नार्वे के नरसंहार की अन्तःकथा
शिवानी
22 जुलाई, 2011 को नॉर्वे में हुए दारुण हत्याकाण्ड ने एक बार फिर यूरोपीय महाद्वीप के तथाकथित ‘बहुसंस्कृतिवाद’ की कलई खोलकर रख दी है। ख़ुद को कट्टरपंथी इसाई कहने वाले एन्डर्स बेहरिंग ब्रेविक द्वारा अंजाम दिये गए इस नृशंस नरसंहार में 76 लोगों को बेरहमी से मार दिया गया। इस घृणित कृत्य के बाद दिये गये बयान में ब्रेविक ने दावा किया कि इस हत्याकाण्ड के ज़रिये वह पूरी दुनिया का, और ख़ासकर यूरोप का ध्यान आप्रवासन और बहुसंस्कृतिवाद के दुष्परिणामों की ओर खींचना चाहता था। यहाँ ग़ौर करने लायक बात यह है कि नॉर्वे का यह नरसंहार किसी पागल, सरफिरे मनोरोगी द्वारा तैश या उन्माद में आकर किया गया अपराध नहीं है बल्कि पश्चिमी विश्व में दूसरे देशों, धर्मों या नस्लों के लोगों के प्रति पूर्वाग्रह की राजनीति का मुख्यधारा में सम्मिलित होने का एक प्रतीकात्मक उदाहरण है। इसकी चर्चा हम विस्तार से आगे करेंगे।
इस बर्बर घटना के जिस पहलू से कई लोगों को सबसे ज्यादा धक्का पहुँचा वह यह था कि सामाजिक जनवाद और कल्याणकारी राज्य के मॉडल के रूप में देखे जाने वाले एक स्कैण्डिनेवियाई देश में ऐसा हुआ, एक ऐसा देश जो अपनी तथाकथित मज़हबी एवं सांस्कृतिक सहिष्णुता और सामाजिक समरसता के लिए जाना जाता है। यह दावा कितना सच्चा और वस्तुपरक है, इसकी पड़ताल भी हम आगे करेंगे। बहरहाल, इस भ्रान्तिपूर्ण धारणा में आस्था रखने वालों के लिए यह घटना एक दुर्भाग्यपूर्ण विचलन से अधिक कुछ नहीं थी।
ब्रेविक द्वारा किये गये दोनों हमलों को (पहले राजधानी ओसलो में और फिर उटोया द्वीप पर) यदि ध्यान से देखा जाए तो यह काफी अविश्वसनीय लगता है कि इतने बड़े पैमाने पर की गई हत्याएँ उसके द्वारा अकेले सुनियोजित की गई होंगी या फिर अंजाम दी गई होंगी। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि वह लम्बे समय से बहुतेरे दक्षिण पंथी एवं चरमपंथी पार्टियों और संगठनों के न केवल सम्पर्क में था बल्कि उनसे जुड़ा भी रहा था। वर्ष 2006 तक वह नॉर्वे की अति दक्षिणपंथी, आप्रवासी-विरोधी प्रोग्रेस पार्टी का सदस्य भी था। ब्रेविक ने सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के यूथ विंग ‘वर्क्स यूथ लीग’ द्वारा आयोजित ग्रीष्म कैम्प पर इसलिए हमला किया क्योंकि उसके हिसाब से वहाँ की सामाजिक जनवादी पार्टी मुसलमानों के लिए नॉर्वे के दरवाज़े खोल रही है। ‘2083-ए यूरोपियन डेकलेयरेशन ऑफ इनडिपेन्डेन्स’ नामक अपने घोषणापत्र में वह तमाम ‘‘बहुसंस्कृतिवादियों’’ और ‘‘सांस्कृतिक मार्क्सवादियों’’ (इसका मतलब तो उसी से पूछा जाना चाहिए) के खिलाफ़ खुला संघर्ष छेड़ने की बात करता है। ताज्जुब की बात नहीं कि ब्रेविक के तमाम मुसलमान-विरोधी एवं इस्लाम-विरोधी विचार उसी श्रृंखला की एक कड़ी है जिसकी शुरूआत 11 सितम्बर, 2011 में अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद से पश्चिमी विश्व में हुई। पिछले एक दशक में मुसलमान-विरोधी हिंसा पश्चिम की स्थानिक घटनाएँ बन गई है। यहाँ हम राज्य द्वारा और समाज में मौन और ठण्डे तरीक़े से की जाने वाली पूर्वाग्रह और भेदभाव की संरचनागत हिंसा की बात नहीं कर रहे जिसका स्पष्ट प्रमाण इस बात में मिलता है कि कितनी आसानी से तमाम ‘‘विशेषज्ञों’’ और पत्रकारों ने मान लिया था कि नॉर्वे के हमलों के पीछे इस्लामिक गुटों का हाथ है जब तक यह तथ्य उजागर नहीं हुआ था कि ब्रेविक, एक श्वेत, इसाई, नॉर्वेयाई, इन हमलों के लिए ज़िम्मेदार है।
लेख के शुरूआत में हमने इस बात का ज़िक्र किया था कि पूर्वाग्रह की राजनीति से प्रेरित नॉर्वे की यह घटना मुख्यधारा की राजनीति की ही परिचायक है, न कि हाशिये की किसी परिघटना की। पश्चिम के तमाम मुख्यधारा के राजनेता, फिर चाहे वह अमरीका में जॉर्ज बुश हो, फ्रांस में सरकोज़ी, ब्रिटेन में डेविड कैमरून या फिर जर्मनी में ऐंजला मरकेल हो, सभी ने समय-समय पर ‘बहुसंस्कृतिवाद’ की अवधारणा से अपनी असहमति जतायी है। जिन तमाम पश्चिमी देशों ने एक दौर में तीसरी दुनिया के देशों से आप्रवासियों का खुली बाहों से अपने देश में स्वागत किया था (इसलिए नहीं कि उनका ग़रीब, विकासशील देशों की जनता के प्रति प्रेम जागा था बल्कि इसलिए कि वे सस्ते श्रम का स्रोत थे), वे आज लगातार आप्रवासन के नियमों और क़ाननों को सख़्त बना रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में पश्चिमी पूंजीवाद की आर्थिक ज़रूरतों पर जो अधिरचनात्मक मुलम्मा चढ़ाया गया, उसी को ‘बहुसंस्कृतिवाद’ की संज्ञा दे दी गई। ‘‘बहुसंस्कृतिवाद’ की अवधारणा उस दौर में पश्चिमी विश्व की आवश्यकता थी। आज उसे ऐसे किसी मुलम्में की ज़रूरत नहीं रह गई है। पूंजीवाद के गहराते आर्थिक संकट ने पश्चिम के अपने घर में विस्फोटक स्थितियाँ पैदा कर दी है। बेरोज़गारी की दर अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है। इसलिए पश्चिमी देशों की तमाम सरकारों के लिए अपने श्रम बाज़ारों में आप्रवासियों के अन्तःप्रवाह को रोकना एक मजबूरी बन गई है। उनके अपने शब्दों में कहें तो ‘बहुसंस्कृतिवाद’ की अवधारणा ‘‘बुरी तरह से असफल हो चुकी है।’’
जहाँ तक स्कैण्डिनेवियाई देशों का सवाल है तो पिछले कुछ सालों में नॉर्वे समेत पूरे क्षेत्र में कई आप्रवासी-विरोधी अति दक्षिणपंथी पार्टियाँ अस्तित्व में आई हैं। इन पार्टियों के मुताबिक यूरोप की सरकारें पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को आप्रवासन और ‘इस्लामीकरण’ के बढ़ते ख़तरे से बचाने के लिए उचित प्रयास नहीं कर रही हैं। यहाँ इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी है कि इन तमाम स्कैण्डिनेवियाई देशों में आप्रवासी आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों का है। इसलिए मुसलमानों के प्रति घृणा में आर्थिक, धार्मिक और नस्ली कारक – सभी नत्थी हो जाते है। खुद नॉर्वे की 49,00,000 की कुल आबादी में 5,50,000 आप्रवासी हैं जो कुल आबादी का लगभग 11 प्रतिशत है। और आप्रवासियों की इस संख्या में मुसलमानों की तादाद आधे से भी अधिक है। अगर डेनमाक्र, नॉर्वे और फिनलैण्ड की बात करें, तो राजनीति में इन चरमपंथी पार्टियों की ख़ासी प्रभावी भूमिका है। इस साल के शुरूआत में हुए चुनावों में अति दक्षिणपंथी ‘ट्रू फ़िन्स’ फ़ीनिश संसद में एक मुख्य ब्लॉक के रूप में उभरी। नीदरलैण्ड्स में कट्टरपंथी गियर्ट वाइलडर्स के नेतृत्व वाली ‘फ्रीडम पार्टी’ ने पिछले चुनावों में 15.5 प्रतिशे वोट बटोरे। आप्रवासी विरोधी स्वीडन जनवादी पिछले साल पहली बार देश की संसद के लिए चुने गए। इस पार्टी की कथित तौर पर जड़े नवनात्सी आंदोलन में हैं। नॉर्वे की आप्रवासी-विरोधी नस्लवादी प्रोग्रेस पार्टी संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। 2005 और 2009 के संसदीय चुनावों में इस पार्टी ने 20 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट अपने हिस्से में किये। ब्रेविक 1997 से 2006 तक इसी पार्टी का कार्यकर्त्ता था।
नॉर्वे के तमाम दक्षिणपंथी संगठन आप्रवासन और ‘बहुसंस्कृतिवाद’ पर वहाँ की सामाजिक जनवादी सरकार के नरम रूख से ख़ासा नाराज रहते हैं। ब्रेविक ने इसीलिए लेबर पार्टी के एक युवा कैम्प को हमले के लिए चुना। बाहरी दुनिया के लिए भी नॉर्वे की ही नहीं बल्कि पूरे स्कैण्डिनेवियाई क्षेत्र की छवि एक शान्तिप्रिय एवं प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में उपस्थित की गई है। लेख में इसकी चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं कि यह छवि न केवल भ्रामक है बल्कि सच्चाई और तथ्यों से कोसों दूर है। अपने औषधीय उद्योग और हथियारों के कारोबार के दम पर पूरे विश्व से अधिशेष निचोड़कर जो सम्पन्नता और समृद्धि इन देशों ने हासिल की है वह साम्राज्यवादी लूट का ही एक रूप है। साथ ही, इस तथ्य को भी नहीं भूला जाना चाहिए कि नॉर्वे नेटो (नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) का एक सदस्य है जिसने न सिर्फ नेटों के अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में हुए सैन्य अभियानों में काफ़ी उत्साह के साथ शिरक़त की बल्कि हाल ही में लीबिया पर नेटों द्वारा हमलों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वस्तुतः नॉर्वेयाई हवाई जहाज़ों ने लीबिया पर इतने बम गिराये जितने उसने पहले किसी भी सैन्य कार्रवाई या युद्ध में नहीं गिराये थे। सोचने की बात है कि समता, उदारता, सहिष्णुता और सौहार्द्र की लनतरानी हांकने वाले इन सामाजिक राज्यों के खुद के दामन कितने पाक साफ है!
नॉर्वे के हत्याकाण्ड ने पश्चिमी पूंजीवादी विश्व की कई घिनौनी, घृणित सच्चाइयों को परिधि से हटाकर केन्द्र में ला खड़ा किया है। इस घटना ने एक बार फिर इस इतिहाससिद्ध तथ्य को फ़िर पुख़्ता किया है कि मज़हबी, नस्ली और सांस्कृतिक कट्टरपंथी आर्थिक कट्टरपंथ की ही जारज औलादें है। इतिहास और वर्तमान दौर में भी फ़ासीवादी ताक़तों के उभार ने यही साबित किया है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!