अमेरिका के जनतंत्र-प्रेम की हक़ीक़त
कुणाल
विश्व भर में अपने आप को लोकतंत्र का रखवाला बताने वाले और मानव अधिकारों की पहरेदारी का ढोंग रचाने वाले अमेरिका का असली चेहरा अब उभर कर सामने आने लगा है। आज दुनिया भर में अमेरिकी दादागीरी इतने नंगे रूप में सामने आ चुकी है कि ‘अमेरिकी जनतंत्र’ के चेहरे पर पड़े मानवता के नक़ाब को हटाने पर अब कुछ अमेरिकी बुद्धिजीवी व मीडिया भी मजबूर है। हालाँकि, उनका स्वर अमेरिकी ज़्यादतियों के लिए माफ़ी माँगने वाला ज़्यादा, और अमेरिकी साम्राज्यवाद की पुंसत्वपूर्ण ख़िलाफ़त करने वाला कम है।
इराक में तैनात अमेरिकी सेना की ‘बहादुरी’ का विश्व भर में प्रचार करने व अमेरिकी सैनिकों के कठिन परिस्थितियों में ‘गौरवशाली कर्मो’ का ढिंढोरा पीटने वाले नौकरशाहों को तब गहरा झठका लगा जब पिछले दिनों ‘द नेशन’ नामक पत्रिका ने अमेरिकी सेना के कुछ अच्च अधिकारियों के इराक युद्ध के विषय पर इंटरव्यू प्रकाशित किये। इसके जरिये न सिर्फ़ आँखे खोल देने वाले तथ्य सामने आये, बल्कि पूरी अमेरिकी व्यवस्था व इराक में अमेरिकी सेना द्वारा किये गये बर्बर व अमानवीय अत्याचारों का पूरा लेखा-जोखा खुल कर सामने आ गया।
एक अमेरिकी सैनिक के अनुसार यह रिपोर्ट कभी-कभार होने वाले अत्याचारों का वर्णन नहीं बल्कि पुरुषों, महिलाओं व बच्चों के साथ मानसिक व शारीरिक रूप से होने वाले रोज़ाना उत्पीड़नों की पूरी एक श्रृंखला का वर्णन है। यहाँ तक कि सेना के कई अधिकारियों तक ने पूरे युद्ध को निरर्थक और अमानवीय माना है।
ग़ौर करने वाली बात यह है कि अमेरिकी सरकार के इन ‘जनतंत्र-रक्षकों’ ने मीडिया के आगे यह स्वीकार किया कि उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने से लेकर महिलाओं और बच्चों के यौन शोषण तक सभी जुर्म किये हैं और इसके बाद भी यह खुले घूम सकते हैं। सैनिकों ने माना कि उन्होंने हज़ारों बार बेवजह ही निर्दोष लोगों के समूह पर गोलियाँ चलाने के बाद उनकी लाशों के साथ राइफ़र्लें फ़ेंक दीं, जिससे ऐसा ज्ञात हो की ये लोग कोई अमेरिकी विरोधी प्रदर्शन करते या लड़ते हुए मारे गये। एक सैन्य अधिकारी के इस उक्ति पर ग़ौर करें, “हर अच्छा और अक्लमन्द सैनिक अपने साथ एक अतिरिक्त एके 47 राइफ़ल लेकर चलता है। अगर वह किसी निशस्त्र व्यक्ति को मार देता है तो वह उस राइफ़ल को वहां गिरा देता है।“
इस प्रकार का कत्लेआम व बर्बरता सिर्फ़ सड़कों तक ही सीमित नहीं है। इराक में तैनात अमेरीकी सेना का एक बड़ा हिस्सा बेकार है और उसका काम आम जनता को आंतकित करने व उनके घरों में घुस कर अपने वहशीपन का प्रदर्शन करने के सिवाय और कुछ नहीं है। मानवाधिकारों व ‘जनतंत्र’ के स्वयंघोषित संरक्षक अमेरिका के इस नक़ाब को उखाड़ फ़ेंकने के लिए इतने तथ्य पर्याप्त हैं, इसलिए अब ज़रा तथ्यों के पीछे झांक कर देखा जाये।
अमेरिका द्वारा लम्बे समय से इराक़ पर थोपे गये युद्ध का प्रमुख कारण इराक़ का तेल भण्डार और इराक़ के पड़ोसी देशों से प्राकृतिक गैस के भण्डारों को हड़पना है। अमेरिका ऐसा न सिर्फ़ ऊर्जा के संसाधनों को भविष्य में अपने इस्तेमाल के लिए बचाने बल्कि ऊर्जा के संसाधनों के व्यापार के जरिए, आने वाले समय में मुनाफ़ा पीटने व विश्व अर्थव्यवस्था में अपना प्रभुत्व बरकरार रखना भी है। ज्ञात हो कि अमेरिका दुनिया में पेट्रोलियम का सबसे बड़ा उपभोग करता है। विश्व के कुल पेट्रोलयम उपभोग का लगभग एक-तिहाई हिस्से की खपत अकेले अमेरिका ही कर लेता है। उसकी अर्थव्यवस्था तेल पर बुरी तरह निर्भर है। इसके साथ-साथ अमेरिका को इस युद्ध के और भी बहुत से लाभ हैं। पूरे विश्व में लूट-खसोट द्वारा जुटाए गए मुनाफ़े का निवेश (युद्ध निवेश का एक बड़ा माध्यम है) युद्ध में करना हो या फ़िर अपने देश में रोज़गार–विहीन विकास की बजह से बढ़ती बेरोजगारी के गढ्ढे को भरना हो (बेरोजगार नौजवानों को सेना में भर्ती करवा के), अमेरिका ने इराक युद्ध के दौरान, दोनों में अपनी महारत साबित कर दी है।
युद्ध से पूर्व यह अनुमान लगाया गया था की युद्ध में करीब 50 अरब डॉलर की खपत होगी लेकिन अब तक 20,000 अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं जो की प्रमुखतः बेरोजगार और ग़रीब नौजवानों को सेना में भर्ती होने के लिए दिया गया बोनस है। एक बेहतर जिन्दगी का सपना दिखा इन नौजवानों को अमानवीकृत कर दिया जाता है और अमेरिका की बर्बर, हत्यारी एवं बलात्कारी सेना का हिस्सा बनने भेज दिया जाता है। यही सेना कभी वियतनाम, कभी कोरिया, कभी अमेरिकी महाद्वीप (क्यूबा, पेरू, चिली) तो कभी इराक़ में अमेरिकी जनतंत्र का झंडा फ़हराने पहुँच जाती है, जिसके तले मानव इतिहास के काले पन्ने लिखे जाते हैं।
अमेरिका के पास चाहे जितनी भी उन्नत युद्ध तकनोलॉजी और हथियार हों, बार-बार यह साबित हुआ है कि जहाँ भी वह जनता की ताक़तों से सीधे उलझा है, वहाँ उसे मुँह की खानी पड़ी है। वियतनाम का उदाहरण बार-बार दिया ही जाता है लेकिन वह एकमात्र उदाहरण नहीं है। वियतनाम में तो उसे सबसे शर्मनाक पराजय का मुँह देखना पड़ा था। इसके अतिरिक्त, उसे उत्तर कोरिया में भी पराजय का मुँह देखना पड़ा था, हाल हीं में लेबनान में अमेरिकी समर्थित इज़रायली गुण्डों की भी लेबनान की जनता ने अच्छी तरह ख़बर ली। इराक़ में भी एक के बाद एक मोर्चों पर अमेरिकी सेना को छापामार योद्धाओं से भारी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन साथ ही इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि पीछे हटते अमेरिकी लुटेरे हमेशा निहत्थी जनता पर अपने बर्बर पौरुष और “वीरता” का प्रदर्शन करते हैं और सबसे जघन्य किस्म के नरसंहारों को अंजाम देते हैं। ऐसा इन साम्राज्यवादी कायरों ने वियतनाम में भी किया, कोरिया में भी, लेबनान में भी और इराक़ में भी वे ऐसा ही कर रहे हैं। इन साम्राज्यवादियों के साथ इंसाफ़ करने का काम इस दुनिया की मेहनतक़श जनता करेगी और इस धरती पर गिरे हर खून के कतरे का हिसाब इनसे गिन–गिनकर लिया जाएगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
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