आधुनिक भौतिकी तथा भौतिकवाद का विकास
सनी
हिग्स बुसॉन न मिलने की शर्त स्टीफेन हॅाकिंग हार गए हैं, परन्तु उनकी इस हार के बावजूद विज्ञान ने तरक्की की है। पीटर हिग्स के अनुसार पदार्थ में द्रव्यमान का गुण हिग्स बुसोन के कारण आता है। सर्न प्रयोगशाला के महाप्रयोग से मिले आँकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि हिग्स बुसोन ही वह बुनियादी कण है जो पदार्थ को द्रव्यमान देता है तथा ‘बिग बैंग’ या महाविस्फोट के कुछ पल बाद हिग्स फ़ील्ड व निर्वात मिलकर तमाम बुनियादी कणों को भार देते हैं। आज हम ब्रह्माण्ड को भी परखनली में परखे जाने वाले रसायन की तरह प्रयोगों से परख रहे हैं। हमारी प्रयोगशालाओं में ब्रह्माण्ड के रूप और उसके ‘उद्भव’ या ‘विकास’ को जाँचा जा रहा है। कोपरनिकस और ब्रूनो की कुर्बानी ज़ाया नहीं गयी। विज्ञान ने चर्च की धारणाओं के परखच्चे उड़ा दिये और सारे मिथकों के साथ धर्मशास्त्रों को विज्ञान ने गिलोटिन दे दिया। ख़ैर, हिग्स बुसोन मिलने से स्टैण्डर्ड मॉडल थ्योरी सत्यापित हो गयी है। तो क्या हमारा विज्ञान पूरा हो गया है? नहीं क़त्तई नहीं। यह सवाल ही ग़लत है। विज्ञान कभी भी सब कुछ जानने का दावा नहीं करता है और अगर कुछ वैज्ञानिक, अपने निश्चित दार्शनिक ‘बेंट ऑफ माइंड’ से जब इस अवधारणा को मानते हैं तब वे संकट के ‘ब्लैक होल’ में फँस जाते हैं। हमारा विज्ञान विकासशील है, ज्ञात और अज्ञात (ग़ौर करें, ‘अज्ञेय’ नहीं!) के द्वन्द्व में हम नए आयामों को जानते हैं और इससे नए अज्ञात की चुनौती पाते हैं। ज्ञात और अज्ञात के द्वन्द्व को न समझना ही संकट का आवाहन करता है, धर्मशास्त्रों की प्रेतात्मा फिर से विज्ञान में जीवित होने लगती है।
इस संकट का सटीक रूप क्या है? संकट इसका है कि क्वाण्टम फ़ील्ड थ्योरी द्वारा सत्यापित हुए हिग्स बुसॉन के वृहत् गुण, गुरुत्व को समाहित नहीं करते हैं। बिग बैंग थ्योरी की अवधारणा के अनुसार ‘बिग बैंग’ के समय पदार्थ का जन्म हुआ, गुरुत्व का जन्म हुआ तथा दिक्-काल का जन्म हुआ। इस अवधारणा के पीछे का पहला तर्क-आकाशगंगाओं का हमसे दूर जाना, जो कि ब्रह्माण्ड के विस्तार को समझाता है; दूसरा तर्क समूचे ब्रह्माण्ड में मौजूद पार्श्व विकीरण (बैकग्राउण्ड रेडिएशन जिससे सिग्नल के न होने से टीवी में झिलमिलाहट होती है) यह दर्शाते हैं कि ब्रह्माण्ड की शुरुआत में या बहुत पहले एक भीषण विस्फोट हुआ था। बिग बैंग की इस अवधारणा के साथ भौतिकी को वृहत् गुरुत्व और सूक्ष्म क्वाण्टाइजे़शन को व्याख्यायित करना है। गुरुत्व और क्वाण्टाइज़ेशन के एकीकरण की समस्या को आइन्सटीन ने पहली बार 1905 में अपने ‘करिश्माई’ पेपर में पेश किया था। स्ट्रिंग थ्योरी और क्वाण्टम लूप थ्योरी इन मुख्य अवरोधकों को हल करने वाली प्रमुख दावेदार हैं। फिलहाल हमें 2015 तक इन्तज़ार करना होगा जब तक कि सर्न प्रयोग के आँकडों को सू़त्रबद्ध नहीं कर लिया जाता। इस प्रयोग से गुरुत्व और क्वाण्टम परिघटना को समाहित करने वाले सिद्धान्त स्ट्रिंग थ्योरी या क्वाण्टम लूप थ्योरी का सत्यापन होता है या ये आंशिक रूप में स्वीकारी जाती हैं या कोई नयी थ्योरी इसे समझाती है, यह समय बताएगा परन्तु यह विज्ञान के लिए बेहद महत्वपूर्ण होगा। आह्वान पाठक सम्मलेन में प्रस्तुत पर्चे में और ‘आह्वान’ में आये एक लेख के ज़रिये हमने यह दिखाया था कि हिग्स बुसोन के ढूँढे़ जाने से भौतिकवाद को कोई ख़तरा नहीं है। यह भौतिक यथार्थ का एक गुण है जो अब उजागर हुआ है। इस प्रयोग से निकलने वाले अन्य निष्कर्ष भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को और गहन करेंगे।
एंगेल्स के दृष्टिकोण के अनुसार “भौतिकवाद की एक मात्र अपरिहार्यता मानव मस्तिष्क द्वारा (जब मानव मस्तिष्क मौजूद हो) बाहरी जगत का प्रतिबिम्बन है, जो कि हमारे मस्तिष्क से स्वतन्त्र रूप से अस्तित्वमान तथा प्रगतिशील है।” (एंगेल्स, लुडविग फ़ायरबाख) भाववाद और भौतिकवाद के बीच अन्तर मस्तिष्क तथा बाहरी जगत के रिश्ते से होता है। वास्तविक यथार्थ का रूप कैसा है यह जानना प्राकृतिक विज्ञान का क्षेत्र है, दर्शन सिर्फ उसे रास्ता दिखा सकता है। जब-जब यह रास्ता गलत दार्शनिक रोशनी में देखा जाता है तब-तब वैज्ञानिक दीवारों पर सिर पटकते हैं और सभी “संकट-संकट” का शोर मचाते हैं या वे नए प्रयोगों की रोशनी में (विज्ञान प्रगतिशील होता है, संयोग और अनिवार्यता के द्वन्द्व के ज़रिये, धीरे और लम्बे रास्ते से वह आगे बढ़ता ही है) और तब ‘खुले दरवाजे’ को वह फिर खोलता है। प्रकृति का सही प्रतिबिम्बन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ही कर सकता है। इसे नकार कर वैज्ञानिक पेटेण्ट की लड़ाई का लूडो ख़ेलते रहते हैं और प्रयोगों के ‘डाइस’ से समस्याएँ और उनके हल बिना कारण जाने ही नयी तकनीकों, दवाइयों और मशीनों तथा आधुनिक विकास में लगते हैं।
लोरेंट्ज, लैंज़विन से लेकर ब्लोख्निस्तेव, हैसेन, व्लादिमीर फॉक, सकाता, युकावा, ताकेतानी के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नज़रिए को बिलकुल भुला दिया गया है। फॉक ने सापेक्षिकता सिद्धांत, ब्लोख्निस्तेव ने क्वाण्टम मैकेनिक्स, ताकेतानी, सकाता, युकावा ने कण भौतिकी, क्वाण्टम मेकेनिक्स को देखने का एक ऐतिहासिक नज़रिया दिया जिसे आज कम्युनिस्ट प्रोपेगैण्डा बोलकर विज्ञान की बुनियादी पढ़ाई से ग़ायब कर दिया गया है। इसी कारण संकट वैज्ञानिकों, विज्ञान के आधुनिक दार्शनिकों के दिमागों को घेरे बैठा है। इसके कारणों की हम और विशिष्टता में पड़ताल आगे करेंगे। परन्तु यहाँ हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि निश्चित तौर पर विज्ञान या अन्य मानवीय ज्ञान शाखाएँ द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी व ऐतिहासिक भौतिकवादी तरीके से विकसित होती हैं और विज्ञान की प्रगति द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन प्रणाली के अनुसार ही विकसित होती है तथा बुर्जुआ समाज की दार्शनिक अनिवार्यताओं, यानी सार-संग्रहवाद, नव-काण्टवाद, माखवाद के बावजूद धीमे-धीमे सही लेकिन रास्ते तक आती है और जब तक विज्ञान सही दार्शनिक प्रणाली व आधार पर नहीं चलेगा तब तक विज्ञान संकट का शिकार रहेगा परन्तु यह भी सही है कि खुद विज्ञान के विकास के साथ द्वन्द्वात्मक प्रणाली को भी विकसित होना पड़ता है। यानी अगर हम कहें कि भौतिकवाद की कुछ अवधारणाएँ अपूर्ण होती हैं तो यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही है। बल्कि यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही है, जो वस्तुगत यथार्थ को ही निरपेक्ष सत्य का आधार मानता है जिस तक हम अपनी सापेक्षिक समझ के अनुसार पहुँचते हैं। लेनिन के शब्दों में कहें तो “हर विचारधारा ऐतिहासिक रूप में सापेक्षिक होती है पर यह बिना शर्त सत्य है कि हर वैज्ञानिक विचारधारा किसी न किसी वस्तुगत सत्य से सम्बन्ध रखती है, निरपेक्ष प्रकृति के अनुसार होती है।” (लेनिन, अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद) एंगेल्स लिखते हैं, “हर पथ प्रदर्शक खोज के साथ, (मानवीय इतिहास में इसे नियम मानते हुए) चाहे वह विज्ञान में हो, भौतिकवाद को अपना रूप बदलना पड़ता है।” तो क्या हिग्स बुसॉन के खोजे जाने से भौतिकवाद को अपना रूप बदलना पड़ेगा?
भौतिकवाद, अन्य दर्शन और वैज्ञानिक खोजें
इससे पहले हम यह देख लेते हैं कि प्रकृति को अलग-अलग दार्शनिक अवस्थितियाँ किस प्रकार समझाती हैं, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इनकी किस प्रकार आलोचना रखता है। अन्त में हम यह देखेंगे कि खुद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में भी कई प्रकार की बहसें हैं और यह किस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान के विकास के साथ विकसित होती है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का प्रश्न दार्शनिक बहस का प्रमुख विषय रहा है। भाववादी और भौतिकवादी ख़ेमे ने इस सवाल के अलग-अलग जवाब दिये हैं। भाववाद के अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति ब्रह्मा की रचना, ईश्वर का करिश्मा है जिसे हेगेल ने दार्शनिक रूप से सबसे उत्कृष्ट रूप में पेश किया। हेगेल ने कहा कि ‘परम विचार’ (देमी उर्गोस) अपने एक अंश को परकीकृत करके दुनिया को गढ़ता है। भौतिक विश्व उसी परम विचार का एक एलियनेटेड अंश है। काण्ट ने माना कि वस्तु निजरूप (थिंग-इन-इटसेल्फ) होता है; इस प्रकार उन्होंने यह माना कि भौतिक यथार्थ होता है। लेकिन साथ ही काण्ट के लिए यह भौतिक यथार्थ अज्ञेय है; इसे जाना नहीं जा सकता। नतीजतन, काण्ट के अज्ञेयवाद ने भी भाववादी दर्शन के साँस लेने के लिए पर्याप्त जगह छोड़ दी। भाववाद और अज्ञेयवाद से अलग कई वैज्ञानिको ने उत्पत्ति के प्रश्न को भौतिकी के सिद्धान्तों से समझाने की कोशिश की और भौतिकी से खोजे जा रहे पदार्थ जगत के नए गुणों को इसी की अभिव्यक्ति माना। यह पूरी प्रक्रिया काफ़ी लम्बी और जटिल रही। ख़ासकर क्वाण्टम जगत के उजागर होने के साथ यह सवाल उलझता चला गया। माख, पोइंकेयर, ओस्टवॉल्ड, एडिंग्टन के नव काण्टवादी, अनुभवसिद्ध दर्शनों से प्रभावित रूसी माख़वादी बोग्दानोव ने मार्क्सवाद के कम्बल के भीतर रहते हुए मार्क्सवाद पर हमले किये जिन्हें नग्न करने का काम लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद’ में किया। साथ ही लेनिन ने विज्ञान के सवाल पर भी अपनी सकारात्मक बात रखी तथा भौतिकविदों के बीच प्रचलित दार्शनिक बीमारी “भौतिक भाववाद” को उजागर किया।
परन्तु हर साल क्वाण्टम जगत की नयी खोजों के साथ संकट का उन्माद बढ़ता गया, हाइज़ेनबर्ग का यह कथन कि ‘प्रेक्षक ही यथार्थ का निर्माण करता है’ इसी दार्शनिक दरिद्रता का बड़ा उदाहरण है। लेकिन यह एक त्रासदी रही है कि लेनिन द्वारा इस आम समस्या का समाधान ढूँढे़ जाने के बावजूद यह अब भी मौजूद है और अपने ज़ोर के साथ मौजूद है। आज के दौर के विभिन्न वैज्ञानिकों ग्रीन, पेनरोज़, सस्किंड आदि इसी प्रवृत्ति के शिकार हैं। भाववाद की यह हेगेलीय पूँछ वैज्ञानिकों के अन्वेषण के पथ में रुकावट बनी हुई है। इस हेगेलीय पूँछ के दो कारण लेनिन ने अपनी पुस्तक में पेश किये थे, हालाँकि उन्होंने इस शब्दावली का इस्तेमाल नहीं किया था। पहला है मस्तिष्क का ढुलमुलपन और दूसरा ज्ञान का सापेक्षिकतावाद। मस्तिष्क का ढुलमुलपन के बारे में लिखते हुए लेनिन वैज्ञानिक रेय का उद्धरण रखते हैं, “गणित की अमूर्त कपोल-कल्पनाओं ने भौतिक यथार्थ तथा उस ढंग के बीच, जिस ढंग से गणितज्ञ इस यथार्थ को समझते हैं, मानो एक पर्दा खड़ा कर दिया गया हो…”। ठोस मूर्त यथार्थ की जगह सिर्फ गणितीय सूत्रों को हक़ीक़त माना जाता है, छुपे हुए आयाम (डायमेंशन) और उच्च गणित से दुनिया को देखा जाता है। वहीं दूसरा कारण, ज्ञान की सापेक्षिकता भी प्रकृति के नये-नये यथार्थ के सामने आने पर पहले से मौजूद सिद्धान्तों को नकार देती है और उनके बीच किसी भी समानता से इंकार कर निरपेक्ष सत्य को भी नकार देती है। दूसरी खास प्रवृति जो इस हेगेलीय पूँछ के साथ वैज्ञानिकों के ग़लत उद्विकास में पैदा हुई वह है ड्यूहरिंग की मूँछ, और ये दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। यानी कि ऐसे वैज्ञानिकों की पीढ़ी भी पैदा हुई जो इन्हीं गणितीय सूत्रों के आधार पर एक दुनिया को रचते हैं और ऐसे यथार्थ में ढालते हैं और ऐसे नये सिद्धान्तों की रचना करते है कि राज कॉमिक्स के निर्माताओं को भी शर्म आ जाय! आज आधुनिक भौतिकी के साथ यही हो रहा है। ब्रह्माण्डों और दुनिया को रचने के मामले में हमारे वैज्ञानिक नागराज की कॉमिक्स की दुनिया के नियमों से भी अनोखे नियम खोज रहे हैं। नयी दुनियाओं की रचना कर रहे हैं। लेकिन फन्तासी की इस दुनिया के रचयिताओं के परम गुरू ड्यूहरिंग आज भी दुनिया भर में अपनी रचनाओं से अधिक एंगेल्स द्वारा आलोचना के लिए मशहूर हैं। यही ड्यूहरिंग की मूँछ आज आधुनिक वैज्ञानिकों के बड़े हिस्से को प्रताड़ित कर रही है। गॉड पार्टिकल जैसे जुमलों के लिए सिर्फ बुर्जुआ मीडिया नहीं बल्कि तमाम वैज्ञानिक भी ज़िम्मेदार हैं जो पैसे के लिये प्रकाशकों के कहने पर सस्ती फन्तासी का निर्माण करते हैं। ड्यूहरिंग की यह मूँछ आज वैज्ञानिकों के चेहरे पर इतनी बढ़ चुकी है कि इनकी दृष्टि ओझल हो जा रही है। इसके कारण ही ये “भौतिकवाद द्वारा खोले दरवाजों को नहीं देख पाते” और दीवारों में सिर मारते रहते हैं, वहीं हेगेलीय पूँछ का वज़न इनके शरीर को इतना धीरे कर देता है और तमाम जगह उलझाकर गिराता रहता है कि ये दरवाजे़ के करीब होकर भी वहाँ पहुँचने में देर लगाते हैं। लेख के अन्तिम हिस्से में आधुनिक भौतिकी की तमाम परिकल्पनाओं पर बात करते हुए हम इस हेगेलीय पूँछ और ड्यूहरिंग की मूँछ पर वापस लौटेंगे।
यह सच है कि खुद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी कई अन्दरूनी संघर्षों से होता हुआ ही वस्तुगत यथार्थ का प्रतिबिम्बन कर पाता है। जब नयी परिघटना पैदा होती है तो कई मार्क्सवादी भी अलग-अलग व्याख्या पेश करते हैं, परन्तु इनमें से एक ही दृष्टिकोण ठीक हो सकता है (अगर कोई हुआ तो!) जो सापेक्षतः वस्तुगत यथार्थ को ज़्यादा सही तरीके से प्रतिबिम्बित करता है। कई मार्क्सवादियों ने एंगेल्स द्वारा प्रकृति में मौजूद द्वन्द्ववाद की व्याख्या को गलत माना है। लूकाच तथा कई अन्य मार्क्सवादियों ने एंगेल्स की पुस्तक ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ व ‘ड्यूहरिंग मत खण्डन’ की आलोचना की है तथा उन्हें मार्क्स के सिद्धान्त में संशोधन करने का दोषी ठहराया है। हम इसे नकारते हैं। एंगेल्स की ये आलोचनाएँ ग़लत हैं। हम इन विचारधारात्मक संघर्षों पर अपनी बात आगे एक अलग लेख में रख़ेंगे परन्तु यह समझ लेने की ज़रूरत है कि भौतिकवाद विकास करता है, स्पिनोज़ा से लेकर मार्क्स तक की यात्रा के बाद भी यह नहीं रुकेगा। तो क्या आज, ख़ासकर आधुनिक भौतिकी के प्रयोगों से मिले आँकड़ो के विश्लेषण के आधार पर हमें भौतिकवाद की गहनता और पदार्थ की परिभाषा को व्याख्यायित करने की ज़रूरत है? एंगेल्स ने ही कहा है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद “प्राकृतिक विज्ञान और इतिहास के लम्बे और उकता देने वाले विकास” से भौतिकता सत्यापित होती है। परन्तु इस सवाल से पहले हम एंगेल्स और लेनिन के समय के विज्ञान और उसके आधार पर उनके द्वारा भौतिकवाद तथा पदार्थ की परिभाषा पर नज़र डालेंगे जिससे कि हम सही रास्ते पर आगे बढ़ सकें क्योंकि उन्होंने खुद इस सिद्धान्त को इस तरह से व्याख्यायित किया है कि हम अगर उन कृतियों को पढ़ लें तो कई भ्रम साफ़ हो जायेंगे जो आज हिग्स बुसॉन और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के प्रश्न पर फैले हुए हैं।
एंगेल्स के समय का विज्ञान व पदार्थ की परिभाषा
मार्क्स और एंगेल्स ने इतिहास, संस्कृति, राजनीतिक अर्थशास्त्र से लेकर प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि को लागू किया और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त को विकसित किया जो पूँजीवाद के अन्तरविरोध के रूप में इसी व्यवस्था के गर्भ में पल रहा था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को विकसित करते हुए एंगेल्स ने सिद्ध किया कि फायरबाख़ की सीमाओं में एक मुख्य कारण विज्ञान का विकास था, फायरबाख़ का भौतिकवाद से विमुख होने का कारण विज्ञान में अन्तर्निहित द्वन्द्ववाद से अपरिचित रहना था। एंगेल्स ने 1890 में लिखी पुस्तक ‘लुडविग फायरबाख़ और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त’ में लिखा कि तीन वैज्ञानिक खोजों ने भौतिकवाद में द्वन्द्ववाद को विशेष रूप से स्थापित कियाः कोशिका की खोज, ऊर्जा के रूपान्तरण के नियम तथा उद्विकास के सिद्धांत की खोज। 1838 और 1839 में एम. श्लेडीन और टी. श्वान द्वारा वनस्पति और जानवरों की कोशिका की समानता तथा कोशिका को जीवन की बुनियादी संरचनात्मक इकाई के रूप में स्थापित किया गया, 1850 तक मेयर, जुल, हेल्म्होल्ट्ज ने ऊर्जा के संरक्षण और रूपान्तरण का नियम खोज निकाला। डार्विन ने 1853 में ‘प्रजातियों के उद्भव और प्राकृतिक चयन के बारे में’ पुस्तक द्वारा उद्विकास का सिद्धान्त रखा और यहीं से पदार्थ के एक रूप से दूसरे में बदलना और अविरल इस प्रक्रिया के चलने की दार्शनिक अवस्थितियों को वैज्ञानिक समर्थन हासिल हुआ। मार्क्स ने गणित में द्वन्द्वात्मक पद्धति को लागू किया और अवकलन का ऐतिहासिक परिचय देते हुए दालम्बेर, लीब्नित्ज़ और न्यूटन के अवकलन के तरीकों के अलग-अलग पहलुओं से लेकर टेलर की अवकलन की श्रृंखला और मेक्लारेन की अवकलन की श्रृंखला के बारे में लिखा जो कि आज भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मार्क्स बताते हैं कि अवकलन सही मायने में महज़ एक गणितीय चिह्न नहीं बल्कि प्रकृति में बदलाव का प्रतिबिम्बन करता है और चिह्नों के अर्न्तसम्बन्ध द्वारा गतिकी के भिन्न रूपों का हम मात्रात्मक आकलन कर सकते हैं। मार्क्स की गणित की पाण्डुलिपियाँ द्वन्द्ववाद का एक अत्यन्त गहन अध्ययन है जिसका कि मार्क्स ने ‘पूँजी’ लिखते हुए पूँजी के परिचलन को समझने में भी प्रयोग किया। एंगेल्स की विषय-वस्तु अत्यधिक व्यापक थी। एंगेल्स ने उस समय भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, शरीर रचना विज्ञान, खगोल विज्ञान से लेकर गणित का गहन अध्ययन किया था। एंगेल्स ने इसे एक व्यवस्थित रूप देते हुए ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ किताब के रूप में लिखने की योजना बनायी थी, जिसके लिए उन्होंने सैकड़ों वैज्ञानिकों के काम का अध्ययन किया। मोटे तौर पर यह वह कार्य था जो मार्क्स और एंगेल्स ने प्राकृतिक विज्ञान में किया। इस समय का विज्ञान एंगेल्स की और उनके द्वन्द्ववाद की सीमाएँ व्याख्यायित करता है। यह वह समय था जब हमारे विज्ञान की सूक्ष्म और वृहत् जगत दोनों में सीमाएँ थीं। अणु और सौरमण्डलीय तारों के निश्चित साँचे ही हमारे ज्ञान की सीमाएँ थीं। बैकग्राउण्ड रेडियेशन, डार्क मैटर, अनगिनत आकाशगंगाएँ, ब्लैक होल, ब्लैक बॉडी रेडिएशन सरीखी परिघटनाएँ अभी मानवीय प्रेक्षण के दायरे में नहीं आयीं थीं। विज्ञान के सवाल सीमित थे। इस कारण पदार्थ और गति को व्याख्यायित करते हुए एंगेल्स का दृष्टिकोण भी सीमित था। यही ज्ञान की निरपेक्षता और सापेक्षता का द्वन्द्व है जो लगातार हल होता रहता है और साथ ही जटिल से जटिल रूप भी धारण करता रहता है। हमारा सापेक्ष ज्ञान जुड़ता है और ऐतिहासिक तौर पर निरपेक्ष सत्य का निर्माण करता है। असल सवाल एंगेल्स के द्वारा द्वन्द्ववाद की पहुँच और पद्धति का है। निश्चित तौर पर खुद पद्धति भी और पहुँच भी विकसित होते हैं, परन्तु ये द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अन्तर्गत होते हैं, यही इनको एक करता है।
आइये एंगेल्स की उन सूक्तियों को देखते हैं जिनमें वे पदार्थ की अवधारणा रखते हैं। “सौर मण्डल का उद्वीप्त कच्चा माल एक प्राकृतिक क्रिया द्वारा निर्मित हुआ था जो कि पदार्थ के गुणों में अन्तर्निहित है और इसी कारण ये परिस्थितियाँ पदार्थ द्वारा पुनःनिर्मित की जानी हैं, और चाहे इसके लिए करोड़ों-करोड़ साल लगें या कम या ज़्यादा जो कि संयोग पर निर्भर करता है, परन्तु जो अवश्यम्भावी है और संयोग में ही अन्तर्निहित है।” पदार्थ की वह अवधारणा जिसे बार-बार दुहराया जाता है कि पदार्थ पैदा नहीं हुआ और सदा-सदा से मौजूद है, “यह एक अनन्त चक्र है जिसमें पदार्थ गतिमान है, यह चक्र जो निश्चित ही अपने ऑर्बिट (कक्ष) जिस समय में पूरा करता है उसके लिए दुनिया के पास कोई पर्याप्त मानक नहीं है।” आगे ड्यूहरिंग ने विधि निर्माण करते हुए (असल में काण्ट की भद्दी नकल करते हुए) जब बताया कि ब्रह्माण्ड के उद्भव से पहले वह एक स्वतः समान अवस्था में था तो एंगेल्स ने जवाब देते हुए कहा कि-“तो समय की शुरुआत हुई थी? इस शुरुआत से पहले क्या था? ब्रह्माण्ड, जो कि स्वतः समान, अपरिवर्तनीय अवस्था में था, और क्योंकि इस अवस्था में कोई भी बदलाव एक दूसरे से पहले नहीं आते हैं, समय की विशिष्ट अवधारणा सामान्य अस्तित्व में तब्दील हो जाती है। सबसे पहले, हम यहाँ यह नहीं जानना चाहते कि डड्ढूहरिंग के दिमाग में विचारों का किस तरह बदलाव होता है। सवाल समय का विचार नहीं बल्कि वास्तविक समय है, जिससे ड्यूहरिंग इतनी आसानी से पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं।”
यह वह उद्धरण है जिसे कि अक्सर हॉकिंग द्वारा तथा वैज्ञानिकों द्वारा काल्पनिक अवधारणा मानकर ठुकरा दिया जाता है। हॅाकिंग के पर्चे “वेव फंक्शन ऑफ यूनिवर्स” में जो अवधारणा पेश की गयी है तथा जिसे उन्होंने 2012 में दिए एक व्याख्यान में दोहराया है, हालाँकि कई दार्शनिक उलझनों के साथ, वह यह है कि विज्ञान की सीमा के कारण हम यह नहीं जान सकते कि बिग बैंग के पहले क्या था। हमारी मौजूदा वैज्ञानिक अवधारणाओं के अनुसार दिक्-काल का उद्भव ही उस समय होता है। हाँ, निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि हमारी अवधारणाएँ अधूरी हैं और हो सकता है कि नए प्रयोगों के बाद ये अवधारणाएँ ग़लत साबित हो और हम जान पायें कि बिग बैंग समय की शुरुआत थी या नहीं? क्योंकि हाकिंग-हार्टल की अवधारणा फाइनमैन के पाथ इण्टीग्रल (पथ अवकलित) पद्धति में, जो एक निगमनात्मक पद्धति है, एक कल्पित उद्भव की अवस्था (यह एकलता या सिंग्युलैरिटी नहीं है!) जोड़कर मौजूदा ब्रह्माण्ड को व्याख्यायित करने का प्रयास करती है।
वहीं पेनरोज़ के साथ मिलकर उन्होंने एक अन्य मॉडल दिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ब्रह्माण्ड की शुरुआत एकलता से होती है। हॅाकिंग भी वास्तविक समय से छुटकारा नहीं पाना चाहते हैं बल्कि खोजना चाहते हैं। एंगेल्स कहीं भी अपने समय के विज्ञान की सीमाओं को पार कर कल्पना लोक में नहीं गए। बस उन्होंने कुछ आम प्रस्थापनाएँ दीं जो कि उस समय के विज्ञान के कल्पित ब्रह्माण्ड और उसके उद्विकास के अनुसार थीं और उन अवधारणाओं को ख़ारिज किया जो बेबुनियाद थीं। आगे वे नेब्युलर थ्योरी पर ड्यूहरिंग की आलोचना करते हुए कहते हैं, “समकालीन विज्ञान, दुर्भाग्य से इस प्रणाली से ड्यूहरिंग की इच्छा पूर्ति नहीं हो सकती। अन्य प्रश्नों की तरह इस प्रश्न का भी यह जवाब नहीं दे पाती कि मेंढक की पूँछ क्यों नहीं होती? इसका यही जवाब दिया जा सकता है कि वे अपनी पूँछ खो चुके हैं परन्तु इसपर कोई चहक उठे कि यह तो सवाल को धुँधले, अधूरे विचार पर छोड़ना है और कि यह हवाई बात है, तो यह दोनों ही रुख़ ग़लत होंगे क्योंकि विज्ञान को नैतिकता की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है। नापसन्दगी और बुरे मिजाज़ का प्रयोग हर जगह किया जा सकता है और इसीलिए कभी भी कहीं भी इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।” यानी एंगेल्स के अनुसार विज्ञान के सवाल ऐतिहासिक तौर पर सापेक्षिक होते हैं। पदार्थ की सटीक परिभाषा एंगेल्स यह रखते हैं- “पदार्थ जैसा है वह विचार की शुद्ध रचना है और एक अमूर्तीकरण है। हम वस्तुओं के अलग-अलग गुणों को हटाकर भौतिक रूप से मौजूद वस्तुओं को पदार्थ की अवधारणा के अन्तर्गत रखते हैं। इसलिए पदार्थ अपने आप में पदार्थ के मौजूद अंशों से अलग इन्द्रीय बोध के लिए अस्तित्वमान नहीं है। जब प्राकृतिक विज्ञान ऐसे एकरूप पदार्थ ‘अपने आप में’ को खोजने लिए क़दम उठाता है, जिसमें गुणात्मक भेदों को महज मात्रत्मक भेद तक अपचयित किया जाता है; वैसा ही है जैसे चेरी, नाशपाती व सेब की जगह फल खोजना, या फिर बिल्लियों, कुत्तों, भेड़ों आदि की जगह जानवर ‘अपने आप में’ को खोजना…” तथा “पदार्थ भौतिक वस्तुओं के कुल समुच्चय के सिवा कुछ नहीं है जिससे यह सिद्धान्त जन्मा है तथा गति और कुछ नहीं बस संक्षिप्तीकरण हैं जिनमें हम तरह-तरह की इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य वस्तुओं को उनके समान गुणों के कारण समझ पाते हैं…इसलिए पदार्थ तथा गति अलग-अलग भौतिक वस्तुओं और गति के रूपों की पड़ताल द्वारा ही जाना जा सकता है तथा इन्हें जानकर ही हम पदार्थ व गति को एक हद तक अपने आप में जान सकते हैं।” हम भी आगे इसी परिभाषा का प्रयोग करेंगे।
लेनिन की पदार्थ की परिभाषा व उनके समय का विज्ञान
लेनिन ने माख़वाद और नव-काण्टवादियों के द्वारा मार्क्सवाद पर हमले का जवाब देते हुए ‘अनुभवसिद्ध आलोचना और भौतिकवाद’ पुस्तक लिखी थी। यह वह समय था जब रेडियोएक्टिविटी खोजी जा चुकी थी, अणु की संरचना भेद कर इलेक्ट्रॉन का संज्ञान हुआ, भौतिकी की सांख्यिकी व सूक्ष्म गतिकी अलग विषय के रूप में अध्ययन किये जा रहे थे। यहीं ओस्त्वाल्ड, माख़ और पोइंकेयर ने भौतिकवाद पर हमला बोला। प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में मचे संकट के शोर और पदार्थ ग़ायब होने के शोर का जवाब देते हुए लेनिन लिखते हैं, “जब भौतिकशास्त्री कहते हैं कि “पदार्थ गायब हो गया” उनका मतलब है कि अब तक विज्ञान अपनी पड़ताल की तीन सारभूत अवधारणाओं- पदार्थ, विद्युत् और ईथर को मानता था; जो कि अब पहले बतायी गयी दो अवधारणाओं में सिमट गया है। क्योंकि अब पदार्थ को विद्युत् में अपचयित किया जा सकता है, एक अणु को अत्यन्त छोटे सौर मण्डल सरीखा मानकर समझा जा सकता है जिसमें नेगेटिव इलेक्ट्रॉन पॉजिटिव नाभिकीय केंद्र के चारों ओर एक निश्चित गति से घूमता है…” यानी कि उस समय भी नयी वैज्ञानिक खोजों के बाद भौतिकवाद पर हमला बोला गया जिसका जवाब लेनिन उस समय की भौतिकी द्वारा खींचे यथार्थ द्वारा पेश कर रहे थे। सूक्ष्म जगत के द्वैध चरित्र और गुरुत्व के आम सिद्धान्त से वे परिचित नहीं थे। परन्तु इसके बावजूद लेनिन लिखते हैं, “पदार्थ ग़ायब हो गया मतलब कि वह सीमा जिसे अब तक हम जानते थे उसमें पदार्थ ग़ायब हो रहा है तथा खुद वे गुण जो कि निरपेक्ष लगते थे, वे सापेक्ष तथा पदार्थ के गुणों के रूप में पहचाने जा रहे हैं। (अचलता, जड़ता, भार आदि) और जो अब सापेक्ष हैं बस पदार्थ के एक स्तर के गुणों के रूप में पहचाने जा रहे हैं।”
इस कथन के मद्देनज़र क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जा सकता है कि लेनिन के इस कथन का सामान्यीकरण मौजूदा भौतिकी के प्रश्नों (ब्रह्माण्ड का उद्भव या उद्विकास) को हल करने में नहीं किया जा सकता है? हमें लगता है कि लेनिन के “पदार्थ” की विषय-वस्तु मौजूदा समय से भिन्न है। अपने समय के विज्ञान के बारे में लेनिन लिखते हैं, “यांत्रिकी मध्यम वेग की वास्तविक गति का प्रतिबिम्ब थी तो नयी भौतिकी दैत्याकार वेग के वास्तविक गति का प्रतिबिम्बन है…इलेक्ट्रॉन के लिए एक अणु ऐसा है जैसे इस किताब के पूर्ण विराम (अंग्रेजी का पूर्ण विराम का चिह्न, एक बिन्दु) के लिए एक दो सौ फुट लम्बी, सौ फुट चौड़ी और पचास फुट ऊँची (लॉज) मीनार। यह दो लाख सत्तर हज़ार किमी प्रति सेकेण्ड की रफ़्तार से घूमता है, उसका भार भी उसके वेग का फलन (फंक्शन) होता है; यह एक सेकेण्ड में पाँच सौ लाख करोड़ चक्कर काटता है, यह सब पुरानी यांत्रिकी से बिलकुल अलग है; परन्तु फिर भी यह पदार्थ की दिक् और काल में गति है।” आज हम जानते हैं कि वास्तविक तस्वीर पर आज हमारा विज्ञान आगे बढ़ चुका है, क्वाण्टम जगत ने पदार्थ में असतत् और सतत् के द्वन्द्व, तरंग और कण के द्वन्द्व के रूप में अणु की तस्वीर को समझा है। साथ ही सवाल का दायरा इसकी संरचना का ही नहीं बल्कि खुद पूरे जगत के विकास या उद्भव का बन गया है, क्वाण्टम जगत के नियमों के उद्भव का बन गया है। एंगेल्स के समय में विज्ञान का मुख्य प्रश्न पदार्थ के विभिन्न रूपों के बीच बदलाव का था और मौजूदा विश्व की तस्वीर को समझने तक जाता था, वहीं लेनिन के समय में यह उन्हीं रूपों के भीतर नए स्तरों और उनके नए गुणों के उजागर होने तथा नयी संरचना की तस्वीर तक पहुँचा था। भौतिकवाद पर भी हमला पदार्थ के नए गुणों को पदार्थ से परे बताने से, विचारों द्वारा पदार्थ के निर्माण होने की प्रस्थापनाओं से किया गया। पदार्थ के नए गुणों का पहले हमारी चेतना द्वारा बोध न होना ही, यानी मानव ज्ञान के सापेक्ष होने के गुण को ही इस्तेमाल कर सापेक्षतावाद को स्थापित कर दिया गया। इसलिए लेनिन ने रूसी माखवादियो को जवाब दिया और विज्ञान के अन्दर पनप रहे “भौतिक” भाववाद के कारणों की पड़ताल की और इसे बुर्जुआ विचारधारा के विज्ञान के अन्दर घुसने के रूप में व्याख्यायित किया। लेनिन के लिए पदार्थ की परिभाषा एंगेल्स की परिभाषा से भिन्न है। इस परिभाषा में पदार्थ की असृजनीयता और अनन्तता पर ज़ोर नहीं है; उसके महज वस्तुगत यथार्थ के होने की दार्शनिकता पर अधिक हो जाता है। भौतिक यथार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व और उसके विकास के अलावा एंगेल्स के लिए कोई अपरिवर्तनीयता मान्य नहीं थी। कोई भी अपरिवर्तनीयता, कोई और सारभूततः निरपेक्ष तत्व जैसा कि खोखले दर्शनों ने पेश किया, मार्क्स-एंगेल्स के लिए नहीं मौजूद था। वस्तुओं की सारभूतता या तत्व भी सापेक्ष हैं। यह महज मानवीय ज्ञान की वस्तुओं की गहन समझ दिखाते हैं।
एंगेल्स ने पदार्थ जगत में वस्तु-निज-रूप और वस्तु-हमारे-लिए में फर्क करते हुए पदार्थ की अवधारणा में इसे ‘पॉण्डरेबल’ (जिसका बोध किया जा सके) व ‘इम्पॉण्डरेबल’ (जिसका बोध न किया जा सके) के बीच में बाँटा था। ईथर और विद्युत की गति व पदार्थ के रूप में एंगेल्स ने ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ पुस्तक में तथा लेनिन ने भी ‘अनुभवसिद्ध आलोचना’ (ज्ञात हो कि ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ लेनिन के जीवनकाल में नहीं छप सकी थी) में भी इसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है। पदार्थ और गति की अवधारणा रखते हुए एंगेल्स और लेनिन दोनों ने ही पदार्थ को भी बोध किये जा सकने वाले व बोध न किये जा सकने वाले पदार्थ में बाँटा था। यह किसी दार्शनिक पूर्वाग्रह की वजह से नहीं बल्कि प्राकृतिक परिघटनाओं के कारण इस्तेमाल किया गया था। यह प्राकृतिक विज्ञान द्वारा दर्शन का सूत्रीकरण था। लेकिन एंगेल्स और लेनिन दोनों के समय प्राकृतिक विज्ञान ने ब्रह्माण्ड के विकास के सवाल को पेश किया था, उद्भव का सवाल एंगेल्स के सामने मौजूद था लेकिन वह भी सिर्फ़ इस रूप में कि पदार्थ किस तरह ऊष्मा को फिर से हासिल करेगा और ‘प्रकृति का द्वन्द्ववाद’ में एंगेल्स ने एक जगह ब्रह्माण्ड के फिर से नेबुला जैसी अवस्था में जाने का अन्दाज़ा लगाया है। लेकिन यह महज एक आकलन था, वह भी उस समय के विज्ञान के अनुसार, परन्तु आज हमारे सामने प्रश्न समस्त ब्रह्माण्ड के उद्भव या उद्विकास का है। आज आधुनिक भौतिकी के सामने सवाल पदार्थ की बोध की जा सकने वाली और न बोध की जा सकने वाली संरचनाओं और गति का नहीं है बल्कि सवाल तो यह है कि क्या यह एक निश्चित समय पर अस्तित्व में आया था? आधुनिक भौतिकी इस सवाल को खुला सवाल मानती है कि यह उद्भव था या पहले से मौजूद पदार्थ जगत की निश्चित संरचना से ही ‘बिग बैंग’ सरीखी परिघटना हुई। लेनिन अपनी पुस्तक में डिएट्ज़ेन को उद्धत करते हैं, “वस्तुगत वैज्ञानिक ज्ञान के कारणों की पड़ताल अनुभव से व आगमनात्मक होकर करता है न कि विश्वास व आकलन से, ए पोस्टरियोरी होकर, न की ए प्रायोरी होकर” (मानव मस्तिष्क के काम करने का तरीका)। डिएट्ज़ेन का सन्दर्भ भाववाद के ए प्रायोरी से है, क्योंकि हर द्वन्दवादी भी ए प्रायोरी द्वन्द्वात्मक होता है। परन्तु वस्तुगत तथ्यों के सन्दर्भ में उसे ए पोस्टरियोरी होना पड़ता है। यहाँ दर्शन हमारी मदद करता है, पर यह पूछने के लिए नहीं कि मेंढक की पूँछ क्यों नहीं होती या “स्वतः-समान अवस्था” को घोषित कर देने में। हम परिघटनाओं की श्रृंखलाओं को जोड़कर उनके तत्वों या भौतिक अवयवों को ढूँढ़ते हैं और फिर उसकी अर्न्तवस्तु तक पहुँचते हैं, मार्क्सवाद का ज्ञान का सिद्धान्त यही है। हमें भी मौजूदा समस्या को इसी दृष्टिकोण से देखना होगा। ताकेतानी के “त्रिस्तरीय सिद्धान्त” से। इसी के द्वारा द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्राकृतिक विज्ञान को रास्ता दिखा सकता है। हम अब इन्हीं तीन संस्तरों पर पदार्थ की अवधारणा को समझने का प्रयास करेंगे- परिघटना स्तर पर, भौतिक अवयवों के स्तर पर व अर्न्तवस्तु के स्तर पर।
पदार्थ की मौजूदा अवधारणा और परिघटना स्तर
मौजूदा ब्रह्माण्ड के अन्दर घट रही कुछ घटनाओं ने यह प्रश्न पैदा किया कि ब्रह्माण्ड की संरचना पहले कैसी थी? हबल टेलिस्कोप से ली गयी तस्वीरों के आधार पर, ब्रह्माण्ड की तमाम आकाशगंगाओं व तारों का पृथ्वी और एक दूसरे से दूर जाना (हबल नियम), ब्रह्माण्ड की वृहत् संरचना (लार्ज स्केल स्ट्रक्चर) व हल्के तत्वों (हाइड्रोजन, हीलियम आदि) की मौजूदगी जैसी परिघटनाओं को समझाने का प्रयास करते हुए ही विज्ञान बिग बैंग सिद्धान्त तक पहुँचा है। कई नए तथ्य भी मिले हैं जैसे, गुरुत्व लेंसिंग जिसने डार्क मैटर की अवधारणा को जन्म दिया तथा ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनका हमारे पास जवाब नहीं है। ये वे परिघटनाएँ हैं जो क्वाण्टम जगत और वृहत् जगत के नियमों, क्वाण्टम भौतिकी और सापेक्षिकता के सिद्धान्त के कारण सेकेण्ड के बहुत छोटे हिस्से से समझायी गयीं। बिग बैंग सिद्धान्त ने ब्रह्माण्ड को एक महाविस्फोट से उद्भव होते हुए माना है, स्टैंडर्ड मॉडल भी इसी महाविस्फोट के बाद सेकेण्ड के बहुत छोटे से हिस्से के बाद निर्वात और हिग्स फ़ील्ड, हिग्स बुसॉन को निर्मित होते हुए देखता है जो अन्य बुनियादी कणों को भार देता है। तमाम आकाशगंगाओं का त्वरित गति से एक दूसरे से दूर जाना, बैकग्राउण्ड रेडिएशन का एकसमान वितरण व ऊपर बतायी परिघटनाएँ ऐसी हैं जिनका आंशिक हल ही मौजूद है। यही सब मिलकर परिघटना का ऐसा बुना हुआ जाल बनाते हैं जो पूरी तरह बुद्धि को उलझा देते हैं। प्लांक नामक टेलिस्कोप ब्रह्माण्ड की उम्र 1303 करोड़ 70 लाख साल बताता है। आइये अब हम इस परिघटना के जाल को भेदकर इस सिद्धान्त के भौतिक अवयवों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं।
परिघटना से भौतिक अवयवों व तत्वों की पड़ताल करती भौतिकी
बिग बैंग मॉडल, इन्फ्ऱलेश्नरी थ्योरी, स्टैण्डर्ड मॉडल ब्रह्माण्ड की एक तस्वीर बनाते हैं। बिग बैंग, जिसे शुरुआत माना जाता है उसे एक एकलता (सिंग्युलैरिटी) से शुरू होता हुआ बताया गया है, जहाँ पदार्थ अनन्त घनत्व लिए एकलता के बिन्दु तक सीमित होता है तथा जहाँ पर विज्ञान के मौजूदा नियम काम नहीं करते हैं। इस बिन्दु से आगे महाविस्फोट के बाद निर्वातित और भारहीन बुनियादी कण बने और फिर एक-एक करके तमाम अलग बुनियादी अर्न्तक्रियाएँ (इण्टरैक्शन) अस्तित्व में आये और उनसे सम्बन्धित बुसॉन भी अस्तित्व में आये। यहीं से विस्तारित होते हुए गुरुत्व ने दिक्-काल का मौजूदा रूप दिया। अभी भी यह तय नहीं है कि शुरुआत एकलता से हुई या पदार्थ के ही किसी अन्य रूप से हुई थी। खुद हॉकिंग इस पर दो अवस्थितियाँ रखते हैं (हाकिंग-हार्टल मॉडल व हाकिंग-पेनरोज़ मॉडल) और खुद इस अवस्थिति को खुले प्रश्न के रूप में रखते हैं कि बिग बैंग की जगह अन्य सिद्धान्त भी मौजूदा ब्रह्माण्ड को व्याख्यायित कर सकते हैं, हालाँकि वे खुद किसी भी ‘थ्योरी फॉर एवरीथिंग’ के मिलने से इनकार करते हैं। परन्तु इस ‘थ्योरी फॉर एवरीथिंग’ की दावेदार स्ट्रिंग थ्योरी व क्वाण्टम लूप थ्योरी भी मौजूदा ब्रह्माण्ड के भौतिक अवयवों को व्याख्यायित करती हैं और गुरुत्व तथा क्वाण्टम जगत को एकीकृत करती हैं। इन सिद्धान्तों के मूल प्रस्थापनाओं में न जाकर हम इनके द्वारा ब्रह्माण्ड की तस्वीर बनायेंगे। स्ट्रिंग थ्योरी के अनुसार पदार्थ का सबसे बुनियादी (!) अवयव स्ट्रिंग होता है और ब्रह्माण्ड के विस्तारित होने व शुरुआत में विस्फोट को दरअसल दो बड़े ब्रह्माण्डों के टकराने से समझा जा सकता है; यह कोई उद्भव नहीं है बस ब्रह्माण्डों का आपसी टकराव था व इस तरह की परिघटनाएँ आम हैं, अनगिनत ब्रह्माण्डों के बीच हमारा ब्रह्माण्ड अकेला नहीं है। यह सिद्धान्त एंगेल्स की पदार्थ की अनन्तता की अवधारणा के अनुकूल है। क्वाण्टम लूप थ्योरी के अनुसार बिग बैंग बिग बाउन्स है; यानी हमारा ब्रह्माण्ड कईं बिग बैंग जैसे विस्फोटों से होकर गुज़रा है और हर बिग बैंग के बाद एक बिग क्रंच (सिकुड़ना) होता है। यह भी एंगेल्स के उसी कथन के अनुसार है जिसमें पदार्थ अनवरत बदलाव के चक्र में चलता है। परन्तु ये दोनो ही सिद्धान्त अभी साबित होने हैं।
पदार्थ की अर्न्तवस्तु-मौजूदा समय का विज्ञान
एंगेल्स और लेनिन के समय पदार्थ व गति की अवधारणा प्राकृतिक विज्ञान की सीमाओं के अनुसार थी। एंगेल्स का यह सामान्यीकरण कि “पदार्थ भौतिक वस्तुओं के कुल समुच्चय के सिवा कुछ नहीं है, जिससे यह सिद्धान्त जन्मा है तथा गति और कुछ नहीं बस संक्षिप्तीकरण है जिनमें हम तरह-तरह की इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य वस्तुओं को उनके समान गुणों के कारण समझ पाते हैं”, परिभाषा के तौर पर बिलकुल सटीक है और इसी परिभाषा से देखें तो आज भौतिक वस्तुओं को समझने के लिए क्वाण्टम जगत के स्तर व ज्यामितीय स्तर पर समझने के लिए क्वाण्टम भौतिकी और सापेक्षिकता के सिद्धान्त से अलग व्याख्यायित किये जाते हैं। दोनों सिद्धान्त द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अर्न्तगत पदार्थ के अलग-अलग संस्तरों के नियमों का सामान्यीकरण हैं परन्तु पदार्थ के किसी एक रूप जैसे एक तारे के अन्दर दोनों नियम एक साथ काम करते हैं फिर भी दोनों में अभी तक कोई एकरूपता नहीं है। बिग बैंग के समय, एकलता, सापेक्षिकता सिद्धान्त की ही भविष्यवाणी है जिसमें खुद यह सिद्धान्त कार्य नहीं करता है। एकलता पर क्वाण्टम भौतिकी भी काम नहीं करती है। यही वह अन्तर्विरोध है जिसने भौतिकी के आधुनिक संकट को जन्म दिया है और जो पिछले 50-60 सालों से एक विकराल रूप ले चुका है। हमारे विज्ञान की सीमा यह है कि यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि बिग बैंग के समय के गति के नियम कैसे थे और इससे पहले क्या था? सवाल पदार्थ के मौजूदा हर बोधगम्य और अबोधगम्य रूप के ही उद्भव का है! हर बोधगम्य गुण के अस्तित्व में आने का सवाल है, निश्चित तौर पर इससे पहले ‘कुछ नहीं’, भाव, शैतान या भगवान नहीं था। इस अज्ञात, ‘अबोधगम्य’ को क्या कहा जाए? अबोधगम्य पदार्थ? चलिए अब पदार्थ की अवधारणा पर भी बात कर लेते हैं। सापेक्षिकता सिद्धान्त पदार्थ को ज्यामिति (दिक्-काल और गुरुत्व) और भार (गुरुत्व) के अर्न्तद्वन्द्व में बाँटकर समझाता है। गति तथा पदार्थ के रूपान्तरण और उसके द्वन्द को समझाता है। क्वाण्टम फ़ील्ड थ्योरी भी सूक्ष्म स्तर पर गति व दिक्-काल के अन्तर्गुंथन से पदार्थ के असतत् व्यवहार को समझाती है जिनके विशिष्ट अर्न्तविरोधों से ही बुनियादी कण बनते हैं। निर्वात, दिक्-काल, भार, गति अब पदार्थ की संरचना को व्याख्यायित करते हैं। पदार्थ को समझने के लिए इन अवयवों के बीच आपसी व्यवहार को समझना होता है। परन्तु बिग बैंग के समय हमारा मौजूदा विज्ञान इन्हें भी व्याख्यायित करने में नाकामयाब है, इसलिए उस परिस्थिति को हम पदार्थ की विशिष्ट अवधारणा के अन्दर न डालकर भौतिक यथार्थ की अवधारणा में डालकर समझ सकते हैं। गति, दिक्-काल, पदार्थ की अवधारणाएँ भौतिक यथार्थ की विशिष्ट अवधारणाएँ हैं। जब तक विज्ञान भौतिक यथार्थ के अर्न्तगत पदार्थ और गति के स्वरूप को हल नहीं कर लेता यानी इस परिघटना के जाल को भेद कर उसके भौतिक अवयव नहीं पता लगा लेता, हम उसकी अर्न्तवस्तु को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी होते हुए भौतिक यथार्थ की अवधारणा के अर्न्तगत ही डाल सकते हैं। अगर मौजूदा भौतिकी बिग बैंग को पदार्थ के उद्भव के रूप में बताती है तो यह विज्ञान की ग़लती नहीं है। वे मौजूदा बोधगम्य पदार्थ के उद्भव को पदार्थ का उद्भव मानते हैं। यहाँ हम जब कह रहे हैं कि पदार्थ की अवधारणा तमाम परिघटनाओं को नहीं समझाती है तो हम पॉल मात्तिक द्वारा पदार्थ की अवधारणा की अपूर्णता से सहमत नहीं हैं। पॉल मात्तिक विज्ञान में काण्टवादी भटकाव पैदा करते हैं, सूक्ष्म जगत में वस्तुगतता से इनकार कर वे मार्क्सवाद पर, बोल्शेविज़्म पर हमला बोलते हैं। सूक्ष्म जगत के अन्दर मौजूद अनिश्चितता को वे वस्तुगत सत्य के इनकार का सबूत मानते हैं। यह कोरी बकवास है। वही पुराना राग है जिसका जवाब एंगेल्स और लेनिन दे चुके हैं। वे परिघटना को काण्टवादी अबूझ वस्तु-निज-रूप में बदल देते हैं। चेर्नाव की आलोचना करते हुए लेनिन ने लिखा है, “वस्तु-निज-रूप और परिघटना के बीच निश्चित ही कोई अन्तर नहीं होता है और न ही हो सकता है। एक मात्र अन्तर ज्ञात और अज्ञात के बीच होता है। दोनों के बीच सीमाओं को खड़ा करने वाली दार्शनिक खोजें, ऐसी खोजें जो वस्तु-निज-रूप को परिघटना से ‘परे’ मानती हैं (काण्ट)…यह सब कोरी बकवास है।” पॉल मात्तिक की यह आलोचना भी कोरी बकवास है।
स्पष्ट है कि भौतिक यथार्थ के तमाम भौतिक अवयव अज्ञात हैं पर यही आगे ज्ञात और नए अज्ञात में टूटेंगे। मौजूदा भौतिकी के स्तर के अनुसार यही कहा जा सकता है कि बिग बैंग (या बिग बाउन्स, या ब्रह्माण्डों का टकराव या कुछ और) जैसी परिघटना भी भौतिक यथार्थ का हिस्सा है। हिग्स बुसॉन का मिलना इस गुत्थी को सुलझाने की तरफ विज्ञान का एक बढ़ा हुआ कदम है। अब तक हमने यह देखा कि कैसे विज्ञान ए पोस्टरियोरी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को विकसित करता है। लेख के अगले हिस्से में हम यह देखेंगे की दर्शन ए प्रायोरी विज्ञान को कैसे रास्ता दिखाता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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