“राष्ट्रवादियों” का राष्ट्र प्रेम
अल्तमश कबीर
विगत 16 जुलाई 2010 को देश के जानेमाने समाचार चैनल हेडलाइन टुडे के झण्डेवालान दिल्ली स्थित कार्यालय पर संघी भगवाधारियों का हमला वैसे तो भारतीय लोकतन्त्र के चौथे खम्भे के लिए एक अप्रत्याशित घटना थी, परन्तु हिटलर की जारज औलादों के लिए तो यह राष्ट्रसेवा का उपयुक्त अवसर था! “आज़ादी” के बाद के छः दशकों में अब तक जहाँ भी इन्हें “राष्ट्रसेवा” (नागरिक अधिकारों व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हनन) का कोई भी अवसर मिला उन्होंने उसको अपने मानस पिताओं हिटलर व मुसोलिनी से भी बेहतर तरीके से अंजाम दिया। चाहे वह ‘जनचेतना’ जैसे प्रगतिशील साहित्य के प्रतिष्ठान की सचल पुस्तक प्रदर्शनी वाहन पर मथुरा, मेरठ व दिल्ली विश्वविद्यालय में किया गया नवीनतम हमला हो! इसके अतिरिक्त मुम्बई में 2004 में भण्डारकर संस्थान पर हमला या फिर हबीब तनवीर के नाटकों से लेकर एम.एफ- हुसैन की कलाकृतियों को कथित अश्लीलता के बहाने तोड़ने तक ऐसी तमाम घटनाएँ संघी गुण्डा गिरोह के कारनामों की गवाह हैं। यहाँ पर मामला थोड़ा-सा अलग यह था कि संघ की आतंकी कार्रवाइयों में संलिप्तता को चैनल ने उजागर कर दिया था, जिसके फलस्वरूप “राष्ट्रवादियों” का “राष्ट्रप्रेम” जागा तथा वे “राष्ट्र सेवा” में संलग्न हुए।
पिछले 63 वर्षों का इतिहास बताता है कि तमाम शैक्षणिक संस्थाएँ, पाठ्य पुस्तकें, पत्रिकाएँ या व्यक्ति विशेष जिन्होंने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की फासिस्ट गुण्डागर्दी को बेनकाब करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी की, वे सब उसके कोपभाजन बने! यह अकारण नहीं है कि तहलका स्टिंग आपरेशन (जिसमें गुजरात दंगों में मोदी व तमाम संघियों की संलिप्तता दिखायी गयी) करने वाले पत्रकार ने सरकार को अपनी जान का ख़तरा बताया है।
हमले का कारण
2007-08 में अजमेर, हैदराबाद व मालेगाँव बम-धमाकों के सम्बन्ध में अभिनव भारत नामक संगठन के शामिल होने के प्रमाण पुलिस को मिल रहे थे। इस संस्था (आरएसएस ऐसी तमाम संस्थाओं के माध्यम से अपनी सम्पूर्ण हिंसात्मक गतिविधियों को अंजाम देता है जैसेकि बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू जागरण मंच आदि) से जुड़े शंकराचार्य दयानन्द पाण्डे, साधवी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेण्ट कर्नल श्रीकान्त पुरोहित तथा सेवानिवृत्त (अब संघ की सेवा में संलग्न) मेजर रमेश उपाध्याय को गिरफ्तार किया गया था जो फिलहाल नासिक जेल में हैं। सी.बी.आई. को जाँच के दौरान दयानन्द पाण्डे के लैपटाप से ऐसी कई आडियो-वीडियो फाइलें मिलीं, जिनसे आतंकी हमलों की साजिश के आरोप पुख़्ता होते हैं। उनमें से कुछ का प्रसारण हेडलाइंस टुडे पर किया गया था। इसके अलावा अन्य साक्ष्यों में majorupadhyay.com शीर्षक की आडियो फाइल में कहा गया है कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में जो हुआ था व अन्य मस्जिदों में जो हो रहा है, उसमें आईएसआई के नहीं बल्कि हमारे लोग शामिल हैं। इसमें मेजर रमेश उपाध्याय की आवाज़ है। इसके अतिरिक्त भाजपा से दो बार सांसद रह चुका बी.एल. शर्मा ‘प्रेम’ को एक वीडियो टेप में कर्नल श्रीकान्त पुरोहित व दयानन्द पाण्डे के साथ मुस्लिमों के खि़लाफ आतंकी साजिश रचते हुए दिखाया गया था। उपरोक्त घटना के बाद कथित राष्ट्रवादियों का राष्ट्र प्रेम जागा तथा वे सब के सब राष्ट्रवाद पर हमले के विरुद्ध राष्ट्रसेवा में लग गये! डेढ़ से दो हज़ार खाकी निक्करधारियों की भीड़ ने हेडलाइंस टुडे के कार्यालय पर जमकर तोड़फोड़ की तथा अपने “राष्ट्रप्रेम” का परिचय दिया जिसे लगभग पूरे देश ने देखा! जब देश के अधिकांश मीडिया संस्थानों पत्रकारों ने उपरोक्त कृत्य की निन्दा करते हुए संघ पर माफी माँगने का दबाव बनाया तो संघ प्रवक्ता राममाधव का बयान था कि “आखि़र किस बात की माफी माँगी जाये जबकि वह संघ के स्वयंसेवकों का शान्तिपूर्ण प्रदर्शन था। लोकतन्त्र में मीडिया को जिस तरह अपनी बात कहने का अधिकार है उसी तरह हमें विरोध जताने का अधिकार है।” पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि यदि यह शान्तिपूर्ण प्रदर्शन था तो फिर हिंसक कैसा होगा! शायद गुजरात जैसा! इस घटना से एक और बात साफ हो जाती है वह है मीडिया का वर्ग-चरित्र व जनविरोधी नज़रिया। इस हमले के बाद देश के मीडिया संस्थानों से लेकर, कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी पत्रकार इस घटना पर चिल्ल-पौं मचा रहे हैं तथा यह बता रहे हैं कि यह लोकतन्त्र पर हमला है। उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि क्या इससे पहले इन्हें लोकतन्त्र पर हमला नहीं दिखायी देता था। जब गुजरात में हज़ारों बेगुनाहों का कत्लेआम किया जा रहा था या फिर तब जब प्रो. सभरवाल संघ के गुण्डा गिरोह एबीवीपी के कोप का भाजन बने थे, तब लोकतन्त्र, नैतिकता, अभिव्यक्ति व अधिकार जैसे शब्दों से मीडिया संस्थानों, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों का शब्दकोश शायद रिक्त हो गया था या फिर ज़्यादा से ज़्यादा कुछ कथित प्रगतिशील पत्रकार, बुद्धिजीवी मण्डीहाउस में मोमबत्ती जलाकर अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे। उपर्युक्त स्टिंग आपरेशन से पाठक यह भ्रम न पाल ले कि भारतीय मीडिया फासीवाद-विरोधी मुहिमों में शामिल हो गया है। पूँजीवादी व्यवस्था में बाज़ार के आधार पर ही तमाम संस्थानिक नीतियों का निर्धारण होता है। और पूरा मीडिया तन्त्र उसी बाज़ार का हिस्सा है। गाहे-बगाहे टीआरपी बढ़ाने के लिए कुछ ऐसी ख़बरों का प्रसारण किया जाता है जिससे कुछ लोगों को भ्रम हो सकता है कि वह जनपक्षधरता व जनवाद का राही हो चुका है। हकीकतन तो यही मीडिया संस्थान उन तमाम प्रतिक्रियावादी, मूल्य मान्यताओं व संस्कृतियों का प्रसारण समाज में करते हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संघ के कार्यों को आगे बढ़ाने का काम करती हैं। इसके साथ उपरोक्त घटना इस ओर भी इंगित करती है कि मीडिया का जनसरोकारों से अलगाव आज दिन के उजाले की तरह एकदम साफ हो चुका है। यदि वाकई मीडिया में जनपक्षधरता का पहलू होता तो यह हो ही नहीं सकता था कि जनता साथ न खड़ी होती। सलमान, ऐश्वर्या तो खड़े होने से रहे! मीडिया व फासिज्म का प्रश्न आज तमाम प्रगतिशील जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताकतों के एजेण्डे पर होना लाजिमी है। जनसंसाधनों के दम पर खड़े किये गये मीडिया से ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे बहुसंख्यक जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हुए जनता को सचेत और जागरूक करने का काम करेंगे, न कि कारपोरेट घरानों व बाज़ार की शक्तियों से संचालित मीडिया से।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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