मानव जाति के अन्त की भविष्यवाणी!
प्रशान्त
दोस्तो एक बहुत ही दुःखद समाचार है। अभी हाल ही में विभिन्न अख़बारों व समाचार चैनलों ने यह समाचार दिखाया कि कई सारे वैज्ञानिकों ने यह भविष्यवाणी की है कि आने वाले 100 से 200 वर्षों के अन्दर कई जीव-जन्तुओं समेत मानवजाति इस पृथ्वी से समाप्त हो जायेगी। इसका कारण “समस्त” मानवजाति द्वारा पृथ्वी के पर्यावरण का बुरी तरह दोहन किया जाना है। इनकी मानें तो अब मानव जाति को बचाने का एक ही रास्ता है। अभी हाल में ही में प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिन्स ने भी इस रास्ते का समर्थन किया है। यह रास्ता है अन्तरिक्ष में किसी अन्य ग्रह पर मानव बस्ती को बसाना। लेकिन यह तो अजीब और बेहद महँगा रास्ता होगा। ज़ाहिर सी बात है जो सरकार अपने देश के नागरिकों को पीने को मुफ्त पानी नहीं उपलब्ध कराती है, वह दूसरे ग्रह पर उन्हें मुफ्त में तो ले नहीं जायेगी। तब तो जिनके पास अथाह धन नहीं है उनकी आने वाली पीढ़ियों के बचने का कोई रास्ता नहीं है!
जब से मैंने यह समाचार पढ़ा है एक अजीब-सी निराशा ने जैसे मुझको अपने शिकंजे में कस लिया है। कभी सोचता हूँ कि जब 100 सालों में मानव जाति को समाप्त होना ही है तो क्यों न मैं अपनी जिन्दगी ऐशो-आराम से, मौज मस्ती करते हुए जी लूँ? क्या ज़रूरत है किसी और के बारे में परवाह करने की? फिर ख़याल में आया कि क्यों न मैं ढेर सारी धन-दौलत कमाऊँ जिससे कि मेरी आने वाली पीढ़ियाँ भी अन्तरिक्ष यान के अन्दर न सही, कम से कम उससे लटककर तो दूसरे ग्रह पर पहुँच जायें!
तभी एक ख़याल ने मेरे जेहन को झकझोर दिया। क्या वे माँ-बाप जिनके बच्चे भूख, कुपोषण और बीमारी से सड़कों पर दम तोड़ने के लिए मजबूर होते हैं, इसी तरह शान्ति से यह सब सहते हुए मरना मंजूर करेंगे? क्या 14-16 घण्टे फैक्टरियों व खेतों में हाड़-मांस गलाकर काम करने के बावजूद बड़ी मुश्किल से केवल अपने जीवित रहने की खुराक जुटा पाने वाले मज़दूर व किसान बिल्कुल चुपचाप ये सबकुछ सहते हुए मौत को गले लगा लेंगे? क्या नौजवानों के दिल इसी तरह पत्थर बने रहेंगे और वे यह सब कुछ तमाशे की तरह देखते रहेंगे? क्या मानव चेतना में इतने विकास के बावजूद वे इस पृथ्वी को ऐसे ही तबाह होने देंगे? तर्क की कसौटी पर यह सोचना कुछ सही नहीं लगता।
यह आज का सच है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था ने, अपनी-अपनी आलीशान लक्ज़री गाड़ियों की गद्दीदार सीटों में मोटी-मोटी तोंदें लेकर धँसे धनपुशओं ने अधिक से अधिक मुनाफा पीटने की हवस में पृथ्वी के पर्यावरण को बेहिसाब क्षति पहुँचायी है और अभी भी पहुँचा रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि आज यह अहसास लोगों के दिलों में घर बना रहा है कि यह व्यवस्था आज लगभग समस्त मानव जाति के लिए एक बोझ बन चुकी है। आज यह व्यवस्था मानव जाति को कुछ भी सकारात्मक देने की अपनी शक्ति खो चुकी है। अब इसका स्थान इतिहास की कचरापेटी में ही है और इससे पहले कि पूँजीवाद पृथ्वी के पर्यावरण को मानवजाति के रहने लायक न छोड़े, यह व्यवस्था उखाड़ फेंकी जायेगी। मानव जाति ने इससे पहले भी अत्याचार और शोषण के अन्धकार में डूबी समाज व्यवस्थाओं को नष्ट किया है और प्रगति की ओर कदम बढ़ाये हैं। मानव सभ्यता का इतिहास ऐसे विद्रोहों व युद्धों से भरा हुआ है। वह चाहे रोम व स्पार्टा के गुलामों का अपने मालिक के खि़लाफ विद्रोह हो, यूरोप में बर्बरतापूर्ण व कूपमण्डूकतापूर्ण तथा सदियों लम्बे चले अन्धकारमय मध्ययुग की जड़ता का ख़ात्मा हो या फिर उपनिवेशों का अन्त। हर समय मानवजाति ने अपनी प्रगतिशीलता व लड़ाकूपन का परिचय दिया है और आज जब इस पूँजीवाद ने स्वयं मानवजाति के अस्तित्व के लिए ही ख़तरा पैदा कर दिया है तो क्या इस सम्पूर्ण पृथ्वी के प्रगतिशील मनुष्य तथा समस्त उत्पीड़ित आबादी इस विनाश का बैठकर केवल तमाशा देखती रहेगी? क्या वे अपना सदियों लम्बा लड़ाकूपन छोड़ देंगे?
ज़ाहिरा तौर पर केवल पूँजीवाद द्वारा किये जा रहे पर्यावरण के शोषण व विनाश को एकतरफा नज़रिये से देखने पर तो यही प्रतीत होगा कि आने वाले कुछ सौ वर्षों में मानवजाति का नामोनिशान मिट जायेगा और अगर यह व्यवस्था नहीं बदली गयी तो निश्चित तौर पर ऐसा हो जायेगा। लेकिन मानव सभ्यता का इतिहास इस बात को स्पष्ट कर देता है कि जब-जब समाज में किसी क्रान्तिकारी बदलाव की ज़रूरत पड़ी है तो समाज के अन्दर से हमेशा ऐसे लोग उभरकर सामने आते रहे हैं जो उस परिवर्तन का वाहक बनते हैं और वर्तमान समय में भी ऐसा ही होगा। अपने बन्द कमरों में बैठकर केवल गणितीय सूत्रों या विज्ञान की किताबों में जीने वाले वैज्ञानिक के लिए तो यह निराश होकर बैठ जाने व रोने-धोने का कारण हो सकता है लेकिन जनता के दुख-दर्द को देखने और महसूस करने वाले नौजवान व जिन्दादिल तथा इतिहासबोध से लैस लोग जानते हैं कि पूँजीवाद मानवजाति का अन्त नहीं है। यह पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है जो कभी इतिहास के अन्त, विचाराधारा के अन्त की घोषणा के रूप में तो कभी मानव जाति के ही अन्त की भविष्यवाणी के रूप में सामने आता रहता है। मानव जाति का भविष्य तो सुन्दरता से परिपूर्ण है।
सबसे सुन्दर है वह सागर
जिसे देखा नहीं हमने
सबसे सुन्दर है वह बच्चा
जो अभी तक बड़ा नहीं हुआ
सबसे सुन्दर हैं वे दिन
जिन्हे अभी तक जिया नहीं हमने
और वे बेपनाह उम्दा बातें,
जो सुनाना चाहता हूँ
तुम्हें मैं अभी कही जानी हैं।
– नाजिम हिकमत
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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