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कृषि-सम्बन्धी तीन विधेयक : मेहनतकशों का नज़रिया
अभिनव
कोरोना महामारी के बीच मोदी सरकार ने बड़ी पूँजी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए आनन-फ़ानन में कृषि सुधारों के नाम पर जून में ही तीन अध्यादेश पास कर दिए। यही नहीं, सितम्बर के महीने में संसद के सत्र में इन अध्यादेशों को दोनों सदनों का अनुमोदन भी मिल गया। इन तीनों विधेयकों के प्रावधानों में सबसे प्रमुख यह है कि सरकार ने खेती के उत्पाद की ख़रीद के क्षेत्र में, यानी खेती के उत्पाद के व्यापार के क्षेत्र में उदारीकरण का रास्ता साफ़ कर दिया है। पहले विधेयक यानी ‘फार्म प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स (प्रमोशन एण्ड फैसिलिटेशन) विधेयक’ का मूल बिन्दु यही है। अब कोई भी निजी ख़रीदार किसानों से सीधे खेती के उत्पाद ख़रीद सकेगा, जो कि पहले ए.पी.एम.सी. (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमिटी) की मण्डियों में सरकारी तौर पर निर्धारित लाभकारी मूल्य पर ही कर सकता था। यानी, खेती के उत्पादों की क़ीमत पर सरकारी नियंत्रण और विनियमन को ढीला कर दिया गया है और उसे खुले बाज़ार की गति पर छोड़ने का इन्तज़ाम कर दिया गया है।
धनी किसानों व कुलकों को डर है कि इसकी वजह से उन्हें सरकार द्वारा तय मूल्य सुनिश्चित नहीं हो पायेगा और कारपोरेट ख़रीदार कम क़ीमतों पर सीधे खेती के उत्पाद की ख़रीद करेंगे। हो सकता है कि ये शुरू में अधिक क़ीमतें दें, लेकिन बाद में, अपनी इजारेदारी क़ायम होने के बाद, ये किसानों को कम क़ीमतें देंगे। सरकार ने इन सरकारी मण्डियों और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को औपचारिक तौर पर ख़त्म नहीं किया है, लेकिन इसका नतीजा यही होगा कि ये मण्डियाँ कालान्तर में समाप्त हो जायेंगी या वे बचेंगी भी तो उनका कोई ज़्यादा मतलब नहीं रह जायेगा। वजह यह है कि इन मण्डियों के बाहर व्यापार क्षेत्रों में होने वाले विपणन में किसानों व व्यापारियों पर कोई शुल्क या कर नहीं लगाया जायेगा। नतीजा यह होगा कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था भी प्रभावत: समाप्त हो जायेगी, भले ही उसे औपचारिक तौर पर समाप्त न किया जाये।
इसलिए मौजूदा किसान आन्दोलन के केन्द्र में लाभकारी मूल्य का सवाल है और यही उसके लिए सबसे अहम मुद्दा है या कह सकते हैं कि उसके लिए यही एकमात्र मुद्दा है। इस पहले ही विधेयक में सरकारी मण्डी के बाहर होने वाली ख़रीद को तमाम करों व शुल्कों से मुक्त करने और विवाद के निपटारे की व्यवस्था के प्रावधान भी हैं, जिनका किसान संगठन विरोध कर रहे हैं। लेकिन इनका भी रिश्ता मूलत: यह सुनिश्चित करने से ही है कि लाभकारी मूल्य मिले।
दूसरी चिन्ता जो कि इस पहले विधेयक से पैदा हुई है वह आढ़तियों की है। पंजाब में ही 28,000 से ज़्यादा आढ़ती हैं। इन्हें लाभकारी मूल्य के ऊपर 2.5 प्रतिशत का कमीशन मिलता है। पंजाब और हरियाणा में इस कमीशन से इन आढ़तियों ने पिछले वर्ष 2000 करोड़ रुपये कमाये हैं। अक्सर धनी किसान व कुलक ही आढ़ती व मध्यस्थ व्यापारी की भूमिका में भी होते हैं, सूदखोर की भूमिका में भी होते हैं, और निम्न मँझोले और ग़रीब किसानों से लाभकारी मूल्य से काफ़ी कम दाम पर उत्पाद ख़रीदते हैं और उसे लाभकारी मूल्य पर बेचकर और साथ ही कमीशन के ज़रिये मुनाफ़ा कमाते हैं।
इसके अलावा, राज्य सरकारों को भी ए.पी.एम.सी. मण्डी में होने वाली बिकवाली पर कर प्राप्त होता है, जैसे कि पंजाब में धान और गेहूँ पर 6 प्रतिशत, बासमती चावल पर 4 प्रतिशत और कपास और मक्का पर 2 प्रतिशत शुल्क लिया जाता है। पिछले वर्ष पंजाब सरकार को इससे 3500 से 3600 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था। पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों का कहना है कि यदि यह राजस्व प्राप्त नहीं होगा तो राज्य सरकार गाँव के अवसंरचनागत ढाँचे को बेहतर नहीं बना पायेगी और किसानों के लिए अपने उत्पाद की बिकवाली और परिवहन और भी मुश्किल हो जायेगा। लेकिन महाराष्ट्र के किसान संगठनों के नेताओं जैसे कि शेट्टी और घनवत का कहना है कि इस राजस्व से वैसे भी ग्रामीण अवसंरचनागत ढाँचे में कोई ख़ास निवेश नहीं होता था और इसके हट जाने पर भी निजी निवेशक कृषि उत्पाद के विपणन के तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए आवश्यक अवसंरचना में निवेश करेंगे क्योंकि यह उनके लिए भी ज़रूरी होगा।
दूसरी बात यह है कि सभी किसान संगठन ए.पी.एम.सी. मण्डियों के एकाधिकार ख़त्म होने पर अलग से आपत्ति नहीं कर रहे हैं बल्कि सिर्फ़ इसलिए आपत्ति कर रहे हैं क्योंकि यह लाभकारी मूल्य को सुनिश्चित करती थी। इसीलिए अखिल भारतीय किसान सभा के विजू कृष्णन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सरकार यदि लाभकारी मूल्य को किसानों का क़ानूनी अधिकार बना दे ताकि कोई निजी ख़रीदार भी लाभकारी मूल्य देने के लिए बाध्य हो, तो उन्हें ए.पी.एम.सी. मण्डी के एकाधिकार के समाप्त होने से कोई दिक़्क़त नहीं है।
दूसरे विधेयक का नाम है ‘दि फार्मर्स (एम्पावरमेण्ट एण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेण्ट ऑन प्राइस अश्योरेंस एण्ड फार्म सर्विसेज़ विधेयक’ जिसके अनुसार किसान अब अपने उत्पाद को ए.पी.एम.सी. मण्डी के लाइसेंसधारी व्यापारी के ज़रिये बेचने के लिए बाध्य नहीं हैं और साथ ही वे किसी भी कम्पनी, स्पॉन्सर, बिचौलिये के साथ किसी भी उत्पाद के उत्पादन के लिए सीधे क़रार कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें ए.पी.एम.सी. के लाइसेंसधारी आढ़तियों या व्यापारियों के ज़रिये जाने की आवश्यकता नहीं है। इसके तहत उत्पादन शुरू होने से पहले ही उत्पाद की तय मात्रा, तय गुणवत्ता व क़िस्म तथा तय क़ीमतों के आधार पर किसान और किसी भी निजी स्पांसर, कम्पनी, आदि के बीच क़रार होगा। इस क़रारनामे की अधिकतम अवधि उन सभी उत्पादों के मामले में पाँच वर्ष होगी जिनके उत्पादन में पाँच वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। इसके ज़रिये अनिवार्य वस्तुओं के स्टॉक पर रखी गयी अधिकतम सीमा को भी हटा दिया गया है। यानी अब तमाम अनिवार्य वस्तुओं की जमाखोरी पर किसी प्रकार की रोक नहीं होगी, जोकि कालान्तर में इन वस्तुओं जैसे कि आलू, प्याज़ आदि की क़ीमतों को बढ़ा सकता है।
अपने आप में ठेका खेती के आने से आम मेहनतकश आबादी को कोई विशेष नुक़सान नहीं होने वाला है। छोटा और मँझोला किसान पहले भी ठेका खेती की व्यवस्था का शिकार था। फ़र्क़ बस यह था कि अभी तक ठेका खेती की व्यवस्था में उसे धनी किसान व आढ़ती लूट रहे थे। अब इस लूट के मैदान को बड़ी इज़ारेदार पूँजी के लिए साफ़ कर दिया गया है। इसके नतीजे अलग-अलग देशों और अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग सामने आये हैं। पश्चिम बंगाल में पेप्सी कम्पनी के साथ आलू के उत्पादन की ठेका खेती में किसानों को प्रति किलोग्राम 5 रुपये तक ज़्यादा मिल रहे हैं। वहीं आन्ध्र प्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू के मुख्यमंत्रित्व में जो ठेका खेती का मॉडल लागू किया गया, उसमें धनी और मंझोले किसानों को हानि हुई। ग़रीब व निम्न-मँझोला किसान तो पहले भी धनी व उच्च मध्यम किसानों द्वारा ठेका खेती व अन्य तरीक़ों से लूटा ही जा रहा था। वह अब बड़ी पूँजी द्वारा लूटा जायेगा। इसलिए ठेका खेती पर केन्द्रित इस दूसरे विधेयक से जो मूल परिवर्तन होने वाला है, वह केवल इतना है कि व्यापक ग़रीब व निम्न–मंझोले किसान के लूट की धनी किसानों, उच्च मध्यम किसानों व आढ़तियों द्वारा इजारेदारी ख़त्म हो जायेगी और खेती के क्षेत्र में कारपोरेट पूँजी के बड़े पैमाने पर प्रवेश के साथ धनी किसान, कुलक व फ़ार्मरों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना मुश्किल हो जायेगा।
तीसरा विधेयक सीधे तौर पर आवश्यक वस्तु क़ानून में परिवर्तन करते हुए जमाखोरी और काला बाज़ारी को बढ़ाने की छूट देता है क्योंकि ये कई आवश्यक वस्तुओं की स्टॉकिंग पर सीमा को युद्ध जैसी आपात स्थितियों के अतिरिक्त समाप्त कर देता है। यह तीसरा विधेयक सीधे तौर पर मेहनतकश जनता के हितों के विरुद्ध जाता है। यह वह विधेयक है जो कि सीधे-सीधे आम मेहनतकश जनता को प्रभावित करता है और उसके वर्ग हितों को नुक़सान पहुँचाता है और जिसका विरोध किये जाने की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन आप पायेंगे कि धनी किसानों व कुलकों के राजनीतिक संगठनों के नेतृत्व में जो मौजूदा किसान आन्दोलन जारी है, वह इस तीसरे विधेयक पर ज़्यादा कुछ नहीं बोल रहा है।
इन विधेयकों का रिश्ता सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से बहाल करने की माँग से भी जुड़ा हुआ है। केन्द्र सरकार पहले से ही इस कोशिश में है कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की ज़िम्मेदारी से पूरी तरह से पिण्ड छुड़ा ले और यह ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालने की वकालत कर रही है। ज़ाहिर है, इस प्रस्ताव का अर्थ ही यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाय जो कि व्यापक मेहनतकश आबादी की खाद्य सुरक्षा को समाप्त कर देगी। इसलिए समूचे मज़दूर वर्ग, अर्द्धसर्वहारा वर्ग तथा ग़रीब व निम्न मध्यम किसान वर्ग की एक माँग यह भी बनती है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से बहाल किया जाये।
लुब्बेलुबाब यह कि मौजूदा किसान आन्दोलन जिन वजहों से कृषि विधेयकों का विरोध कर रहा है, वह मूलत: और मुख्यत: लाभकारी मूल्य के सवाल पर केन्द्रित है। इसकी मुख्य चिन्ता यह है कि इन विधेयकों के साथ लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। इसलिए मुख्य रूप से गाँव के लेकिन साथ ही शहर के मज़दूर वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग और गाँव के ग़रीब किसान व अर्द्धसर्वहारा वर्ग के लिए प्रमुख प्रश्न यह बनता है कि लाभकारी मूल्य पर उसका क्या नज़रिया होना चाहिए।
लाभकारी मूल्य की व्यवस्था: किसका फ़ायदा, किसका नुक़सान?
लाभकारी मूल्य की व्यवस्था का लाभ मुख्यत: 4 से 6 प्रतिशत धनी किसानों व कुलकों को होता है। इसे आँकड़ों से समझना ज़रूरी है इसलिए कुछ आँकड़ों पर निगाह डाल लेते हैं। अभी हम पहले खेतिहर मज़दूरों की बात नहीं करेंगे और केवल किसानों पर केन्द्रित करेंगे।
2013 की नेशनल सैम्पल सर्वे रिपोर्ट के अनुसार देश के एक–तिहाई किसानों के पास 0.4 हेक्टेयर से कम ज़मीन है। उनकी कुल आमदनी का केवल छठा हिस्सा, यानी 16 प्रतिशत ही खेती से आता है और अन्य 84 प्रतिशत उजरती श्रम यानी मज़दूरी से आता है। इसके अलावा एक–तिहाई किसानों के पास 0.4 हेक्टेयर से 1 हेक्टेयर ज़मीन है। इनकी कुल आमदनी का 40 प्रतिशत खेती से आता है और अन्य 60 प्रतिशत मुख्यत: उजरती श्रम से आता है। इन दोनों को मिला दिया जाये, तो कुल किसान आबादी का 70 प्रतिशत बनता है।
इन किसानों को लाभकारी मूल्य मिलता ही नहीं है। क्यों नहीं मिलता है, इस पर थोड़ा आगे आयेंगे। दूसरी अहम बात यह है कि ये किसान मुख्य रूप से कृषि उत्पादों के ख़रीदार हैं, न कि विक्रेता। नतीजतन, लाभकारी मूल्य में होने वाली किसी भी बढ़ोत्तरी से इन्हें फ़ायदा नहीं बल्कि नुक़सान होता है। वजह यह है कि लाभकारी मूल्य के बढ़ने के साथ हमेशा ही कृषि उत्पादों की क़ीमतों और साथ ही अपने उत्पादन के लिए उन पर निर्भर औद्योगिक उत्पादों की क़ीमतों में भी बढ़ोत्तरी होती है।
आँकड़ों के अनुसार, इन 70 प्रतिशत किसानों का अपने उपभोग पर ख़र्च इनकी आमदनी से ज़्यादा रहता है। नतीजतन, अपने खेतों पर काम करने के लिए चालू पूँजी (working capital) के लिए ये ऋण पर निर्भर रहते हैं। यह ऋण इन्हें वित्तीय संस्थाओं से नहीं मिलता क्योंकि बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं के ऋण तक इनकी पहुँच ही नहीं है। फिर इन्हें ये ऋण कौन देता है? ये ऋण इन्हें धनी किसान, कुलक व आढ़ती देते हैं। अक्सर धनी किसान ही कृषि उत्पादों का व्यापारी व आढ़ती भी होता है और इन ग़रीब किसानों के लिए लुटेरा सूदखोर भी। चूँकि 70 प्रतिशत बेहद ग़रीब किसान इनके ऋणों तले दबा होता है, इसलिए ये धनी किसान, कुलक व आढ़ती इन्हें लाभकारी मूल्य व बाज़ार क़ीमत से बेहद कम दाम पर अपने उत्पाद को उन्हें बेचने के लिए बाध्य करते हैं। इसके अलावा, ग़रीब और निम्न मध्यम किसान इसलिए भी सीधे मण्डियों तक पहुँच नहीं रखते क्योंकि उसके लिए परिवहन की सुविधा तथा पूँजी की आवश्यकता होती है, जोकि इनके पास होती ही नहीं और वे अपने उत्पाद के विपणन के लिए इसलिए भी ग्रामीण क्षेत्र के पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसान, कुलक, आढ़तियों व सूदखोरों पर निर्भर करते हैं। इस उत्पाद को ये धनी किसान, कुलक व आढ़ती लाभकारी मूल्य पर बेचते हैं और साथ ही आढ़ती इस लाभकारी मूल्य के ऊपर कमीशन भी कमाते हैं।
देश के 92 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है। यानी कि ग़रीब और बेहद ग़रीब व परिधिगत किसान आबादी को जोड़ दें, तो कुल किसान आबादी का 92 प्रतिशत बनता है। ये वे किसान हैं जिन्हें लाभकारी मूल्य का या तो कोई लाभ नहीं मिलता और नुक़सान होता है, या फिर ज़्यादा से ज़्यादा इसके बेहद छोटे उच्चतम हिस्से को कुछ नगण्य लाभ मिलता है। ये वे किसान हैं जो कृषि उत्पाद, मुख्यत: खाद्यान्न के ख़रीदार हैं, न कि विक्रेता। इन्हें लाभकारी मूल्य और उसमें होने वाली बढ़ोत्तरी से कुछ भी हासिल नहीं होता है, उल्टे नुक़सान होता है।
फिर लाभकारी मूल्य से लाभ किसे होता है? इस पर भी तथ्यों को देख लेते हैं।
देश के कुल किसानों में से केवल 4.1 प्रतिशत किसान हैं जिनके पास 4 हेक्टेयर या उससे ज़्यादा ज़मीन है। इनकी आमदनी का तीन चौथाई हिस्सा खेती से आता है। बाक़ी भी कमीशन व सूदखोरी आदि से ही आता है, उजरती श्रम से कम ही आता है। यानी इनकी घरेलू अर्थव्यवस्था खेती से आने वाली आमदनी पर टिकी हुई है। याद रखें, ये आम तौर पर वे किसान हैं, जो उजरती श्रम का शोषण करके ही खेती कर सकते हैं। ये स्वयं अपने और अपने परिवार के श्रम के बूते खेती नहीं करते। वास्तव में, ज़्यादातर मामलों में वे स्वयं खेत में श्रम करते ही नहीं हैं और इनके खेतों में उत्पादक श्रम पूरी तरह से उजरती श्रम करने वाले खेत मज़दूर या ग़रीब किसान होते हैं। ये वह वर्ग है जो कोई कर नहीं देता है, जिन्हें सभी क़र्ज़ माफ़ी की योजनाओं का लाभ मिलता है और जो लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के लाभार्थी हैं। इन्हें “अन्नदाता” कहना एक भद्दा मज़ाक़ है। अगर ये धनी किसान व कुलक अन्नदाता हैं, तो रिलायंस गैसदाता है, लिबर्टी जूतादाता है, टाइटन घड़ीदाता है, इत्यादि। यह तर्क वही है जो नरेन्द्र मोदी ने दिया है: कि पूँजीपति समृद्धि पैदा करता है। सच यह है कि खेतिहर मज़दूर और ग़रीब किसान देश के अन्नदाता हैं और धनी किसान और कुलक इन मेहनतकश वर्गों की श्रमशक्ति को लूटने वाले परजीवी वर्ग हैं।
शान्ता कुमार कमेटी की रपट के अनुसार देश के सभी किसानों में से केवल 5.8 प्रतिशत किसान ही लाभकारी मूल्य पर अपने उत्पाद को बेच पाते हैं और ये भी अपने उत्पाद का 14 से 35 प्रतिशत ही लाभकारी मूल्य पर बेच पाते हैं। वजह यह है कि लाभकारी मूल्य का भी पूरा लाभ केवल धनी किसान व कुलक ही उठा पाते हैं, न कि उच्च मध्यम व मध्यम किसान।
अब देखते हैं कि लाभकारी मूल्य के बढ़ने का मेहनतकश आबादी पर क्या असर पड़ता है।
2016 में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक रपट पेश की जिसे सज्जाद चिनॉय, पंकज कुमार और प्राची मिश्रा ने लिखा था। यह रपट भारत में लाभकारी मूल्य की व्यवस्था और कृषि उत्पाद की क़ीमतों पर विस्तार से चर्चा करती है। इसके अनुसार, लाभकारी मूल्य के बढ़ने का सबसे ज़्यादा नुक़सान ग्रामीण और शहरी मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों को होता है। वजह यह है कि जब भी लाभकारी मूल्य बढ़ता है तो खाद्यान्न महँगा होता है और साथ ही वे औद्योगिक उत्पाद भी महंगे होते हैं, जो अपने उत्पादन के इनपुट यानी कच्चे माल के तौर पर कृषि उत्पादों का उपयोग करते हैं। ज़ाहिर है ऐसे औद्योगिक मालों के दायरे में बड़े पैमाने पर वे वस्तुएं आती हैं, जो व्यापक मेहनतकश आबादी ख़रीदती है। नतीजतन, एक ओर खाद्यान्न की क़ीमतें बढ़ती हैं और दूसरी ओर मज़दूरों–मेहनतकशों द्वारा ख़रीदे जाने वाले ग़ैर–खेती उत्पादों की क़ीमतों में भी वृद्धि होती है।
खाद्यान्न की माँग में एक हद तक ही लचीलापन होता है और वह ज़्यादा रूढ़ होती है, इसलिए बढ़ती क़ीमतों के बावजूद उनकी माँग एक स्तर से नीचे नहीं गिर सकती है। लेकिन अन्य वस्तुओं की माँग में अधिक लचीलापन होता है और नतीजतन उनकी माँग में गिरावट आती है। इन सबका नतीजा यह होता है कि मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के परिवारों के ख़र्च में खाद्यान्न पर ख़र्च होने वाला हिस्सा अपने आप में तो कम होता है, लेकिन अन्य वस्तुओं व सेवाओं पर होने वाले ख़र्च की तुलना में बढ़ता है। सरल शब्दों में कहें तो एक ओर आम मेहनतकश आबादी पहले से कम भोजन का उपभोग करती है और उसकी भोजन सुरक्षा घटती है, मगर फिर भी वह अपनी आमदनी का पहले से ज़्यादा बड़ा हिस्सा भोजन पर ख़र्च कर रही होती है और नतीजतन, अन्य वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग वह पहले से कम करती है, जिसके कारण इन वस्तुओं और सेवाओं की कुल घरेलू माँग में भी कमी आती है।
इसका नतीजा भी यह होता है कि मुनाफ़े की दर के संकट की शिकार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था घरेलू माँग के सिमटने के कारण संकट के भँवर में और भी गहरी फंस जाती है, क्योंकि उत्पादित मालों का न बिक पाना (वास्तवीकरण का संकट) अपने आप में संकट का कारण नहीं होता, लेकिन पहले से मौजूद मुनाफ़े की औसत दर के गिरने के संकट को बढ़ावा देता है। अन्त में, इसकी क़ीमत भी मज़दूर वर्ग ही चुकाता है क्योंकि निवेश की दर इस संकट के कारण गिरती है और मज़दूर वर्ग को छँटनी व तालाबन्दी और नतीजतन बढ़ती बेरोज़गारी और घटती औसत मज़दूरी का सामना करना पड़ता है।
औद्योगिक पूँजीपति वर्ग और कृषक पूँजीपति वर्ग के बीच अन्तरविरोध और मज़दूर वर्ग की अवस्थिति
खाद्यान्न की क़ीमतों और खेती के उत्पादों पर अपने उत्पादन के लिए निर्भर औद्योगिक उत्पादों की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के लिए भी बुरे शकुन के समान होती है। यह एक ओर औसत मज़दूरी पर बढ़ोत्तरी का दबाव पैदा करती है और वहीं दूसरी ओर उन औद्योगिक उत्पादों की कुल माँग में कमी लाती है, जो कि मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी ख़रीदती है, यानी कि तमाम ग़ैर-टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियाँ।
औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के लिए भी यह अच्छा नहीं होता है क्योंकि एक ओर उसके द्वारा उत्पादित ग़ैर-टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियों की माँग पहले से घटती है और एक वास्तवीकरण (यानी अपना माल बेच पाने) की समस्या पैदा होती है और दूसरी ओर औद्योगिक मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होता है। निश्चित तौर पर, मज़दूरों को बेची जाने वाली ग़ैर–खेती वस्तुओं और सेवाओं की माँग में कमी अपने आप में पूँजीवादी संकट पैदा नहीं करती है (क्योंकि पूँजीवादी संकट का मूल मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का संकट है जो कि पूँजीपति वर्ग की आपसी ख़रीद में कमी आने में अभिव्यक्त होता है, जिसका बड़ा हिस्सा उत्पादन के साधनों की ख़रीद–फ़रोख़्त होता है), लेकिन वे पूँजीवादी संकट को तीव्र करती हैं। लेकिन औसत मज़दूरी में बढ़ोत्तरी मुनाफ़े की औसत दर को और भी घटाती है क्योंकि कुल उत्पादित मूल्य में यदि मज़दूरी का हिस्सा बढ़ता है तो मुनाफ़े का हिस्सा सापेक्षिक रूप से घटता है। एक ओर पूँजी के बढ़ते आवयविक संघटन के कारण और दूसरी ओर औसत मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के दबाव के कारण पूँजीवादी आर्थिक संकट पैदा होता है और मज़दूरों द्वारा ख़रीदे जाने वाले औद्योगिक उत्पादों की माँग में कमी के कारण उसके सामने वास्तवीकरण का जो संकट पैदा होता है, वह इस संकट को और भी तीव्र बना देता है।
औसत मज़दूरी पर बढ़ने के लिए पैदा होने वाले दबाव के बावजूद औद्योगिक पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी को बढ़ने से रोकने का हर सम्भव प्रयास करता है, जिसका नतीजा मज़दूर वर्ग को भुगतना पड़ता है। लेकिन अगर खाद्यान्नों व खेती के उत्पादों की क़ीमतें बढ़ती रहती हैं और इसकी वजह से उन औद्योगिक उत्पादों (जिन्हें मज़दूर ख़रीदते हैं) की क़ीमतें बढ़ती रहती हैं जो कि खेती के उत्पादों को अपने उत्पादन के कच्चे माल के तौर पर लेते हैं, तो फिर पूँजीपति वर्ग को एक सीमा के बाद मज़दूरी को बढ़ाना ही पड़ता है क्योंकि मज़दूर वर्ग ऐसी स्थिति में काम करने योग्य हालत में अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन नहीं कर सकता है। साथ ही यह समाज में असन्तोष को बढ़ाता है और एक विस्फोटक स्थिति की तरफ़ जा सकता है। ऐसा सामाजिक संकट कुछ अन्य पूर्वशर्तों के पूरा होने पर राजनीतिक संकट में भी तब्दील हो सकता है। इसलिए भी पूँजीपति वर्ग को ऐसी स्थितियों में मज़दूरी बढ़ानी पड़ सकती है।
इतिहास गवाह है कि औद्योगिक व वित्तीय पूँजीपति वर्ग द्वारा खेती के उत्पादन तथा उसके उत्पादों के व्यापार के क्षेत्र के उदारीकरण, यानी उसे पूर्ण रूप से बाज़ार की शक्तियों के हवाले किये जाने से खेती के क्षेत्र में भी इजारेदारीकरण बढ़ता है, बड़ी कारपोरेट पूँजी तथा धनी किसानों व कुलकों के वर्ग के एक हिस्से को उससे लाभ ही होता है। निश्चित तौर पर, इससे धनी व उच्च मध्यम किसानों का भी एक छोटा हिस्सा बरबाद होता है या सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम में नीचे जाता है। लेकिन ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों की व्यापक आबादी के लिए ऐसे उदारीकरण से पहले की व्यवस्था भी कोई विशेष लाभदायक नहीं होती है। इस प्रकार के उदारीकरण का उसके लिए मुख्य असर यही होता है कि उसे लूटने और खसोटने वाला प्रमुख वर्ग बदल जाता है। उसकी लूट पहले भी जारी होती है और बाद में भी और पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर इसे ख़त्म किया ही नहीं जा सकता है। वह धनी किसानों व कुलकों द्वारा खेतिहर उत्पादन व खेती के उत्पाद के व्यापार की व्यवस्था में भी लुट और बरबाद हो रहा होता है और बड़ी कारपोरेट पूँजी के इस क्षेत्र में प्रवेश के बाद भी उसकी नियति लुटना और उजड़ना ही होता है।
इसलिए लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बनाये रखने या उसे बढ़ाने या ए.पी.एम.सी. मण्डियों की व्यवस्था को ज्यों का त्यों बरकरार रखने या न रखने का मसला ग्रामीण खेतिहर पूँजीपति वर्ग और बड़े इजारेदार कारपोरेट पूँजीपति वर्ग के बीच का विवाद है। इसमें ग्रामीण खेतिहर मज़दूरों, ग्रामीण ग़ैर–खेतिहर मज़दूरों, ग़रीब व निम्न मंझोले किसानों, शहरी औद्योगिक व ग़ैर–औद्योगिक सर्वहारा वर्ग को धनी किसानों व कुलकों या कारपोरेट पूँजीपति वर्ग का साथ देने की कोई आवश्यकता नहीं है।
धनी किसान व कुलक अचानक “मज़दूर-किसान एकता” का हिमायती क्यों हो गया है?
पहली बात तो यह है कि किसान विशेष तौर पर पूँजीवादी समाज में कोई एक सजातीय या एकाश्मी वर्ग नहीं होता है। सबसे पहले यह पूछना पड़ता है कि हम किस किसान की बात कर रहे हैं। क्या हम उन 86 प्रतिशत ग़रीब व परिधिगत किसानों की बात कर रहे हैं जो कि सवा हेक्टेयर से भी कम ज़मीन के मालिक हैं और मुख्य रूप से अपने जीविकोपार्जन के लिए उजरती श्रम पर निर्भर हैं, या फिर उन किसानों की बात कर रहे हैं जो कि 4 हेक्टेयर से अधिक भूमि के मालिक हैं और लाभकारी मूल्य का फ़ायदा पाते हैं और अच्छा-ख़ासा राजनीतिक असर और दबदबा रखते हैं।
इस दबदबे की शुरुआत कैसे हुई? इस पर भी एक नज़र डाल लेना उपयोगी होगा। 1960 में तथाकथित हरित क्रान्ति के बाद भारत में धनी किसानों व कुलकों-फार्मरों का एक विचारणीय आकार का वर्ग अस्तित्व में आया। इसमें धनी काश्तकार किसान भी शामिल थे। इस वर्ग के अस्तित्व में आने के बाद 1970 के दशक में इसका राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी पूँजीवादी राजनीति में बढ़ने लगा। इसका अपनी माँगों के लेकर दबाव क्रमिक प्रक्रिया में बढ़ता गया। इसी दौर में चरण सिंह और देवी लाल जैसे नेता धनी किसानों व कुलकों के इस वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और उनकी उपस्थिति को राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर महसूस किया जाने लगा।
1980 के दशक की शुरुआत तक खेती के क्षेत्र में सरकारी नीति का ज़्यादा ध्यान खेती में सार्वजनिक निवेश के ज़रिये अवसरंचनागत ढाँचे को खड़ा करना था। इस समय तक सिंचाई व खेती के अन्य अवसंरचनागत ढाँचों में सार्वजनिक निवेश द्वारा बेहतरी पर ज़ोर था। वास्तव में, समूचे भारतीय पूँजीवादी विकास के पथ में ही 1980 के दशक की शुरुआत तक सरकारी निवेश द्वारा पूँजीपतियों के लिए एक अवसरंचना खड़ा करने पर ज़ोर था। जब एक दफ़ा निजी पूँजीपति वर्ग उद्योग की दुनिया में भी अपने पांवों पर खड़ा हो गया और एक अवसरंचनागत ढाँचा खड़ा हो गया तो फिर पूँजीवादी राज्यसत्ता ने एक क्रमिक प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की शुरुआत कर दी। खेती के क्षेत्र में यह प्रक्रिया थोड़ा अलग तरीक़े से घटित हुई, हालांकि मूल तर्क वही था।
हरित क्रान्ति के बाद धनी किसानों व कुलकों-फार्मरों के एक विचारणीय आकार के वर्ग के निर्माण के बाद खेती की अवसरंचना में निवेश की बजाय सरकारी नीति के केन्द्र में एक लाभकारी मूल्य को सुनिश्चित करने पर ज़ोर बढ़ गया। 1980 के दशक के अन्त तक कृषि उत्पाद की सरकारी ख़रीद का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा हरियाणा और पंजाब से आने लगा था। इस नीतिगत परिवर्तन के साथ खेती की अवसरंचना में सार्वजनिक निवेश में कमी आने लगी और पूरा ज़ोर लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर आ गया। उस समय खेती के क्षेत्र में पूँजी संचय भारतीय पूँजीपति वर्ग की आवश्यकता थी और इसके लिए इस व्यवस्था की आवश्यकता थी। जब यह नीति परिवर्तन हुआ तो उसका सबसे नकारात्मक असर ग़रीब और निम्न मध्यम किसान पर पड़ा जो कि सिंचाई आदि के लिए मानसून पर निर्भर थे। धनी किसान व कुलक सिंचाई के लिए मानसून पर उस हद तक निर्भर नहीं थे और भूजल के दोहन पर निर्भर कर सकते थे। रियायती दरों पर बिजली ने इसे धनी किसानों और कुलकों के लिए और भी सुगम बना दिया। कृषि में पूँजीवादी विकास व पूँजी संचय और इसके लिए एक खेतिहर पूँजीपति वर्ग का विस्तार उस दौर में भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत थी और खेतिहर पूँजीपति वर्ग और औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के बीच का यह क़रार इसी ज़रूरत की ही अभिव्यक्ति था।
आज के दौर में भारत के इजारेदार पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतें बदल चुकी हैं। वैश्विक संकट के दौर में भारतीय खेती में भी संकट का एक दौर शुरू हुआ। इस संकट के दौर में भी देश की समूची किसान आबादी के ऊपर के 4 प्रतिशत धनी किसानों व कुलकों का ज़्यादा नुक़सान नहीं हुआ है, बल्कि ज़्यादातर मामलों में फ़ायदा ही हुआ है। वे अब तक लाभकारी मूल्य के तंत्र के बूते अपने पूँजी संचय को जारी रखने में कामयाब रहे हैं। इस संकट के पूरे दौर में, यानी 2004 से 2016 के बीच भी, भारतीय धनी किसानों व कुलकों द्वारा पावर टिलरों की ख़रीद में तीन गुना व ट्रैक्टरों की ख़रीद में ढाई गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरे शब्दों में, भारत के ग्रामीण खेतिहर पूँजीपति वर्ग द्वारा पूँजी संचय कमोबेश स्वस्थ रूप से जारी रहा है और खेती में निवेश की उनकी दर और क्षमता में कुल मिलाकर बढ़ोत्तरी ही हुई है। फिर कृषि के संकट के कारण आत्महत्या करने वाले किसान कौन हैं? ये ज़्यादातर ग़रीब व पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले खेतिहर मज़दूर व अर्द्धसर्वहारा हैं, जोकि हमेशा ही ऋण तले दबे रहते हैं।
आज जब लाभकारी मूल्य व सरकारी मण्डियों की व्यवस्था इस धनी किसान व कुलक वर्ग से छीनी जा रही है, तो वह अचानक “मज़दूर–किसान एकता” का समर्थक बन गया है! आइए देखते हैं कि अभी हाल ही में और पहले भी यह धनी किसान व कुलक वर्ग खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों के साथ क्या बर्ताव करता रहा है।
हाल ही में लॉकडाउन के शुरू होने के बाद पंजाब और हरियाणा में प्रवासी खेतिहर मज़दूरों की संख्या में बेहद कमी आ गयी थी। इसके कारण खेतिहर मज़दूरों द्वारा श्रमशक्ति की आपूर्ति में बेहद कमी आ गयी। इस आपूर्ति में कमी आने के कारण नैसर्गिक तौर पर खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी में बढ़ोत्तरी होने लगी। ऐसे में, पंजाब और हरियाणा के कई गाँवों में धनी किसानों, उच्च मध्यम किसानों व कुलकों ने बाक़ायदा अपनी पंचायतों, खापों व सभाओं में मत डालकर अधिकतम मज़दूरी तय की। किसी भी किसान को इससे ज़्यादा मज़दूरी देने की इजाज़त नहीं थी और न ही गाँव के किसी खेत मज़दूर को कहीं और जाकर काम करने की इजाज़त थी। अगर वह जाता है तो उसका बहिष्कार किया जायेगा! यानी, गाँव के खेत मज़दूरों को धनी किसानों द्वारा तय मज़दूरी पर मज़दूरी करने के लिए बाध्य किया गया। उस समय मज़दूर–किसान एकता का नारा धनी किसानों व कुलकों के संगठनों को याद नहीं आया था।
धनी किसानों व कुलकों ने खेत मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी व अन्य श्रम अधिकारों को सुनिश्चित करने की माँगों का हमेशा विरोध किया है। श्रम क़ानून एक पूँजीवादी व्यवस्था में कम–से–कम औपचारिक तौर पर राज्यसत्ता द्वारा दिया जाने वाला एक प्रकार का संरक्षण है, ठीक उसी प्रकार जैसे लाभकारी मूल्य धनी किसानों व कुलकों को राज्यसत्ता द्वारा दिया जाने वाला एक संरक्षण है, हालांकि ये दो अलग प्रकार के संरक्षण हैं। धनी किसान व कुलक अपने लिए तो राज्यसत्ता से संरक्षण चाहते हैं, लेकिन ग़रीब किसान व खेत मज़दूर यदि अपने लिए श्रम क़ानूनों के रूप में संरक्षण की माँग करते हैं, तो उसका विरोध करते हैं। क्या मौजूदा किसान आन्दोलन चला रहे तमाम किसान संगठन इस माँग को स्वीकार करेंगे कि सभी खेत मज़दूरों को भी क़ानूनी तौर पर साप्ताहिक छुट्टी, आठ घण्टे का कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी, दोगुनी दर से ओवरटाइम का भुगतान आदि प्राप्त हो? क्या मौजूदा आन्दोलन की माँगों में वे इन माँगों को शामिल करेंगे और इन्हें प्राथमिकता देंगे? नहीं!
तो फिर इन धनी किसानों व कुलकों के मंचों से आज अचानक जो “मज़दूर-किसान एकता” का नारा उठाया जा रहा है, उसका मतलब क्या है? कुछ भी नहीं! यह धनी किसानों और कुलकों की माँगों के लिए ग़रीब किसानों व खेत मज़दूरों को उनके ही वर्ग हित के ख़िलाफ़ इकट्ठा करना है। यह भी जगजाहिर है कि मौजूदा आन्दोलन की तमाम रैलियों व प्रदर्शनों में स्वयं धनी किसान व कुलक तो कम ही जाते हैं, लेकिन वे ग़रीब, निम्न मध्यम किसानों व खेत मज़दूरों को भेजने का प्रबन्ध कर देते हैं। यानी उनकी माँगों के लिए चल रहे आन्दोलन में भी लाठी खाने और जेल जाने का काम ग़रीब, निम्न मध्यम किसानों व खेत मज़दूरों को सौंप दिया जाता है।
एक ओर गाँवों में धनी किसानों, सूदखोरों, आढ़तियों पर अपनी निर्भरता के कारण और दूसरी ओर अपनी स्वतंत्र वर्ग चेतना व वर्ग संगठन के अभाव में गाँव के सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा तथा ग़रीब व निम्न मध्यम किसान धनी किसानों और कुलकों की उन माँगों के लिए चल रहे आन्दोलन में जाते भी हैं, जोकि उनके ख़िलाफ़ जाते हैं। कुछ को यह ग़लतफ़हमी भी होती है कि यदि लाभकारी मूल्य बढ़ेगा तो उन्हें भी अपनी उपज का बेहतर दाम मिलेगा या बेहतर मज़दूरी मिलेगी, हालांकि आनुभविक तौर पर देखें तो ऐसा कोई ‘ट्रिकल डाउन’ होता नहीं है। यह भी नवउदारवादी ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धान्त का एक कुलक संस्करण मात्र ही है।
ऐसे में ज़रूरत यह है कि इन ग़रीब व निम्न मध्यम किसानों तथा खेत मज़दूरों को धनी किसानों व कुलकों के संगठनों के राजनीतिक नेतृत्व और प्रभाव से अलग किया जाय। उन्हें उनके वर्ग हितों के प्रति सचेत बनाना और उनके अलग वर्गीय संगठनों का निर्माण आज गाँवों में क्रान्तिकारी संगठन के कार्य की एक बुनियादी ज़रूरत है। उनकी मूल माँग रोज़गार की है और उन्हें रोज़गार गारण्टी के लिए ही लड़ना चाहिए। साथ ही, खेत मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी, साप्ताहिक छुट्टी, आठ घण्टे के कार्यदिवस, दोगुनी दर से ओवरटाइम के भुगतान, ई.एस.आई.-पी.एफ. के अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए। गाँव के ग़रीबों की तात्कालिक माँगें आज यही बनती हैं।
न तो उनमें छोटी जोत की किसानी को बचाने का नारा दिया जा सकता है (जो कि उनका खून ही चूसती रहती है और देती कुछ नहीं है, बस लेती जाती है); यह एक प्रतिक्रियावादी रूमानी नारा होगा। जैसा कि लेनिन ने कहा था, कम्युनिस्टों को ग़रीब किसानों को सच बताना चाहिए न कि उन्हें किसी भ्रम में जीने का आदी बनाना चाहिए। चाहे कुछ भी कर लिया जाय, पूँजीवादी व्यवस्था के रहते छोटी जोत की खेती का कोई भविष्य नहीं है। कुछ आंकड़ों के आइने में इस सच्चाई को देखते हैं।
2001 से 2011 के बीच ही खेतिहर मज़दूरों की संख्या में भारत में 35 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। ये बढ़ोत्तरी मुख्यत: ग़रीब व निम्न मध्यम किसानों के तबाह होने से हुई, जो कि सतत् ऋणग्रस्तता में जीते हैं। आत्महत्याओं की दर भी इन्हीं ग़रीब किसानों में सबसे ज़्यादा है। 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में करीब 90 लाख की कमी आई थी। निश्चित तौर पर, यह उसके बाद और भी तेज़ी से बढ़ी है क्योंकि कृषि संकट उसके बाद के दौर में गहराया ही है। 2011 में 26.3 करोड़ लोग खेती में लगे थे, जिनमें से आधे से भी ज़्यादा खेतिहर मज़दूर थे। किसानों की तादाद इसी दशक में 12.7 करोड़ से घटकर 11.8 करोड़ रह गयी थी। इस किसान आबादी में भी 90 प्रतिशत परिधिगत, बेहद छोटे या छोटे किसान थे, जिनकी आजीविका का मुख्य आधार खेती नहीं रह गया है, बल्कि उजरती श्रम है।
यानी, मध्यम, उच्च मध्यम व धनी किसानों व कुलकों की आबादी आज मुश्किल से एक से डेढ़ करोड़ है, और यही आबादी है जो कि खेतिहर मज़दूरों का भूस्वामी के तौर पर, सूदखोर के तौर पर, पूँजीवादी फार्मर के तौर पर और व्यापारी और आढ़तिये के तौर पर सबसे ज़्यादा शोषण और उत्पीड़न करती है और उनकी मज़दूरी और काम के हालात को बुरी से बुरी स्थिति में बनाये रखने के लिए हर सम्भव कोशिश करती है। और अब जबकि कारपोरेट पूँजी खेती के क्षेत्र में घुस रही है और ये ग्रामीण पूँजीपति वर्ग उससे प्रतिस्पर्द्धा में तबाह होने की सम्भावना से भयाक्रान्त है, तो सहसा वह “मज़दूर-किसान एकता” का राग गाने लगा है! इस पर सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसानों का जवाब होना चाहिए कि लाभकारी मूल्य की लड़ाई किसी भी रूप में उसके हक़ में नहीं ठहरती है और उसकी मूल माँग है रोज़गार गारण्टी, खेत मज़दूरों के लिए सभी श्रम अधिकार और धनी किसानों, व्यापारियों, आढ़तियों के क़र्ज़ से पूर्ण मुक्ति।
तीन कृषि विधेयकों के प्रावधानों में मज़दूरों और मेहनतकशों के ख़िलाफ़ क्या है?
तीन कृषि विधेयकों में जो प्रावधान विशिष्ट रूप में मज़दूरों के विरुद्ध जाता है वह है आवश्यक वस्तुओं के क़ानून में परिवर्तन। इस क़ानून के ज़रिये उन तमाम बुनियादी वस्तुओं की जमाखोरी, कालाबाज़ारी और उनकी क़ीमतों में कृत्रिम रूप से बढ़ोत्तरी करने की व्यापारिक पूँजी और दलाल बिचौलिये वर्ग की क्षमता बढ़ेगी। व्यापारिक पूँजीपति वर्ग और साथ ही धनी किसान व कुलक वर्ग इन वस्तुओं की जमाखोरी कर कृत्रिम अभाव की स्थिति पैदा करेंगे और क़ीमतों को इस तरीक़े से बढ़ाकर अधिक मुनाफ़ा कमा सकते हैं।
यह तीसरा विधेयक मज़दूरों और मेहनतकशों के सीधे ख़िलाफ़ जाता है और मज़दूरों और मेहनतकशों को अपने विरोध का निशाना मुख्यत: इस विधेयक पर रखना चाहिए। साथ ही, सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को राज्य सरकारों के ज़िम्मे डालने के बहाने समाप्त करने की जारी साज़िश का आम मेहनतकश आबादी को विरोध करना चाहिए।
कुछ लोगों का दावा है कि यदि ए.पी.एम.सी. मण्डियों में व्यापार बन्द हो गया तो फिर इनमें काम करने वाले मज़दूरों की नौकरियाँ चली जायेंगी। तात्कालिक तौर पर ऐसा हो भी सकता है, लेकिन यदि ए.पी.एम.सी. मण्डियों में व्यापार नहीं होगा, तो इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि अनाज व खेती के अन्य उत्पादों का व्यापार ही नहीं होगा। यह व्यापार जारी रहेगा और उसमें मज़दूरों की ज़रूरत भी बनी रहेगी। बस अन्तर यह होगा कि अब यह कार्यशक्ति ए.पी.एम.सी. मण्डियों में ठेकेदारों व आढ़तियों के मातहत काम नहीं करेगी, बल्कि बड़ी कारपोरेट पूँजी के अनाज प्राप्ति व ख़रीद की व्यवस्था में काम करेगी।
क्या बड़ी कारपोरेट पूँजी के इस क्षेत्र में प्रवेश के साथ इसमें रोज़गार घटेंगे? यह भी कई कारकों पर निर्भर करता है। चूंकि आम तौर पर बड़ी कारेपोरेट पूँजी के किसी भी क्षेत्र में प्रवेश के साथ पूँजी का आवयविक संघटन बढ़ता है और प्रति इकाई रोज़गार घटता है, इसलिए कम-से-कम तात्कालिक तौर पर रोज़गार में कमी आ भी सकती है। लेकिन अगर उत्पादन और व्यापार विस्तारित होते हैं, तो वह बढ़ भी सकता है। सिर्फ़ इस आधार पर कि इस क्षेत्र में बड़ी कारपोरेट पूँजी आयेगी और अपेक्षाकृत छोटी पूँजी प्रतिस्पर्द्धा में पराजित होगी, इसका विरोध करने का कोई अर्थ नहीं है। दूसरी बात, पूँजीवादी व्यवस्था के रहते इसके अलावा किसी और परिणाम की अपेक्षा करना और उसके प्रति लोगों में आशा पैदा करना प्रतिक्रियावादी और रूमानीवादी अवस्थिति है।
मज़ेदार बात यह है कि जो लोग ए.पी.एम.सी. मण्डियों के अप्रासंगिक होने के साथ यहाँ काम करने वाले मज़दूरों की नौकरियों के जाने की शंका से पेट में मरोड़ उठाए बैठे हैं, वे धनी किसानों और कुलकों के मंच पर जाकर ‘ता-ता थैया’ कर रहे हैं, जबकि ये धनी किसान और कुलक अपने मंचों पर इन मण्डियों को बचाए जाने को लेकर कोई ख़ास शोरगुल नहीं कर रहे हैं, बल्कि यह कह रहे हैं कि यदि इन मण्डियों के बाहर व्यापार क्षेत्रों में व्यापार की इजाज़त दी जाती है, तो किसानों को लाभकारी मूल्य का क़ानूनी हक़ दिया जाय, जिससे कि कोई भी ख़रीदार चाहे कहीं भी कृषि उत्पाद ख़रीदे, लाभकारी मूल्य पर ही ख़रीदे। यानी इन धनी किसानों और कुलकों को ए.पी.एम.सी. मण्डियों में काम करने वाली मज़दूर आबादी की नौकरियों की चिन्ता नहीं है। उन्हें केवल लाभकारी मूल्य की चिन्ता है।
हमें इन मज़दूरों के लिए भी रोज़गार गारण्टी और नियमितीकरण की माँग करनी चाहिए। ए.पी.एम.सी. मण्डियों और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बचाना अपने आप में हमारे लिए कोई कार्यभार नहीं है। हम इन मज़दूरों के लिए भी सरकार की ओर से रोज़गार गारण्टी की माँग करेंगे, न कि धनी किसानों व कुलकों के लिए लाभकारी मूल्य के तंत्र को बचाने की माँग, जो कि इन मज़दूरों के ही ख़िलाफ़ जाती है। और यदि धनी किसान, कुलक, सूदखोर और आढ़तिये ए.पी.एम.सी. मण्डियों को बचाने की बात करते हैं, तो हमें उनसे इसके समर्थन की पूर्वशर्त के तौर पर यह माँग करनी चाहिए कि इन मण्डियों में काम करने वाले सभी मज़दूरों को नियमित किया जाय, उन्हें सभी श्रम अधिकार दिये जायें, जैसे कि 8 घण्टे का कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी, इत्यादि। ज़ाहिर है, ये आढ़तिये, बिचौलिये और सूदखोर (जो अक्सर स्वयं धनी किसान या कुलक भी होते हैं!) इन मज़दूरों की इन माँगों की कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं।
इसी से यह प्रश्न भी उठता है कि क्या धनी किसानों व कुलकों के आन्दोलन के मंच पर जाकर हम इन विधेयकों के उन प्रावधानों का कोई अर्थपूर्ण विरोध कर सकते हैं, जो कि व्यापक आम मेहनतकश जनता के ख़िलाफ़ जाते हैं?
क्या धनी किसानों व कुलकों के इस आन्दोलन से तात्कालिक तौर पर रणकौशलात्मक फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चा बन सकता है?
इसका सीधा उत्तर है: नहीं! क्यों? फ़ासीवाद के विरुद्ध कोई तात्कालिक रणकौशलात्मक मोर्चा भी ऐसे आन्दोलनों के साथ नहीं बन सकता है, जिनकी माँगें सीधे सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ जाती हों। आम तौर पर ही यदि शासक वर्ग के दो धड़ों के बीच आपसी अन्तरविरोध है, तो सर्वहारा वर्ग दांव-पेच के तौर पर साझे शत्रु के विरुद्ध शासक वर्ग के किसी अलग ब्लॉक से रणकौशलात्मक मोर्चा तभी बना सकता है, जब कि उस ब्लॉक की माँगें सीधे सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ न जाती हों, जो कि अपवादस्वरूप स्थितियों में ही होता है।
मौजूदा सूरत में ऐसा नहीं है। धनी किसान व कुलक वर्ग की माँगें न सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ जाती हैं, बल्कि वे सीधे-सीधे सर्वहारा वर्ग और आम ग़रीब किसान आबादी के हितों पर सक्रियता से चोट कर रही हैं।
इसके अलावा, धनी किसानों व कुलकों का यह वर्ग कितनी फ़ासीवाद-विरोधी सम्भावनासम्पन्नता और विश्वसनीयता रखता है, यह विशेष तौर पर हम पिछले एक दशक में देख चुके हैं। नवउदारवाद के दौर में क्लासिकीय कुलक राजनीति के विघटन और प्रस्थान के साथ इस ख़ाली जगह को संघ परिवार व भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति व अन्य प्रकार की दक्षिणपन्थी व धार्मिक कट्टरपन्थी राजनीति ने तेज़ी से भरा है। विशेष तौर पर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में इस परिघटना को देखा जा सकता है। यह वर्ग अपनी प्रकृति से ही फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चे का संश्रयकारी नहीं बनता, बल्कि उल्टे फ़ासीवाद का सामाजिक आधार बनने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता हैं और कुछ निश्चित स्थितियों में विशेष तौर पर उत्तर भारत में बना भी है। तात्कालिक तौर पर, किसी आर्थिक मुद्दे या किसी विशिष्ट माँग पर इसका फ़ासीवादी सरकार के साथ अन्तरविरोध हो सकता है, जो कि काफ़ी तीखा भी हो सकता है। लेकिन यह वर्ग मुख्यत: और मूलत: किसी फ़ासीवाद-विरोधी सम्भावनासम्पन्नता से रिक्त है और मौक़ा पड़ने पर फ़ासीवादियों के साथ या अन्य प्रकार की धार्मिक कट्टरपन्थी या दक्षिणपन्थी राजनीति के साथ खड़ा हो सकता है और हालिया दौर में होता भी रहा है।
इसके अलावा, गाँवों में यह वर्ग दलित खेतिहर मज़दूर आबादी का प्रमुख उत्पीड़क व शोषक सिद्ध हुआ है। दरअसल, कुलकों व धनी किसानों का यह वर्ग समूची खेत मज़दूर आबादी का प्रमुख उत्पीड़क व शोषक सिद्ध हुआ है। इसकी वजह स्पष्ट है। यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग अपने अधिशेष विनियोजन व मुनाफ़े के लिए मुख्य तौर पर इसी खेत मज़दूर आबादी के श्रमशक्ति के दोहन पर निर्भर है। ऐसी सूरत में अक्सर ही यह होता है कि प्रमुख शोषक वर्ग अपने द्वारा शोषित मेहनतकश जनता की सामाजिक रूप से अरक्षित स्थिति का इस्तेमाल भी करते हैं, ताकि उनका सामाजिक उत्पीड़न व दमन भी किया जा सके, क्योंकि यह सामाजिक उत्पीड़न और दमन इन शोषित वर्गों को आर्थिक तौर पर और भी अरक्षित बना देता है। अभी कुछ ही दिनों पहले पंजाब और हरियाणा में प्रवासी मज़दूरों की कमी के कारण इन प्रदेशों के दलित खेतिहर मज़दूरों के साथ इन धनी किसानों व कुलकों ने क्या बर्ताव किया है, यह भी किसी से छिपा नहीं है।
इसके अलावा, पिछले दिनों में धनी किसानों और कुलकों के इस वर्ग के बीच धार्मिक कट्टरपन्थी दक्षिणपन्थी राजनीति और साथ ही साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति की बढ़ती जड़ों को भी सभी ने देखा है। यह इस वर्ग की आर्थिक स्थिति है जो इसे राजनीतिक प्रतिक्रिया की ज़मीन बनाती है।
आज यदि यह वर्ग लाभकारी मूल्य के मूल प्रश्न पर सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर है, जैसा कि वह पहले भी बीच-बीच में करता रहा है, तो इससे प्रगतिशील शक्तियों को बहुत आशान्वित होने की आवश्यकता नहीं है। हमेशा की तरह बड़ी इजारेदार पूँजी के हाथ को ऊपर रखने वाला कोई नया समझौता, कोई नया क़रार शासक वर्ग के इन दो धड़ों के भीतर कालान्तर में हो ही जायेगा, यह आन्दोलन किसी क्रान्तिकारी उभार की तरफ़ नहीं जाने वाला है! ऐसी उम्मीद रखने वालों के बीच दरअसल यह उम्मीद एक नाउम्मीदी से पैदा हुई है।
अन्त में निचोड़ के रूप में यही कहा जा सकता है कि ग़रीब, निम्न मध्यम और मध्यम किसानों की बहुसंख्या की नियति पूँजीवादी व्यवस्था में तबाह होने की ही है। छोटे पैमाने के उत्पादन और इस समूचे वर्ग को बचाने का कोई भी वायदा या आश्वासन इन वर्गों को देना उनके साथ ग़द्दारी और विश्वासघात है और उन्हें राजनीतिक तौर पर धनी किसानों और कुलकों का पिछलग्गू बनाना है। तो फिर इनके बीच में हमें क्या करना चाहिए? जैसा कि लेनिन ने कहा था: सच बोलना चाहिए! सच बोलना ही क्रान्तिकारी होता है। हमें पूँजीवादी समाज में उन्हें उनकी इस अनिवार्य नियति के बारे में बताना चाहिए, उनकी सबसे अहम माँग यानी रोज़गार के हक़ की माँग के बारे में सचेत बनाना चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि उनका भविष्य समाजवादी खेती, यानी सहकारी, सामूहिक या राजकीय फार्मों की खेती की व्यवस्था में ही है। केवल ऐसी व्यवस्था ही उन्हें ग़रीबी, भुखमरी, असुरक्षा और अनिश्चितता से स्थायी तौर पर मुक्ति दिला सकती है। दूरगामी तौर पर, समाजवादी क्रान्ति ही हमारा लक्ष्य है। तात्कालिक तौर पर, रोज़गार गारण्टी की लड़ाई और खेत मज़दूरों के लिए सभी श्रम क़ानूनों की लड़ाई, और सभी कर्जों से मुक्ति की लड़ाई ही हमारी लड़ाई हो सकती है। केवल ऐसा कार्यक्रम ही गाँवों में वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाएगा और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करेगा और समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार करेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्टूबर 2020
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