बजट 2012-13 : आम जनता की जेबें झाड़कर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने का पूरा बन्दोबस्त
सम्पादकीय
वित्तमन्त्री प्रणब मुखर्जी अपने पूर्ववर्ती पी. चिदम्बरम के अच्छे उत्तराधिकारी सिद्ध हो रहे हैं। पी. चिदम्बरम ने जितने व्यवस्थित तरीके से नवउदारवादी नीतियों को अर्थव्यवस्था में लागू किया था, प्रणब मुखर्जी ने उससे भी ज़्यादा निर्णायक तरीके से उन्हें जारी रखा है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में वास्तव में कुछ भी नया नहीं किया गया है, सिवाय एक चीज़ के। इस बार सरकार ने नवउदारवादी लूट के साथ कुछ ‘मानवीय’ और ‘कल्याणकारी’ चेहरा दिखलाने का प्रयास छोड़ दिया है! उन तमाम योजनाओं और नीतियों पर इस बजट में आबण्टन को घटा दिया गया है जिसके आधार पर सरकार जनता के हितों की परवाह करने का दावा कर सकती थी। मिसाल के तौर पर, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना। साथ ही खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत भी आबण्टित राशि में इतना कम इज़ाफ़ा किया गया है कि वह नहीं के बराबर है। और चूँकि खाद सब्सिडी और पेट्रोलियम सब्सिडी में भारी कटौती की गयी है, इसलिए वास्तव में यह बढ़ोत्तरी वास्तव में बेअसर ही होगी। जब नवउदारवादी नीतियों का श्रीगणेश हुआ था तो पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने दावा किया था कि निजीकरण और उदारीकरण से रोज़गार पैदा होंगे! उल्टा हुआ। जितने रोज़गार बचे थे, वे भी क्रमिक प्रक्रिया में ख़त्म होने लगे। देश में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई बढ़ने लगी; एक तरफ़ ऊपर के 15-20 फीसदी आबादी के लिए ऐशो-आराम के सारे साधन, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, मल्टीप्लेक्स, सिनेमा हॉल, विदेशी रेस्तराँ, दज़र्नों नये टीवी चैनल, मोटरसाईकिलों, कारों, फ्रिज, टी-वी- आदि के दर्ज़नों नये मॉडल बाज़ार में आ गये, वहीं दूसरी तरफ़ देश के 84 करोड़ मेहनतकश मज़दूर और ग़रीब किसान भयंकर ग़रीबी की गर्त में धकेल दिये! जब ये परिणाम सामने आ गये तो मनमोहन-चिदम्बरम-मोण्टेक की तिकड़ी ने देश की जनता को यक़ीन दिलाया था कि वे थोड़ा और धैर्य रखें, जब देश के शिखरों पर समृद्धि आयेगी, तो वह रिसकर स्वयं ही नीचे पहुँच जायेगी! इस बात को भी एक दशक बीत गया! देश में अरबपतियों-खरबपतियों की तादाद में बढ़ोत्तरी हुई, देश के शिखर पर समृद्धि इतनी आयी कि अब बीमारी बन गयी है! लेकिन वह रिसकर नीचे तक नहीं पहुँची, जनता इन्तज़ार करती रह गयी!
अब ज़रा सुनिये की वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी क्या कह रहे हैं! उनका कहना है कि अगर शिखर पर समृद्धि आयेगी, अमीर बढ़ेंगे तो फिर कराधान के जरिये सरकार की आमदनी बढ़ेगी और सरकार उस आमदनी से देश की जनता का कल्याण करेगी! लेकिन प्रणब मुखर्जी ने बजट में इस बार जो-जो प्रावधान किये हैं, वे उनके इस दावे का मख़ौल उड़ाते हैं। इस बार प्रत्यक्ष करों में कटौती की गयी है जिससे कि सरकार को करीब 4500 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। स्पष्ट है कि सरकार अमीरों पर कोई कर नहीं लगाना चाहती। इसलिए शिखर पर जो समृद्धि आई है, उस पर सरकार कोई हाथ नहीं डालने वाली। वह शिखर पर ही रहेगी और बढ़ती रहेगी। दूसरी तरफ़, जनता के ऊपर अप्रत्यक्ष करों को सभी मदों में बढ़ा दिया गया है! समझा जा सकता है कि सरकार शिखर पर समृद्धि ला कहाँ से रही है! 80 फीसदी ग़रीब जनता की मेहनत और कमाई को निचोड़-निचोड़कर कारपोरेट पूँजीपतियों, दल्लालों, शेयर बाज़ार के सटोरियों, उच्च मध्यवर्ग और ठेकेदारों-दुकानदारों की जेबें गरम की जाती हैं। तो शिखर की समृद्धि का जनता से एक ही मुमकिन रिश्ता है। जनता जितनी ग़रीब और तबाहो-बरबाद होगी, शिखर पर उतनी ही अधिक समृद्धि बढ़ेगी! या यों कहें कि शिखर पर समृद्धि आने की शर्त ही यही है कि ग़रीब जनता के शरीर से खून की आखि़री बूँद भी निचोड़ ली जाय।
बजट में प्रणब मुखर्जी ने नारा दिया है कि ‘राजकोषीय सुदृढ़ीकरण’ किया जायेगा! यानी कि सरकार के बजट घाटे को कम किया जायेगा। बजट घाटे को कम करने का अर्थ है कि सरकारी ख़र्च को आमदनी की सीमा के भीतर रखा जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार को जो भी नया ख़र्च करना होगा उसके लिए पैसे इकट्ठे करने होंगे। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में नये उद्यमों/उपक्रमों के लिए पैसे इकट्ठे करने के दो रास्ते होते हैं। एक रास्ता यह है कि समाज के अमीर वर्गों पर कर बढ़ाये जाएँ और विकास-सम्बन्धी कार्यों को अंजाम दिया जाय। लेकिन कोई भी पूँजीवादी सरकार आज के भूमण्डलीकरण के दौर में ऐसा नहीं कर सकती। आज से 5 दशक पहले जब पूरी दुनिया में पूँजीवाद की सेहत इतनी ठीक-ठाक थी कि वह ‘कल्याणकारी’ राज्य का बोझ उठा सके, तब वह ऐसा कर सकता था। ऐसी सेहत भी पूँजीवाद की इसलिए थी क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध में उत्पादक शक्तियों का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ था जिसने पूँजीवाद के प्रचुरता के संकट को कम किया था और उत्पादक व लाभकारी निवेश के नये अवसरों और सम्भावनाओं को जन्म दिया था। लेकिन 1970 का दशक आते-आते यह स्थिति अपने सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँच चुकी थी और तब से पूँजीवाद एक सतत् मन्दी का शिकार है, जो बीच-बीच में भयंकर संकटों के रूप में फूट पड़ती है, जैसे कि 1987, 1991, 1997, 2001, 2003, 2006 और 2009 में। आज के दौर में पूँजीवाद अति-उत्पादन और प्रचुरता के संकट के शीर्ष पर एक बार फिर से पहुँच रहा है। ऐसे में, हमेशा इस अति के ठीक विपरीत नकदी का संकट या तरलता का संकट पैदा होता है, जो वित्तीय पूँजी की इज़ारेदारी के दौर में लगभग सभी संकटों की एक अभिव्यक्ति बन गया है। आज उसी दौर से पूँजीवाद गुज़र रहा है।
ऐसे में, राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए कोई भी पूँजीवादी सरकार अमीरों पर कर बढ़ाने का काम नहीं करेगी क्योंकि आज के दौर में किसी भी पूँजीवादी देश की सरकार के लिए ऐसा करने का अर्थ होगा पूँजीवादी विकास के मॉडल को त्यागना। ऐसा कल्याणवाद के दौर में सम्भव था, नवउदारवादी कट्टरता के दौर में नहीं। इसलिए साफ़ है कि पहला तरीका आज के दौर में कोई भी पूँजीवादी सरकार चाहे भी तो नहीं अपना सकती है। हालाँकि, प्रभात पटनायक, उत्सा पटनायक, जयति घोष, सी.पी. चन्द्रशेखर और अमिया बागची जैसे लोगों ने मनमोहन सरकार की इस विकल्प को न चुनने के लिए काफ़ी लानत-मलामत की है। लेकिन वे कीन्स के कल्याणकारी नुस्खे को आज के दौर में लागू करना चाहते हैं जो कि भारत जैसी अर्थव्यवस्था, बल्कि कहें कि किसी भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए सम्भव ही नहीं है। दूसरी बात यह कि संसदीय वामपंथ के समर्थक इन संशोधनवादी बुद्धिजीवियों के सामने समाजवादी क्रान्ति के जरिये एक ज़्यादा तार्किक, बेहतर और समानतामूलक अर्थव्यवस्था और समाज खड़ा करने का विकल्प तो मौजूद ही नहीं है, इसलिए वे पूँजीवाद को ही अधिक से अधिक कल्याणकारी बनाने की चिन्ता में दुबले हुए जाते हैं! इसलिए उन्हें उनकी चिन्ता में छोड़ते हैं!
दूसरा विकल्प, जो वास्तव में पूँजीवादी सरकार के सामने एकमात्र विकल्प है, वह है अपने राजकोषीय घाटे को कम करने और नये ख़र्चों को पूरा करने के लिए निजी कम्पनियों, वित्तीय संस्थानों, बैंकों आदि से कर्ज लिया जाय और जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाया जाय। इससे वित्त पूँजी को ब्याज़ के रूप में जनता से भारी पूँजी वसूलने की गारण्टी मिल जाती है और जनता की जेब से आखि़री चवन्नी को भी निचोड़ लेने की सरकार की साजिश भी कामयाब हो जाती है। इस तरह से जनता की कीमत पर कारपोरेट घरानों और वित्त पूँजी का मुनाफ़ा सुरक्षित किया जाता है। प्रणब मुखर्जी ने इस बजट में यही किया है। आइये देखें कैसे!
खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत पिछले बजट में किया गया आबण्टन था 73,000 करोड़ रुपये। इस बार इसमें मामूली सी बढ़ोत्तरी करके इसे 75,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। लेकिन इस बढ़ोत्तरी का कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि खाद्यान्न की कीमत पर फर्क डालने वाले अन्य कारकों के आबण्टन में भारी कटौती की गयी है। चूँकि मौजूदा खाद्य सुरक्षा अधिनियम ग़रीब आबादी तक खाद्य सामग्री पहुँचाने का जिम्मा बाज़ार की शक्तियों पर डालता है, और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार करने की बजाय उसका व्यवस्थित रूप से ध्वंस करता है, इसलिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत की गयी मामूली-सी बढ़ोत्तरी वास्तव में खाद्यान्न की कीमतों को और बढ़ायेगी। आइये देखें कैसे! खाद सब्सिडी में सरकार ने भारी कटौती करते हुए उसे पिछले वर्ष के 67,199 करोड़ रुपये से घटाकर 60,974 करोड़ रुपये कर दिया है। निश्चित रूप से, यह कटौती खाद्यान्न के मूल्यों को बढ़ायेगी क्योंकि कृषि उत्पादन की लागत बढ़ेगी और यह बढ़ोत्तरी बिना राज्य समर्थित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के खाद्यान्न की कीमतों में अभिव्यक्त होगी। इसके अलावा, पेट्रोलियम उत्पादों पर दी जाने वाली सब्सिडी में सरकार ने सबसे भारी कटौती की है। पिछले वर्ष पेट्रोलियम उत्पादों पर सरकार 68,481 करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही थी, जबकि इस वर्ष उसे मात्र 43,580 करोड़ रुपये कर दिया गया है। अर्थशास्त्र पढ़ने वाला दसवीं कक्षा का छात्र भी बता सकता है कि इसका खाद्यान्न समेत सभी सामग्रियों के दाम पर क्या प्रभाव पड़ेगा! सरकार बजट घाटे को कम करने के लिए कारपोरेट घरानों और अमीरों पर प्रत्यक्ष कर में बढ़ोत्तरी करने की बजाय कटौती कर रही है और दूसरी तरफ़ आम जनता पर अमीरज़ादों के ऐयाशी का पूरा ख़र्च डाल रही है।
जिस योजना का हल्ला मचाकर संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने दूसरा चुनाव जीता था वह थी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना। अब जबकि इस योजना से वोट बैंक में मिलने वाले प़फ़ायदे को पूरी तरह से खपा लिया गया है, तो इस योजना के तहत आबण्टन में भी लगातार कमी की जा रही है। पिछले वर्ष मनरेगा के तहत बजट में 40,000 करोड़ रुपये का आबण्टन किया गया था, जबकि इस वर्ष इसे घटा कर 33,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। प्रणब मुखर्जी का तर्क यह है कि पिछले वर्ष आबण्टित राशि का पूरा उपयोग नहीं हुआ था और 6,000 करोड़ रुपये बच गये थे, इसलिए इस वर्ष मनरेगा के तहत आबण्टित राशि में कमी कर दी गयी है! लेकिन वह यह नहीं बताते कि यह राशि पूरी तरह उपयोग में क्यों नहीं आयी? क्या सभी ग्रामीण बेरोज़गारों को रोज़गार मिल गया? नहीं! सच तो यह है कि जो 34,000 करोड़ रुपये ख़र्च हुए उसमें से भी अच्छी-ख़ासी रकम गाँव के सरपंचों, ब्लॉक विकास अधिकारी, तहसीलदार, क्लर्कों और अधिकारियों की जेब में चली गयी! गाँव की ग़रीब बेरोज़गार जनता तक तो केवल जूठन पहुँची! इसके बावजूद मनरेगा के तहत आबण्टित राशि को कम करके सरकार ने वास्तव में मनरेगा से मिलने वाले थोड़े-बहुत प़फ़ायदे को भी कम कर दिया है।
सरकार ने स्कूल शिक्षा पर आबण्टित राशि में 17 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। लेकिन इस सबके बावजूद अगर इस बढ़ोत्तरी की तुलना सकल घरेलू उत्पाद से की जाय तो यह नगण्य है। लेकिन यह सच है कि सरकार स्कूल शिक्षा पर थोड़ा ज़ोर दे रही है। लेकिन इसके कारण 2002 की बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट में देखे जा सकते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार सरकार को उच्चतर शिक्षा के पूर्ण निजीकरण व स्ववित्तपोषण की ओर बढ़ना चाहिए, लेकिन सरकार को स्कूलों और तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों जैसे कि आई-टी-आई- और पॉलीटेक्निक में निवेश में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए। इसका कारण यह है कि आने वाले समय में भारत में भारत के कारपोरेट पूँजीपति वर्ग को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने के लिए अपने देश में कुशल श्रम की ज़रूरत है। इस कुशल श्रम के लिए सरकार को पूँजीपति वर्ग का यह निर्देश है कि वह स्कूल व तकनीकी शिक्षा में निवेश करे ताकि पूँजीपति वर्ग को बेहद कम दाम पर कुशल श्रमिक मिलें। उन्हें स्नातक, स्नातकोत्तर की डिग्री लिये हुए आम घरों के लड़के-लड़कियाँ नहीं चाहिए! क्योंकि वे उन्हें रोज़गार दे ही नहीं सकते! क्योंकि वे देश के विकास में नहीं बल्कि अपने मुनाप़फ़े में निवेश करते हैं! इसलिए उन्हें औने-पौने दामों पर काम करने को तैयार कुशल श्रमिक चाहिए! न कि परम्परागत शिक्षा प्राप्त युवा! इसलिए सरकार ने इस बजट में स्कूल शिक्षा के मद में बढ़ोत्तरी की है।
इसके अलावा सरकार ने परिवार स्वास्थ्य के मद में भी 22 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। लेकिन यह अभी भी सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0-3 प्रतिशत है, जो कि तमाम विकासशील देशों से भी बहुत पीछे है।
सरकार ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए सारा बोझ आम जनता पर डाला है। अप्रत्यक्ष करों में सभी मदों में बढ़ोत्तरी कर दी गयी है। सेवा कर और एक्साइज़ ड्यूटी में की गयी बढ़ोत्तरी से सरकार को इस बजट वर्ष में 73,000 करोड़ रुपये का लाभ होगा। इससे वास्तव में महँगाई बढ़ेगी, जिससे कि पहले ही जनता की कमर टूटी हुई है। दूसरी तरफ़, अमीरज़ादों पर लगाये गये करों में और ज़्यादा कटौती की गयी है जिससे कि सरकारी ख़जाने को इस वर्ष 4500 करोड़ रुपये का घाटा होने वाला है। स्पष्ट है, सरकार का लक्ष्य पहले से दरिद्रता में जी रही देश की 80 फीसदी ग़रीब आबादी को निचोड़कर धन्नासेठों, ठेकेदारों, खाते-पीते शहरी उच्च मध्य वर्ग, कारपोरेट पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरना है।
यह है विकास और आर्थिक वृद्धि की कीमत! इस विकास और वृद्धि से जनता को कुछ भी नहीं मिलना है! यह पूँजीपतियों की विकास और वृद्धि है। इस बजट में सरकार ने अपने सारे कल्याणकारी मुखौटों को नोचकर फेंकने की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाया है। उनके पास पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर और कोई विकल्प भी नहीं है। और देश के मेहनतकश अवाम और छात्रों-युवाओं के पास भी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर कोई विकल्प नहीं है!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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