अक्तूबर क्रान्ति और रूसी साम्राज्य की दमित कौमों की मुक्ति के विषय में ट्रॉट-बुण्डवादियों के विचार: अपढ़पन का एक और नमूना
अभिनव
हाल ही में, ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के रूप में आन्दोलन में एक ऐसी रुझान पैदा हुई है, जिसने कौमी सवाल पर बुण्डवादी-कौमवादी अवस्थिति और त्रॉत्स्कीपंथी अवस्थिति का एक विचित्र मिश्रण पैदा किया है। इन्हीं को हम इस लेख में ट्रॉट-बुण्डवादी की संज्ञा दे रहे हैं। इस रुझान की विस्तृत आलोचना ‘आह्वान’ पत्रिका की ओर से यहां पेश की गई है: http://ahwanmag.com/archives/7567
मौजूदा लेख में हम ट्रॉट-बुण्डवादियों के इस दावे की पड़ताल कर रहे हैं कि अक्तूबर क्रान्ति के साथ रूसी साम्राज्य की दमित कौमों में भी समाजवादी क्रान्ति हुई और समाजवादी गणराज्य अस्तित्व में आए। हम देखेंगे कि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों की रूसी क्रान्ति और उसके द्वारा राष्ट्रीय प्रश्न के समाधान के पूरे इतिहास की पढ़ाई शून्य के बराबर है और वह बेख़याली में अहमकाना दावे कर रहे हैं।
इस लेख में हम तथ्यों और प्रमाणों के साथ देखेंगे कि रूसी साम्राज्य की हरेक दमित कौम में अक्तूबर क्रान्ति के साथ कौमी आज़ादी का सवाल हल हुआ और वहां किसी न किसी किस्म के जनवादी गणराज्य (जनता के जनवादी गणराज्य या बुर्जुआ जनवादी गणराज्य) अस्तित्व में आए, न कि वहां पर समाजवादी क्रान्ति के साथ समाजवादी गणराज्य अस्तित्व में आए। इन तमाम दमित कौमों में समाजवादी गणराज्यों की स्थापना कौमी आज़ादी की मंजिल पूरी होने के बाद 1919-20 से लेकर 1940 तक होती रही और वे अलग-अलग समय पर सोवियत संघ में शामिल हुए।
राष्ट्रवादी विचलनकारियों का मानना है कि साम्राज्यवाद के युग में बहुकौमी देशों में दमित कौमों की आज़ादी सीधे समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये होती है, न कि राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के द्वारा। यानी ट्रॉट-बुण्डवादियों के अनुसार, ऐसे बहुकौमी देशों में दमित कौमें सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में होती हैं, बशर्ते कि उनमें सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों की प्रधानता न हो! यानी, अगर राष्ट्रीय दमन हो, तो भी सीधे समाजवादी क्रान्ति द्वारा ही राष्ट्रीय जनवादी और समाजवाद दोनों का ही प्रश्न हल कर दिया जाता है!
इन राष्ट्रवादी विचलनकारियों का यह भी मानना है कि कौमी दमन बुर्जुआजी के किसी हिस्से के दमन के बिना भी सम्भव है! यानी कि सिर्फ जनता के दमन को कौमी दमन माना जा सकता है, भले ही उस कौम की बुर्जुआजी का कोई हिस्सा दमित न हो! ऐसे ढेरो मूर्खतापूर्ण विचारों की ढेरी हमारे कौमवादियों ने लगा दी है। इनकी आलोचना हम पहले ही पेश कर चुके हैं, जिसका लिंक हमने ऊपर दिया है। जनता और कौम के बीच अन्तर न समझना बुनियादी मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद को भूलना है, लेकिन इस मामले में सवाल भूलने का नहीं है, क्योंकि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का अध्ययन ही नहीं किया है!
यहां हम एक विशेष मुद्दे पर राष्ट्रवादी विचलनकारियों की अवस्थिति की आलोचना पेश करेंगे क्योंकि इसके ज़रिये हमारे ये कौमवादी बंधु काफ़ी धुंध फैला रहे हैं।
मुद्दा यह है कि रूस में अक्तूबर 1917 में समाजवादी क्रान्ति के बाद क्या दमित कौमों में भी सीधे समाजवादी क्रान्ति हुई थी और क्या वहां भी सीधे समाजवादी व्यवस्था व समाजवादी गणराज्य की स्थापना हो गयी थी? हमारे कौमवादियों का दावा है कि जब अक्तूबर क्रान्ति हुई, तो रूसी साम्राज्य में मौजूद सभी दमित कौमों में भी सीधे समाजवादी क्रान्ति ही हुई और सीधे समाजवादी गणराज्य की स्थापना हो गई और इससे यह सिद्ध होता है कि बहुकौमी देशों में दमित कौमें सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में होती हैं और इन दमित कौमों में राष्ट्रीय प्रश्न का समाधान भी सीधे समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये होता है! आइये देखते हैं कि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों की इतिहास के बारे में जानकारी किस भयंकर दरिद्रता में है और उनको क्या समझ नहीं आ रहा है। इतिहास के ठोस उदाहरणों से पहले बेहद संक्षेप में ट्रॉट-बुण्डवादियों के सैद्धान्तिक गड़बड़झाले पर निगाह डाल लेते हैं।
ट्रॉट-बुण्डवादियों का सैद्धान्तिक गड़बड़झाला
पहली बात तो यह है कि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी दमनकारी कौम और दमित कौम के लिए क्रान्ति की मंजिलों को गड्डमड्ड कर बैठे हैं। उन्हें लगता है कि यदि दमनकारी कौम की राज्यसत्ता समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में है तो इससे स्वत: ही यह नतीजा निकलता है कि उसके द्वारा दमित कौमें भी सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में हैं! मिसाल के तौर पर, यदि कोई आज यह नतीजा निकाले कि चूंकि भारत समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में है, तो कश्मीर भी स्वत: ही समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में है, तो उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों को भी नहीं समझने के बराबर है।
न सिर्फ इतना हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी तो यह भी मानते हैं कि अगर दमनकारी कौम में भी अभी जनवादी क्रान्ति की मंजिल है, तो भी दमित कौमें सीधे समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये आज़ाद होंगी! हंसिये मत, हम सच बोल रहे हैं! इन्होंने अपनी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के ताज़ा अंक में कौमी सवाल पर पेश लेख में कहा है कि 1903 में ही पोलैण्ड समाजवादी क्रान्ति द्वारा आज़ाद होने वाला था, क्योंकि इन्हें लगता है कि जब मेहरिंग ने पोलैण्ड में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में ‘सामाजिक क्रान्ति’ की बात की तो उनका मतलब था कि अब पोलैण्ड में कौमी आज़ादी भी समाजवादी क्रान्ति द्वारा होगी! फिर से, हंसियेगा मत! ज़ाहिर है, हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी ‘सामाजिक क्रान्ति’ को समाजवादी क्रान्ति समझ बैठे हैं!
ज्ञात हो कि पोलैण्ड 1918 में आज़ादी से पहले रूस, ऑस्ट्रिया-हंगरी और जर्मनी में बंटा हुआ था। सबसे बड़ा हिस्सा रूस के अधीन था। रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी दोनों में ही अभी जनवादी क्रान्ति नहीं हुई थी, या अभी जनवादी क्रान्ति के कार्यभार पूर्ण नहीं हुए थे। लेकिन हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों का मानना है कि 1903 में ही पोलिश सर्वहारा वर्ग को रूसी सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर रूस में समाजवादी क्रान्ति करनी थी, जो कि एक ही साथ, पोलैण्ड में भी समाजवादी क्रान्ति होती और पोलैण्ड की आज़ादी का सवाल भी हल कर देती!!! जब रूस स्वयं 1903 में जनवादी क्रान्ति की ही मंजिल में था, तो पोलैण्ड से पोलिश सर्वहारा आकर रूसी सर्वहारा के साथ मिलकर समाजवादी क्रान्ति कैसे कर देता? कौन-सी राज्यसत्ता के खिलाफ़ कर देता? कैसा वर्ग मोर्चा बनता? किसके खिलाफ़ बनता? मित्र वर्गों के मोर्चे और शत्रु वर्ग के मोर्चे की क्या प्रकृति होती और वह किस प्रकार के रणनीतिक अन्तरविरोध को प्रदर्शित करती? ज़ाहिर है, अपनी मूर्खतापूर्ण बातों को सिद्ध करने के लिए ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक यानी हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी महोदय अपना दिमागी सन्तुलन खो बैठे हैं!
दूसरी बात, हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी एक ऐतिहासिक आकलन और एक राजनीतिक कार्यक्रम में अन्तर नहीं समझते हैं। मिसाल के तौर पर, यह कहने का, कि भारतीय पूंजीवादी राज्यसत्ता कश्मीर को कौमी आज़ादी का हक़ नहीं दे सकती है, यह केवल एक समाजवादी सर्वहारा राज्यसत्ता ही कर सकती है, जोकि समाजवादी क्रान्ति के द्वारा ही अस्तित्व में आ सकती है, यह अर्थ कोई बौड़म व्यक्ति ही निकाल सकता है कि कश्मीर बिना कौमी सवाल के हल हुए सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है।
लेनिन और स्तालिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद के युग में इस बात की गुंजाइश न के बराबर है कि दमनकारी कौमों की बुर्जुआजी अपनी इच्छा से दमित कौमों को कौमी आज़ादी का हक़ दे। यह केवल अपवादस्वरूप स्थिति में हो सकता है, जैसे कि नॉर्वे व स्वीडन के मामले में हुआ था। इसीलिए लेनिन व स्तालिन का यह नतीजा था कि साम्राज्यवाद के युग में कौमी आज़ादी की लड़ाई की नियति समाजवादी क्रान्ति के लिए संघर्ष से जुड़ चुकी है क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर समाजवाद के लिए संघर्ष में यह लड़ाई साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक संश्रयकारी शक्ति है। इसका यह अर्थ नहीं था कि इन सभी दमित कौमों में सीधे समाजवादी क्रान्ति होने वाली थी। इसका केवल यह अर्थ था कि राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति साम्राज्यवाद के युग में आम तौर पर जनरल बुर्जुआ डेमोक्रैटिक प्रक्रिया की बजाय जनरल समाजवादी प्रक्रिया का अंग बन चुकी है। यानी, यह कार्यभार भी आम तौर पर अपने आमूलगामी रूप में जनता के जनवादी क्रान्ति के रूप में सम्पन्न हो सकता है, दूसरे शब्दों में, मज़दूरों के नेतृत्व में पेटी बुर्जुआजी व समूची किसान आबादी को साथ लेकर आमूलगामी रूप में सम्पन्न हो सकता है।
यानी दमनकारी कौम की बुर्जुआजी द्वारा आत्मनिर्णय के अधिकार के दिये जाने की सम्भावनाओं के साम्राज्यवाद के दौर में समाप्त होते जाने के मूल्यांकन के साथ उनका यह भी मूल्यांकन था कि राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यभार भी अब दमित कौमों का बुर्जुआ वर्ग अपनी अगुवाई में कर पाने की क्षमता खोता जा रहा है और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को भी यदि आमूलगामी तरीके से अंजाम देना है, तो इसका नेतृत्व भी सर्वहारा वर्ग के हिरावल, यानी कम्युनिस्ट पार्टी को अपने हाथों में लेने का प्रयास करना चाहिए। यह दीगर बात है कि उनके इस मूल्यांकन के बावजूद, 1940 के दशक से 1980 के दशक तक तमाम दमित कौमों की आज़ादी की जो प्रक्रिया चली, उसमें से अधिकांश में नेतृत्व राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग ने किया। इससे लेनिन व स्तालिन का यह ऐतिहासिक मूल्यांकन सैद्धान्तिक तौर पर ग़लत तो नहीं साबित हुआ क्योंकि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनता की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति द्वारा ये कार्यभार जितने आमूलगामी रूप से सम्पन्न हो सकते थे, वे बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में कहीं भी नहीं हुए। फिर भी, इतिहास ने दिखलाया कि अक्सर वह महानतम समाज-वैज्ञानिकों से भी दो कदम आगे चलता है, जैसा कि स्वयं मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन ने भी कहा था।
साफ़ है कि यदि कोई लेनिन व स्तालिन के उपरोक्त मूल्यांकन का यह अर्थ निकालता है कि दमित कौमों में सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है, विशेषकर बहुकौमी देशों के भीतर और जहां दमित कौमों में पूंजीवादी सम्बन्धों का विकास हो चुका है, तो यही कहा जा सकता है कि उसे लेनिन के ‘राज्य और क्रान्ति‘ के सिद्धान्त, राष्ट्रीय प्रश्न पर लेनिन के चिन्तन और दो चरणों में क्रान्ति के लेनिनवादी सिद्धान्त को ढंग से पढ़ने की आवश्यकता है। साथ ही, यह भी पता चलता है कि ऐसा व्यक्ति भयंकर त्रॉत्स्कीपंथी विभ्रम के कीचड़ में फंसा हुआ है। हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी महोदय की यही स्थिति है।
यदि कोई कौम दमित है, तो वहां राज्यसत्ता के जनवादी रूपान्तरण का प्रश्न हल नहीं हुआ है। यदि यह प्रश्न हल नहीं हुआ है, तो उसके हल हुए बग़ैर समाजवादी क्रान्ति की बात करना मूर्खतापूर्ण है। क्रान्ति का प्रश्न मित्र वर्गों व शत्रु वर्गों की पहचान करने और मित्र वर्गों का रणनीतिक मोर्चा बनाने का प्रश्न होता है; जो वर्ग दमित व शोषित होते हैं, वे जनता का अंग होते हैं, और जो दमनकारी व शोषक होते हैं, वे शत्रु वर्गों में आते हैं। कौमी दमन की अवधारणा बुर्जुआजी के एक हिस्से के दमन के बगैर बेकार हो जाती है। बुर्जुआजी का जो हिस्सा दमित होता है, वे राष्ट्रीय बुर्जुआजी होता है और कौमी आज़ादी के सवाल के हल होने तक, यानी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति तक, क्रान्ति का मित्र वर्ग होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी ऐसी दमित कौम में जहां पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध विकसित हो चुके हैं, राष्ट्रीय जनवादी कार्यभार पूरे होने के बाद, जल्द ही समाजवादी क्रान्ति हो जाए, या उसकी स्थितियां पैदा हो जाएं।
यह राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग आम तौर पर बड़ा पूंजीपति वर्ग नहीं होता है। कौमी दमन के हालात में बड़ा पूंजीपति वर्ग अक्सर ही वाणिज्यिक व नौकरशाह होता है और दमनकारी कौम के शासक वर्ग का दलाल बन जाता है, क्योंकि दमनकारी कौम की बुर्जुआजी दमित कौम में कभी किसी बड़ी व शक्तिशाली औद्योगिक बुर्जुआजी को विकसित ही नहीं होने देता क्योंकि कौमी दमन का मूल ही घरेलू बाज़ार व संसाधनों पर कब्ज़े की लड़ाई है। नतीजतन, अक्सर ही राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका में छोटा व मंझोला पूंजीपति वर्ग आता है, जिसमें कि गांव के धनी किसान भी शामिल होते हैं।
इनके लिए अपने घरेलू बाज़ार का सवाल सबसे अहम होता है और कौमी दमन के मूल में असल में घरेलू बाज़ार पर अधिपत्य जमाने का प्रश्न ही होता है। बेशक़, इस घरेलू बाज़ार पर कब्ज़े के लिए दमनकारी कौम के शासक वर्ग को दमित कौम का राजनीतिक दमन करना पड़ता है, जिसकी अभिव्यक्ति अक्सर भाषाओं के दमन, आने-जाने की पाबन्दियों, धार्मिक प्रतिबन्धों, आदि में दिखलाई पड़ती है और इस तरह समूचे कौम को ही कौमी दमन अपने दायरे में ले लेता है। लेकिन इसके मूल में दमित कौम की बुर्जुआजी और दमनकारी कौम के शासक वर्गों के बीच घरेलू बाज़ार और संसाधनों पर कब्ज़े की लड़ाई ही होती है।
एक मिसाल से आप इसे समझ सकते हैं। जब डच लोगों का इण्डोनेशिया पर कब्ज़ा था, तो वहां के डच उपनिवेशवादियों के लिए बने सिनेमा हॉलों व थियेटरों पर यह नहीं लिखा होता था कि ”यहां कुत्तों व इण्डोनेशिया के राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का आना मना है”! वहां बस यह लिखा होता था कि ”यहां कुत्तों व इण्डोनेशियाई लोगों का प्रवेश वर्जित है।” जब राजनीतिक तौर पर किसी कौम का दमन होता है, तो वह अनिवार्यत: समूची कौम को अपने दायरे में लेता है। लेकिन इसकी वजह से यह भूल जाना कि कौमी दमन की सारवस्तु और मूल वास्तव में दमित कौम की बुर्जुआजी का दमन है, कौमी दमन की पूरी अवधारणा को ही भूल जाने के समान है।
तीसरी बात, हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों की यह समझ में नहीं आता कि राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार यानी अलग होने का अधिकार हर कौम का अधिकार है, चाहे उस कौम के बारे में आपका यह विश्लेषण ही क्यों न हो कि वह कौम दमित नहीं है। ज़ाहिर है, हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी उस अन्तर को नहीं समझते हैं, जिसे लेनिन ने बार-बार स्पष्ट किया था: अलग होने के अधिकार का समर्थन और अलग होने का समर्थन में अन्तर।
राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार का अर्थ अलग होने के अधिकार के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता है, जैसा कि लेनिन ने बताया और अलग होने के अधिकार का समर्थन एक ऐसी सैद्धान्तिक अवस्थिति है, जिसे हम हर कौम के सन्दर्भ में बिना शर्त मानते हैं। इसे मानते हुए भी हम किसी कौम के अलग होने या न होने के रेफरेण्डम में यह वोट डाल सकते हैं कि वह कौम अलग न हो। अलग होने के अधिकार का समर्थन हर सूरत में अलग होने का समर्थन नहीं है। इसी सन्दर्भ में लेनिन ने कहा था कि इसे समझने का सबसे बेहतर तरीका है तलाक़ के रूपक से इसे समझना। हम मार्क्सवादी हर सूरत में हर व्यक्ति के लिए तलाक़ के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम हर सूरत में यह मानते हैं कि तलाक होना ही चाहिए। लेकिन जिन मामलों में हमारा यह मानना भी हो कि तलाक़ नहीं होना चाहिए, वहां भी हम तलाक के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करते हैं। यह कौमी सवाल पर लेनिनवादी अवस्थिति का एक आधारभूत बिन्दु है, जिसे ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के नेता ट्रॉट-बुण्डवादी महोदय समझ नहीं पाते हैं।
अब हम रूसी क्रान्ति और रूसी साम्राज्य की दमित कौमों में कौमी आज़ादी के कार्यभार के पूरे होने के इतिहास के पर आते हैं।
अभी हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी तमाम मौखिक चर्चाओं में ये दावे कर रहे हैं कि रूस की सभी दमित कौमों की कौमी आज़ादी का सवाल सीधे समाजवादी क्रान्ति द्वारा समाधित हुआ और इसीलिए वहां सीधे समाजवादी व्यवस्था आई। उन्हें लगता है कि रूस में समाजवादी क्रान्ति का अर्थ था कि सारी दमित कौमों में भी समाजवादी क्रान्ति हो गयी और समाजवादी गणराज्य की स्थापना हो गयी। यहां पर एक बार फिर से ट्रॉट-बुण्डवादियों ने दिखला दिया है कि उन्हें रूसी क्रान्ति के इतिहास के विषय में कोई जानकारी नहीं है। यदि आज भारत में समाजवादी क्रान्ति हो जाए और वह उत्तर-पूर्व की दमित कौमों और कश्मीरी कौम को आत्मनिर्णय का हक़ दे दे, तो इसका यह अर्थ नहीं होगा कि उत्तर-पूर्व की कौमें व कश्मीरी कौमों के लिए सीधे समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न हो गयी और वहां पर समाजवादी क्रान्ति ने कौमी सवाल हल कर दिया! इसको आगे हम रूस में समाजवादी क्रान्ति और दमित कौमों की आज़ादी के वास्तविक ऐतिहासिक अनुभव के जरिये समझेंगे क्योंकि ट्रॉट-बुण्डवादी महोदय इसी पर काफ़ी धुंध फैला रहे हैं।
रूसी क्रान्ति में भी दमित कौमों में जनता के जनवादी गणराज्य या बुर्जुआ राष्ट्रीय गणराज्य ही पहले अस्तित्व में आए थे। जिन दमित कौमों के देशों में पूंजीवादी सम्बन्धों का विकास हो गया था, वहां भी पहले जनता के जनवादी गणराज्य या बुर्जुआ जनवादी गणराज्य ही अस्तित्व में आए थे। इन देशों में समाजवादी गणराज्य बाद में स्थापित हुए। पहले वे जनता के जनवादी या बुर्जुआ जनवादी गणराज्य के एक दौर से गुज़रे। वे समाजवादी रूस के साथ पहले संघ में और बाद में यूनियन में शामिल हुए थे। आइये ऐतिहासिक तथ्यों व उदाहरणों से इस बात को समझा जाय।
समाजवादी अक्तूबर क्रान्ति और रूसी साम्राज्य की दमित कौमों में राष्ट्रीय जनवादी कार्यभार का हल होना और ट्रॉट-बुण्डवादी महोदय का इतिहास के बारे में शर्मनाक अज्ञान
अक्तूबर 1917 में बोल्शेविक क्रान्ति के बाद सोवियत रूस अस्तित्व में आया और उसने अब तक मौजूद रहे ज़ारवादी रूसी साम्राज्य की सभी दमित कौमों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया। जब इन दमित कौमों को यह अधिकार मिला तो कौमी सवाल हल हो गया और वहां पर समाजवादी शक्तियों या बुर्जुआ राष्ट्रवादी शक्तियों के नेतृत्व में या तो जनता के जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आए या फिर बुर्जुआ जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आए।
इनमें से कुछ देशों में समाजवादी क्रान्ति के लिए भी बोल्शेविकों ने संघर्ष शुरू कर दिया और कुछ देशों में समाजवादी गणराज्य भी अस्तित्व में आ गए। इसमें 1918 से 1921 तक जारी गृहयुद्ध की भी एक भूमिका थी। इसके बाद, 1919 से लेकर मुख्य रूप से 1924 तक तमाम ऐसे देश जहां समाजवादी गणराज्य अस्तित्व में आ चुके थे, वे सोवियत रूस से साथ पहले संघ और फिर संघीय यूनियन में शामिल होते रहे। इसी प्रक्रिया में सोवियत संघ अस्तित्व में आया। कुछ देश तो 1940 तक सोवियत संघ में शामिल हुए।
आइये, इस पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम का एक संक्षिप्त विवरण देख लें ताकि ट्रॉट-बुण्डवादियों द्वारा किये जा रहे इतिहास के विकृतिकरण को बेनक़ाब किया जा सके। वैसे, यह सचेतन विकृतिकरण की बजाय निपट अपढ़पन भी हो सकता है, क्योंकि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों ने मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों तक में भयंकर अज्ञान का पूरी निरन्तरता के साथ बार-बार प्रदर्शन किया है। इसके बारे में जानने के लिए आप निम्न लिंक देख सकते हैं: 1) http://ahwanmag.com/archives/7585; 2) http://ahwanmag.com/archives/7590
अब देखते हैं कि अक्तूबर क्रान्ति के बाद तमाम दमित कौमों में क्या हुआ था।
अक्तूबर क्रान्ति के बाद सोवियत सरकार ने सभी दमित कौमों के आत्मनिर्णय के अधिकार को बिना शर्त स्वीकार किया। इसके तत्काल अमल के लिए राष्ट्रीयताओं की जनकमिसारियत (नार्कोमनाट्स) का गठन किया गया जिसके कमिसार खुद स्तालिन थे। आरम्भ में ही पोलैण्ड के और फिनलैण्ड के राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार किया गया। आगे हम अलग-अलग दमित कौमों में रूस में हुई समाजवादी क्रान्ति कौमी सवाल के हल होने और जनवादी गणराज्यों के अस्तित्व में आने पर संक्षिप्त निगाह डालते हैं, जिससे कि ट्रॉट-बुण्डवादियों के दिमाग़ में फैली धुन्ध कुछ साफ़ हो सके।
पोलैण्ड व फिनलैण्ड की आज़ादी और वहां जनवादी गणराज्यों की स्थापना
पोलैण्ड को रूस की समाजवादी सत्ता ने तत्काल राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार दिया और उसके बाद वहां पर बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की स्थापना हुई, जिसे सेकेण्ड रिपब्लिक ऑफ पोलैण्ड के नाम से जाना गया।
18 (31) दिसम्बर को फिनलैण्ड की कौमी आज़ादी के प्रस्ताव को पेश किया गया और बिना शर्त स्वीकार किया गया। वहां पर एक बुर्जुआ गणराज्य अस्तित्व में आ गया। इसके साथ, बुर्जुआ राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यभार पूरा हो गया। यानी पहले चरण का कार्यभार पूरा हो गया। इसके तत्काल बाद ही, फिनलैण्ड के सामाजिक जनवादियों ने वहां मज़दूर क्रान्ति का प्रयास शुरू कर दिया क्योंकि फिनलैण्ड में पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध पहले ही प्रधान बन चुके थे और कौमी दमन के सवाल के हल होते ही राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यभार पूरा हुआ और राज्यसत्ता के जनवादी रूपान्तरण का प्रश्न हल हो गया। इसीलिए वहां तत्काल ही समाजवादी क्रान्ति का संघर्ष भी शुरू हो गया। इस प्रयास के जवाब में फिनिश बुर्जुआजी ने दमन किया और उसमें जर्मन साम्राज्यवादियों की भी मदद ली। एक भयंकर गृहयुद्ध के बाद अन्तत: फिनलैण्ड में बुर्जुआजी विजय हुई और एक बुर्जुआ गणराज्य की स्थापना हुई और उसके सोवियत संघ से सम्बन्ध भी बहाल हुए।
ट्रांसकॉकेशिया: जॉर्जिया, आर्मेनिया, अज़रबैजान में जनवादी गणराज्यों की स्थापना
इसी प्रकार 1922 में ट्रांसकॉकेशिया में क्या स्थिति थी, उसका भी जायज़ा ले लेते हैं। ट्रांसकॉकेशिया में तीन कौमें थीं: जॉर्जिया, आर्मेनिया और अज़रबैज़ान।
आर्मेनिया में रूसी क्रान्ति के ठीक बाद एक जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आया, जिसे प्रथम गणराज्य के नाम से भी जाना जाता है। यह 1918 से 1920 तक मौजूद रहा। इसके साथ ही आर्मेनिया में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यभार पूरा हो गया। इसके बाद वहां बोल्शेविक सत्ता में आए और 1920 में वहां समाजवादी गणराज्य की स्थापना हुई। इस प्रक्रिया में गृहयुद्ध की भी एक भूमिका थी, क्योंकि कई बुर्जुआ गणराज्य जो कि रूसी क्रान्ति के बाद तमाम दमित कौमों में अस्तित्व में आए थे, वे सोवियत सत्ता के खिलाफ़ थे और गृहयुद्ध में उनके खिलाफ लड़ रहे थे। साथ ही, इन गणराज्यों के भीतर भी मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान कम्युनिस्टों के नेतृत्व में बुर्जुआ राज्यसत्ता के खिलाफ लड़ रहे थे। गृहयुद्ध में लाल सेना ने जब इन देशों को पराजित किया, तो बुर्जुआ सत्ता बेहद कमज़ोर हो गयी या उनका पतन हो गया और कम्युनिस्टों ने समाजवादी सोवियत गणराज्य का निर्माण किया।
इसी प्रकार अज़रबैज़ान में भी अक्तूबर क्रान्ति के तुरन्त बाद कौमी आज़ादी मिलने के साथ बुर्जुआ जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आया जो कि 1920 तक कायम रहा। इसके साथ ही राष्ट्रीय जनवादी कार्यभार यहां पूरा हो गया। इसे अज़रबैज़ान जनवादी गणराज्य के नाम से जाना गया। इसकी बुर्जुआ सरकार ने भी गृहयुद्ध के दौरान अपने देश के बोल्शेविकों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, क्योंकि लाल सेना के सामने भी उनकी पराजय हो रही थी।
जॉर्जिया में अक्तूबर क्रान्ति के बाद जॉर्जिया का जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आया जो कि मई 1918 से फरवरी 1921 तक कायम रहा। यहां राज्यसत्ता जॉर्जिया के मेंशेविकों के हाथों में आई, जो कि अपने आपको जॉर्जियन सामाजिक जनवादी पार्टी या जॉर्जियन मेंशेविक पार्टी कहते थे। यहां भी इसके साथ ही कौमी आज़ादी का कार्यभार, यानी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यभार पूरा हो गया और उसके बाद यह देश समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश कर चुका था। गृहयुद्ध में इसने भी सोवियत रूस के विरुद्ध अवस्थिति अपनाई थी। आगे यह भी 1921 में पतित हो गया और उसकी जगह वहां पर बोल्शेविकों के नेतृत्व में समाजवादी गणराज्य की स्थापना हुई। लेकिन तब भी वह तत्काल सोवियत रूस के साथ संघ या संघीय यूनियन में शामिल नहीं हुआ। उसके बाद, ट्रांसकॉकेशिया के तीनों नवोदित समाजवादी गणराज्यों ने 12 मार्च 1922 को ट्रांसकॉकेशियन सोवियत फेडरल सोशलिस्ट रिपब्लिक का निर्माण किया, क्योंकि इन कौमों की बहुसंख्या अभी तत्काल यूनियन के रूप के लिए तैयार नहीं थी।
बाद में 1922 में ही यह संघ सोवियत रूस (आर.एस.एफ.एस.आर.) के साथ मिला और उसने सोवियत संघ (यू.एस.एस.आर.) की स्थापना की।
बेलारूस
अब आते हैं बेलारूस के उदाहरण पर। बेलारूस में अक्तूबर क्रान्ति के बाद 1918 के आरम्भ में बेलारूसी जनता के गणराज्य/बेलारूसी राष्ट्रीय गणराज्य की स्थापना हुई। इसके साथ ही, बेलारूस में भी कौमी आज़ादी यानी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का चरण पूरा हो गया। इसके बाद 1919 में बेलारूस में बेलारूस के बोल्शेविकों ने सत्ता में कब्ज़ा किया और वहां बेलारूसी सोवियत समाजवादी गणराज्य की स्थापना की जो कि बाद में सोवियत संघ में शामिल हुआ।
यूक्रेन
अब आते हैं यूक्रेन पर। यूक्रेन में फरवरी क्रान्ति के बाद यूक्रेनी आज़ादी और जनवादी गणराज्य स्थापित करने के कई प्रयास हुए। नतीजतन, अक्टूबर क्रान्ति के बाद और गृहयुद्ध के दौरान वहां बुर्जुआ जनवादी सत्ता अस्तित्व में भी आई। इस बुर्जुआ सत्ता के यूक्रेनी गणराज्य की सत्ता होने के दावे को शुरुआत में सोवियत सत्ता ने ख़ारिज नहीं किया। इसका नाम था यूक्रेनी जनता का जनवादी गणराज्य (यूक्रेनियन पीपुल्स रिपब्लिक), जोकि वास्तव में राष्ट्रीय जनवादी गणराज्य था, जिसका केन्द्र यूक्रेन की राजधानी कियेव में था और जिसे दुनिया की सभी पूंजीवादी सत्ताओं ने ब्रेस्त-लितोव्स्क की संधि के बाद मान्यता दी। लेकिन जल्द ही बोल्शेविकों ने भी मज़दूरों, किसानों और सैनिकों को सोवियतों के अंतर्गत संगठित करने का काम हाथ में लिया, जिस प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम था यूक्रेनी सोवियत गणराज्य की स्थापना, जो कि स्वयं एक जनता का जनवादी गणराज्य ही था और जिसका केन्द्र खारकोव में था। इस यूक्रेनी सोवियत गणराज्य ने अपने आपको समाजवादी सोवियत गणराज्य दो साल बाद केवल 1919 में घोषित किया। गृहयुद्ध के दौरान इन दोनों सत्ताओं के बीच तीखा टकराव हुआ, जो कि सोवियत सत्ता के विरुद्ध युद्ध और जारी गृहयुद्ध का ही अंग था। जर्मन फौजें इसमें यूक्रेनी बुर्जुआ सत्ता को पूरी सामरिक सहायता पहुंचा रही थी। वर्ग युद्ध की इस प्रक्रिया में यूक्रेन के बुर्जुआ जनवादी गणराज्य का पतन हुआ और वह यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य का अंग बन गया। वहीं दूसरी ओर, पश्चिमी यूक्रेन को द्वितीय पोलिश गणराज्य ने हथिया लिया था, जो कि खुद ही अक्तूबर क्रान्ति के बाद अस्तित्व में आया था। नया यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य भी सोवियत संघ में शामिल हुआ।
अन्य दमित कौमें: तुर्कमानिस्तान, उज़बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कज़ाकिस्तान, लिथुआनिया, लात्विया, एस्तोनिया, आदि
अब हम अन्य दमित कौमों के साथ अक्तूबर क्रान्ति के बाद क्या हुआ इस पर भी एक निगाह दौड़ा लेते हैं। बाकी सभी दमित कौमों में भी अक्तूबर क्रान्ति के तत्काल बाद जनता के जनवादी गणराज्य या बुर्जुआ जनवादी गणराज्य ही अस्तित्व में आए। बाद में अलग-अलग समय पर इन देशों में समाजवादी गणराज्य सत्ता में आए और वे सोवियत संघ में शामिल हुए।
तुर्कमान व उजबेक जनवादी गणराज्य 1924 तक अस्तित्वमान थे, जिसके बाद वहां समाजवादी गणराज्यों की स्थापना हुई; ताजिक समाजवादी गणराज्य 1929 में बना; कज़ाकिस्तान और किर्गीस्तान में समाजवादी गणराज्य 1936। हालांकि 1920-21 से ही इन तमाम क्षेत्रों को RSFSR की स्वायत्त इकाईयों में गठित किये जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी।
कारेलो फिनिश, माल्दोवियाई, लिथुआनियाई समाजवादी गणराज्यों की स्थापना 1940 में हुई जिनके पहले वहां जनवादी गणराज्य मौजूद थे। एस्तोनियाई समाजवादी गणराज्य 21 जुलाई 1940 में अस्तित्व में आया जिसके पहले वहां बुर्जुआ जनवादी गणराज्य मौजूद था।
इसी प्रकार लात्वियाई समाजवादी गणराज्य 1940 में स्थापित हुआ था, जिसके पहले वहां पर अक्तूबर क्रान्ति के बाद से ही बुर्जुआ जनवादी गणराज्य मौजूद था। 1918-19 के दौर में कुछ समय के लिए इन बाल्टिक देशों में सोवियत गणराज्य घोषित किये गए थे, लेकिन इसके तुरंत बाद ही वहां बुर्जुआ गणराज्यों की स्थापना हो गयी थी, जिसमें साम्राज्यवादी देशों के हस्तक्षेप की अहम भूमिका थी।
लेकिन इन सभी कौमों में पहले राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का प्रश्न हल हुआ, किसी न किसी प्रकार जनवादी सत्ता व जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आए और बाद में अलग-अलग प्रक्रियाओं में वहां चल रहे आन्तरिक वर्ग संघर्ष और अन्तरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष से पैदा हुए सन्धि-बिन्दुओं पर समाजवादी गणराज्य अस्तित्व में आए और ये प्रक्रिया 1921 से 1940 तक जारी रही।
पूर्वी सीमान्त क्षेत्र की दमित कौमें: खीवा, बुखारा, तुर्केस्तान, बशकीर, तातार, आदि
रूस के पूर्वी सीमान्त क्षेत्रों में तमाम दमित कौमों के देश में भी कई जगह बुर्जुआ राष्ट्रीय जनवादी सत्ताएं ही अस्तित्व में आईं थीं। इनमें से कई तो अक्तूबर क्रान्ति के पहले ही अस्तित्व में आईं थीं, यानी फरवरी क्रान्ति के बाद। इनमें से किसी में भी अक्तूबर क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी गणराज्य अस्तित्व में नहीं आया था और हर जगह या तो बुर्जुआ राष्ट्रीय जनवादी सत्ताएं अस्तित्व में आईं, या काफी समय तक गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी रही।
पूर्व के सरहदी इलाकों में 1905 की क्रान्ति के बाद से ही भ्रूण रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी। इनमें मुख्य तौर पर तातार, बशकीर, कज़ाख़ आदि समुदाय प्रमुख थे जो पहले खानाबदोश समुदाय थे। इनके अलावा खीवा, बुखारा, तुर्केस्तान, जहां कमोबेश ज्यादा बसी हुई आबादी रहती थी, वहाँ भी राष्ट्रीय जागरण की शुरुआत इसी दौर में होती है। इन सभी इलाकों में बहुसंख्या मुसलामानों की थी।
1917 तक इनमें से कई समुदाय राष्ट्रीय आज़ादी नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वायत्ता ही मांग रहे थे। मई से जुलाई 1917 अपनी अलग-अलग कांग्रेसों में तातार, बशकीर, कज़ाख़ और कई अन्य बेहद छोटी राष्ट्रीयताएँ जैसे कि मारी, वोत्याक, चुवाश इत्यादि भी इसी तरह की स्वायत्ता की मांगों को उठा रहे थे। इन तमाम राष्ट्रीयताओं के कौमी आन्दोलन पर मुफ्तियों, मुल्लाओं, बेगों, इमामों, खानों की न सिर्फ विचारणीय धार्मिक पकड़ थी बल्कि इनका राजनीतिक हस्तक्षेप भी था।
फरवरी और अक्टूबर क्रान्ति के अन्तराल में और अक्टूबर क्रान्ति के बाद भी पूर्व के इन क्षेत्रों में कई “बुर्जुआ” राष्ट्रीय सरकारें अस्तित्व में आई थीं। उदहारण के लिए, अक्टूबर क्रान्ति के तुरंत बाद वालिदोव नमक शख्स के नेतृत्त्व में एक बशकीर सरकार अस्तित्व में आई जिसने स्वायत्त बशकीर राज्य की घोषणा भी कर दी थी। ऐसी ही एक स्वायत्त बुर्जुआ राष्ट्रीय सरकार तातारों के बीच भी बनी। ये सभी राष्ट्रीय जनवादी सत्ताएं थीं, न कि समाजवादी सत्ताएं व गणराज्य।
इसके तुरंत बाद ही मार्च 1918 में इन दोनों सरकारों को सोवियत सत्ता द्वारा भंग कर दिया गया और “रूसी सोवियत फेडरेशन के तातार-बकशीर सोवियत गणराज्य” के गठन की घोषणा की गई जिसमें चुवाश और मारी राष्ट्रीयताएँ को भी शामिल किया जाना था। यह भी और कुछ नहीं जनता के जनवादी गणराज्यों की ही स्थापना थी। इसके बाद भी कई बोल्शेविक-विरोधी ताक़तें सत्ता हथियाने के प्रयास करती रहीं और गृह युद्ध के पूरे दौर में यह प्रक्रिया जारी रही। उत्तरी काकेशस और दागेस्तान में भी इस दौरान जनवादी गणराज्य की स्थापना के लिए स्थानीय राष्ट्रवादियों और बोल्शेविकों के बीच संघर्ष जारी रहा। इसके बाद मई 1920 में, बशकीर और तातार स्वायत्त सोवियत समाजवादी गणराज्य और चुवाश स्वायत्त क्षेत्र अस्तित्व में आये और इसी साल के अंत तक कज़ाख़ स्वायत्त सोवियत समाजवादी गणराज्य और कलमिक स्वायत्त क्षेत्र अस्तित्व में आये।
तुर्केस्तान में ताशकंत में पहली सोवियत जनवादी सरकार सितम्बर 1917 में ही अस्तित्व में आ गयी। यह शुरुआत में बोल्शेविकों के नेतृत्त्व में नहीं बनी थी। हालाँकि इसमें मंशेविक शामिल थे, लेकिन इसका चरित्र रैडिकल जनवादी था और आरजी सरकार का तख्तापलट करके ही इसने सत्ता पर कब्ज़ा किया था। वहीं दूसरी ओर कोकन्द में मुसलमानों की कांग्रेस ने स्वायत्त तुर्केस्तान की घोषणा कर दी जिसे एक जनवादी गणराज्य कहा गया।
इसके अलावा खीवा, बुखारा में भी 1918 में अमीरों और खानों के नेतृत्त्व में पहले बुर्जुआ जनवादी सत्ताएं ही अस्तित्व में आयीं। इन तमाम इलाकों में सोवियत सत्ता अपनी स्थिति 1920 से ही सुदृढ़ करने की अवस्था में पहुंची। खीवा से खानों की सरकार को खदेड़ा गया और वहां खोरम (खीवा का प्राचीन नाम) के जनवादी गणराज्य की स्थापना की गयी। इसी समय बुखारा में भी अमीर की सत्ता का पतन हुआ और नवम्बर-दिसम्बर, 1920 में बुखारा में भी सोवियत गणराज्य की स्थापना हो गयी। इसके बाद अप्रैल 1921 में तुर्केस्तान समाजवादी सोवियत गणराज्य की स्थापना की घोषणा की गयी जो कि RSFSR में स्वायत्त इकाई के तौर पर शामिल हुआ।
यानी पूर्वी सीमान्त की इन सभी दमित कौमों में भी पहले बुर्जुआ जनवादी सत्ताएं ही अस्तित्व में आईं। कुछ जगहों पर संघर्ष काफी देर तक चलता रहा और गृहयुद्ध की स्थितियों में समाजवादी रूस का भी इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप रहा। लेकिन इन सब जगहों पर तत्काल समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न नहीं हुई, जैसा कि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों को लगता है।
सोवियत रूस (R.S.F.S.R.) की स्वायत्त इकाइयां, राष्ट्रीयताएं व जातीय उपराष्ट्रीयताएं: चुवाश, मारी, कलमिक, आदि
उपरोक्त दमित कौमों के अलावा, कुछ ऐसी राष्ट्रीयताएं, उपराष्ट्रीयताएं व बेहद छोटे जातीय राष्ट्र व राष्ट्रीयताएं थीं जो कि अपना राष्ट्र-राज्य बनाने में सक्षम नहीं थीं। वे स्वायत्त इकाइयों व क्षेत्रों के तौर पर सोवियत रूस के भीतर शामिल हुईं। इनके राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार यानी की अलग होने का अधिकार का सवाल ही अप्रासंगिक था क्योंकि विविध कारणों से ये राष्ट्रीयताएं अपने स्वतंत्र राज्य के गठन के लिए जीवक्षम नहीं थीं और न ही उनकी कोई ऐसी मांग थी और इसलिए राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का प्रश्न ही उनके लिए अप्रासंगिक था। वे केवल क्षेत्रीय (सांस्कृतिक नहीं!) स्वायत्तता चाहती थीं जो कि R.S.F.S.R. यानी समाजवादी सोवियत रूस में उन्हें मिली। एक संक्षिप्त निगाह उन पर भी डाल लेते हैं।
अक्टूबर क्रान्ति के पश्चात् रूसी समाजवादी संघात्मक सोवियत गणराज्य (RSFSR) के अस्तित्व में आने के साथ स्वायत्त इकाइयों के रूप में कुछ ऐसी राष्ट्रीयताएँ और राष्ट्र भी शामिल हुए थे जो या तो अपनी निश्चित क्षेत्रीयता के अभाव के चलते या फिर अपने बेहद छोटे आकार, संख्या और बिखराव के चलते एक अलग स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य के गठन के लिए जीवक्षम नहीं थे। इनमें से मुख्य तौर पर कई गैर-स्लाव समुदाय थे। चुवाश, कलमिक, मारी आदि ऐसे समुदाय थे जिनकी क्षेत्रीयता तो थी लेकिन जनसंख्या के लिहाज़ से स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य बनाने के लिए ये उपयुक्त नहीं थे। इसलिए इन्हें RSFSR के भीतर स्वायत्त इकाइयों के रूप में मान्यता दे दी गयी।
इस पूरे विवरण के लिए पाठक ई. एच. कार की पुस्तक ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’ के पहले खण्ड के अध्याय ‘सेल्फ डेटरमिनेशन इन प्रैक्टिस’ और ‘बैलेंस शीट ऑफ सेल्फ डेटरमिनेशन’ का अध्ययन कर सकते हैं।
जैसा कि हम देख सकते हैं, रूस में समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी गणराज्य की स्थापना का अर्थ सभी दमित कौमों में सीधे समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी गणराज्य की स्थापना नहीं था। इन सभी दमित राष्ट्रों में पहला सवाल राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का था और इस सवाल के हल होने के बाद ही ये अलग-अलग राष्ट्र अलग-अलग समय में अलग-अलग प्रक्रियाओं से गुज़रकर समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में पहुंचे। कुछ जल्दी पहुंचे तो कुछ देर में पहुंचे। लेकिन तत्काल इन सभी दमित राष्ट्रीयताओं में किसी न किसी प्रकार के जनवादी गणराज्य की स्थापना हुई, न कि समाजवादी गणराज्य की, जैसा कि इतिहास के प्रति शर्मनाक अपढ़पन के कारण हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों को लगता है।
निष्कर्ष
लुब्बेलुबाब यह कि रूस में अक्तूबर क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति थी, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि ज़ारवादी रूसी साम्राज्य की सभी दमित कौमों के लिए भी यह सीधे समाजवादी क्रान्ति थी। इन सभी दमित कौमों के देशों में सबसे पहले राष्ट्रीय जनवादी कार्यभार पूरा हुआ और इस प्रकार राज्यसत्ता के जनवादी कार्यभार पूरे हुए। इसके नतीजे के तौर पर इन सभी दमित कौमों के देशों में सीधे समाजवादी गणराज्य अस्तित्व में नहीं आए वरन् जनता के जनवादी गणराज्य या बुर्जुआ जनवादी गणराज्य ही अस्तित्व में आए। इसके बाद पहले गृहयुद्ध की प्रक्रिया के दौरान और उसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध की प्रक्रिया के दौरान तमाम जनता के जनवादी गणराज्यों में बोल्शेविक सत्ता में आए और समाजवादी गणराज्यों की स्थापना हुई और ये अलग-अलग समय पर सोवियत संघ में शामिल हुए।
इसलिए ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ के ट्रॉट-बुण्डवादी महोदय का यह दावा कि अक्तूबर क्रान्ति ने रूसी साम्राज्य की सभी दमित कौमों में सीधे समाजवादी क्रान्ति द्वारा कौमी आज़ादी के सवाल को हल किया, केवल यही दिखलाता है कि ‘प्रतिबद्ध‘ के सम्पादक श्री ट्रॉट-बुण्डवादी ने न तो मार्क्सवाद-लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धान्तों का ही ढंग से अध्ययन किया है, और न ही बोल्शेविक क्रान्ति, समाजवादी निर्माण और कौमी सवाल के हल होने की प्रक्रिया के पूरे इतिहास का कोई अध्ययन किया है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्टूबर 2020
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