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Ajay Sinha aka Don Quixote de la Patna’s Disastrous Encounter with Marx’s Theory of Ground Rent (and Marx’s Political Economy in General)

This magazine ‘The Truth’/’Yathaarth’ and the intellectual clowns gathered around it, are an intellectual hazard for the progressive-minded people, especially youth, interested in Marxism. There can be no greater disservice to Marxism, than distorting it, falsifying it and disseminating all kinds of ignorant and stupid ideas about it. This is precisely what this bunch of intellectual crooks and clowns is doing. Therefore, my final advice to all: Stay away from them. Maintain a safe distance. It would be good for the intellectual health and well-being of all persons.

अक्‍तूबर क्रान्ति और रूसी साम्राज्‍य की दमित कौमों की मुक्ति के विषय में ट्रॉट-बुण्‍डवादियों के विचार: अपढ़पन का एक और नमूना

‘प्रतिबद्ध-ललकार’ के ट्रॉट-बुण्‍डवादी महोदय का यह दावा कि अक्‍तूबर क्रान्ति ने रूसी साम्राज्‍य की सभी दमित कौमों में सीधे समाजवादी क्रान्ति द्वारा कौमी आज़ादी के सवाल को हल किया, केवल यही दिखलाता है कि ‘प्रतिबद्ध’ के सम्‍पादक श्री ट्रॉट-बुण्‍डवादी ने न तो मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धान्‍तों का ही ढंग से अध्‍ययन किया है, और न ही बोल्‍शेविक क्रान्ति, समाजवादी निर्माण और कौमी सवाल के हल होने की प्रक्रिया के पूरे इतिहास का कोई अध्‍ययन किया है।

कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन विधेयक : मेहनतकशों का नज़रिया

ग़रीब, निम्‍न मध्‍यम और मध्‍यम किसानों की बहुसंख्‍या की नियति पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में तबाह होने की ही है। छोटे पैमाने के उत्‍पादन और इस समूचे वर्ग को बचाने का कोई भी वायदा या आश्‍वासन इन वर्गों को देना उनके साथ ग़द्दारी और विश्‍वासघात है और उन्‍हें राजनीतिक तौर पर धनी किसानों और कुलकों का पिछलग्‍गू बनाना है। तो फिर इनके बीच में हमें क्‍या करना चाहिए? जैसा कि लेनिन ने कहा था: सच बोलना चाहिए! सच बोलना ही क्रान्तिकारी होता है। हमें पूँजीवादी समाज में उन्‍हें उनकी इस अनिवार्य नियति के बारे में बताना चाहिए, उनकी सबसे अहम माँग यानी रोज़गार के हक़ की माँग के बारे में सचेत बनाना चाहिए और उन्‍हें बताना चाहिए कि उनका भविष्‍य समाजवादी खेती, यानी सहकारी, सामूहिक या राजकीय फार्मों की खेती की व्‍यवस्‍था में ही है। केवल ऐसी व्‍यवस्‍था ही उन्‍हें ग़रीबी, भुखमरी, असुरक्षा और अनिश्चितता से स्‍थायी तौर पर मुक्ति दिला सकती है। दूरगामी तौर पर, समाजवादी क्रान्ति ही हमारा लक्ष्‍य है। तात्‍कालिक तौर पर, रोज़गार गारण्‍टी की लड़ाई और खेत मज़दूरों के लिए सभी श्रम क़ानूनों की लड़ाई, और सभी कर्जों से मुक्ति की लड़ाई ही हमारी लड़ाई हो सकती है। केवल ऐसा कार्यक्रम ही गाँवों में वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाएगा और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग को एक स्‍वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करेगा और समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार करेगा।

मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों के बारे में ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के नेतृत्‍व की ”समझदारी”: एक आलोचना (दूसरा भाग)

ऐसे विचारधारात्‍मक टकरावों से आन्‍दोलन का विकास ही होता है। इसलिए एकता की तमाम कोशिशों के बावजूद यदि विचलनों को दुरुस्‍त नहीं किया जा सकता तो कार्यदिशा की शुद्धता को बरकरार रखने के लिए राहों का अलग हो जाना ही एकमात्र विकल्‍प बचता है। लेनिन ने इसीलिए संगठन की राजनीतिक व विचारधारात्‍मक कार्यदिशा की शुद्धता को बरकरार रखने को क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍टों की पहली प्राथमिकता बताया है।

मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों के बारे में ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के नेतृत्‍व की ”समझदारी”: एक आलोचना (पहला भाग)

मार्क्‍सवाद की तमाम संशोधनवादी हमलों से हिफ़ाज़त करना किसी भी प्रतिबद्ध कम्‍युनिस्‍ट का फ़र्ज़ होता है। बर्नस्‍टीन के समय से लेकर देंग स्‍याओ पिंग के समय तक क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍टों ने संशोधनवादियों द्वारा मार्क्‍सवाद के क्रान्तिकारी विज्ञान के विकृतिकरण का खण्‍डन किया है। यह विचारधारात्‍मक संघर्ष मार्क्‍सवाद के विज्ञान की शुद्धता और उसके वर्चस्‍व को सुनिश्चित करने के लिए आवश्‍यक है। लेकिन इस वांछनीय कार्य को हाथ में लेने वाले क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट को पहले अपनी थाह भी ले लेनी चाहिए। उसे ज़रा अपने भीतर झांक लेना चाहिए कि क्‍या वह मार्क्‍सवाद की संशोधनवाद से हिफ़ाज़त करने के लिए आवश्‍यक बुनियादी समझदारी रखता है या नहीं। वरना कई बार आप जाते तो हैं नेक इरादों से ओत-प्रोत होकर संशोधनवाद से मार्क्‍सवाद की रक्षा करने, लेकिन मार्क्‍सवाद का ही कबाड़ा करके चले आते हैं! ऐसा ही कुछ कारनामा पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्‍पादक सुखविन्‍दर ने किया है।

राष्‍ट्रीय दमन क्‍या होता है? भाषा के प्रश्‍न का इससे क्‍या रिश्‍ता है? मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति की एक संक्षिप्‍त प्रस्‍तुति

यह प्रश्‍न आज कुछ लोगों को बुरी तरह से भ्रमित कर रहा है। कुछ को लगता है कि यदि किसी राज्‍य के बहुसंख्‍यक भाषाई समुदाय की जनता की भाषा का दमन होता है तो वह अपने आप में राष्‍ट्रीय दमन और राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन का मसला होता है। उन्‍हें यह भी लगता है कि असम और पूर्वोत्‍तर के राज्‍यों में एन.आर.सी. उचित है क्‍योंकि यह वहां की जनता की राष्‍ट्रीय दमन के विरुद्ध ”राष्‍ट्रीय भावनाओं की अभिव्‍यक्ति” है और इस रूप में सकारात्‍मक है। तमाम क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट साथियों को यह बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है! वाकई वामपंथी दायरे में अस्मितावाद के शिकार कुछ लोग हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं। राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर ऐसे लोग बुरी तरह से दिग्‍भ्रमित हैं। इसलिए इस प्रश्‍न को समझना बेहद ज़रूरी है कि दमित राष्‍ट्रीयता किसे कहते हैं और राष्‍ट्रीय दमन का मतलब क्‍या होता है। इस प्रश्‍न पर लेनिन, स्‍तालिन और तुर्की के महान माओवादी चिन्‍तक इब्राहिम केपकाया ने शानदार काम किया है।

कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है

अभी हमारी चर्चा का मूल विषय है एक निहायत ज़हीन, संजीदा, इंसाफ़पसन्द नौजवान की असमय मौत और उसके नतीजे के तौर पर हमारे सामने उपस्थित कुछ यक्षप्रश्न जिनका उत्तर दिये बग़ैर हम जाति के उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना में ज़रा भी आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनने की आकांक्षा रखने वाले रोहित ने आत्महत्या क्यों की? तारों की दुनिया, अन्तरिक्ष और प्रकृति से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इस नौजवान ने जीवन की बजाय मृत्यु का आलिंगन क्यों किया? वह युवा जो इंसानों से प्यार करता था, वह इस कदर अवसाद में क्यों चला गया? वह युवा जो न्याय और समानता की लड़ाई में अगुवा कतारों में रहा करता था और जिसकी क्षमताओं की ताईद उसके विरोधी भी किया करते थे, वह अचानक इस लड़ाई और लड़ाई के अपने हमसफ़रों को इस तरह छोड़कर क्यों चला गया? इन सवालों की पहले ही तमाम क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्र-युवा साथियों ने अपनी तरह से जवाब देने का प्रयास किया है। हम कोई बात दुहराना नहीं चाहते हैं और इसलिए हम इस मसले पर जो कुछ सोचते हैं, उसके कुछ अलग पहलुओं को सामने रखना चाहेंगे।

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

शासक हमेशा ही यह मानने की ग़लती करते रहे हैं कि संघर्षरत स्त्रियों, मज़दूरों और छात्रों-युवाओं को बर्बरता का शिकार बनाकर वे विरोध की आवाज़ों को चुप करा देंगे। वे बार-बार ऐसी ग़लती करते हैं। यहां भी उन्होंने वही ग़लती दोहरायी है। 25 मार्च की पुलिस बर्बरता केजरीवाल सरकार द्वारा दिल्ली के मेहनतकश ग़रीबों को एक सन्देश देने की कोशिश थी और सन्देश यही था कि अगर दिल्ली के ग़रीबों के साथ केजरीवाल सरकार के विश्वासघात के विरुद्ध तुमने आवाज़ उठायी तो तुमसे ऐसे ही क्रूरता के साथ निपटा जायेगा। हमारे घाव अभी ताजा हैं, हममें से कई की टांगें सूजी हैं, उंगलियां टूटी हैं, सिर फटे हुए हैं और शरीर की हर हरकत में हमें दर्द महसूस होता है। लेकिन, इस अन्याय के विरुद्ध लड़ने और अरविंद केजरीवाल और उसकी ‘आप’ पार्टी की घृणित धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने का हमारा संकल्प और भी मज़बूत हो गया है।

अस्मितावादी और व्यवहारवादी दलित राजनीति का राजनीतिक निर्वाण

रामविलास पासवान का रिकॉर्ड तो वैसे भी अपनी राजनीतिक निरन्तरता को कायम रखने में बेहद ख़राब रहा है और राजनीतिक फायदे और पद की चाहत में द्रविड़ प्राणायाम करने में वह पहले ही माहिर हो चुके हैं। लेकिन रामदास आठवले की ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया’ और उदित राज की ‘जस्टिस पार्टी’ ने जिस कुशलता और चपलता के साथ अचानक पलटी मारी है, उससे अस्मितावादी दलित राजनीति के पैरोकार काफ़ी क्षुब्ध हैं और उसे अम्बेडकरवाद से विचलन और ग़द्दारी बता रहे हैं। लेकिन हमें ऐसा लगता है कि रामदास आठवले भी पहले इस बात का चयन करने में किसी आलोचनात्मक निर्णय क्षमता का परिचय नहीं देते रहे हैं कि किसकी गोद में बैठकर ज़्यादा राजनीतिक हित साधे जा सकते हैं। सत्ता और शासक वर्ग की दलाली में रामविलास पासवान और रामदास आठवले ने पहले भी ऐसे झण्डे गाड़े हैं और ऐसे किले फतह किये हैं कि उनकी मिसालों को दुहरा पाना किसी के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण काम साबित होगा। सबसे ज़्यादा लोग उदित राज के पलटी मारने पर स्यापा कर रहे हैं।

फ़ासीवाद का मुक़ाबला कैसे करें

फ़ासीवाद और प्रतिक्रियावाद दस में से नौ बार जातीयतावादी, नस्लवादी, साम्प्रदायिकतावादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चोला पहनकर आता है। वैसे तो हमें शुरू से ही बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हर संस्करण का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए, लेकिन ख़ास तौर पर फ़ासीवादी प्रजाति का सांस्कृतिक अन्धराष्ट्रवाद मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े शत्रुओं में से एक है। हमें हर कदम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, प्राचीन हिन्दू राष्ट्र के गौरव के हर मिथक और झूठ का विरोध करना होगा और उसे जनता की निगाह में खण्डित करना होगा। इसमें हमें विशेष सहायता इन सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की जन्मकुण्डली से मिलेगी। निरपवाद रूप से अन्धराष्ट्रवाद का जुनून फैलाने में लगे सभी फ़ासीवादी प्रचारक और उनके संगठनों का काला इतिहास होता है जो ग़द्दारियों, भ्रष्टाचार और पतन की मिसालें पेश करता है। हमें बस इस इतिहास को खोलकर जनता के सामने रख देना है और उनके बीच यह सवाल खड़ा करना है कि यह ”राष्ट्र” कौन है जिसकी बात फ़ासीवादी कर रहे हैं? वे कैसे राष्ट्र को स्थापित करना चाहते हैं? और किसके हित में और किसके हित की कीमत पर? ”राष्ट्रवाद” के नारे और विचारधारा का निर्मम विखण्डन – इसके बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। राष्ट्र की जगह हमें वर्ग की चेतना को स्थापित करना होगा। बुर्जुआ राष्ट्रवाद की हर प्रजाति के लिए ”राष्ट्र” बुर्जुआ वर्ग और उसके हित होते हैं। मज़दूर वर्ग को हाड़ गलाकर इस ”राष्ट्र” की उन्नति के लिए खपना होता है। इसके अतिरिक्त कुछ भी सोचना राष्ट्र-विरोधी है। राष्ट्रवाद मज़दूरों के बीच छद्म गर्व बोध पैदा कर उनके बीच वर्ग चेतना को कुन्द करने का एक पूँजीवादी उपकरण है और इस रूप में उसे बेनकाब करना बेहद ज़रूरी है। यह न सिर्फ मज़दूरों के बीच किया जाना चाहिए, बल्कि हर उस वर्ग के बीच किया जाना चाहिए जिसे भावी समाजवादी क्रान्ति के मित्र के रूप में गोलबन्द किया जाना है।