Category Archives: आर्थिक संकट

सारदा चिटफण्ड घोटालाः सेंधमार, लुटेरे पूँजीवाद का प्रातिनिधिक उदाहरण

निम्न पूँजीपति वर्ग के लोगों ने लाखों की तादाद में इन मज़ाकिया स्कीमों पर भरोसा क्यों किया इसे समझने के लिए इस वर्ग के चरित्र को समझने की भी ज़रूरत है। यह वर्ग न पूरी तरह आबाद होता है और न ही पूरी तरह बरबाद होता है। नतीजतन, इसकी राजनीतिक वर्ग चेतना भी अधर में लटकी होती है। अपनी राजनीतिक माँगों के लिए संगठित होने और सरकार की नीतियों के ख़ि‍लाफ जनता के अन्य मेहनतकश हिस्सों के साथ संगठित होकर आवाज़ उठाने की बजाय अधिकांश मामलों में वह पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा पेश किये जा रहे दावों और वायदों पर भरोसा कर बैठता है। और जब उसे इसका ख़ामियाज़ा भुगताना पड़ता है तो वह काफ़ी छाती पीटता है और शोर मचाता है। सारदा ग्रुप जैसी फ्रॉड कम्पनियों की स्कीमों के निशाने पर ये ही वर्ग होते हैं, जो परिवर्तन और बदलाव की मुहिम के ढुलमुलयकीन मित्र होते हैं। जब परिवर्तन की ताक़तें उफान पर होती हैं, तो ये उनके पीछे चलते हैं और जब माहौल यथास्थितिवादी ताक़तों के पक्ष में होता है, तो ये अपने निजी, व्यक्तिगत हित साधने में व्यस्त रहते हैं और व्यवस्था को एक प्रकार से मौन समर्थन देते हैं।

उद्यमशीलता, पूँजी-निर्माण एवं बचत की आड़ में मेहनतकशों के श्रम की लूट की माँग!

ये सब कुछ बस यूँ ही इत्तेफाकन नहीं होता है। इसके कारण इस पूँजीवादी अर्थशास्त्र में ही निहित हैं। क्योंकि यहाँ उद्यमशीलता, बचत एवं पूँजी निर्माण का सम्बन्ध आम जनता से कतई नहीं होता कि वह अपनी क्षमताओं के आधार पर सामूहिक तौर पर जोखिम उठाकर समाज के विकास में कोई योगदान दे सके। यह मौका केवल इस व्यवस्था के पूँजीपतियों, दलालों एवं ठेकेदारों को ही दिया जाता है। आम मेहनतकश को इस बात के लिए मजबूर किया जाता है कि इन उद्यमी व्यक्तियों की उद्यमशीलता को बढ़ाने में सहयोग करें। उनकी बचतों एवं पूँजीनिर्माण में सहयोग करें। और यह सहयोग आम मेहनतकश जनता अपने हाड़-मांस को खेतों एवं फैक्ट्रियों में गलाकर करती है। यह पूँजी निर्माण एवं बचतें भी मेहनतकश वर्ग का भण्डारित श्रम ही है जिसे ये पूँजीपति वर्ग पूरी शोषणयुक्त उत्पादन व्यवस्था के दौरान पूँजी के रूप में इकठ्ठा कर लेता है। दोबारा फिर इसी चक्र को पूरा करने में इसे इस्तेमाल करता है। यह चक्र चलता रहता है एवं मेहनतकश वर्ग की ग़रीबी और दरिद्रता बढ़ती जाती है। दूसरी तरफ इन पूँजीपतियों की आय में लगातार वृद्धि होती जाती है। अर्थात ग़रीबी एवं अमीरी की खाई लगातार गहराती जाती है। जबकि पूँजीपतियों एवं उनके उच्च आय वाले लोगों पर सरकार द्वारा कम टैक्स लगाया जाता है।

‘मैं-फिसड्डी-तो-तू-भी-फिसड्डी’

ज़ाहिर है कि मीडिया, जो इसी पूँजीवादी व्यवस्था का अवलम्ब है, से यह अपेक्षा करना बेमानी है कि वह अपने दर्शकों और पाठकों को इस सच्चाई से अवगत कराये कि यह संकट दरअसल व्यवस्थागत है। शासक वर्ग को हमेशा यह ख़ौफ सताता रहता है कि यदि जनता इस सच्चाई से अवगत होगी तो इस व्यवस्था के विकल्प के बारे में भी सोचना शुरू कर देगी। इसलिए एक सोची-समझी चाल के तहत व्यवस्था के संकट को व्यक्तियों की कमज़ोरी की तरह पेश किया जाता है और इस बात का भ्रम पैदा करने की कोशिश की जाती है कि यदि अमुक व्यक्ति की बजाये कोई और व्यक्ति नेतृत्व दे रहा होता तो यह संकट आता ही नहीं या फिर इससे बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था।

यूनान के चुनाव और वैश्विक संकट

लाख प्रयासों के बावजूद पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट से मुक्त नहीं हो पा रही है। इस संकट का बोझ निश्चित रूप से हर सूरत में जनता के ऊपर ही डाला जाता है। इसके कारण इस संकट के कुछ राजनीतिक और सामाजिक परिणाम भी सामने आने ही हैं। ऐसे में, दुनिया भर की सरकारें और ख़ास तौर पर विकासशील देशों की सरकारें अपने काले कानूनों के संकलन को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने में लगी हुई हैं; अपने सशस्त्र बलों को अधिक से अधिक चाक-चौबन्द कर रही हैं; हर प्रकार की नागरिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्वतन्त्रताओं को छीन रही हैं; राजसत्ता को अधिक से अधिक दमनकारी बनाने में लगी हुई हैं।

बजट 2012-13 : आम जनता की जेबें झाड़कर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने का पूरा बन्दोबस्त

वित्तमन्त्री प्रणब मुखर्जी अपने पूर्ववर्ती पी. चिदम्बरम के अच्छे उत्तराधिकारी सिद्ध हो रहे हैं। पी. चिदम्बरम ने जितने व्यवस्थित तरीके से नवउदारवादी नीतियों को अर्थव्यवस्था में लागू किया था, प्रणब मुखर्जी ने उससे भी ज़्यादा निर्णायक तरीके से उन्हें जारी रखा है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में वास्तव में कुछ भी नया नहीं किया गया है, सिवाय एक चीज़ के। इस बार सरकार ने नवउदारवादी लूट के साथ कुछ ‘मानवीय’ और ‘‍कल्याणकारी’ चेहरा दिखलाने का प्रयास छोड़ दिया है! उन तमाम योजनाओं और नीतियों पर इस बजट में आबण्टन को घटा दिया गया है जिसके आधार पर सरकार जनता के हितों की परवाह करने का दावा कर सकती थी। मिसाल के तौर पर, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना।

बन्द गली की ओर बढ़ता विश्व पूँजीवाद

विकसित देशों में फैला आर्थिक संकट अब विकासशील देशों को भी धीरे-धीरे अपनी चपेट में ले रहा है। चीन की न्यूज़ एजेंसी शिनहुआ के अनुसार विकसित देशों में बेरोज़गारों की संख्या 80 फीसदी बढ़ी है, जबकि विकासशील देशों में यह संख्या दो-तिहाई बढ़ी है। भारत में भी स्थिति गम्भीर हो रही है। गैलप सर्वेक्षण के अनुसार देश में 73 फीसदी आबादी भ्रष्टाचार से पीड़ित है। भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर मचने वाला शोर अब सन्नाटे में तब्दील हो रहा है। गैलप सर्वेक्षण में ही 31 प्रतिशत भारतीयों ने अपने जीवन को ‘तकलीफ़देह’ बताया और करीब 56 फीसदी लोगों ने कहा कि उनका जीवन बहुत ज़्यादा संघर्षपूर्ण है। केवल 13 प्रतिशत लोगों ने अपने आपको खुशहाल बताया। यह पूरी स्थिति आई.एल.ओ. की रिपोर्ट में दूसरे रूप में दिखती है जिसके अनुसार मन्दी के बाद अगर कुछ देशों की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती भी है तो नौकरियों की स्थिति में सुधार होने की गुंजाइश कम ही है। आई.एल.ओ. के अनुसार 2009-2010 की मन्दी के दौरान दुनिया भर में रोज़गार गँवाने वाले करीब पाँच करोड़ लोग अभी भी बेरोज़गार हैं और अपनी रिपोर्ट ‘वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट 2012: ‘बेटर जॉब्स फॉर ए बेटर इकॉनमी’ में उसने इस पूरी स्थिति को गम्भीर बताया है। स्पष्ट है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था तेज़ी से एक बन्द गली की ओर बढ़ रही है।

विकास करता भारत! मगर किसका??

शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान है। बारहवीं पास करने वाले सारे बच्चों में से केवल 7 प्रतिशत उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। बड़े घर के बच्चे ही ऊँचे पद और ऊँची शिक्षा पा रहे हैं। 84 करोड़ ग्राहक जो 20 रुपये प्रति दिन की आय पर जीते हैं उसके लिए ‘जागो ग्राहक जागो’ नारे के बदले ‘भागो ग्राहक भागो’ होना चाहिए! सर्वशिक्षा अभियान के ‘सब पढ़ें, सब बढ़ें’ की जगह सही नारा होना चाहिए ‘कुछ पढ़ें, कुछ बढ़ें और बाकी मरें’! मनरेगा के तहत जो रोज़गार की बात सरकार करती है वह सरासर मज़ाक है। मनरेगा वास्तव में गाँवों में मौजूद नौकरशाही के लिए कमाई करने का अच्छा ज़रिया है। इसकी सच्चाई लगभग सभी राज्यों में उजागर हो चुकी है। दरअसल सरकार और व्यवस्था की चाकरी करने वाले मीडिया के ‘‘विकास’’ का सारा शोरगुल इस व्यवस्था द्वारा पैदा आम जन के जीवन की तबाही और बरबादी को ढकने के लिए धूम्र-आवरण खड़ा करता है। विकास के इन कथनों के पीछे अधिकतम की बर्बादी अन्तर्निहित होती है।

पूँजीवादी स्वर्ग के तलघर की सच्चाई

ग़रीबी रेखा सम्बन्धी प्राप्त आकड़ों के अनुसार 34 करोड़ की कुल अमेरिकी जनसंख्या में करीब 5 करोड़ लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं और अन्य 10 करोड़ इस बस ऊपर ही है, यानी करीब आधी आबादी भयंकर ग़रीबी का शिकार है। खाद्य उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों के बारे में अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के अनुसार हर चार में एक अमेरिकी नागरिक भोजन सम्बन्धी दैनिक ज़रूरतों के लिए राज्य सरकार एवं विभिन्न दाता एंजेसियों द्वारा चलाये जा रहे खाद्य योजनाओं पर निर्भर है, क्योंकि वह अपनी आय से दो जून की रोटी ख़रीद पाने में अक्षम है। अगर शिक्षा की बात की जाये तो एक उदाहरण के जरिये चीज़ें समझना ज़्यादा आसान होगा। बर्कले विश्वविद्यालय का एक छात्र, आज करीब 11,160 डॉलर प्रति वर्ष शिक्षा शुल्क के तौर पर अदा करता है; आज से दस साल पहले वो 2,716 डॉलर ख़र्च करता था और उम्मीद है कि 2015-16 तक वह 23,000 डॉलर अदा करेगा।

साम्राज्यवाद का निकट आता असंभाव्यता बिन्दु

यूरोज़ोन के संकट ने दिखला दिया है कि ये आर्थिक संकट निकट भविष्य में दूर होने वाला नहीं है। इस संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने के लिए उत्पादक शक्तियों का विनाश करना पूँजीवाद के चौधरियों के लिए तेज़ी से एक बाध्यता में तब्दील होता जा रहा है। आने वाले समय में अगर विश्व के किसी कोने में युद्ध की शुरुआत होती है तो यह ताज्जुब की बात नहीं होगी। साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। और भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की अन्तिम मंजिल है, जहाँ यह अपने सबसे पतनशील और विध्वंसक रूप में मौजूद है। अपनी उत्तरजीविता के लिए उसे मानवता को युद्धों में झोंकना पड़े तो भी वह हिचकेगा नहीं। इराक युद्ध, अफगानिस्तान युद्ध, अरब में चल रहा मौजूदा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप इसी सच्चाई की गवाही देते हैं। यूरोज़ोन का संकट पूरे साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों में बदलाव ला रहा है। चीन का एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर उदय, नयी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ताक़त का बढ़ना, रूस का पुनरुत्थान, ये सभी कारक इसके लिए ज़िम्मेदार हैं और ये भी नये और बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू होने की सम्भावना पैदा कर रहे हैं।

ब्रिटेन के दंगेः स्वर्ग के तलघर में फूट रहा है असन्तोष

वैश्विक मन्दी के शुरू होने के बाद से ब्रिटेन में बेरोज़गारी, अमीर-ग़रीब के बीच की खाई और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा तेज़ी से बढ़ी है। इन समस्याओं के बढ़ने के साथ ही नस्लवाद और क्षेत्रवाद ने भी तेज़ी से सिर उठाया है। इन सबके अलावा पुलिस उत्पीड़न में पिछले एक दशक के दौरान अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। इन सभी कारकों ने ब्रिटिश समाज के दमित, उत्पीड़ित और ग़रीब तबकों में और ख़ास तौर पर युवाओं में असन्तोष को बढ़ाया है।