विष्णु खरे : अपनी राह खुद बनाने वाला विद्रोही प्रयोगधर्मी कवि

कात्यायनी

हिन्दी कविता की दुनिया में अपनी एक अलग राह बनाने वाले अप्रतिम विद्रोही कवि, रुढि़भंजक आलोचक, सिने-कला के श्रेष्ठ मर्मज्ञ, शास्त्रीय और फिल्म संगीत के गहरे जानकार, बेजोड़ अनुवादक और हिन्दी पत्रकारिता को नयी समृद्धि देने वाले विष्णु खरे का निधन हिन्दी भाषी समाज के लिए एक ऐसी क्षति है, जिसकी पूर्ति शायद लम्बे समय तक न हो सके। यूँ तो जीवन अपनी गति से निरन्तर आगे बढ़ता रहता है, लेकिन कई बार कुछ लोगों का जाना एक ऐसा रिक्त स्थान छोड़ जाता है, जिसका अहसास लम्बे समय तक होता रहता है। विष्णु खरे ऐसे ही विरल व्यक्तित्वों में से एक थे।

9 फरवरी 1940 को छिंदवाड़ा (म.प्र.) में जन्मे विष्णु खरे ने मस्तिष्काघात के बाद विगत 19 सितम्बर, 2018 को दिल्ली में निधन से पहले एक लम्बा सर्जनात्मक और प्रयोग-संकुल जीवन बिताया, फिर भी वो लगातार इतना कुछ नया कर रहे थे कि सहज ही ये सोचने को जी चाहता है कि अभी उन्हें  जाना नहीं था, अभी तो उन्हें काफी कुछ करना था।

उनका सर्जनात्मक जीवन आधे सदी से भी अधिक लम्बा रहा। कविताएँ वे 1956 से, यानी 16 वर्ष की आयु से लिखने लगे थे। 1960 में टी.एस.एलियट की कविताओं का उनका अनुवाद ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ’ नाम से प्रकाशित हुआ। अनुवाद का काम उन्होंने इसके बाद जीवनपर्यन्त जारी रखा और गोएठे, ग्युंअटर ग्रास, अत्तिला योजेक, मिक्लोइश राद्नोति, चेस्वाव मिवोश, विस्वावा शिम्बोर्स्का आदि‍ विश्व कविता के कई बड़े हस्ताक्षरों के साथ ही एस्तोतनिया और फिनलैण्ड के लोक महाकाव्यों का हिन्दी में उत्कृष्ट अनुवाद किया। यह उनका बहुत बड़ा काम था और हिन्दी जगत को महत्वपूर्ण अवदान था। हिन्दी कविता को अनुवादों के जरिए अंग्रेजी, जर्मन और डच भाषाओं तक पहुँचाने का काम भी वह लगातार करते रहे और यह भी उनका एक अविस्मरणीय योगदान था।

विष्णु खरे ने अपना पहला कविता संकलन ‘एक ग़ैर-रूमानी समय में’ 1970 में स्वयं छपाया, लेकिन इसकी ज्यादातर कविताएँ अशोक वाजपेयी सम्पादित ‘पहचान’ श्रृंखला की पहली पुस्तिका ‘विष्णु खरे की कविताएँ’ में ले लिए जाने के कारण उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया। इसके बाद उनका तीसरा संकलन ‘खुद अपनी आँख से’ 1978 में, चौथा ‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’ 1994 में, पाँचवा ‘पिछला बाकी’1998 में , छठवाँ ‘काल और अवधि के दरमियान’ 2003 में, सातवाँ ‘लालटेन जलाना’ 2008 में, आठवाँ ‘पाठान्तार’ 2008 में और अन्तिम संकलन ‘और अन्य कविताएँ’ 2017 में प्रकाशित हुए। आलोचना की उनकी एकमात्र पुस्तक ‘आलोचना की पहली किताब’ 1983 में प्रकाशित हुई। इन सबके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट्स के लिए उन्होंने सैकड़ों की संख्या में साहित्यालोचना, फिल्म, राजनीति आदि पर लेख लिखे। विष्णु‍ खरे जीवनपर्यन्त कविता और गद्य में एक रूखी और बेलागलपेट वस्तुपरकता के साथ अपनी बात करते रहे, तमाम पाखण्डों को निरावृत्त करते रहे तथा देश और समाज के वर्तमान और भविष्य  के प्रति फिक्रमंद बने रहे। आजीवन वह अपनी साफगोई की कीमत चुकाते रहे और अपने जीवन तथा कविता में बेचैनियों और तल्खियों में जीते रहे।

कमोबेश 1960 के दशक के अन्त तक विष्णुे खरे की कविता अपनी राह खोजने और बनाने की प्रक्रिया में थी। ग़ौरतलब है कि इस दौर में भी उनकी कविता नवगीत आन्दोलन के रूमानी वायवीय घटाटोप से या अकविता के निम्न- बुर्जुआ अराजक विद्रोह के प्रभावों से मुक्त रही। विशेषकर 1970 के दशक में उन्होंने अपनी वस्तुपरक आख्यान की विशिष्ट  गद्यात्मक शैली की कविताओं से एकदम अलहदा और नयी लकीर खींचने की शुरुआत की। हिन्दी कविता और कवियों की उत्तरवर्ती पीढ़ी पर इसका व्यापक और गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दी कविता उसके बाद वैसी नहीं रह गयी जैसी वह पहले थी। छन्द -मुक्ति के बाद हिन्दी कविता ने विष्णु खरे की कविताई में एक नयी मुक्ति पायी और जीवन की संश्लिष्ट गद्यात्मकता को पकड़ने की, ज्याादा गहराई में उतर गयी जीवन के अन्तर्लय  को पकड़ने की शक्ति अर्जित की। यह कहना जरा भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि निराला और मुक्तिबोध के बाद हिन्दी कविता की भाषा और शिल्प को विष्णु खरे ने सबसे अधिक प्रभावित किया है, नागार्जुन और रघुवीर सहाय से भी अधिक। कुँवर नारायण ने अपने एक लेख में ठीक ही लिखा था कि विष्णु खरे की कविता कविता के तमाम प्रचलित नियमों और शिल्पों को लाँघकर लिखी गयी है। मंगलेश डबराल के अनुसार, ‘’उनके पाँच संग्रहों में फैली हुई कविता इस बात का दस्तावेज है कि एक समर्थ कवि कितनी बेचैनी के साथ समकालीन जीवन और यथार्थ की चीरफाड़ करता है और किस तरह एक शुष्क और ठोस गद्य में गहरे इंसानी जज़्बे को पैदा करता है।’’

लेकिन इतना कहने मात्र से विष्णु खरे की कविता की ‘शुष्क’, ठोस गद्यात्मकता का रहस्य पूरी तरह से उद्घाटित नहीं होता। उनकी कविता की गद्यात्मकता का, उसके ब्योरों और तफ़सीलों का मूल रहस्य उनके काव्य प्रयोजन में ढूँढ़ा जाना चाहिए। दरअसल विष्णु खरे की कविता अन्तर्वस्तु और भाषिक संरचना की दृष्टि से एक निर्माणाधीन बुर्जुआ समाज की ऐसी नागरिक कविता है जो मानवद्वेषी परिवेश और सामाजिक व्यक्तित्व के विघटन के मूल कारणों को समझने के लिए तर्क करती है, बहस करती है और चिन्तन करती है। उनकी कविता आधुनिकता के प्रोजेक्ट पर (आधुनिकतावाद नहीं) अपने मौलिक ढंग से काम करती है। वर्तमान विभीषिकाओं से टकराते हुए, रूमानी ढंग से, गुजरे हुए समय की लोकतात्विक रागात्मकता का शरण्य बनाने की प्रवृत्ति से उत्तरवर्ती पीढ़ी के कई वामपन्थी कवियों की कविता भी पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकी है। लेकिन विष्णु खरे की कविताई में यह लिसलिसापन-चिटचिटापन हमें कहीं देखने को नहीं मिलता। एक संक्रमणशील बुर्जुआ समाज के तरल वस्तुगत यथार्थ को पकड़ने और बाँधने की कोशिश करते हुए उनकी कविता साहसिक प्रयोगशीलता के साथ गद्यात्मक आख्यानात्मकता की विशिष्ट शैली का आविष्कार करती है और हिन्दी कविता के क्षितिज को अनन्य ढंग से विस्तारित करती है।

विष्णु खरे की कविता जीवन में किसी भी चीज़ को रहस्यात्मक बनाने का विरोध करती है, हर प्रकार के फेटिशिज़्म का विरोध करती है। दूसरी ओर, वह उन चीज़ों की भी वस्तु‍गत सत्ता को स्वीकार करती है, जो अपनी प्रकृति से ही अमूर्त या पारभासी है, या पूर्णत: प्रेक्षणीय नहीं है। उनकी कविता चन्द शब्दों  से कोई बिम्ब नहीं रचती, बल्कि तफ़सीलों के द्वारा एक पूरा बिम्ब–संसार उपस्थित करती है। यह अभिधा की काव्यात्मक शक्ति और अर्थसमृद्धि की कविता है, जो मितकथन को कविता की शक्ति मानने की प्रचलित धारणा को तोड़ती हुई शब्द बहुलता और वर्णन के विस्तार द्वारा एक प्रभाव-वितान रचती है, एक भाषिक स्पेस क्रिएट करती है, लेकिन वहाँ रंचमात्र भी भाव-स्फीति या अर्थ-स्खलन या प्रयोजन-विचलन नहीं होता। विष्णु खरे अपने समकालीन रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदार नाथ सिंह आदि बड़े कवियों से अलग ढंग से अपने समय और समाज की तमाम तफ़सीलों को एक किस्म की निरुद्विग्न वस्तुपरकता के साथ ‘इंटेस’ ढंग से अपनी कविता में प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविता में कहीं गहन विक्षोभ के रूप में तो कहीं आभासी ‘’तटस्थता’’ के रूप में एक नैतिक विकलता मौजूद रहती है। साथ ही वहाँ विवेक को सक्रिय बनाने वाली प्रश्नाकुलता और सर्जनात्मक तनाव भी मौजूद रहता है।

आज जब विष्णु खरे हमारे बीच नहीं हैं, तो यह बात और अधिक विश्वासपूर्वक कही जा सकती है कि इस अंधकारपूर्ण, आततायी शताब्दी के वर्ष जैसे-जैसे बीतते जायेंगे, विष्णु खरे की कविता हमारे समय के आम नागरिक की जिजीविषा, युयुत्सा, द्वंद्व और नैतिक विकलता की कविता के रूप में ज्यादा से ज्यादा महत्व अर्जित करती जायेगी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018

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