आदर प्रकट करने के लिए कानून बनाने के राजनाथ सिंह के विचार के बारे में कुछ बहके-बहके विचार
मनबहकी लाल
हालाँकि अभी तक भाजपाई ‘‘दिव्यज्ञान’’ प्राप्त इतिहासकार इस मामले में किसी निश्चित नतीजे पर नहीं पहुँच पाये हैं कि प्राचीन भारत में सामाजिक आचार-विचार-नैतिक नियमों आदि के लिए ऋषि-मुनि-पुरोहितगण राजाओं से कानून बनवाकर या आदेश जारी करवाकर लागू करवाते थे या नहीं, पर उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने यह घोषणा कर दी है कि केन्द्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनते ही प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा के स्तर तक छात्र-छात्राओं के लिए शिक्षकों के चरण-स्पर्श की परम्परा अनिवार्य कर दी जायेगी। ये विचार उन्होंने पिछले दिनों धर्मनगरी काशी में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ छात्रसंघ के उद्घाटन के दौरान रखे (‘हिन्दुस्तान’ लखनऊ, 15 नवम्बर 1998)।
यह एक चिरन्तन भाजपाई द्विविधा या द्वैधता है कि वह कभी तो कहती है कि आस्था के प्रश्न पर कानून को चुप रहना चाहिए और कभी यह कहती है कि आस्था के मसले को, पूर्ण बहुमत होने की स्थिति में, कानून बनाकर हल कर देगी। यानी पूर्ण बहुमत होने पर एक तर्क, और न होने पर दूसरा!
जहाँ तक चरण-स्पर्श का सवाल है, तो चरण छूकर आदर प्रकट करना हिन्दू धर्म की प्रथा तो रही है, पर मुसलमानों-ईसाइयों-पारसियों में यह प्रचलित नहीं है। लेकिन भाजपा के लिए तो जो भी हिन्दू धर्म-सम्मत है, वही भारतीय है। जैसे कि ‘‘यदि भारत में रहना होगा, तो वन्दे मातरम् कहना होगा।’’ अब इस बात को छोड़ भी दें कि इस्लाम में देश को इस तरह पूजना कुफ्र है, तो कोई एक स्वतंत्र व्यक्ति देश को बिना मां माने (जैसे कि बाप मानकर, या देश को महज देश मानकर) भी देशभक्ति करने को आज़ाद होना चाहिये, या यह भी कि वह देश की ‘‘भक्ति’’ न करे, उसे प्यार करे! बहरहाल, चरण स्पर्श-चिन्ता व चिन्तन पर वापस लौटें। एक छात्र चरण स्पर्श के बजाय किसी और तरह से आदर प्रकट करना चाहे तो उसे कानून की धारा फलां-फलां के अनुसार आने वाले दिनों में जेल की सलाखों के पीछे होना पड़ सकता है। और मान लीजिए, कोई शिक्षक ही ऐसा हो जिसे इस तरह आदरणीय होना न रुचे! तब तो उसके लिए भी भा.द.वि. की धारा फलां-फलां की उपधारा फलां-फलां के तहत दण्ड का प्रावधान किया जायेगा। यानी शिक्षक को बलपूर्वक आदरणीय बनाया जायेगा।
वैसे इस तरह के कानून बनाने में कई व्यावहारिक अड़चनें आयेंगी। मसलन यह कि गुरुजी को दिन में चरण स्पर्श पहली बार करना होगा या जब मिलें तब, या स्कूल-विश्वविद्यालय आते समय और जाते समय। गुरू जी यदि बाजार में बोटी-कबाब खाते या गुरुआनी जी के साथ सिनेमा हाल में मिलें तो वहाँ उनके पैर छुए जायें या नहीं। पैर एक हाथ से छुए जायें या दोनों हाथों से, एक बार छुए जायें या तीन बार, इसके लिए भी ज़रूरी शासकीय निर्देश जारी करने होंगे। जैसे कि यह भी किया जा सकता है कि प्रोफेसर के पैर पाँच बार, रीडर के तीन बार, और लेक्चरर के एक बार छुए जायें। कुछ लोग थोड़ा झुककर घुटने को ही हल्के से छूकर काम चला लेते हैं। यह चलेगा कि नहीं–कानून में यह भी स्पष्ट करना होगा। लेकिन हमारा तो मत यह है कि फिर भी इतने ‘लूपहोल्स’ रह जायेंगे कि सरकार को उक्त पवित्र कानून में बार-बार सुधार करने होंगे और स्पष्टीकरण देते हुए नये-नये जी.ओ. जारी करने पड़ेंगे।
कानून में यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि छुए जाने वाले पैर निरावृत्त रहे या उपानह-आच्छादित। यदि वे उपानाहवेष्टित यानी जूते में ढँके हों तो जूते छू लेने से चलेगा या गुरुजनों को हरदम जूते उतारने पड़ेंगे। तब तो उन्हें विद्यालय-विश्वविद्यालय के परिसर में जूतों को हरदम हाथ में लिये रहना होगा। और इससे किसी को कोई भ्रम भी हो सकता है। वैसे सबसे अच्छा तो यह होता कि गुरुजन खड़ाऊं पहनते, इससे चरण स्पर्श में कोई दिक्कत नहीं होती।
वैसे आधुनिक संस्कृति ने चरण-स्पर्श की महिमामयी संस्कृति के रास्ते में कई बाधाएँ खड़ी कर दी हैं, इन्हें दूर करने के बारे में भी संसद-विधानसभा के इन धर्मध्वजाधारियों को सोचना होगा। लिखने में संकोच हो रहा है, पर क्या करें, कानून बनाने की बात है! इस कलियुग में म्लेच्छ-संस्कृति के सर्वव्यापी प्रभाव में पैण्टधारी गुरुजनों को खड़े होकर लघुशंका करनी पड़ती है और इस गरीब देश में पर्याप्त निवृत्ति-गृहों या मूत्रालयों के अभाव में सड़क के किनारे भी प्रायः यह क्रिया करनी पड़ती है, जिससे कि मूत्र-छींटों से पैर-चप्पल-जूते घर से बाहर तो प्रायः अशुद्ध ही रहते हैं, घर पहुँचकर कोई उनका प्रक्षालन भले ही कर ले। अब इस समस्या से निपटने के तीन उपाय हैं। पहला, गुरुजन हमेशा पैर धोने के बाद ही चरण स्पर्श करायें। दूसरा, चरण स्पर्श करने के बाद हाथ धोने के लिए छात्र गण जलपात्र और साबुन की बट्टी लिये रहा करें। तीसरा, गुरुजन अनिवार्यतः धोती पहनें और ऊँची खड़ाऊँ, ताकि बैठकर लघुशंका की जा सके और चरणों के अशुद्ध होने का प्रश्न ही न उठे। कानून में इन तीनों उपायों में से कोई एक अनिवार्यतः लागू करना पड़ेगा।
वैसे धोती और खड़ाऊँ ही क्यों, जिन गुरुजनों से चरण-स्पर्श की परम्परा शुरू हुई, वे नालंदा-तक्षशिला से भी पहले हुए थे, पर्णकुटियों में जंगलों में रहते थे। तो पीछे वहीं तक लौटना सही रहेगा। सभी विश्वविद्यालयों को जंगलों में भेज देने पर देश के सैकड़ों विश्वविद्यालयों की विशाल इमारतें खाली हो जायेंगी, उनमें दारुलशफा या अन्य राज्यों के विधायक निवास के अनेक्सी बनाये जा सकते हैं या सभी तैंतीस करोड़ देवताओं को प्राथमिता-क्रम से एक-एक कमरे का मन्दिर ‘अलॉट’ करने का सिलसिला शुरू किया जा सकता है। लेकिन इसमें भी कई समस्याएँ हैं। आज के शिक्षकों-छात्रों की पूरी संख्या को खपा सकने लायक जंगल पूरे मुल्क में नहीं बचे हैं। इनका दसवां हिस्सा भी यदि वहाँ पहुँच गया तो जंगल के जानवर कहाँ जायेंगे? बहरहाल, इतना ज़रूर होगा कि एन.जी.ओ. और पर्यावरणवादियों को एक नया मुद्दा तो मिल ही जायेगा और बेरोज़गारी-महँगाई-भुखमरी आदि सभी मसलों को दरकिनार करके वे गला फाड़-फाड़कर पेड़ों और कौव्वों के लिए चिल्लाते रहेंगे। सरकार के सामने दूसरी समस्या यह आयेगी कि पर्णकुटियों में संचालित शिक्षा संस्थाओं में स्ववित्त-पोषण के नाम पर निजीकरण किया जा सकेगा या नहीं? क्या फोर्ड फाउण्डेशन और टाटाजी उन जंगलों में चलने वाले विश्वविद्यालयों के लिए ग्राण्ट, प्रोजेक्ट और फेलोशिप देंगे जहाँ वीरप्पन, बाघ और जंगल पार्टी वाले सभी रहते हैं? सवाल तो यह भी है कि वहाँ के छात्रों से ‘कैम्पस इण्टरव्यू’ लेने एनरॉन कम्पनी जायेगी या जंगल पार्टी वाले?
वैसे पर्णकुटियों मे संचालित इन गुरुकुलों की अन्दरूनी हालत क्या होगी, कहना मुश्किल है। फैज़ाबाद ज़िले में (यानी भाजपा के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम के ज़िले में) मसौधा विकास खण्ड के बरवा गाँव में आश्रम पद्धति का एक राजकीय विद्यालय चलता है। उसका आकस्मिक निरीक्षण करने पर उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जाति-जनजाति राज्य मन्त्री रामआसरे कुशवाहा ने पाया कि आश्रम में छात्रों से जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है और उन्हें कीड़ों से भरा सड़ा खाना खिलाया जाता है। इसका कारण शायद यह भी हो कि उक्त आश्रम में दलित छात्र पढ़ते हों। तब तो कोई बड़ी बात नहीं। भारतीय परम्परा में तो आचार्य द्रोण दलित एकलव्य का अगूँठा का़ट लेते हैं। यहाँ तो सिर्फ सड़ा भोजन खाना पड़ रहा है! खैर, इस चिन्ता को छोड़कर फिलहाल हम चरण-स्पर्श की अनिवार्यता से सीधे जुड़ी उन व्यावहारिक समस्याओं पर लौटें, जिनसे हर आम छात्र और शिक्षक का वास्ता है।
चरण-स्पर्श सभी शिक्षकों का करना होगा क्योंकि शिक्षकों का आदर करना अनिवार्य है। पर व्यवहार में क्या होता है? कुछ शिक्षकों को तो बिना किसी क़ानून के छात्र दिल से सम्मान देते हैं, चरण-स्पर्श भले न करते हों, पर कुछ शिक्षक ऐसे भी तो हैं, जिनका चरण-स्पर्श करने वाले भी पीठ पीछे उन्हें गालियाँ ही देते हैं। पन्तनगर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर महोदय की दो शोध छात्राएँ आत्महत्या कर चुकी हैं और कई शोधकार्य अधूरा छोड़कर भाग चुकी हैं। शोध-छात्राओं और छात्राओं का यौन-उत्पीड़न करने वाले शिक्षक भी हैं, माफिया सरदारों का चरण स्पर्श करने वाले शिक्षक भी हैं, स्वयं जातिवादी मठाधीशी करने से लेकर बन्दूक लटकाकर ब्लाक-प्रमुख का चुनाव लड़ने वाले शिक्षक भी हैं और ट्यूशन के व्यापार से लाखों पीटने से लेकर सट्टेबाज़ी करने वाले भी शिक्षक हैं। क्या कानून में इन सबका पाँव छूना अनिवार्य होगा? या शिक्षकों को सदाचारी बनाने के लिए भी क़ानून बनाने होंगे? तब तो भ्रष्टाचार निरोधक विभाग से भी बड़ा ऐसा ही कोई विभाग खोलना पड़ेगा जो शिक्षकों के ‘‘आदर्श गुरु’’ के मानकों पर खरा उतरने की निगरानी करेगा?
कुछ विरोधाभास भी हैं। भाजपा सरकार शिक्षकों को छात्रों से तो आदर दिलवाना चाहती है, पर अभी पिछले दिनों तनख्वाह बढ़ाने की माँग को लेकर आन्दोलन करने पर प्राइमरी स्कूलों से लेकर कालेजों तक के शिक्षकों को वह खुद ही अपनी पुलिस द्वारा लाठियों से पिटवा चुकी है और घसीटकर जेलों में बन्द करवा चुकी है। भाजपा सरकार का गुरुजनों के प्रति यह आचरण भी क्या आदर प्रकट करने की कोई पुरातन भारतीय पद्धति है? राजनाथ सिंह को शंका-समाधान करना चाहिए!
चरण-स्पर्श से शिक्षकों का सम्मान बहाल हो जायेगा, ज़रूरी नहीं। जैसे कि चरण-स्पर्श की संस्कृति सबसे अधिक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में है, पर सच यह है कि शिक्षकों के पीटे जाने की घटनाएँ भी सबसे अधिक इन्हीं इलाकों में घटती हैं।
सवाल यह भी है कि चरण-स्पर्श ही क्यों? विद्यार्थीगण जब विद्यालय-विश्वविद्यालय पहुँचे तो पहले प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार, गुरुजनों के चरणामृत या चरणोदक लेकर, यानी उनके पैर धोकर उनका धोवन क्यों न पियें? या फिर सूखा भी चलेगा। चरण-रज लेकर, यानी पैर की धूल लेकर सिर से लगायें। इसके लिए यह भी जरूरी है कि गुरुजन अपने पैरों में पर्याप्त धूल लपेटे रहें।
करीब तीन दशक पूर्व गोरखपुर विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष महोदय थे, प्राचीन परम्पराओं के प्रकाण्ड पण्डित! बमभोले का प्रसाद प्रातःकाल भोग लगाकर मत्त गज की चाल से विश्वविद्यालय आते थे। कला संकाय के संकरे कारीडोर में एकदम क्षैतिज रेखा में देखते गुरुवर के समक्ष कभी अचानक ही सामने से या बगल से कोई छात्र झुककर छापामार ढंग से चरणों को छूने की कोशिश करता और वे लड़खड़ाकर गिरने को हो जाते थे। तंग आकर एक दिन उन्होंने एक शिष्य से कहा, ‘‘वत्स, आदर प्रकट करना तो ठीक है, पर आकस्मिक आदर-प्रकटीकरण से दुर्घटनाएँ हो सकती हैं।’’ और भी पहले, एक और विभागाध्यक्ष महोदय थे, जो अपने कक्ष में एक पैर स्टूल पर रखे ऊँघते रहते थे और छात्रगण आ-आकर उनका चरण-स्पर्श करते रहते थे। एक ज़माना था जब आदर प्रकट करने की इतनी होड़ थी कि एक बार भूगोल विभाग के विभागाध्यक्ष महोदय अपना पोर्टफोलियो बैग दबाये हुए सड़क पर जा रहे थे कि एक छात्र ने झपटकर पीछे से बैग छीन लिया, वे हक्का-बक्का होकर कुछ बोलें, तब तक छात्र बोला, ‘‘लाइये सर, मैं ले चलता हूँ आपका बैग!’’ तो आदर भाव का वह ज़माना ही नहीं, उससे भी पहले का ज़माना राजनाथ सिंह लाना चाहते हैं।
वैसे क़ानूनन यदि सिर्फ चरण-स्पर्श को ही अनिवार्य किया जाये, तो ऐसा भी तो हो सकता है कि छात्र पहले इस क़ानून का पालन करें और फिर उसके बाद जीभ निकालकर या ‘‘टिली लिली’’ करके चलते बनें। कहने का मतलब यह कि क़ानून बनाकर शिक्षकों को आदर दिला पाना कहाँ तक सम्भव होगा? और क्या यह उचित भी होगा?
और फिर यह भी तो एक बात है कि शिक्षा जगत आज स्वायत्त नहीं है। शिक्षा के नियम-विधान शिक्षा के विशेषज्ञ नहीं, शिक्षक नहीं, मंत्री और नौकरशाह बनाते हैं। आज भाजपा सरकार है तो एक पाठ्यक्रम, कल दूसरी पार्टी की सरकार तो दूसरा पाठ्यक्रम! शिक्षक तो महज़ वेतनभोगी कर्मचारी है। शिक्षक समुदाय के अनादर के लिए तो यह व्यवस्था ज़िम्मेदार है। सच्चा शिक्षक तो वह होगा जो पाठ्यक्रम से न पढ़ाकर छात्रों को जीवन और समाज की सच्चाइयों से शिक्षित करे। ऐसा शिक्षक विश्वविद्यालय-स्कूल का तनख्वाहशुदा ‘‘मास्टर साहब’’ हो, यह भी ज़रूरी नहीं। ऐसे शिक्षकों को जनता तो आदर देगी पर राजनाथ सिंह की पार्टी की सरकार तो शायद ‘आतंकवादी’ करार देकर ‘एनकाण्टर’ करा दे।
बहरहाल, इस देश का पूँजीवादी संविधान भी जिस हद तक धार्मिक और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की छूट देता है, राजनाथ सिंह के चरण-स्पर्श की अनिवार्यता-विषयक विचार उसके विपरीत जाते हैं। पर जैसा कि भाजपा के साथ होता है, अभी यदि इसको कोई मुद्दा बनाये तो प्रधानमंत्री वाजपेयी का बयान कुछ ऐसा होगा, ‘‘यह सब विरोधियों का ग़लत प्रचार है। भारतीय जनता पार्टी अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करना चाहती है कि वह चरण-स्पर्श को अनिवार्य बनाने वाला कोई क़ानून नहीं बनायेगी।’’
तुलसीदास ने मानस में कई जगह लिखा है कि रावण अपने दसों सिरों से बोल उठा या दसों मुँह से ठठाकर हँस पड़ा। रावण ज़्यादातर अपने एक मुँह का इस्तेमाल करता था और जब दसों मुँहों से बोलता भी था तो एक ही बात। पर भाजपा एक ऐसे रावण जैसा व्यवहार करती है जो हमेशा दसों मुँह से दस परस्पर विरोधी बातें करता रहता है।
‘आह्वान कैंपस टाइम्स’, 1 दिसम्बर 1998-28 फरवरी 1999
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!