश के ग़रीब, नस्लीय अल्पसंख्यक और मज़दूर युवाओं पर, जो कि इन्हीं पूँजीपतियों और उनके टट्टुओं की लूट का शिकार है, इस प्रकार की टिप्पणी ब्रिटिश शासकों के नशे में चूर होने को ही दिखलाती है। उनके द्वारा नैतिकता के पाठ पढ़ाये जाने पर टॉमस मैकॉले का वह कथन याद आता है जो उन्होंने ब्रिटिश कुलीनों के बारे में दिया था, “ब्रिटिश कुलीनों को बीच-बीच में नैतिकता का जो दौरा पड़ता है, उससे ज़्यादा घृणास्पद दृश्य और कोई नहीं हो सकता।”
लेकिन यह सच है कि ये दंगे कोई सचेत राजनीतिक आन्दोलन नहीं थे। इतिहास में जनता द्वारा किये गये दंगों (यहाँ मैं सिर्फ़ आर्थिक दंगों की बात कर रही हूँ, साम्प्रदायिक दंगों की नहीं) को तमाम इतिहासकारों ने वैकल्पिक दृष्टि से देखा है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था कि “दंगे उनकी भाषा हैं, जिनकी आवाज़ को सुनने से इंकार कर दिया जाता है।” जॉर्ज रूदे नामक ब्रिटिश इतिहासकार ने फ्रांस में 18वीं सदी में हुए दंगों के दौरान भीड़ की मानसिकता पर अलग शोध किया था। उन्होंने बताया कि अधिकांश मामलों में ये दंगे जनता के सामूहिक रोष की अराजकतापूर्ण और स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति होते हैं। पिछले 300 वर्षों का इतिहास बताता है कि ऐसे दंगों में कुल मिलाकर कुल कुछ दज़र्न लोगों की मौतें हुई हैं, उनमें से भी अधिकांश पुलिस या फौज की कार्रवाइयों में मरे हैं। दंगों को शासक वर्ग, उसकी सरकारें और उसका मीडिया हमेशा अपराधी तत्वों की हरक़त बताता है। कारण यह है कि सम्पत्तिधारी वर्गों के नज़रिये से यह सम्पत्ति के लिए ख़तरा पैदा करता है; वे अपनी सम्पत्ति को लेकर डर जाते हैं; दंगे सम्पत्ति के अधिकार पर असंगठित, स्वतःस्फूर्त और अराजक हमला हैं। इसलिए सभी सम्पत्तिधारी और शासक जनता द्वारा दंगों से डरते हैं। यही कारण है कि अभी पूरा ब्रिटिश मीडिया और सरकारी एजेंसियाँ युवा दंगाइयों को अपराधी के रूप में चित्रित करने में लगा हुआ है। वे डर गये थे और इसीलिए इतना बौखलाये हुए हैं। लेकिन वास्तव में दंगे एक ऐसे जनसमुदाय का प्रतिरोध और विद्रोह हैं जो राजनीतिक रूप से कमोबेश असचेत, असंगठित और बिखरा हुआ है।
यह सच है कि दंगों के दौरान उपभोक्ता सामग्रियों को भी लूटा गया, हालाँकि बहुत ज़्यादा नहीं। अधिकांश मामलों में तोड़-फोड़, आगजनी और सत्ता और अमीर वर्गों की “प्रतीकात्मक सम्पत्ति” पर हमला किया गया। लेकिन जिस हद तक दुकानों में लूटपाट हुई उसके दो कारण थे। पहला कारण यह था कि इस दंगे में ग़रीब बड़ी संख्या में शामिल थे। यह अपने आपको बुनियादी चीज़ों से वंचित कर दिये जाने के खि़लाफ़ उनका विद्रोह था। इसलिए यह लाज़िमी था कि सामानों की भी लूटपाट होती। लेकिन आम ग़रीब युवाओं ने सामानों की सबसे कम लूटपाट की। यहीं पर लूटपाट का दूसरा पहलू आता है। लूटपाट में उपभोक्ता संस्कृति से प्रभावित सर्वखण्डनवादी और अराजकतावादी टटपुंजिया वर्ग के युवा सबसे ज़्यादा थे। निश्चित रूप से, यह उनके विद्रोह का प्रमुख कारण नहीं था। लेकिन जिस उपभोक्तावाद, माल अन्धभक्ति, व्यक्तिवाद और अहंवाद को ब्रिटिश पूँजीवाद बढ़ोत्तरी देता रहा है, उसने विद्रोह के उनके रूप को प्रभावित ज़रूर किया। इस रूप में यह कहा जा सकता है कि लूटपाट करना उनका प्रमुख मकसद नहीं था, लेकिन नवउदारवाद और थैचरवाद ने जिस “लॉस्ट जेनरेशन” को जन्म दिया है, उसका राजनीतिक रूप से अचेत, असंगठित और स्वतःस्फूर्त विद्रोह ऐसा ही हो सकता था और ऐसा ही हुआ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्रिटेन में हुए हालिया दंगे एक साम्राज्यवादी पूँजीवाद देश के समाज का संकट है। यह मन्दी के इस दौर में भूमण्डलीकरण के सन्तृप्त होने का दिखलाता है। लेनिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद पूँजीवाद की अन्तिम अवस्था है। आज यह कहा जा सकता है कि भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की अन्तिम मंज़िल है। इसके सन्तृप्त होने के बाद पूँजीवाद के लिए आगे का रास्ता बन्द है। और भूमण्डलीकरण अब अपने सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँच रहा है। पश्चिमी समाजों के ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने और एक “कलेक्टिव साइकोलॉजिकल ब्रेकडाउन” की स्थिति पैदा होना इसी संकट की सामाजिक अभिव्यक्ति है। पतनशीलता अपने चरम पर है। अन्तवादी उन्माद अपने चरम पर है। ये पश्चिमी साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के चरमराने के प्रतीक हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसे दंगे और स्वतःस्फूर्त विद्रोह पूँजीवादी विश्व व्यवस्था को ख़त्म कर सकते हैं। एक नयी व्यवस्था का रास्ता सिर्फ़ और सिर्फ़ इंक़लाब है। और इसके लिए एक सुचिन्तित विचारधारा, एक गठा हुआ संगठन और एक संगठित जनान्दोलन चाहिए। बिना इसके पूँजीवाद अपनी मन्दी से युद्धों और तबाही को फैलाकर बाहर निकलता रहेगा; इस प्रकार के स्वतःस्फूर्त विद्रोह या दंगे होते रहेंगे और शान्त होते रहेंगे। पूँजीवाद बार-बार अपने आपको पुनर्गठित करता रहेगा, अगर उसके खि़लाफ़ एक राजनीतिक रूप से सचेत और नेतृत्व से लैस जनान्दोलन खड़ा करके क्रान्ति की ओर हम आगे नहीं बढ़ते। और ऐसा कोई भी आन्दोलन पहले उन देशों में भी खड़ा किया जा सकता है जहाँ साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट का दबाव सबसे ज़्यादा है; यानी कि वे देश जिन्हें लेनिन ने साम्राज्यवाद की ‘कमज़ोर कड़ियाँ’ कहा था। लेनिन के समय से हालात काफ़ी बदले हैं और इन देशों में राष्ट्रीय प्रश्न विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद हल हो चुका है। लेकिन आज भी ये उत्तर-औपनिवेशिक समाज ही साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की कमज़ोर कड़ियाँ हैं। इन देशों के नौजवानों और मज़दूरों पर ही पूरी मानवता को पूँजीवाद नामक आपदा से मुक्त करने की मुहिम की शुरुआत करने की ज़िम्मेदारी है, और इसके सहवाहक हम भी हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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