आखिर इस आदमखोर व्यवस्था को कब तक बर्दाश्त करें?
ओलेग, दिल्ली
बचपन से हम यह गीत सुनते आ रहे हैं कि ‘नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तक़दीर हमारी’। लेकिन आज बच्चों के हाथ में उनकी तक़दीर नहीं है। तक़दीर और भविष्य के नाम पर एक भयंकर घना अन्धेरा है। आज उनके हाथ में उनकी तक़दीर नहीं है। आज उनके कोमल, मासूम हाथों में सुसाइड नोट होता है और उन्हीं नन्हें हाथों से वे अपनी मौत का फ़न्दा तैयार करते हैं। हाल ही में, एक ख़बर आयी कि एक 12 वर्ष की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। बालसुलभ लिखावट में अपने सुसाइड नोट में उसने अपने पिता से कहा था कि आप मेरी पढ़ाई के लिए चिन्तित न हों, क्योंकि सारी परेशानी की जड़ मैं हूँ, और अगर मैं ही नहीं रहूँगी तो आपको मेरी किताब और स्कूल की फ़ीस का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा। ये पंक्तियाँ उस बच्ची द्वारा लिखी गयी हैं जिसका बाप ग़रीबी के कारण उसकी शिक्षा का ख़र्च उठाने में असमर्थ था और इसके कारण उसे भारी तनाव का सामना करना पड़ रहा था। वह बच्ची भी अपने पिता के चेहरे पर उस तनाव को देखती थी और उसके लिए यह असह्य था। नतीजतन, उसने यह भयंकर कदम उठाया।
यह सिर्फ़ एक घटना नहीं है। ऐसे न जाने कितने बच्चे इस देश में रोज़-ब-रोज़ इस आदमखोर शिक्षा व्यवस्था का शिकार बन रहे हैं। कुछ इसलिए क्योंकि वे मँहगी होती शिक्षा का ख़र्च नहीं उठा पाते और पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। कुछ पढ़ाई कर पाते हैं तो परीक्षाएँ ख़राब होने की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं। जिनकी पढ़ाई छूट जाती है और वे आत्महत्या नहीं करते तो कोई छोटा-मोटा काम करने लगते हैं। उनके भी बचपन की तो हत्या हो ही जाती है। ये बच्चे कौन हैं? ये किन घरों से आते हैं? ये वे बच्चे नहीं हैं जिनके पास सुविधाओं, कारों, वीडियो गेम्स, खिलौनों और कपड़ों की भरमार है और जिनके माँ-बाप समाज के ऊपरी तबकों के खाए–पिये–मुटियाए–अघियाए लोग हैं। ये वे बच्चे हैं जिनके माँ-बाप दिन-रात कड़ी मशक्कत करके पाई–पाई जुटाकर, कर्ज़ लेकर अपने बच्चों को इस उम्मीद में स्कूल भेजते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं कि एक दिन उनके बच्चे को ऐसा जीवन नसीब हो जिसमें उनकी तरह उसे रोज़-रोज़ कोल्हू के बैल की तरह खटना न पड़े। लेकिन ये सारी उम्मीदें ख़ाक हो जाती हैं और 12–13 साल के बच्चे तक निराशा और तनाव में आकर आत्महत्या कर लेते हैं। शिक्षा के बढ़ते व्यवसायीकरण और घटते अवसरों के कारण उसमें बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण बच्चों में डिप्रेशन पैदा होता है और वे या तो मानसिक रोगों का शिकार हो जाते हैं, तमाम ग्रंथियाँ और कुण्ठाएँ उनमें घर कर जाती हैं या फ़िर पढ़ाई से नफ़रत करने लगते हैं, उससे पलायन कर जाते हैं और छोटा-मोटा काम-धन्धा करते हुए और अपने आपको खटाते हुए ज़्यादा सुकून महसूस करते हैं।
जो मध्यवर्गीय परिवार अपने बच्चों को थोड़ी सम्मानजनक शिक्षा दिलवाने की औकात रखते हैं उनमें भी पढ़ने वाले बच्चों पर पढ़ाई का इतना दबाव पैदा किया जाता है कि वे भयंकर तनाव का शिकार हो जाते हैं। अच्छे नम्बर लाना ज्ञान अर्जन से अधिक स्टेटस का मामला बन जाता है। भाइयों-बहनों में ही जो कमाऊ शिक्षा में अच्छे नम्बर ले आता है वह काबिल बेटा या बेटी होता है जबकि अगर किसी बच्चे का मन पारम्परिक घिसी–पिटी पढ़ाई से अधिक संगीत, साहित्य, चित्रकारी या ऐसी किसी विधा में लगता है तो उसे नाकारा, निखट्टू और नाकाबिल क़रार दे दिया जाता है। यह पूरी शिक्षा ही बच्चों को बचपन से कोल्हू का बैल बना देती है। जो पढ़ पाते हैं उनके लिए भी जीवन का मतलब भरा टिफ़िन दफ़्तर ले जाना और ख़ाली टिफ़िन बजाते घर वापस लौट आना ही हो जाता है। उत्पादक कार्रवाइयों और असल ज़िन्दगी से इस पढ़ाई का कहीं कोई रिश्ता नहीं होता है। बचपन से ही बच्चा शारीरिक श्रम और उत्पादक कार्रवाइयों से या तो नफ़रत करने लगता है या फ़िर उसके बारे में कुछ नहीं जानता।
जो बच्चे पढ़ पाते हैं उनमें भी कई वर्ग संस्तर होते हैं। एक तबका वह है जो कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ता है और उसके लिए मैनेजमेण्ट, इंजीनियरिंग, मेडिकल या सिविल सर्विसेज़ में जाने या फ़िर कोई व्यवसाय करने का रास्ता खुला होता है। इस तबके को सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं-किताबों, कोचिंग से लेकर अच्छे स्कूल तक। दूसरा तबका उन बच्चों का है जो नगरपालिका के स्कूलों और सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जिनकी किस्मत में पहले से ही या तो देश की मज़दूर आबादी में बढ़ोत्तरी करना लिखा होता है या फ़िर उसकी सड़कों पर बेरोज़गार चप्पलें फ़टकाना।
यह शिक्षा व्यवस्था इसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का ही उत्पाद है। यह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था जिन असमानताओं पर और वर्ग विभाजनों पर आधारित है उन्हें जारी रखने का काम इस शिक्षा व्यवस्था के द्वारा भी किया जाता है। बचपन से ही यह एक मान्य बात बना दी जाती है कि यह तो होता है ही कि सभी को समान शिक्षा न मिले। इस समाज में काबिल लोगों की जगह है। शीर्ष पर जगह है, लेकिन सिर्फ़ उनके लिए जिनके पास माल है। ‘सर्वाइवल ऑफ़ दि फ़िटेस्ट’! यही इस व्यवस्था का आदर्श वाक्य है। फ़िटेस्ट वह है जो पैसे वाला है, जिसके पास पूँजी है।
साफ़ है कि बच्चों की आत्महत्या कोई आत्महत्या नहीं है बल्कि हत्या है, ठण्डी हत्या जो यह व्यवस्था रोज़ करती है। इसका शिकार आम घरों के बच्चे होते हैं। इसका इलाज मुनाफ़े पर टिकी पूरी व्यवस्था को धूल में मिलाने के साथ ही हो सकता है। छात्रों को यह समझाने की ज़रूरत है कि उनकी तबाही-बरबादी के लिए यह पूरा लुटेरा निज़ाम ज़िम्मेदार है और वे अपने आप को आग या फ़ाँसी लगाने की बजाय इस व्यवस्था को आग लगा दें।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्बर 2007
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