सारदा चिटफण्ड घोटालाः सेंधमार, लुटेरे पूँजीवाद का प्रातिनिधिक उदाहरण
शिशिर
बीते दिनों सारदा चिटफण्ड घोटाले ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया। ऐसा कई कारणों से हुआ। एक कारण तो यह था कि सारदा चिटफण्ड द्वारा जो चार सौ बीसी की गयी, उसके कारण लाखों छोटे निवेशक और कम-से-कम हज़ारों एजेण्ट तबाह हो गये। इनमें से कई इतने ग़रीब निवेशक और एजेण्ट थे, जिनके पास सारदा द्वारा लूटे जाने के बाद कुछ भी नहीं बचा है। क्योंकि उनके पास जो थोड़ी-बहुत पूँजी थी, वह सब उन्होंने सारदा चिटफण्ड की स्कीमों में लगा दी थी। दूसरा कारण, यह था कि सारदा चिटफण्ड के मालिक सुदीप्तो बनर्जी के तृणमूल सरकार के कई अहम मन्त्रियों और स्वयं ममता बनर्जी के साथ करीबी रिश्ते थे। कुछ मन्त्री तो सारदा ग्रुप में महत्वपूर्ण पदों पर भी आसीन थे।
पूरे देश में ही चिटफण्ड कम्पनियों द्वारा आये दिनों छोटे निवेशकों को चूना लगाया जाता है और अलग-अलग राज्यों से लेकर केन्द्र सरकार के स्तर तक कोई ऐसा विनियामक निकाय नहीं है जो कि इन घोटालों पर रोक लगा सके। पश्चिम बंगाल में भी ऐसा कोई नियामक निकाय नहीं था। वामपंथी गठबन्धन सरकार ने दुनिया को दिखाने के लिए ऐसी कम्पनियों पर लगाम कसने के लिए कुछ कानूनों को पास करने की कवायद शुरू की थी, लेकिन वे कभी हक़ीक़त न बन सके। वास्तव में, आज पूँजीवादी व्यवस्था जिस संकट से जूझ रही है, उसमें सरकार स्वयं ऐसी चिटफण्डिया कम्पनियों पर रोक नहीं लगाना चाहती। एक तो सरकार के पास छोटे निवेशकों के लिए बचत की योजनाओं को लागू करने वाली कोई प्रणाली अब नहीं रह गयी है क्योंकि उदारीकरण के दौर में विभिन्न पार्टियों की सरकारों ने स्वयं सुनियोजित तरीके से ऐसी सभी योजनाओं का विध्वंस कर दिया। और दूसरा पहलू यह भी है कि वित्तीय जुएबाज़ी पर सरकार स्वयं ही कोई रोक नहीं लगाना चाहती, न तो बड़े पैमाने की वित्तीय जुएबाज़ी पर और न ही छोटे पैमाने की वित्तीय जुएबाज़ी पर।
सारदा ग्रुप का मालिक सुदीप्तो बनर्जी इस घोटाले के सामने आने के समय से ही फ़रार था। गत 22 अप्रैल को उसे कश्मीर से गिरफ्रतार किया गया। इस समूह के काम करने का तरीका एकदम सरल था। इसके एजेण्ट इसकी तमाम स्कीमों के लिए लोगों से निवेश एकत्र किया करते थे। इन निवेशों के बदले में कम्पनी लोगों को ज़मीन या फ्रलैट देने का वायदा कर रही थी, या फिर 10 से 12 प्रतिशत के ब्याज़ समेत पैसे वापस करने का वायदा कर रही थी। एजेण्टों को उनके द्वारा एकत्र फण्ड पर 15 से 20 प्रतिशत के कमीशन का वायदा किया जाता था। कुछ स्कीमें तो ऐसी भी थीं जिनमें यह कहा गया था कि आप 1 लाख रुपये निवेश करें और 14 वर्ष बाद 10 लाख रुपये प्राप्त करें। राष्ट्रीय बैंकों या निजी बैंकों में फिक्स्ड डिपॉजिट बनवाने पर भी इतनी रकम पर इतने ही समय बाद 4 लाख रुपये ही मिलते। इन लालच पैदा करने वाली पेशकशों के जवाब में सारदा ग्रुप में कई हज़ार करोड़ रुपये छोटे निवेशकों से इकट्ठा किये। इस रकम के बूते पर सारदा ग्रुप ने करीब 160 कम्पनियाँ बनायीं जिनमें कई मीडिया कम्पनियाँ भी शामिल थीं। पश्चिम बंगाल में कई अखबार और समाचार चैनल सारदा ग्रुप के नियन्त्रण में थे और ये सभी मीडिया चैनल और अखबार एकदम नंगे तरीके से तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करते थे। इसके साथ ही, सारदा ग्रुप ने अपने एजेण्टों को आखि़री चुनावों में आदेश दिया था कि वे ज़ोर-शोर से तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करें! तृणमूल कांग्रेस के तमाम मन्त्री व नेता सारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो बनर्जी से करीबी रिश्ता रखते थे। गिरफ्रतार होने के बाद सुदीप्तो बनर्जी ने सी.बी.आई. को बताया है कि इन मन्त्रियों ने सुदीप्तो बनर्जी से कहा था कि अगर सारदा ग्रुप उन्हें मालामाल करता है, तो तृणमूल सरकार सारदा ग्रुप को अपना संरक्षण देना जारी रखेगी। सुदीप्तो बनर्जी शुरू से जानता था कि वह लोगों के साथ फ्रॉड कर रहा है और वास्तव में सारदा ग्रुप एक पांज़ी स्कीम है, जिसका मकसद है लोगों को ठगना। जाहिर है कि तृणमूल कांग्रेस के नेता-मन्त्री भी इस बात से वाकिफ़ थे। यही कारण है कि सारदा चिटफण्ड घोटाले के सामने आने के बाद ममता बनर्जी ने तबाह हुए निवेशकों को सलाह दी, “जो चला गया उसे भूल जाओ!” अभी भी सारदा चिटफण्ड घोटाले के कारण सारदा ग्रुप और सरकार पर लोगों का जो गुस्सा फूट रहा है, सरकार उसे कम करने और साथ ही कम दिखलाने की कोशिश कर रही है। लेकिन स्पष्ट है, कि यह अब तक के सबसे बड़े चिटफण्ड घोटालों में से एक है।
कोई भी सारदा ग्रुप द्वारा पेश की गयी स्कीमों को देखे तो यह बता सकता है कि सारदा ग्रुप निवेश के बदले में जिन चीज़ों का वायदा कर रहा था, वह एकदम असम्भव और कतई अयथार्थवादी था। लेकिन इसके बावजूद लोग इसके तरफ़ आकर्षित क्यों हुए? लोग ऐसी बेतुकी स्कीमों पर यक़ीन करने को तैयार क्यों थे?
इसका सबसे पहला कारण तो यह था उदारीकरण और निजीकरण के करीब ढाई दशकों के दौरान सरकार छोटी बचत के लिए चलायी जाने वाली सारी योजनाओं को या तो बन्द कर चुकी है और या फिर उन्हें अनाकर्षक बनाकर निष्प्रभावी बना चुकी है। चूँकि छोटी बचत के लिए चलने वाली सारी योजनाएँ ग़रीब और निम्न मध्यवर्ग के लोगों के लिए थीं, इसलिए अब उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचा कि वे निजी क्षेत्र की तमाम चिटफण्ड कम्पनियों और वित्तीय क्षेत्र में काम करने वाली छोटी कम्पनियों के पास जाएँ। इसका कारण यह है कि इस आबादी के पास आम तौर पर बैंक में खाता खुलवाने और उसे कायम रखने योग्य रकम होती ही नहीं। सरकार ने भी इन छोटी कम्पनियों को बेलाग-लपेट अपनी कार्रवाइयाँ चलाने की छूट दी क्योंकि वह खुद इस जिम्मेदारी से पीछे हट रही थी, हालाँकि सरकार हमेशा से यह जानती थी कि इनमें से अधिकांश कम्पनियाँ फ्रॉड होती हैं। 1980 के दशक से अब तक धीरे-धीरे विभिन्न सरकारों ने छोटी बचत की योजनाओं में ब्याज़ दर को इतना कम कर दिया कि उनका कोई लाभ नहीं रह गया। कुछ योजनाएँ तो बन्द भी हो गयीं। इसका एक कारण यह भी था कि सरकार बैंक व बीमा क्षेत्र को निजी पूँजी के लिए खोल रही थी, और अगर ये बचत योजनाएँ चलती रहतीं तो वे हमेशा वित्त के क्षेत्र में निजी पूँजी के लिए एक गम्भीर चुनौती होतीं। इसलिए सरकार ने सोची-समझी नीति के तहत निजी पूँजी के निर्देशों पर उन सभी छोटी बचत योजनाओं को ख़त्म कर दिया जो ग़रीब और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों को एक मामूली-सी राहत दिया करती थीं।
लेकिन दूसरा कारण निम्न मध्यमवर्ग या टटपुँजिया वर्गों की अपनी प्रवृत्ति भी है, जिसके बारे में लेनिन ने एक बार लिखा था, कि एक टटपुँजिया वर्गीय व्यक्ति हमेशा यह सोचता है कि “उसने पैसे बनाये, अब मुझे भी पैसे बनाने का मौका मिलना चाहिए।” हम सारदा ग्रुप द्वारा पेश हवाई स्कीमों पर लोगों द्वारा भरोसा किये जाने के लिए सिर्फ सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं। यह टटपुँजिया वर्ग की वर्ग प्रवृत्ति भी है जिसमें वह तुरत-फुरत पैसा बना लेने के लिए एक साथ कई छोटी-छोटी योजनाओं पर काम करता रहता है। न तो वह उसमें जी पाता है और न ही मर पाता है। स्वयं अपना जीवन भी इन तमाम योजनाओं के तनाव में नर्क बना लेता है और अपने परिवार वालों के जीवन को भी नर्क बना देता है। सभी जानते हैं कि जब सरकार ब्याज़ दरों को नीचे कर रही है, उस समय कोई चिटफण्ड कम्पनी ऐसी ऊँची ब्याज़ दरें कैसे दे सकती है? लेकिन लाभ कमा लेने की एक क्षीण आशा भी निम्न पूँजीपति वर्ग के लाखों लोगों को ठग लेने के लिए पर्याप्त होती है। पूँजीपतियों और ठगों-बटमारों में कोई ज़्यादा फर्क नहीं रह गया है। उनसे अच्छे नैतिक आचारों और ईमानदारी की उम्मीद करना तो अव्वल दर्जे की मूर्खता होगी। इसलिए सारदा ग्रुप के सेंधमारों और उठाईगीरों ने वही किया, जिसकी उनसे उम्मीद की जा सकती है। पहले भी उन्होंने बार-बार यही किया है और वे अब भी यही कर रहे हैं। लेकिन निम्न पूँजीपति वर्ग के लोगों ने लाखों की तादाद में इन मज़ाकिया स्कीमों पर भरोसा क्यों किया इसे समझने के लिए इस वर्ग के चरित्र को समझने की भी ज़रूरत है। यह वर्ग न पूरी तरह आबाद होता है और न ही पूरी तरह बरबाद होता है। नतीजतन, इसकी राजनीतिक वर्ग चेतना भी अधर में लटकी होती है। अपनी राजनीतिक माँगों के लिए संगठित होने और सरकार की नीतियों के ख़िलाफ जनता के अन्य मेहनतकश हिस्सों के साथ संगठित होकर आवाज़ उठाने की बजाय अधिकांश मामलों में वह पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा पेश किये जा रहे दावों और वायदों पर भरोसा कर बैठता है। और जब उसे इसका ख़ामियाज़ा भुगताना पड़ता है तो वह काफ़ी छाती पीटता है और शोर मचाता है। सारदा ग्रुप जैसी फ्रॉड कम्पनियों की स्कीमों के निशाने पर ये ही वर्ग होते हैं, जो परिवर्तन और बदलाव की मुहिम के ढुलमुलयकीन मित्र होते हैं। जब परिवर्तन की ताक़तें उफान पर होती हैं, तो ये उनके पीछे चलते हैं और जब माहौल यथास्थितिवादी ताक़तों के पक्ष में होता है, तो ये अपने निजी, व्यक्तिगत हित साधने में व्यस्त रहते हैं और व्यवस्था को एक प्रकार से मौन समर्थन देते हैं।
सारदा ग्रुप जैसे फ्रॉड कभी भी सरकारी समर्थन के बिना नहीं हो पाते। इस मामले में भी तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने, जो कि , “माँ माटी, मानुष” का नारा उठाते हुए सत्ता में आयी थी और जिस पर तमाम वामपंथी दुस्साहसवादी भी निहाल हो गये थे, सारदा ग्रुप की जालसाज़ी को पूरा संरक्षण दिया। सारदा ग्रुप के मीडिया विंग के सी.ई.ओ. कुणाल घोष और सारदा ग्रुप के अखबार ‘प्रतिदिन’ के मालिक सृंजय बोस तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं। सारदा ग्रुप के सभी मीडिया उपक्रम तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करने वाले भोंपू का काम लम्बे समय से कर रहे हैं। बदले में तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने सभी सार्वजनिक पुस्तकालयों को निर्देश दिया कि वे सारदा ग्रुप के सभी अखबारों को ख़रीदेंगे। 2011 में सारदा ग्रुप के पैसे से ख़रीदी हुई मोटरसाईकिलें, साईकिलें और एम्बुलेंस ममता बनर्जी ने माओवादी पार्टी के प्रभाव क्षेत्र जंगलमहल में वितरित किये। सारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो बनर्जी ने ममता बनर्जी की एक पेण्टिंग 1.86 करोड़ रुपये में ख़रीदी। तृणमूल कांग्रेस के परिवहन मन्त्री मदन मित्र को सारदा ग्रुप ने अपनी कर्मचारी यूनियन का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिन्होंने बदले में एक कार्यक्रम में सुदीप्तो बनर्जी को पश्चिम बंगाल का गौरव बताया! ममता बनर्जी स्वयं 15 अप्रैल तक कहीं भी यह मानने को तैयार नहीं थीं कि सारदा ग्रुप एक चिटफण्ड है, जबकि सचिन पायलट ने पहले ही पश्चिम बंगाल में चल रही ऐसी 73 पांज़ी स्कीमों का नाम संसद में पेश किया था, जिसमें सारदा ग्रुप का नाम भी शामिल था। गिरफ्तारी के बाद सुदीप्तो बनर्जी ने सरकार के साथ अपने लेन-देन के रिश्तों का खुलासा किया और अब पूरी सच्चाई सामने आ चुकी है।
लेकिन केन्द्रीय एजेंसियाँ भी इस पूरी जालसाज़ी से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती हैं। कम्पनी पंजीकरण कार्यालय से लेकर सेबी तक अब तरह-तरह के बहाने पेश कर रहे हैं। किसी का कहना है कि उन्हें इतने बड़े पैमाने पर फण्ड एकत्र किये जाने की जानकारी नहीं दी गयी; अन्यों का कहना है कि सारदा ग्रुप इस प्रकार की स्कीमें चलायेगा इसकी जानकारी उन्हें नहीं दी गयी; इसी प्रकार के बहाने केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा पेश किये जा रहे हैं। लेकिन सच्चाई तो यह है कि इस प्रकार के वित्तीय फ्रॉड का खेल देश में हज़ारों कम्पनियाँ खेल रही हैं, और इन सभी के निशाने पर ग़रीब और निम्न मध्यमवर्गीय आबादी है। सरकार को इन पर लगाम कसने की कोई फिक्र नहीं है। उल्टे सरकार की जानकारी में इस प्रकार की सभी स्कीमें और कम्पनियाँ काम कर रही हैं। पूँजीवाद आज अपनी मरणासन्न अवस्था के उस दौर में है जिसमें वह स्वयं एक नग्न जुए में तब्दील हो चुका है। विश्व में जारी आर्थिक संकट के जड़ में भी एक कैसीनो अर्थव्यवस्था ही है। बड़े से लेकर छोटे पैमाने पर अब पूँजीवादी वृद्धि के लिए केवल सट्टेबाज़ी और जुए का रास्ता ही बचा रह गया है। सबप्राइम संकट की शुरुआत भी वित्तीय संस्थाओं और बैंकों द्वारा किये गये एक फ्रॉड के कारण ही हुई थी। ऐसी सेंधमारियों, चोरी, लूट और डकैतियों से मुक्त पूँजीवाद की उम्मीद और आकांक्षा रखना आकाश कुसुम की अभिलाषा के समान है। पूँजीवाद प्रकृति से ही एक सेंधमारी और लूट है। पहले यह प्रच्छन्न तौर पर होती थी, और अब जबकि पूँजीवादी व्यवस्था दुनिया के पैमाने पर खोखली, कमज़ोर और मरणासन्न हो चुकी है, यह लूट और सेंधमारी नंगे तौर पर दुनिया के सामने है। सारदा चिटफण्ड घोटाला इसी सेंधमार पूँजीवाद की एक प्रतीकात्मक घटना थी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!