कविता : गाइड उवाच / विनोद पदरज
देवियो और सज्जनो
अब हम जहाँ जा रहे हैं
वह हमारे समय का अभूतपूर्व मन्दिर है
देवियो और सज्जनो
अब हम जहाँ जा रहे हैं
वह हमारे समय का अभूतपूर्व मन्दिर है
फिर क्यों कुछ करें?
क्यों लिखें कविता?
क्यों समय व्यर्थ करें
नया समाज बनाने की चिन्ता-तैयारी में?
क्यों करें नये-नये आविष्कार?
क्यों न जिएँ जीवन
जो मिला मात्र एक है, सीमित है।
सोचते रहें इन प्रश्नों पर भले ही,
पर चलो थोड़ा जी लें।
चार घण्टों तक यातना देने के बाद
अपाचे तथा दो अन्य पुलिसवालों ने
क़ैदी को होश में लाने के लिये
उस पर बाल्टी भर पानी फेंकते हुए कहा:
यह विख्यात कविता गोर्की ने 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के दौरान क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग की अपार ताकत और साहसिक युगपरिवर्तनकारी भूमिका से परिचित होने के बाद उद्वेलित होकर लिखी थी जो पूँजीवादी दुनिया की अमानवीयता को सर्वहारा वर्ग द्वारा दी गर्इ चुनौती का अमर दस्तावेज बन गई। अपनी गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर पूरी मानवता की मुक्ति और उत्कर्ष के लिए पूँजीवादी विश्व के जालिम मालिकों के विरूद्ध तफानी रक्तरंजित संघर्ष की घोषणा करने वाले शौर्यवान और साहसी सर्वहारा को गोर्की ने इस कविता में बादलों और समुद्र के बीच गर्वीली उड़ानें भरते निर्भीक पितरेल पक्षी के रूप में देखा है जो भयानक तूफान का चुनौतीपूर्ण आहावन कर रहा है। समाज के कायर, बुजदिल बुद्धिजीवियों तथा अन्य डरपोक मध्यमवर्गीय जमातों को गोर्की ने तूफान की आशंका से भयाक्रान्त गंगाचिल्लियों, ग्रेब और पेंगुइन पक्षियों के रूप में देखा है। जिस क्रान्तिकारी तूफानी परिवर्तन का आना निश्चित है, ऐतिहासिक नियति है और जिसके बिना मानव समाज और मानवीय मूल्यों की मुक्ति और उत्कर्ष असम्भव है, उसके भय से अपनी मान्दों में दुबकने वाले समाज के ग्रेब, पेंगुइन और गंगाविल्लियों के समानान्तर पितरेल सर्वहारा वर्ग के साहस, जीवन दृष्टि और भावनाओं-मूल्यों को जितने सुन्दर बिम्बों-रूपकों में बान्धकर गोर्की ने यहां प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय है।