रिलायंस द्वारा आन्ध्र प्रदेश में पर्यावरण की घातक तबाही
लता
देश में तमाम स्वयंसेवी संगठनों से लेकर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें तक पर्यावरण के विनाश को लेकर आजकल काफ़ी शोर मचा रही हैं। पर्यावरण को पहुँच रहे नुकसान पर टी.वी., रेडियो और अखबारों आदि के जरिये जनता के गले जमकर उपदेश उड़ेला जाता है। लोगों को कहा जाता है कि पर्यावरण का संरक्षण करो। इसको बचाओ! बात तो सही ही है! लेकिन पर्यावरण को हो रहे नुकसान के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या आम जनता इसके लिए ज़िम्मेदार है? पहाड़ों को नंगा कौन कर रहा है? भूजल का दोहन कौन कर रहा है? समुद्र तटों का वाणिज्यीकरण कर उन्हें तबाह कौन कर रहा है? इसको जानना बहुत ज़रूरी है। सरकार और उसका पूरा प्रचार तन्त्र तो यों जताता है जैसे सारे पर्यावरण का सत्यानाश जनता द्वारा जंगल से जलावन लकड़ी जुटाने, मछली पकड़ने आदि से हो रहा है! लेकिन तमाम अनुसंधनों से साबित किया है कि गाँवों में रहने वाली आम ग़रीब जनता, जंगलों में और उसके इर्द-गिर्द रहने वाले आदिवासी पर्यावरण के साथ सबसे अधिक सामंजस्य में रहते हैं। ऐसा वे सदियों से करते आ रहे हैं और पर्यावरण से वे जितना लेते हैं उतना ही उसे वापिस भी कर देते हैं। फ़िर आखिर पर्यावरण को तबाह कर कौन रहा है? इसको पिछले दिनों अखबार में आयी एक ख़बर के जरिये समझने की कोशिश करते हैं।
हाल ही में ख़बर आयी है कि काकीनाड़ा में रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ लिमिटेड अपनी के.जी.गैस और ऑयल टर्मिनल स्थापित कर रहा है। अपनी इस परियोजना के तहत यह वहाँ स्थित सँकरी खाड़ियों को, जिन्हें क्रीक भी कहा जाता है, भर रहा है या उनका रुख बदल दे रहा है। इसके साथ ही रिलायंस वहां के मैंग्रोव वनों की छतरी को नष्ट कर रहा है। यह गैस टर्मिनल पूर्वी गोदावरी के गाँव पोलकुरू तक बनाया जाएगा। हाल ही में इस गाँव का दौरा कर रही पर्यावरणवादियों की एक टोली ने पाया कि आन्ध्र प्रदेश राज्य के आख़िरी बचे मैंग्रोव नष्ट कर दिये गये हैं। इन पर्यावरणवादियों को यह जानकर काफ़ी आश्चर्य हुआ और सदमा पहुँचा कि ज़्यादातर क्रीक भर दिये गये हैं और उनमें से एक को कोरियंगा वन्यजीवन संरक्षण उद्यान की तरफ़ मोड़ दिया गया है। इसके कारण इस उद्यान पर ही ख़तरा मण्डराने लगा है। आन्ध्र प्रदेश के कुछ आख़िरी बचे मैंग्रोव वनों में से एक को रिलायंस ने तबाह कर दिया है। मैंग्रोव वन मनुष्यों के दोस्त होते हैं। जब भी कोई समुद्री चक्रवात या तफ़ू़ान आता है तो उसके सारे झटके और आवेग को ये बसाहट के इलाकों में पहुँचने से पहले ही सोख लेते हैं। दो वर्षों पहले आयी सूनामी में दो लाख से अधिक जानें सिर्फ़ इसलिए चली गयीं क्योंकि मैंग्रोव वनों को बुरी तरह तबाह कर डाला गया था। पश्चिमी तट के मैंग्रोव कवर पहले ही तबाह किये जा चुके हैं। मुम्बई और गोवा के मैंग्रोव अमीरज़ादों की औलादों की ऐयाशी के लिए बनाए जाने वाले रिज़ॉर्टों और पाँच सितारा होटलों के निर्माण के कारण पहले ही तबाह किये जा चुके हैं। राज्य में पूर्वी गोदावरी को छोड़कर ये जीवनरक्षक मैंग्रोव वन सिर्फ़ कृणा और गोजटूर में बचे हैं। कोरियंगा वन्यजीवन संरक्षण उद्यान के अधिकारी रिलायंस द्वारा की जा रही मनमानियों और उससे होने वाले नुकसान से भली-भाँति परिचित हैं, लेकिन इसके ख़िलाफ़ कुछ भी करने से किनारा कर लेते हैं। उनका कहना है कि इसमें बहुत बड़ी और शक्तिशाली कम्पनी संलग्न है।
मैंग्रोव समुद्री तटों पर बसे जनजीवन की समुद्री तफ़ूानों और चक्रवातों से रक्षा करते हैं। यह ख़तरनाक लहरों और तूफ़ानों की गति को सोख लेता है। साथ ही मैंग्रोव का रिश्ता जैव-विविधता से भी है। इन वनों के नष्ट होने की एक वजह पूँजीपतियों द्वारा संचालित झींगा-पालन उद्योग भी है। मैंग्रोव वनों की तबाही और बर्बादी से जो तात्कालिक नुकसान है वह है तफ़ू़ानों से जानमाल पर पैदा होने वाला ख़तरा। ऐसे किसी तफ़ू़ान की सूरत में मरने वाले लोग अम्बानी सरीखे मुनाफ़ाखोर पूँजीपति नहीं होंगे, बल्कि तटों पर रहने वाली आम ग़रीब मेहनतक़श आबादी होगी। अगर दूरगामी नुकसानों की बात करें तो वह है बहुमूल्य जैव-विविधता का नष्ट होना। इसका ख़ामियाजा आने वाले चन्द-एक वर्षों में नहीं बल्कि आने वाले लम्बे समय तक इंसानियत को भुगतना पड़ेगा।
मैंग्रोव और क्रीक्स को नुकसान पहुँचाये बिना भी रिलायंस के गैस व ऑयल टर्मिनल को स्थापित किया जा सकता है। लेकिन इन सावधानियों को बरतने और उस पर होने वाले ख़र्च की जहमत उठाने की रिलायंस जैसी कम्पनियाँ कोई ज़रूरत नहीं समझतीं। मैंग्रोव के नष्ट होने की अन्य वजहों में समुद्री पर्यटन के लिए बनाए जाने वाले होटल व रिज़ॉर्ट तथा झींगा-पालन उद्योग हैं। इनमें से कोई भी चीज़ इंसान की बुनियादी आवश्यकता नहीं है। ये तमाम कारगुजारियाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़ाखोर पूँजीपतियों की ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की हवस है। इनकी यह हवस न सिर्फ़ तटवर्ती इलाकों में रहने वाली आम आबादी के जीवन को ख़तरे और जोख़िम में डाल रही है बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी के सन्तुलन को बिगाड़ रही हैं। मुनाफ़े पर आधारित इस पूँजीवादी व्यवस्था से हम और किसी बेहतर चीज़ की उम्मीद कर भी नहीं सकते क्योंकि इस पूरी व्यवस्था के केन्द्र में इंसानी ज़िन्दगी है ही नहीं। इसका केन्द्र मुनाफ़ा है। इस मुनाफ़े की अन्धी दौड़ में यह किसी भी हद तक जा सकती है। मनुष्य की जान की कोई कीमत नहीं है तो पर्यावरण की क्या कीमत होगी? पूँजीवाद में कोई भी पूँजीपति पर्यावरण और मानवीय जीवन जैसी चीज़ों के बारे में सोचने का जोख़िम नहीं उठा सकता। अगर वह लगातार अपने मुनाफ़े के बारे में नहीं सोचता और गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में अन्य पूँजीपतियों को निगल जाने के बारे में नहीं सोचता तो जो ऐसा सोचता है वह उसे निगल जाएगा। मतलब कि उसे तुरत-फ़ुरत मुनाफ़ा चाहिए। लम्बे दौर के फ़ायदे के बारे में सोचेगा तो उसे फ़ायदे को देखने के लिए ज़िन्दा नहीं बचेगा! इसलिए फ़टाफ़ट मुनाफ़ा पीटो, चाहे इसके लिए पर्यावरण को तबाह करना पड़े, चाहे पूरी धरती को ही क्यों न तबाह करना पड़े। ऐसा ही हो भी रहा है। पूँजीवाद मुनाफ़े की अन्धी हवस में पूरी दुनिया को तबाह कर ही रहा है।
सूनामी की भीषण तबाही और जानमाल की बर्बादी के बाद केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें लगातार मैंग्रोव के संरक्षण के लिए चेतावनियाँ देती रहती हैं। यह बात वैज्ञानिक पहले ही बता चुके हैं सूनामी का नुकसान कहीं अधिक कम होता यदि मैंग्रोव वन सुरक्षित बचे होते। तो क्या सरकार आज मैंग्रोव वनों के न होने के कारण सूनामी की उस विकराल तबाही को भूल गयी? ऐसी बात नहीं है। लेकिन यह सरकार जो उन्हीं पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है जो पर्यावरण को तबाह कर रहे हैं, उससे आप यह उम्मीद नहीं रख सकते कि वह ऐसा करने से उन पूँजीपतियों को रोकेगी। उसी सरकार ने तो रिलायंस जैसे मुनाफ़ाखोरों को पर्यावरण को बर्बाद करने का लाईसेंस दे दिया है और आन्ध्र प्रदेश के कुछ आख़िरी बचे मैंग्रोव को भी उनके हवाले कर दिया है। पर्यावरण एक ऐसी व्यवस्था में ही बचाया जा सकता है जहाँ मनुष्य न तो पर्यावरण का स्वामी या व्यापारी होता है और न ही उसका गुलाम। पर्यावरण एक ऐसी व्यवस्था में ही बचाया जा सकता है जहाँ मुनाफ़ा केन्द्र न हो और मानव समाज पर्यावरण के साथ सामंजस्य और साहचर्य में रहता हो।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!