बन्द गली की ओर बढ़ता विश्व पूँजीवाद
शाकम्भरी
भूमण्डलीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों को मुनाफ़ा निचोड़ने की पूरी छूट दे रखी है। इन नीतियों की शुरुआत पर कहा गया था कि इनसे लोगों को रोज़गार मिलेगा, लोगों की आय बढ़ेगी और जब समाज की ऊपरी तबकों में समृद्धि आयेगी तो यह रिसकर नीचे तक पहुँचेगी। पर आज जब इन नीतियों को लागू हुए दो-तीन दशक बीत गये हैं, तो स्थितियाँ कुछ और ही नज़र आ रही हैं। दुनिया भर में करोड़ों लोगों को बेरोज़गारी की मार झेलनी पड़ रही है। विश्व पूँजीवाद के सिरमौर अमेरिका में बेरोज़गारी ने पिछले कई दशकों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। आर्थिक संकट ने नागरिक सेवाओं और औद्योगिक जगत को अपनी चपेट में ले लिया है। संकट के बाद कर्ज महँगे हो गये हैं और उपभोक्ता ख़रीद का वित्तीय पूँजी द्वारा वित्त-पोषण करना मुश्किल होता जा रहा है। ख़रीदारी में कमी आने से माँग में गिरावट आयी है। और उत्पादन में कटौती होने के साथ ही छँटनी का सिलसिला शुरू हो गया है। मन्दी के कारण भारत में भी बैंक-बीमा क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी में लाखों लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुक हैं।
विकसित देशों में फैला आर्थिक संकट अब विकासशील देशों को भी धीरे-धीरे अपनी चपेट में ले रहा है। चीन की न्यूज़ एजेंसी शिनहुआ के अनुसार विकसित देशों में बेरोज़गारों की संख्या 80 फीसदी बढ़ी है, जबकि विकासशील देशों में यह संख्या दो-तिहाई बढ़ी है। भारत में भी स्थिति गम्भीर हो रही है। गैलप सर्वेक्षण के अनुसार देश में 73 फीसदी आबादी भ्रष्टाचार से पीड़ित है। भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर मचने वाला शोर अब सन्नाटे में तब्दील हो रहा है। गैलप सर्वेक्षण में ही 31 प्रतिशत भारतीयों ने अपने जीवन को ‘तकलीफ़देह’ बताया और करीब 56 फीसदी लोगों ने कहा कि उनका जीवन बहुत ज़्यादा संघर्षपूर्ण है। केवल 13 प्रतिशत लोगों ने अपने आपको खुशहाल बताया। यह पूरी स्थिति आई.एल.ओ. की रिपोर्ट में दूसरे रूप में दिखती है जिसके अनुसार मन्दी के बाद अगर कुछ देशों की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती भी है तो नौकरियों की स्थिति में सुधार होने की गुंजाइश कम ही है। आई.एल.ओ. के अनुसार 2009-2010 की मन्दी के दौरान दुनिया भर में रोज़गार गँवाने वाले करीब पाँच करोड़ लोग अभी भी बेरोज़गार हैं और अपनी रिपोर्ट ‘वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट 2012: ‘बेटर जॉब्स फॉर ए बेटर इकॉनमी’ में उसने इस पूरी स्थिति को गम्भीर बताया है। स्पष्ट है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था तेज़ी से एक बन्द गली की ओर बढ़ रही है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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