उद्यमशीलता, पूँजी-निर्माण एवं बचत की आड़ में मेहनतकशों के श्रम की लूट की माँग!
गजेन्द्र
दिनाँक 15 फरवरी, 2013 को ठीक फरवरी माह में प्रस्तुत होने वाले बजट से पूर्व देश के वित्तमन्त्री पी. चिदम्बरम ने देश के पूँजीपतियों के संगठनों सी.आई.आई.ए., फिक्की एवं एसोचैम के साथ एक मीटिंग की जिसका उद्देश्य था बजट को इन संगठनों एवं पूँजीपतियों की ज़रूरतों के अनुसार बनाया जा सके।
इस पूर्व बजट मीटिंग में इन संगठनों के प्रमुखों ने जो बातें कहीं उसमें सबसे मुख्य बात यह थी कि इन्होंने उच्च आय वर्ग के लोगों पर कम टैक्स लगाये जाने की बात की एवं इसके समर्थन में तर्क यह दिया कि अधिक टैक्स लगाने से इनकी उद्यमशीलता कम होगी तथा बचत एवं पूँजी निर्माण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। साथ ही निवेशक भी कम टैक्स दर वाले देशों जैसे सिगांपुर, दुबई एवं लंदन में पलायन कर जायेंगे। इससे विकास की गति दुष्प्रभावित होगी। इसके अलावा उन्होंने उत्तराधिकार कर (इनहेरिटेन्स टैक्स) न लगाये जाने की वकालत की, इसके पीछे तर्क यह था कि ये विकसित देशों की परम्परा है।
हम इन तमाम बिन्दुओं एवं मुद्दों पर बाद में बात करेंगे। पहली ध्यान देने योग्य बात यह है कि आखिर क्यों दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहलाने वाला देश बजट बनाने से पूर्व बहुसंख्यक जनता अर्थात किसान, मज़दूर एवं मेहनतकश वर्ग से कोई सलाह नहीं लेता जिनसे प्रत्येक चुनावों में बड़े-बड़े वादे किये जाते हैं और क्यों इनकी जगह मात्र पूँजीपतियों के संगठनों से सलाह करना आवश्यक समझता है। पहली बात तो इस देश में किसानों, मज़दूरों एवं मेहनतकश वर्गां के अपने कोई संगठन ही नहीं हैं और जो हैं भी उनसे सरकार सलाह लेती नहीं है। वैसे भी ये संगठन सही मायने में किसान, मज़दूर एवं मेहनतकश वर्ग का न तो प्रतिनिधित्व करते हैं और न ही उनकी वकालत करते हैं। ये उल्टे सरकार, पूँजीपतियों एवं दलालों के पिछलग्गू होते हैं और हमेशा उन्हीं के हितों की बात करते हैं। बजट पूर्व तमाम सरकारों द्वारा पूँजीपतियों के मंचों से राय-मशविरा करने से साफ़ हो जाता है कि ये सरकारें इन संगठनों की ‘मैनेजमेण्ट कमेटी’ के रूप में काम करती हैं, न कि जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में ।
अब हम उन प्रमुख बिन्दुओं एवं मुद्दों पर लौटते हैं जिन पर इस मीटिंग में चर्चा की गई। इनमें सबसे प्रमुख मुद्दा था कि उच्च आय वर्ग के लोगों पर कम टैक्स लगाया जाये। इसके पक्ष में तर्क दिया गया था कि अधिक कर लगाने से इनकी उद्यमशीलता कम होगी तथा बचत एवं पूँजी निर्माण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। निवेशक कम टैक्स दर वाले देशों जैसे सिंगापुर, दुबई एवं लंदन पलायन कर जायेंगे एवं विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
यहाँ किन लोगों के लिए उद्यमशीलता, बचत एवं पूँजी निर्माण की बात की जा रही है तथा इनके क्या निहितार्थ हैं इस पर बात करने से पहले इनके अर्थों को स्पष्ट करना आवश्यक है। ये शब्द पूँजीवादी अर्थशास्त्र की देन है। तथा इनका अर्थ भी इसी पूँजीवादी अर्थशास्त्र के अनुसार है। साधारणतः उद्यमशीलता के कई अर्थ लगाये जाते है। संक्षिप्त में इसके सार को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है, “किसी व्यक्ति की जोखिम उठाने की वह क्षमता जिसके आधार पर वह विकास की नयी-नयी सम्भावनाओं का आविष्कार करता एवं उसे आगे बढ़ाता है।” पूँजीवादी अर्थशास्त्र में ऐसे व्यक्ति को उद्यमी व्यक्ति कहा जाता है एवं उसकी इस क्षमता को उद्यमशीलता कहा जाता है। इस उद्यमशीलता का सीधा सम्बन्ध पूँजी से होता है या यूँ कहें की पूँजी इसके लिए सबसे ज़रूरी होती है। इसलिए उद्यमशीलता को बढ़ाने के लिए पूँजी निर्माण एवं बचत की ज़रूरत पड़ती है। इसलिए इस मीटिंग में उच्च आय वर्ग के लोगों पर कम टैक्स लगाने की वकालत की गयी ताकि पूँजी को बचाकर पूँजी निर्माण एवं बचत के जरिए उद्यमशीलता को बढ़ाया जा सके। यह समझना भी अति आवश्यक है कि यह बचत एवं उद्यमशीलता क्या है? पूँजी निर्माण और कुछ नहीं बल्कि पूरी शोषणकारी उत्पादन एवं वितरण प्रक्रिया के दौरान उद्यमी व्यक्तियों (पूँजीपतियों) द्वारा निचोड़ कर धन के रूप में इकठ्ठा किया गया श्रम ही है।
अभी तक हमने उन शब्दों के अर्थों पर प्रकाश डाला है जिनकी वकालत इन संगठनों के प्रमुखों ने इस मीटिंग में की। अब इन शब्दों के चरित्र एवं स्वास्थ्य पर बात करते हैं। और यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि इन शब्दों का महत्व किन लोगों के लिए है और आम जनता से इनका क्या सम्बन्ध है। इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पर बात किये बिना इन बातों को स्पष्ट नहीं जा सकता है। इस पूँजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक चीज कुछ लोगों के हाथों में रहती है। बस ये ही लोग अपने मुताबिक उनका इस्तेमाल करते हैं। जैसे कि चुनाव को ही ले लीजिए अब जिसके पास धन है वो चुनाव लड़ सकता है बाकी लोगों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है। इसी प्रकार उद्यमशीलता, बचत एवं पूँजी निर्माण भी कुछ दलालों एवं पूँजीपतियों के हाथों में केन्द्रित रहती है। इसका आम मेहनतकश जनता से कोई वास्ता नहीं होता है। हालाँकि पूँजीवादी अर्थशास्त्र इस बात का दावा करता है कि इससे पूरे समाज को फायदा होता है। इसके लिए कई तर्क भी दिये जाते है। जैसे कि ये उद्यमी व्यक्ति अपनी उद्यमशीलता का प्रयोग कर नये उद्योगों की स्थापना करते हैं जिसमें बचत एवं पूँजीनिर्माण द्वारा इकठ्ठा किये गये धन को लगाते हैं। इससे एक तरफ लोगों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं, दूसरी तरफ इससे राजस्व भी इकट्ठा होता है जो कि, यह दावा किया जाता है, विकास में इस्तेमाल किया जाता है।
लेकिन इस पूँजीवादी व्यवस्था एवं इसके अर्थशास्त्र की पोल उस समय बिल्कुल खुल जाती है और यह व्यवस्था पूरी तरह नंगी होकर अपनी असलियत के साथ सामने आ जाती है जब हम इसके केवल कुछ वर्षों के इतिहास पर ही नज़र डालते हैं। जब वर्ष 1991 में नयी आर्थिक नीति के तहत उदारीकरण एवं निजीकरण की नीतियाँ लागू की गई थीं तो इन्हीं बातों की दुहाई दी गई एवं वकालत की गई। इसके पीछे तर्क दिया गया था कि जब समाज के उच्च शिखरों पर समृद्धि आयेगी तो यह रिसकर समाज के निचले तबके तक जायेगी। लेकिन सच्चाई आज हमारे सामने है। जिस बात की दुहाई दी गई थी एवं तर्क दिये गये वैसा कुछ भी नहीं हुआ और जो भी हुआ वो बिल्कुल इसका उल्टा हुआ। जो भी थोड़ी बहुत जीविकोपार्जन की चीज़ें समाज के निचले तबके के पास थीं वे भी इस पूरी उदारीकरण एवं निजीकरण की प्रक्रिया में ऊपर चली गईं और समाज के निचले तबके का स्तर और भी गिर गया। अगर आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह तो यह बात और भी साफ हो जाती है। खुद योजना आयोग की मानव विकास रिपोर्ट में भी इस बात को स्वीकारा गया है कि 1983 से प्रतिव्यक्ति प्रोटीनयुक्त आहार में कमी आयी है। 84 करोड़ लोग 20 रुपये रोज़ाना से भी कम आमदनी पर जीवन यापन करने के लिए मज़बूर हैं। लगभग 18 करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में और इतने ही फुटपाथों पर सोने के लिए मजबूर हैं। यहाँ हमारा मकसद आँकड़े इकठ्ठा करना नहीं है। ऐसे आँकड़ों से तो पूरी किताब छापी जा सकती है! हमारा मकसद तो उन दलीलों एवं तर्कों की असलियत को सामने लाना है जिनकी वकालत इस मीटिंग में की गई। ये सारी सलाहें वास्तव में उन्हीं उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को जारी रखने के लिए थीं, जिनके कारण पिछले दो दशकों में अमीरज़ादे आबाद हुए हैं और मेहनतकश बरबाद हुए हैं।
ये सब कुछ बस यूँ ही इत्तेफाकन नहीं होता है। इसके कारण इस पूँजीवादी अर्थशास्त्र में ही निहित हैं। क्योंकि यहाँ उद्यमशीलता, बचत एवं पूँजी निर्माण का सम्बन्ध आम जनता से कतई नहीं होता कि वह अपनी क्षमताओं के आधार पर सामूहिक तौर पर जोखिम उठाकर समाज के विकास में कोई योगदान दे सके। यह मौका केवल इस व्यवस्था के पूँजीपतियों, दलालों एवं ठेकेदारों को ही दिया जाता है। आम मेहनतकश को इस बात के लिए मजबूर किया जाता है कि इन उद्यमी व्यक्तियों की उद्यमशीलता को बढ़ाने में सहयोग करें। उनकी बचतों एवं पूँजीनिर्माण में सहयोग करें। और यह सहयोग आम मेहनतकश जनता अपने हाड़-मांस को खेतों एवं फैक्ट्रियों में गलाकर करती है। यह पूँजी निर्माण एवं बचतें भी मेहनतकश वर्ग का भण्डारित श्रम ही है जिसे ये पूँजीपति वर्ग पूरी शोषणयुक्त उत्पादन व्यवस्था के दौरान पूँजी के रूप में इकठ्ठा कर लेता है। दोबारा फिर इसी चक्र को पूरा करने में इसे इस्तेमाल करता है। यह चक्र चलता रहता है एवं मेहनतकश वर्ग की ग़रीबी और दरिद्रता बढ़ती जाती है। दूसरी तरफ इन पूँजीपतियों की आय में लगातार वृद्धि होती जाती है। अर्थात ग़रीबी एवं अमीरी की खाई लगातार गहराती जाती है। जबकि पूँजीपतियों एवं उनके उच्च आय वाले लोगों पर सरकार द्वारा कम टैक्स लगाया जाता है।
अर्थात सरकार द्वारा जो खर्च, इन पूँजीपतियों के शोषण को वैधता देने के लिए एवं उसको बनाये रखने के लिए पुलिस, सेना, नौकरशाही, “राष्ट्रीय सुरक्षा”, एवं कुल मिलाकर पूरे तन्त्र पर किया जाता है उसे भी देने से पूँजीपति मना करते हैं ताकि सरकार इसे भी शोषित मेहनतकश लोगों से प्राप्त करे।
इसके अलावा इस मीटिंग में और भी बहुत से “बिन्दुओं” पर चर्चा की गई लेकिन सबका सार पूँजीपतियों पर कम टैक्स लगाना ही था। पहले ऐसे सुझाव आदि किसी बहाने से छिपा कर दिये जाते थे। लेकिन आज पूँजीपति वर्ग अपने सुझाव, जो कि सुझाव कम और निर्देश ज़्यादा होते हैं, सरकार को बेशरमी के साथ खुले तौर पर देता है। इन सुझावों का मकसद पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाना और कायम रखना होता है, और देश की आम मेहनतकश जनता को लूटना-खसोटना होता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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