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संस्कृति-रक्षकों और धर्म ध्वजाधारियों का असली चेहरा

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें या यूँ कहें कि सभी तरह की फ़ासीवादी ताक़तें मिथकों को यथार्थ और ‘कॉमन सेंस’ बनाकर और प्रतिक्रिया की ज़मीन पर खड़े होकर कल्पित अतीत से अपनी राजनीतिक ताक़त और ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जर्मनी में नात्सियों ने यही किया और भारत में संघ परिवार और उसके तमाम आनुषंगिक संगठन यही कर रहे हैं। स्त्रियों, दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और आम ग़रीब आबादी के प्रति इनका फासीवादी रवैया बार-बार हमारे सामने आता है। ये ताक़तें इसे धर्म-सम्मत और संस्कृति-सम्मत बताकर सही ठहराती हैं और अनुशासित और निरन्तरतापूर्ण तरीके से मस्तिष्कों में विष घोलने का काम करती रहती हैं। ये ताक़तें जनता के बीच सतत् मौजूद हैं और इसलिए जनता के तमाम संघर्षों की एकजुटता के लिए नुकसानदेह हैं। इसलिए आज इन संस्कृति-रक्षकों और धर्मध्वजाधारियों के दोगले और पाखण्डी चेहरे को पूरे देश की जनता के सामने बेनक़ाब करने की ज़रूरत है। साथ ही, इन साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों के खि़लाफ़ समझौताविहीन संघर्ष चलाने की भी उतनी ही ज़रूरत है।

एक साजि़श जिससे जनता की चेतना पथरा जाए

‘‘पूँजीवाद न सिर्फ विज्ञान और उसकी खोजों का मुनाफ़े के लिए आदमखोर तरीके से इस्तेमाल कर रहा है बल्कि आध्यात्म और धर्म का भी वह ऐसा ही इस्तेमाल कर रहा है। इसमें आध्यत्मिकता और धर्म का इस्तेमाल ज़्यादा घातक है क्योंकि इसका इस्तेमाल जनता के नियन्त्रण और उसकी चेतना को कुन्द और दास बनाने के लिए किया जाता है। पूँजीवाद विज्ञान की सभी नेमतों का उपयोग तो करना चाहता है परन्तु विज्ञान और तर्क की रोशनी को जनता के व्यापक तबकों तक पहुँचने से रोकने के लिए या उसे विकृत रूप में आम जनसमुदायों में पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है।”

असली इंसाफ़ होना अभी बाकी है!

इस तथ्य को साबित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की ज़रूरत भी नहीं है कि गुजरात नरसंहार के करीब 10 साल बाद भी गुजरात के नीरो नरेन्द्र मोदी-समेत तमाम धर्म-ध्वजाधारियों और फासीवादियों पर कोई आँच तक नहीं आयी है। इस देश की न्यायिक व्यवस्था आज भी शेक्सपीयर के पात्र हैमलेट की भाँति ‘मोदी को चार्जशीट किया जा सकता है या नहीं’ की ऊहापोह में फँसी हुई है। ये तथ्य स्वयं ही पूँजीवादी न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। यह दीगर बात है कि अगर मोदी के खि़लाफ़ आरोप-पत्र दायर हो भी जाता है तो ये पूरी न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी और थकाऊ होगी कि इस पूरे मामले में ही ज़्यादा कुछ नहीं हो पायेगा। जब तक पूँजीवाद रहेगा, समाज में साम्प्रदायिकता और राजनीति में उसके उपयोग की ज़मीन भी बनी रहेगी। गुजरात जैसे नरसंहार होते रहेंगे, लोगों की जानें इसकी भेंट चढ़ती रहेंगी और मोदी जैसे लोग बेख़ौफ़ कानून को अँगूठा दिखाते हुए खुलेआम आज़ाद घूमते रहेंगे। इसलिए ऐसी व्यवस्था से सच्चे न्याय की उम्मीद करना ही बेमानी है।

फासीवादियों के सामने फिर घुटने टेके उदार पूँजीवादी शिक्षा तन्त्र ने

स्पष्ट है कि हमेशा की तरह शिक्षा का प्रशासन अपने सेक्युलर, तर्कसंगत और वैज्ञानिक होने के तमाम दावों के बावजूद तर्क की जगह आस्था को तरजीह दे रहा है और फासिस्ट ताकतों के सामने घुटने टेक रहा है। यह प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। आपको याद होगा कि मुम्बई विश्वविद्यालय ने रोहिण्टन मिस्त्री की पुस्तक को शिवसेना के दबाव में आकर पाठ्यक्रम से हटा दिया। इस तरह की तमाम घटनाएँ साफ़ तौर पर दिखलाती हैं कि पाठ्यक्रमों का फासीवादीकरण केवल तभी नहीं होगा जब साम्प्रदायिक फासीवादियों की सरकार सत्ता में होगी। धार्मिक बहुसंख्यावाद के आधार पर राजनीति करने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतें जब सत्ता में नहीं होंगी तो भी भावना और आस्था की राजनीति और वर्ग चेतना को कुन्द करने वाली राजनीति के बूते नपुंसक सर्वधर्म समभाव की बात करने वाली सरकारों को चुनावी गणित के बूते झुका देंगी। ऐसा बार-बार हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में भी और राजनीति के क्षेत्र में भी।

भारतीय पूँजीवादी राजनीति का प्रहसनात्मक यथार्थ

भारत की पूँजीवादी राजनीति आजकल ऐसी हो गयी है जिस पर कोई कॉमेडी फिल्म नहीं बन सकती। कॉमेडी शैली का मूल होता है अलग-अलग तत्वों का व्यंग्यात्मक रूप से छोर तक खींच दिया जाना, अत्युक्तिपूर्ण प्रदर्शन करना। लेकिन जब यथार्थ में यह प्रक्रिया पहले ही घटित हो गयी हो, तो!!?? जैसे कि सितम्बर महीने में गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने “सद्भावना मिशन” के नाम से एक जमावड़ा किया और तीन दिन का उपवास रखा!

पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था का घिनौना सच

जाँच एजेंसियों के इन भारी मतभेदों और कृत्रिम गवाहों के झूठे बयानों के बावजूद न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी मानते हुए सज़ाएँ दीं। जबकि इसके उलट गुजरात दंगों (विशेषकर बेस्ट बेकरी) में जहाँ हज़ारों अल्पसंख्यक लोग मारे गये, जहाँ हैवानियत का नंगा नाच किया गया, जहाँ मानवजाति को शर्मसार किया गया, जहाँ छोटे-छोटे बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया, जहाँ वे चीख़ते-चिल्लाते रहे, जहाँ हज़ारों सबूत चीख़-चीख़कर आज भी उस मंजर की हुबहू कहानी कह रहे हैं, वहाँ यह न्याय-व्यवस्था अपंग नज़र आती है, शैतानों के पक्ष में खड़ी नज़र आती है, पीड़ितों से दूर नज़र आती है।

आतंकवादी हिन्दू नहीं संघ है

सबसे पहला सवाल तो यही है कि हिन्दू से आपका आशय क्या है? अगर आपका आशय उन करोड़ों लोगों से है जो खेतों, खदानों, कारख़ानों, कार्यालयों में रात-दिन पसीना बहाकर अपनी रोटी का जुगाड़ करते हैं तो आपका उक्त कथन बिलकुल सत्य है। वाकई इनमें से किसी ने भी समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोट के बारे में कभी भी नहीं सोचा। भण्डारकर संस्थान को जलाने या किसी इंसान को ज़िन्दा आग में झोंक देने के बारे में भी कभी नहीं सोचा। इनमें से किसी ने अजमेर शरीफ दरगाह में बम विस्फोट कर हिन्दुओं को वहाँ न जाने का आतंक पैदा करने के बारे में भी कभी नहीं सोचा। क्योंकि यह हिन्दू समुदाय सबसे अधिक देशभक्त और शान्तिपूर्ण है। इन सब कायरतापूर्ण घिनौने कार्यों के बारे में तो आप संघी ही सोच सकते और कर सकते हैं, कोई सामान्य हिन्दू तो कदापि नहीं।

हिन्दू आतंकवाद के नाम पर तिलमिलाहट क्यों?

आर.एस.एस. और भा.ज.पा. जिन कार्यों के लिए सिमी, तालिबानियों और नक्सलियों को आतंकवादी कहते हैं, उन्हीं गतिविधियों और कार्यों के लिए ख़ुद को आतंकवादी कहा जाना उन्हें पसन्द क्यों नहीं? पूरे गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाकर हज़ारों निर्दोषों को सरकारी मशीनरी का प्रयोग करते हुए सरेआम जिन्दा जला देने का काम हो या उड़ीसा में ईसाई समुदाय के लोगों का कत्लेआम या भण्डारकर शोध संस्थान को आग के हवाले करने का काम हो, या नागपुर, मालेगाँव और कानपुर में बम विस्फोट करने का काम हो, या दिल्ली के करोलबाग में न्यूज़ चैनल के ऑफिस को तोड़फोड़कर नष्ट कर देने का या मुम्बई में ग़ैर-महाराष्ट्रीय लोगों को सड़क पर सरेआम कत्ल करने का काम; ये सब आतंकवादी कार्यवाही नहीं हैं क्या?

वे इतिहास से इतना क्यों भयाक्रान्त हैं!

जेम्स लेन की किताब में कुछ ऐसी बातों का जिक्र किया गया था जो मराठा अस्मितावादी तथा संघियों के आदर्श हिन्दू राज्य के खोखले तथा तर्कविहीन आदर्शों से कतई मेल नहीं खाती थी। तब ज़ाहिर सी बात है कि जैसा हमेशा होता आया है कि राष्ट्रवादियों का राष्ट्रप्रेम जागे तथा वे प्रतिरोध करने वालों को दैहिक व दैविक ताप से मुक्ति का अभियान शुरू करें। यह फासीवाद की कार्यनीति का अभिन्न अंग है कि वह अपने सांगठनिक व राजनीतिक हितों की पूर्ति हेतु आतंक का सहारा लेता है।

“राष्ट्रवादियों” का राष्ट्र प्रेम

उपरोक्त घटना इस ओर भी इंगित करती है कि मीडिया का जनसरोकारों से अलगाव आज दिन के उजाले की तरह एकदम साफ हो चुका है। यदि वाकई मीडिया में जनपक्षधरता का पहलू होता तो यह हो ही नहीं सकता था कि जनता साथ न खड़ी होती। सलमान, ऐश्वर्या तो खड़े होने से रहे! मीडिया व फासिज्म का प्रश्न आज तमाम प्रगतिशील जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताकतों के एजेण्डे पर होना लाजिमी है। जनसंसाधनों के दम पर खड़े किये गये मीडिया से ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे बहुसंख्यक जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हुए जनता को सचेत और जागरूक करने का काम करेंगे, न कि कारपोरेट घरानों व बाज़ार की शक्तियों से संचालित मीडिया से।