पूँजी की हवस और लुटते-कटते जंगल

अनन्त

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 230 किलोमीटर उत्तर-पूर्व, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के, छतरपुर ज़िले में स्थित है बक्सवाहा जंगल। बुन्देलखण्ड भारत का वह क्षेत्र है जो गहन सूखे की समस्या के कारण मीडिया में सुर्खियाँ प्राप्त करता रहता है। इसी क्षेत्र के संरक्षित बक्सवाहा जंगल का 382.131 हेक्टेयर हिस्सा एक हीरा परियोजना के नाम पर काटा जा रहा है। क़रीब तीन हज़ार हेक्टेयर इलाक़े में फैला यह जंगल कई तरह के वन्य जीवों और वनस्पतियों का निवास स्थान है। यहाँ खैर, बेल, धावा, सेजा, घोट, रेंझा, अमलतास और सागौन जैसे वृक्षों की प्रजातियाँ, तथा वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची में सूचीबद्ध सात प्रजातियों भारतीय चिंकारा, चौसिंघा, सुस्त भालू, तेन्दुआ, गोह, भारतीय दुमदार गिद्ध और मयूर सहित अन्य वन्य जीवों की अच्छी-ख़ासी विविधता है। इसके अलावा यह आसपास के ग्रामीणों की आजीविका का मुख्य और एकमात्र साधन है। क्षेत्र के 17 आदिवासी गाँवों के लगभग 7,000 ग्रामीण अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से वन उत्पादों जैसे महुआ, तेन्दू पत्ते, चिरौंजी, आँवला आदि पर निर्भर हैं। यह देश का दिल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश, जहाँ देश के कुल वन्य क्षेत्र आवरण का सबसे अधिक, क़रीब 11 फ़ीसदी हिस्सा है, की हरियाली का महत्त्वपूर्ण कारक है! लेकिन यह जंगल अब बहुत जल्द अपना अस्तित्व खोकर बीते ज़माने की दास्तान का हिस्सा बनने वाला है।
सदियों से खड़े इस जंगल पर पिछले दो दशकों से संकट के बादल छाये हुए हैं। जब से यहाँ हीरे के खान की जानकारी मिली है, तब से दुनिया भर के सरमायेदार इस ओर लपलपाती जीभ के साथ देख रहे हैं। मध्यप्रदेश में देश का 90 प्रतिशत हीरा उत्पादन होता है। छतरपुर विश्व प्रसिद्ध पन्ना खान के बगल में है। दावा किया जा रहा है कि बक्सवाहा के नीचे पन्ना खान से पन्द्रह गुना अधिक मात्रा में हीरा उत्खनन की सम्भावना है। लेकिन यह पर्यावरण, पारिस्थितिकी तन्त्र, वन, वन्यजीवन, गम्भीर जल संकट अदि के शर्त पर हासिल किया जाना है। बक्सवाहा के जंगल में हीरा उत्खनन के लिए बन्दर हीरा परियोजना की शुरुआत की गयी है। जिसके लिए मध्य प्रदेश सरकार ने 2006 में ही ऑस्ट्रेलियाई खनन दिग्गज रियो-टिण्टो को पूर्वेक्षण लाइसेंस दे दिया था। तभी से इस परियोजना का स्थानीय ग्रामीण आबादी के द्वारा विरोध जारी था। लोगों के निरन्तर विरोध के कारण 2016 में इस समूह को इस परियोजना से अपना हाथ पीछे खींचना पड़ा। असल योजना के तहत कुल बक्सवाहा जंगल का एक तिहाई के क़रीब हिस्सा काटा जाना था। कम्पनी के शुरुआती प्रस्ताव के मुताबिक़ खदान योजना 954 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तारित थी, जिसे भारतीय खान ब्यूरो (आईबीएम) ने सशर्त मंजूरी दे दी थी। लेकिन इस परियोजना को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा और, 2016 में, सरकार ने इसकी अनुमति को रद्द कर दिया, फलस्वरूप, रिओ-टिण्टो को मैदान छोड़कर वापस जाना पड़ा।
उसके बाद नये सिरे से इसकी नीलामी की जानी थी, और पिछली बार के उठ खड़े हुए जन संघर्षों से सबक लेते हुए इस बार आवण्टित भूमि का दायरा घटा दिया गया। बन्दर हीरा खदान के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने वर्ष 2019 में नयी बोलियाँ आमन्त्रित की। जिसमें पाँच कम्पनियों, बिड़ला समूह की एस्सेल माइनिंग, अदानी ग्रुप की चेण्डीपाड़ा कोलारी, वेदान्ता ग्रुप, सरकारी क्षेत्र की खनन कम्पनी नेशनल माइनिंग डेवलपमेण्ट कॉरपोरेशन और रूंगटा माइंस लिमिटेड ने भाग लिया था, तथा जिसे आदित्य बिड़ला समूह की कम्पनी एस्सेल माइनिंग एण्ड इण्डस्ट्रीज़ लिमिटेड (EMIL) ने अगले 50 सालों के लिए 55,000 करोड़ रुपये में जीता। किन्तु, पिछली बार से सबक लेते हुए इस बार खनन के लिये भूमि आवण्टन को घटा दिया गया। रियो-टिण्टो के समय खनन के लिए प्रस्तावित भूमि 954 हेक्टेयर थी, जो नयी नीलामी के समय घटकर मात्र 382 हेक्टेयर तक रह गयी है। इस परियोजना के लिये पेश की गये फॉरेस्ट क्लीयरेंस रिपोर्ट के मुताबिक़ खनन के लिये लीज़ पर दिये इलाक़े में 46 क़िस्म के पेड़ लगे हैं, जिनकी कुल संख्या 2,15,875 है। इसमें 7,106 महुआ, 36,652 तेन्दू, 22,990 बेल और 37,334 सागौन आदि के पेड़ लगे हैं। जो सीधे स्थानीय आबादी की आजीविका का साधन हैं। इन सबको काटा जाना है। यह महज़ सरकारी खानापूर्ति के लिए पेश किया गया कागज़ी आँकड़ा है, किन्तु असलियत यह है कि इससे कहीं अधिक पेड़ काटे जायेंगे। इस योजना ने एक समृद्ध वन क्षेत्र तथा पास के पन्ना टाइगर रिजर्व और नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य के बीच एक बाघ गलियारे को भी ख़तरे में डाल दिया है।
इसके साथ ही इस परियोजना से सबसे बड़ा संकट पानी का होने वाला है। बुन्देलखण्ड पहले से ही पिछले कुछ वर्षों से भीषण जल संकट का सामना कर रहा है, ऐसे में यह परियोजना एक ख़तरे की घण्टी है। जंगल के कटने से सीधा भू-जल कोष पर प्रभाव पड़ेगा। जंगल के कटने से वहाँ मौजूद प्राकृतिक नाले तबाह होंगे और इसका असर बारिश के चक्र पर भी पड़ेगा। साथ ही वहाँ के जल संसाधनों का पूरा उपयोग हीरा उत्खनन में होगा। हीरा उत्खनन की प्रक्रिया में भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता पड़ती है। खनन के लिए पहले पत्थर की शिलाओं को तोड़ा जाता है। उनके नीचे छोटे-छोटे मिट्टी से सने कंकड़ होते हैं, जिनमें हीरा मौजूद होने की सम्भावना होती है। पानी से इन कंकड़ों को धोया जाता है। इसके बाद एक साफ़ जगह पर इसे बिछाकर एक-एक कंकड़ को बारीकी से परखा जाता है, इसमें काँच जैसा चमकता पत्थर ढूँढा जाता है। एक हीरा ढूँढने में काफ़ी ज़्यादा मेहनत और पानी की खपत होती है। इसके लिए जंगल में मौजूद प्राकृतिक नाले के पानी का उपयोग किया जायेगा। प्री फिजिबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ इस परियोजना में खदान और अयस्क प्रसंस्करण संयन्त्र को लगभग 16,050 किलो लीटर प्रतिदिन (या 5.9 मिलियन घन मीटर प्रति वर्ष) के हिसाब से पानी की ज़रूरत होगी। इसकी पूर्ति पास में बह रहे एक प्राकृतिक नाले के पानी से की जायेगी। इसके लिए नाले पर बाँध बनाया जायेगा। बाँध की क्षमता 17 मिलियन घन मीटर होगी जिसका उपयोग नाले में पानी कम होने की स्थिति में होगा। इतनी मात्रा में पानी का उपयोग चट्टानों के टुकड़ों को साफ़ करने में किया जायेगा ताकि उसमें हीरा खोजा जा सके। यह तब है जब सेण्ट्रल ग्राउण्ड वाटर अथॉरिटी ने छतरपुर के बक्सवाहा तहसील को पानी के मामले में सेमी-क्रिटिकल श्रेणी में रखा है। इस क्षेत्र में अवसादी विन्ध्य चट्टान हैं। यहाँ जल स्तर बहुत कम है, और क्षेत्र के सबसे गहरे नलकूप पहले से ही प्रति दिन केवल 20-50 घन मीटर पानी दे पाते हैं। ऐसे में इस परियोजना के कारण तबाह होने जा रहे जंगल की मौसमी जल धाराओं की अहमियत को समझ जा सकता है। जंगल के इन प्राकृतिक नालों में बारिश का पानी इकट्ठा होता है, जो खेती और भूजल पुनर्भरण का स्रोत हैं। और यही जल धाराएँ आगे चलकर बुन्देलखण्ड की जीवन रेखा बेतवा नदी में योगदान करती हैं।
इस परियोजना के नाम पर जंगलों को तबाह करने में शिवराज सिंह सरकार और कमलनाथ सरकार बराबर की साझेदार है। रिओ टिण्टो समूह के क़दम वापस लेने के बाद 2019 में नयी बोलियों के लिए पूँजीपति घरानों को न्योता देने का काम कमलनाथ सरकार ने किया। उसके बाद कोरोना संकट के समय का लाभ उठाकर इस योजना को रफ़्तार देने तथा तमाम औपचारिकताओं को ताक पर रखकर प्राकृतिक संसाधनों के भयंकर दोहन की खुली छूट देने का काम शिवराज सिंह सरकार कर रही है। इस परियोजना का स्थानीय स्तर से लेकर सोशल मीडिया के मंचों पर पुरज़ोर विरोध हो रहा है। स्थानीय आदिवासी आबादी के लिए यह जंगल महज़ आजीविका का साधन ही नहीं है, बल्कि उनकी संस्कृति का हिस्सा है। वे इसके काटे जाने के ख़िलाफ़ संघर्षरत हैं, लेकिन 2 जनवरी 2021 को छतरपुर के मुख्य वन संरक्षक (सीएफसी) द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन रिपोर्ट में दावा किया गया कि क्षेत्र के आदिवासी प्रस्तावित जंगल पर “निर्भर नहीं” थे और ‘क्षेत्र में आदिवासियों के किसी भी अधिकार को मान्यता नहीं दी गयी है’। एक मीडिया संस्थान से बात करते हुए जिला वन अधिकारी (डीएफओ) ने कहा कि वे नियमित रूप से जंगल और आदिवासी गाँवों का दौरा करते हैं। आदिवासियों ने परियोजना को लेकर कोई नाराजगी नहीं दिखायी है। बल्कि उन्हें इस बात की खुशी है कि खदानें उनके लिए रोज़गार के अवसर लेकर आयेंगी। औपचारिक तौर पर वन विभाग को ऐसे किसी मामले में सम्बन्धित या प्रभावित पक्षों की पूरी स्थिति पेश करनी होती है। किसी भी प्रकार की आपत्ति पर एक प्रक्रिया में सुनवाई की जाती है। किन्तु, यहाँ सरकारी रिपोर्टों से आम लोगों के प्रदर्शन पूरी तरह से ग़ायब हैं। यही नहीं लोगों के प्रदर्शन के बारे में पूछने पर बक्सवाहा से क़रीब 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बड़ा मल्हारा से भारतीय जनता पार्टी के विधायक प्रद्युम्न सिंह ने कहा कि प्रदर्शनकारी “मानसिक रूप से बीमार” और “निराश” लोग हैं और जो “कोई विकास नहीं” चाहते हैं। मौजूदा सरकार कोरोना पाबन्दियों का लाभ उठाकर, इस योजना को जल्द से जल्द अंजाम तक पहुँचाना चाहती है।
सूखाग्रस्त बुन्देलखण्ड क्षेत्र में यह पहली बार नहीं है, जब इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटा जा रहा है। पहले ही यहाँ केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना के लिए 23 लाख पेड़ों को काटे जाने की योजना है, और वहीं बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस वे के लिए अब तक 19 लाख पेड़ काटे जा चुके हैं। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह आँकड़ा वास्तविकता से काफ़ी कम है। पूरे देश स्तर पर जब-तब जंगलों को साफ़ किया जाता रहा है। अर्रे के जंगल से लेकर, अरावली, वेस्टर्न घाट सब पूँजी की सेवा में काटे जा रहे हैं। मोदी सरकार की अतिमहत्वाकांक्षी बुलेट ट्रेन परियोजना से लेकर नये-नये हाईवे बनाने, “विकास” की सम्भावनाओं को तलाशने के नाम पर जंगलों को काटा जा रहा है। आधिकारिक आँकड़ा बतलाता है कि बीते तीन दशकों में 23,716 औद्योगिक परियोजनाओं के लिए चौदह हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल साफ़ किये गये, जिसमें सबसे अधिक खनन (4,947 वर्ग किमी) और उसके बाद रक्षा (1,549 वर्ग किमी) परियोजनाओं के लिए ऐसा किया गया। साथ ही इसी अन्तराल में क़रीब पन्द्रह हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल अतिक्रमण की भेंट चढ़ गया। सरकार ने 2016 में संसद को बताया था कि वर्तमान में, रक्षा परियोजनाओं, बाँधों, खनन, बिजली संयन्त्रों, उद्योगों और सड़कों सहित “गैर-वानिकी गतिविधियों” के लिए हर साल 25,000 हेक्टेयर – 250 वर्ग किमी – वन को सौंप दिया जाता है। किन्तु ये आँकड़े असल तस्वीर को बयां नहीं करते हैं। असल में जंगलों की हानि इससे कहीं अधिक है। इसका अन्दाज़ा भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु के एक अध्ययन से लगाया जा सकता है। जिसके अनुसार पिछले दशक में उत्तरी, मध्य, और दक्षिणी पश्चिमी घाटों में घने वन क्षेत्रों में क्रमशः 2.84 प्रतिशत, 4.38 प्रतिशत तथा 5.77 प्रतिशत की कमी आयी है। दुनिया भर में उष्णकटिबन्धीय जंगलों को 2020 में ख़तरनाक दर से नष्ट कर दिया गया था। भारत ने 2019 और 2020 के बीच उष्णकटिबन्धीय जंगल के लगभग 38.5 हजार हेक्टेयर को खो दिया, जिससे इसके वृक्षों के कवर का लगभग 14 प्रतिशत नुकसान हुआ। इस बीच, भारत में कुल उष्णकटिबन्धीय वन क्षेत्र में 0.38 प्रतिशत की गिरावट आयी है। जबकि, बीते एक दशक की बात करें तो देश में 223 हज़ार हेक्टेयर उष्णकटिबन्धीय वन के नष्ट किये जाने के कारण वन आवरण में 16 प्रतिशत की कमी आयी है।
इण्डिया स्टेट ऑफ़ फ़ॉरेस्ट रिपोर्ट (ISFR) 2019, के मुताबिक़ भारत में कुल वन और वृक्षों का आवरण 8,07,276 वर्ग किलोमीटर है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 24.56 प्रतिशत है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मन्त्रालय के मातहत भारतीय वन सर्वेक्षण 1987 से द्विवार्षिक आधार पर देश के वन और वृक्ष संसाधनों का आकलन कर रहा है। मूल्यांकन के परिणाम आईएसएफ़आर में प्रकाशित होते हैं। आईएसएफ़आर 2017 के अनुसार, कुल वन और वृक्ष आवरण 24.39 प्रतिशत था। यानी 2017 से 2019 के दरम्यान सरकार का दावा है कि 0.17 प्रतिशत क्षेत्रफल पर वन और वृक्ष आवरण की वृद्धि हुई है। अव्वलन, यह आँकड़ा ख़ुद सरकार के तय मानकों से कहीं पीछे है, देश की वन नीति ने कुल भौगोलिक क्षेत्र के पहाड़ी क्षेत्रों में 67 प्रतिशत तथा मैदानी क्षेत्रों में 33 प्रतिशत पर वन और वृक्ष आच्छादन को लक्षित किया है।
दूसरा, एक स्वतन्त्र निकाय के आँकड़े सरकार के पेश किये गये आँकडों से मेल नहीं खाते, अलबत्ता इसके उलट कहानी बयां करते हैं। ‘ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच’, एक विश्वव्यापी मंच है जो ‘विश्व संसाधन संस्थान’ की पहल है, और उसके एक हिस्से के तौर पर वनों की निगरानी तथा विश्व स्तर पर बदलते पैटर्न पर जानकारी प्रदान करता है। इसके मुताबिक़ इस अवधि में देश भर में वृक्षों के आवरण में 0.67 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है।
2020 की शुरुआत मोदी के द्वारा पहले कोरोना महामारी की अनदेखी करने के साथ, फिर उसके बाद मार्च के महीने में आनन-फ़ानन में लॉकडाउन लगाने के साथ हुई। मोदी ने “राष्ट्र के नाम सम्बोधन” के नाम पर एक गुरुमन्त्र दिया, आपदा में अवसर। तमाम चोरों, लुटेरों, मुनाफ़ाखोरों के साथ-साथ मोदी सरकार के उस समय के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मन्त्रालय और मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसका सही तात्पर्य समझा। लॉकडाउन के दरम्यान जब तमाम दफ़्तर और विभाग बन्द थे, तब इसका सही फ़ायदा उठाते हुए गुप-चुप तरीके से, आनन-फ़ानन में की गयी कई बैठकों में, तमाम औपचारिकताओं को ताक पर रखकर, मन्त्री महोदय ने धड़ाधड़ वन और पर्यावरण विरोधी मंजूरियाँ दे डाली। लॉकडाउन में वर्चुअल ढंग से आयोजित की गयी इन बैठकों तथा सरकार के तरीक़े और मंशा पर कई वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों ने सवाल उठाया था। किन्तु पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस के रास्ते में किसी भी क़िस्म की बाधा हटाने के लिए मुस्तैद मोदी सरकार लगातार वन पर्यावरण को नष्ट करने वाले निर्णय और आदेश देती रही। “निर्बाध आर्थिक विकास” के नाम पर असल में पूँजीपति वर्ग के हाथों प्रकृति का अभूतपूर्व दोहन किया जा रहा है।
प्रकाश जावड़ेकर की अध्यक्षता में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ़ की स्थायी समिति की 57वीं बैठक 7 अप्रैल, 2020 को वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से आयोजित की गयी थी। इस बैठक में 15 बाघ अभयारण्यों, अधिसूचित इको-सेंसिटिव जोन, डीम्ड इको-सेंसिटिव जोन और नामित वन्यजीव गलियारों को प्रभावित करने वाले 36 प्रस्तावों के लिए निर्णय और मंजूरी दी गयी। सरकार की हड़बड़ी का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्थायी समिति की बैठक जो अमूमन कम से कम एक दिन की होती थी, उसे महज़ दो घण्टे में निपटा दिया गया। जिन परियोजनाओं को मंजूरी दी गयी उन पर अधिकतम दस मिनट का समय दिया गया। परियोजनाओं के मंजूरी देने से पहले समिति के सामने प्रस्तुत जानकारी के सत्यापन के लिए परियोजना स्थल का दौरा करना, दस्तावेज़ों और रिपोर्टों की वैधानिकता की जाँच करना, परियोजनाओं से प्रभावित लोगों का पक्ष जानना आदि औपचारिकताओं को करना पड़ता है। किन्तु इन सारी औपचारिकताओं को कोई तरज़ीह दिये बिना मंजूरी दी गयी। वस्तुतः वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, जिसके तहत बोर्ड कार्य करता है, में वीडियो कान्फ्रेंसिंग के ज़रिये बैठकों का प्रावधान नहीं है। यही नहीं, पर्यावरण मंजूरी को नियन्त्रित करने वाले किसी भी क़ानून में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के प्रावधान नहीं हैं, बल्कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना के लिए परियोजना रिपोर्ट और मानचित्रों की हार्ड कॉपी अनिवार्य है।
इन परियोजनाओं में अरुणाचल प्रदेश के देबांग की पारिस्थितिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध घाटी में निजी क्षेत्र की एटालिन पनबिजली परियोजना समेत असम में देहिंग पटकाई हाथी रिजर्व में एक कोयला खनन, गोवा में भगवान महावीर वन्यजीव अभयारण्य के बीच से एक राजमार्ग, गिर राष्ट्रीय उद्यान के पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में एक चूना पत्थर की खान, कर्नाटक के शरवती मकाक अभयारण्य में एक भू-तकनीकी जाँच, असम में नुमालीगढ़ तेल रिफाइनरी का तीन गुना विस्तार, तालाबीरा, ओडिशा में कोयला बिजली संयन्त्र, तेलंगाना में अमराबाद बाघ अभयारण्य में यूरेनियम खनन आदि का प्रस्ताव शामिल है। ये प्रस्ताव 15 बाघ अभयारण्यों, अभयारण्यों, पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों, वन्यजीव गलियारों और अन्य वन क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। इनमे से महज़ दस परियोजनाओं के लिए ही दस हज़ार हेक्टेयर जंगल साफ़ किये जायेंगे।
अकेले अरुणाचल प्रदेश के एटालिन परियोजना के लिए क़रीब तीन लाख पेड़ों को काटा जायेगा। यह परियोजना जिसके लिए कम से कम सात वर्ष का अनुमानित समय प्रस्तावित है, वह पूरी देबांग घाटी को तहस-नहस करके रख देगी। जिस भूमि पर यह परियोजना प्रस्तावित है, वहाँ नदी किनारे विकसित प्राचीन जंगल हैं, जिसके काटे जाने की कोई भरपाई नहीं की जा सकती। इस परियोजना का असर अरुणाचल प्रदेश की जैव विविधता पर पड़ेगा। पश्चिमी घाट के जंगल भी संकट में हैं। यहाँ दिसम्बर 2019 में नवगठित राज्य वन्यजीव सलाहकार बोर्ड ने एक ट्रांसमिशन लाइन और एक राजमार्ग विस्तार समेत कई निर्माण परियोजनाओं को प्रस्तावित किया। इनमें से दो परियोजनाएँ – ट्रांसमिशन लाइन और हाईवे, जिसके लिए कम से कम 91 हेक्टेयर जंगल की कटाई की आवश्यकता होगी – को लॉकडाउन के दौरान मंजूरी दे दी गयी थी। ये दोनों परियोजनाएँ भगवान महावीर वन्यजीव अभयारण्य को प्रभावित करेंगे, जो पश्चिमी घाट के बीच में शानदार दूधसागर झरनों और समृद्ध जैव विविधता वाले सदाबहार जंगलों के लिए जाना जाता है। जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने असम के नुमालीगढ़ के तेल रिफाइनरी की चारदीवारी को ध्वस्त करने का आदेश दिया था, क्योंकि यह एक हाथी गलियारे को अवरुद्ध कर रहा था। अब पेश किये गये प्रस्तावों में इसे तीन गुना विस्तार किये जाने की योजना है। ओडिशा के सम्बलपुर ज़िले के तालाबीरा में दिसम्बर 2019 में स्थानीय ग्रामीणों के पुरज़ोर विरोध के बावजूद कोयले की खान के लिए 40,000 पेड़ काटे जा चुके थे। वहाँ नयी योजना के मुताबिक़ खान का विस्तार किया जाना है, और उसके लिए अभी और पेड़ों को काटा जाना है।
ये लुटते-कटते जंगल आम तौर पर पूरी “मानवजाति” की गतिविधि का नतीजा नहीं है। जैसी कि प्रचलित धारणा है, या बनायी जाती है, कि ‘मनुष्य प्रकृति का शत्रु बन बैठा है’ या ‘विकास विनाश के दरवाज़े खोलता है’ आदि कोरी बकवास है। असल में ये जुमले प्रकृति के विनाश के लिए ज़िम्मेदार इस व्यवस्था को कठघरे में खड़े करने से रोकते हैं, और सारा ठीकरा बराबरी से सभी के सर पर फोड़ दिया जाता है। जंगलों, नालों, नदियों आदि का तबाह बर्बाद किया जाना सत्तासीन पूँजीपति वर्ग, और उसके मुनाफ़े की हवस का नतीजा है। जंगल का काटा जाना आम तौर पर सभी के लिए हितकारी नहीं है, बल्कि चन्द मुठ्ठीभर पूँजीपतियों के मुनाफ़े का प्रयोजन है। मुनाफ़ा आधारित पूँजीवादी उत्पादन प्रकृति पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का मूल्यांकन नहीं करता है, उसके पुन:सृजन का कोई उद्यम नहीं करता है। पूँजीवाद प्रकृति का बर्बर दोहन करता है, जिसका खामियाज़ा न सिर्फ आम तौर पर सभी मनुष्यों को बल्कि समस्त प्राणी जगत को भुगतना पड़ता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021

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