यूरोप में छात्रों-नौजवानों और मेहनतकशों का जुझारू प्रदर्शन
कुणाल
पिछले दो महीनों से, यूरोप के विभिन्न शहरों में जनता का गुस्सा सड़कों पर उमड़ रहा है। लाखों की तादाद में मज़दूर-कर्मचारी-नौजवान विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों में हिस्सेदारी कर रहे हैं। कई शहरों में सरकारी दफ्तरों पर हमले हो चुके हैं, उत्पादन ठप्प हुआ है और कई मौकों पर तो पूरा देश ही ठहर गया। हालाँकि इन हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों के मुद्दे अलग-अलग हैं, लेकिन जनता के गुस्से का कारण एक है – सरकारें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में कटौती कर रही हैं, श्रम कानूनों को ढीला कर रही हैं और एक के बाद एक जन-विरोधी नीतियाँ और कानून बना रही हैं और दूसरी तरफ जन-कल्याण के लिए उपयोग किये जाने वाले पैसे से पूँजीपतियों और वित्तीय संस्थानों को बेलआउट पैकेज और कर-माफी दे रही हैं।
वैसे तो भारत के सत्ताधारी भी इन कारनामों में पीछे नहीं हैं लेकिन यूरोप की स्थिति कई मायनों में भारत से भिन्न है और यूरोप में उभरे इन आन्दोलनों को वहाँ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद ही जाना और समझा जा सकता है। बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में उन्नत पूँजीवादी देशों ने तीसरी दुनिया में अपने उपनिवेशों की प्राकृतिक सम्पदा और श्रम की लूट के एक हिस्से से अपने देश के मज़दूरों को तमाम सामाजिक सुरक्षा, रोज़गार सुरक्षा आदि सुविधाएँ देकर ‘जन कल्याण’ का एक ढाँचा खड़ा किया। शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, सीनियर सिटिजन पेंशन आदि जैसी सुविधाँ प्रदान कर इन देशों ने अपने मज़दूर वर्ग के रैडिकलिज़्म को एक हद तक दबा दिया और पूँजीवाद में उनका भरोसा पैदा करवाया। लेकिन पूँजी के नियम से अगर पूँजी को टिकना होता है तो लगातार विस्तृत होते रहना होता है। वैश्विक पैमाने पर भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी के विस्तार की सम्भावनाएँ कम होती गयी हैं। पूँजी जहाँ तक पहुँच सकती थी, पहुँच चुकी है। अब वह सट्टेबाज़ी और वित्तीय पूँजी के बुलबुले को लगातार फुलाते जाने और युद्ध की विभीषिकाएँ पैदा करके किसी तरह अपने अस्तित्व को टिकाये हुए है। लेकिन यह तरीका ही कुछ ऐसा है जिसमें ऐसे बुलबुले फूटते रहते हैं और पूँजी का संकट अपने नग्नतम रूप में उपस्थित होता रहता है। जारी वैश्विक मन्दी भी ऐसा ही एक संकट है। वैश्विक आर्थिक मन्दी के दौर में इन देशों के पास पूँजीवाद को टिकाये रखने का एक ही रास्ता बचा है – जनता को दी गयी सुविधाओं में कटौती करें और इस पैसे को पूँजीपतियों और वित्तीय संस्थानों को भेंट कर दें। लेकिन यूरोप और अमेरिका में दशकों से कल्याणकारी नीतियों का लाभ प्राप्त कर रहे मज़दूर वर्ग और आम जनता से इन अधिकारों को छीन लेना एक बेहद मुश्किल काम साबित हो रहा है। इसीलिए मज़दूरों के अधिकारों पर प्रत्येक हमला, जनता के लिए सड़कों पर उतरने का बुलावा बन जाता है।
सितम्बर और अक्टूबर के महीनों में किसी न किसी प्रमुख यूरोपीय देश में उथल-पुथल का माहौल बना रहा। स्पेन में सामाजिक सुरक्षा के लिए ख़र्च किये जाने वाले फण्ड में कटौती के विरोध में लाखों लोगों ने हड़ताल की। ब्रिटेन की सरकार ने 81 बिलियन पाउण्ड की कटौती और पाँच लाख सरकारी नौकरियों को ख़त्म करने की घोषणा की। इसके विरोध में विभिन्न शहरों में प्रदर्शनों का सिलसिला बना रहा। शिक्षा की मदों में कटौती किये जाने के खि़लाफ छात्रों का आन्दोलन अभी भी जारी है। रोमानिया की राजधानी बुख़ारेस्ट में शिक्षकों ने हड़ताल की। बेल्जियम व जर्मनी में भी रेल कर्मचारी, फैक्ट्री मज़दूर अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर उतरें। लेकिन इन सभी के बीच फ्रांस के मज़दूरों और छात्रों का संघर्ष सबसे ज़बर्दस्त रहा। फ्रांस में विरोध प्रदर्शन और हड़तालें इतनी व्यापक थी कि कई मौकों पर 35 लाख से भी ज़्यादा लोग (फ्रांस की कुल आबादी का 23 फीसदी से भी ज़्यादा) एक साथ सड़कों पर मौजूद थे। इस व्यापक जन-उभार का कारण था – ‘पेंशन रिफार्म बिल’। इस बिल के अनुसार, अब फ्रांसीसी नागरिकों को राज्य द्वारा पूरी पेंशन प्राप्त करने के लिए 60 के बजाय 62 या कुछ पेशों में 67 की उम्र तक काम करना होगा। इस बिल के ज़रिये फ्रांस की सरकार न सिर्फ वृद्धों के लिए बनायी गयी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर होने वाले ख़र्च को कम करेगी, बल्कि वह नौजवानों को रोज़गार देने की जिम्मेदारी से भी बच जायेगी।
पूँजीवादी तकनीकी विकास के साथ जैसे-जैसे उन्नत मशीनें व कम्प्यूटर निर्मित हो रहे हैं और विभिन्न उत्पादन व सेवा-क्षेत्रों में काम अधिक से अधिक स्वचालित हो रहा है, वैसे-वैसे यह लोगों के रोज़गार छिनने का कारण बन रहा है। पूँजीपति मज़दूरों को वेतन देने के बजाय, उन्नत मशीनों व उपकरणों में निवेश कर कम से कम लोगों को काम पर रखकर और ज़्यादा से ज़्यादा उनका श्रम निचोड़कर अपने मुनाफे को बनाये रखना और बढ़ाना चाहते हैं। यह बेरोज़गारी का एक प्रमुख कारण बनता है। इसके ऊपर, अब जब आर्थिक मन्दी के कारण तमाम कारपोरेट घराने व बैंक डूबने की कगार पर खड़े हैं तो ये रहे-सहे लोगों को भी काम से निकाल रहे हैं। यही कारण है कि पिछले पाँच वर्षों के दौरान फ्रांस में युवा बेरोज़गारों की दर 20 फीसदी से बढ़कर 26 फीसदी तक पहुँच गयी है। इस माहौल में ‘पेंशन रिफार्म बिल’ का मतलब होगा कि रोज़गार प्राप्त करने की लाइन में खड़े लगभग दस लाख छात्रों-नौजवानों को रोज़गार प्राप्त करने के लिए कुछ और साल इन्तज़ार करना पड़ेगा। जो छात्र कोई छोटी-मोटी नौकरी कर अपनी उच्चतर शिक्षा का ख़र्च निकालते हैं उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ सकती है। फ्रांस के छात्रों-नौजवानों की आबादी जानती है कि जो व्यवस्था मज़दूरों के अधिकारों पर हमला बोलती है, वही रोज़गार व शिक्षा सम्बन्धी उनकी समस्याओं का कारण है और वह मज़दूरों के किसी भी संघर्ष में बढ़-चढ़कर भागीदारी करने से नहीं चूकते। यह फ्रांस की शानदार परम्परा रही है कि चाहे छात्र आन्दोलन हो, 1995 की देशव्यापी हड़ताल या फिर 2006 में ‘हायर एण्ड फायर’ कानून के खि़लाफ उठा संघर्ष हो – फ्रांस के छात्रों और मज़दूरों ने एकता की कई मिसालें पेश की हैं। ‘पेंशन रिफार्म बिल’ के खि़लाफ हुई देशव्यापी हड़तालों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया है। एक तरफ जहाँ मज़दूर और कर्मचारी फैक्टरियों, रिफाइनरी, रेल सेवाओं आदि को ठप्प कर सड़कों पर उतर रहे थे, वहीं दूसरी ओर एक के बाद एक विश्वविद्यालयों को ख़ाली कर छात्र भी लाखों की संख्या में हड़तालों-प्रदर्शनों में शामिल हो रहे थे।
हालाँकि ये हड़तालें असफल रहीं और फ्रांस की सरकार ने पेंशन रिफार्म बिल को संसद में पास करवाकर कानून बना ही दिया, लेकिन फिर भी यह प्रयास स्वयं फ्रांस की जनता और विश्वभर में पूँजीवाद का विकल्प खोजते नौजवानों को बहुत कुछ सिखा गया। देशव्यापी जन-विरोधों के बावजूद सरकार द्वारा इस बिल को पास करवा दिया गया। इसने जनता के सामने पूँजीवादी जनतन्त्र की पक्षधरता को खोलकर रख दिया है। ‘कल्याणकारी राज्यों’ की सरकारें केवल तब तक ही अपने मज़दूरों के कल्याण का ख़र्चा उठाती हैं, जब तक यह पूँजी के विस्तार या पूँजीपतियों के हितों में कोई बाधा न पैदा करे। इस घटना ने पूँजीवाद पर लोगों का भरोसा कमजोर कर दिया है। लेकिन ध्यान रखने योग्य बात यह है कि आज भी विश्व-पैमाने पर पूँजीवाद विरोधी परिवर्तनवादी मज़दूर आन्दोलन विपर्यय के दौर में हैं। पूँजीवाद ने मीडिया व शिक्षा के ज़रिये व्यापक आबादी के बीच संशोधनवादी विचारों, मज़दूर सत्ताओं के बारे में दुष्प्रचार और तमाम तरह के ‘सुधारवादी’ और सन्त पूँजीवाद को कल्पना के विचारों की धुन्ध की चादर खड़ी कर रखी है। इसके कारण, छात्रों-नौजवानों मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा पूँजीवाद की चौहद्दी के बाहर देख नहीं पा रहा है। फ्रांस के हालात भी कुछ ऐेसे ही हैं। फ्रांस की सभी प्रभावी ट्रेड-यूनियनें मज़दूरों को पूँजीवाद के भीतर ही कुछ रियायतें दिलाने तक सीमित रहती हैं। इस गतिरोध को केवल क्रान्तिकारी विज्ञान से पथ-प्रदर्शित, विचाराधारा से लैस एक पूँजीवाद विरोधी संगठन ही तोड़ सकता है। लेकिन ऐसे किसी क्रान्तिकारी संगठन का उद्भव उन्नत पूँजीवादी देशों में हो, इसकी उम्मीद बहुत कम है। इसका एक कारण यह है कि इन देशों में कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व पैदा हो पाना आज के दौर में मुश्किल है। अधिकांश वाम संगठन जो अधिक से अधिक माँग कर पा रहे हैं, वह एक कल्याणकारी राज्य की माँग। पूँजीवाद के पार सोच पाने की क्षमता से नेतृत्व वंचित हो चुका है। इसके अलावा, अराजकतावादियों, रोमाण्टिक मध्यवर्गीय पर्यावरणवादियों और त्रत्स्कीपन्थियों जैसे लोग हैं, जो प्रदर्शन से आगे कुछ भी कर पाने की क्षमता से महरूम हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश किसी भी प्रकार के संगठन के निर्माण के ही खि़लाफ हैं। वे सीधे राज्यविहीन समानतावादी समाज में प्रवेश कर जाने का सपना देखते हैं और पूरी तरह से स्वतःस्फूर्तता के पूजक हैं। ऐसे किसी प्रतिरोध के उन्नत पूँजीवादी देशों में न खड़ा हो पाने का एक कारण यह भी है कि संकट के दौर में इन राजसत्ताओं का चरित्र ग़ैर-कल्याणकारी होता जा रहा है, लेकिन इनके पास अभी इतनी ताकत है कि आगे वे फिर से अपनी साम्राज्यवादी लूट के बूते अपने कल्याणकारी मुखौटे का ख़र्च उठा सकें। इसलिए अभी ऐसी उम्मीद नहीं पाली जा सकती कि यूरोपीय देशों में, विशेषकर जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों में चल रहे विरोध-प्रदर्शन किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन और क्रान्तिकारी पार्टी निर्माण की ओर जा सकते हैं। निश्चित रूप से ये आन्दोलन पूँजीवादी व्यवस्था के संकट को बढ़ायेंगे और शासकों के लिए सिरदर्द पैदा करेंगे। लेकिन आज भी जिन देशों में जनक्रान्तियों की सम्भावना है वे एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के वे देश हैं जहाँ साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट और शोषण का दबाव सबसे ज़्यादा है। लेकिन हमारे लिए इतना सबक तो ज़रूर है कि हम भारत के छात्रों-नौजवानों को फ्रांस की छात्र-मज़दूर एकता से सीखने की ज़रूरत है और वैचारिक प्रचार-प्रसार और क्रान्ति के विज्ञान को मज़दूरों के बीच स्थापित करने के लिए आगे आने की भी ज़रूरत है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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