खुशवंत सिंह — एक सच्चा जनशत्रु
सत्यव्रत
कुछ दिनों पूर्व जर्मनी में न्यूरेम्बर्ग के निकट एरलांगन शहर में सम्पन्न “इण्टरलिट-3” (यानी “इण्टरनेशनल लिटरेचर” नामक संस्था का तीसरा अधिवेशन) नामक एक आयोजन में प्यूर्टो रिको, जमैका, ब्राजील और मेक्सिको से लेकर नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत, इण्डोनेशिया, मलयेशिया आदि तीसरी दुनिया के देशों के कुछ महत्वपूर्ण लेखकों ने हिस्सा लिया। भारत से इस आयोजन में अंग्रेज़ी पत्रकार-लेखक खुशवंत सिंह और हिन्दी लेखिका मृदुला गर्ग ने हिस्सा लिया।
कहानी-पाठ और साहित्य-चर्चा के बाद अधिवेशन के दूसरे सत्र में चर्चा का विषय था — “नये महानगर”। विभिन्न लातिनी अमेरिकी और अफ्रीकी लेखकों ने अपने देशों में विकासमान महानगरों की संस्कृति तथा आम लोगों के जीवन और लेखकों की सर्जनात्मकता पर पड़ने वाले महानगरों के सकारात्मक-नकारात्मक प्रभावों की चर्चा की। पर इस विषय पर खुशवंत सिंह ने जो विचार रखे, वे न केवल भारतीय “ब्राउन साहबों” की नवऔपनिवेशिक मानसिकता और बौद्धिक दिवालियेपन को उजागर करते हैं, बल्कि अश्लील चुटकुलों, फूहड़ संस्मरणों और व्यभिचारी जीवन के इस सरदार के जनद्रोही, फासिस्ट विचारों को भी एकदम उघाड़कर रख देते हैं। “सण्डेमेल”(8–24 जुलाई, 1993) में प्रकाशित डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय की रिपोर्ट के अनुसार खुशवंत सिंह ने उक्त गोष्ठी में जो कुछ भी फरमाया, उसे हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं।
“मैं दिल्ली से प्यार करता हूँ और नफ़रत भी। और जब यह नफ़रत बढ़ जाती है तो मैं पहाड़ों पर चला जाता हूँ। दिल्ली से दूर और पास के गाँवों से लोग उमड़ते चले आ रहे हैं। दिल्ली शहर एक बड़ा गाँव बन गया है। ऐसे लोगों का गाँव जिनको “फ्लश टॉयलेट” के इस्तेमाल की न तो तमीज़ है और न आदत। वे इस शहर में भी झाड़ी और खेत की तलाश में सारे शहर को गंदा करते फिरते हैं। एक कोई “सेलेक्टिव एपिडेमिक” आ जाये तो ही इस शहर का उद्धार हो सकता है। इससे भी ज़्यादा कारगर उपाय तो यह हो सकता है कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में युद्ध शुरू हो जाये और दोनों परमाणु बमों का इस्तेमाल करके इसे ध्वस्त कर दें।”
यह है इस फूहड़, उच्छृंखल, असभ्य, आवारा, बूढ़े जनशत्रु का फासिस्ट विचारों की सड़ांध से बजबजाता दिमाग, जहाँ समाज के मज़लूमों, दबे-कुचले, मजबूर, बदहाल लोगों के प्रति नफ़रत का सैलाब हिलोरें मार रहा है। इस नफ़रत की तुलना रोमन दासों के प्रति दास-स्वामियों की घृणा से, अश्वेत और लातिनी गुलामों से उपनिवेशवादियों की घृणा से ही की जा सकती है। इस घृणा का आवेग इतना प्रबल और विवश कर देने वाला है कि खुशवंत सिंह इसे छिपाने की कोई चेष्टा नहीं करते। वे खुले शब्दों में, ऐसी किसी महामारी की कामना करते हैं जो दिल्ली को गन्दा और बदसूरत बनाने वाले “गँवार” और “असभ्य” लोगों को ही छाँटकर अपना शिकार बनाये। इससे भी बेहतर वे यह मानते हैं कि उन्हें परमाणु बम से नेस्तानाबूद कर दिया जाये। दिल्ली ऐसे लोगों से भर जाये, इससे बेहतर खुशवंत सिंह यह मानते हैं कि दिल्ली तबाह हो जाये।
मुझे याद आ रहा है, कुछ वर्षों पहले एक अंग्रेज़ी समाचारपत्र में प्रकाशित अपनी टिप्पणी में भी खुशवंत सिंह ने हूबहू ऐसे ही विचार प्रकट किये थे। झुग्गी-झोपड़ियों के रूप में खूबसूरत दिल्ली के चेहरे पर चस्पा “बदनुमा दागों” के प्रति गहरी चिन्ता प्रकट करते हुए उन्होंने इन सबको उजाड़कर इनमें रहने वालों को दिल्ली से बाहर कर देने का और ऐसे लोगों के दिल्ली आने का सिलसिला एकदम रोक देने का सुझाव दिया था। सही बात है! शाम को हाथ में शैम्पेन या “शिवाज़ रीगल” का गिलास थामे जब वे अपने भव्य अध्ययन कक्ष का रेशमी परदा सरकाते होंगे तो नीचे दूर-दूर तक फैली झुग्गियों में बिलबिलाती ज़िन्दगी का मंज़र उनके अच्छे-खासे मूड का सत्यानाश कर देता होगा।
लेकिन खुशवंत सिंह जी, ज़रा यह तो बताइये, यदि इन गरीब कमेरों की पूरी आबादी किसी महामारी या परमाणु बम से तबाह हो जायेगी या उन्हें दिल्ली की चौहद्दी से धक्के मारकर बाहर कर दिया जायेगा, तो आपके कपड़े कौन धोयेगा, कार कौन चलायेगा, कौन उसकी मरम्मत और सफ़ाई करेगा, कौन आपका बावर्चीख़ाना सम्हालेगा, होटलों-क्लबों में कौन आपकी ख़िदमत करेगा? और जनाब, दिल्ली के सबसे खूबसूरत इलाकों में आप जैसों के आरामगाहों और विलासगृहों का निर्माण भी तो यही गन्दे-असभ्य मज़दूर करते हैं।सड़कें यही बनाते हैं। आपकी गन्दगी भी यही साफ़ करते हैं। खुद कूड़ेदान जैसे घरों में रहते हुए पूरे शहर का कूड़ा यही साफ़ करते हैं। आपके शहर और दफ़्तरों का काम चलाने के लिये बाबू तबके की जो लाखों की आबादी है, उसके लिये ठेले लगाने, रिक्शा, आटो रिक्शा और बस चलाने वाले भी तो गाँवों से आकर दिल्ली को “गन्दा” करने वाले यही लोग हैं।
खुशवंत सिंह, स्वार्थी होने के साथ ही क्या आप अव्वल दर्जे के अहमक और परले दर्जे के बेवक़ूफ़ भी हैं? जिस डाल को आप काट डालना चाहते हैं, उसी पर तो आप विराजमान भी हैं। आप यह क्यों नहीं सोचते कि नर्क की ज़िन्दगी जीने वालों ने ही आपका स्वर्ग सजाया है। आपकी ज़िन्दगी और उनकी ज़िन्दगी एक ही सामाजिक ढाँचे के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व मुमकिन ही नहीं। पीड़ा-व्यथा और आँसुओं के अथाह समुद्र में ही समृद्धि के मूँगा-द्वीप निर्मित होते हैं। जिन पर विलासिता की स्वर्णमण्डित मीनारें खड़ी होती हैं। खुशवंत सिंह यदि खुद ही पूँजीपति होते तो एकदम से ऐसी बातें नहीं करते। पर वे तो पूँजीपति के टट्टू हैं, भाड़े के कलमघसीट हैं। इसीलिये उन्हें पूँजीवाद की सारी खुशियाँ तो चाहिए, पर उन खुशियों को रचने की शर्त मंज़ूर नहीं। उन्हें पूँजीवाद द्वारा उत्पादित आवश्यकता और विलासिता की सारी चीज़ें चाहिए, पर उसी के द्वारा पैदा किये गये आबादी के बहुलांश के अभिशप्त, नारकीय जीवन को वे देखना भी नहीं चाहते। वे चाहते हैं, ये सभी लोग उनकी सुख-सुविधा का सारा इंतज़ाम करके रोज़ अपने-अपने गाँव को वापस लौट जायें, उनकी नज़रों से दूर हो जायें।
शायद खुशवंत सिंह जी यह फर्मायें कि शहरों में गाँवों से उतनी ही आबादी आये जितने की ज़रूरत हो।
फालतू आदमी एक भी नहीं। मगर, यह तो उनके चचा अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री लोग भी स्वीकार करते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन और विकास इतना संगठित और सुनियोजित कभी नहीं हो सकता। पूँजीवाद के संगठन का ही दूसरा पक्ष उसकी अंतर्निहित अराजकता भी है। गाँवों में सामन्ती भूमि-सम्बन्धों पर जब पूँजी की सत्ता का हमला होगा, वहाँ की ज़िन्दगी में माल-उत्पादन और मुनाफ़े का ज़हर जब घुलेगा, तो किसान आबादी का विभेदीकरण भी होगी ही, मध्यम और छोटे किसानों के एक बड़े हिस्से का सर्वहाराकरण होगी ही। कृषि में पूँजी और मशीनों का प्रवेश एक भारी आबादी को फालतू बनाकर रोटी-रोटी के लिये मुहताज़ बनायेगा ही और फिर वे तमाम लोग शहरों में आकर कारखानों में काम करने या छोटे-मोटे धन्धे करने को ही विवश होंगे। पूँजीवाद भारत में यह पहली बार नहीं कर रहा है। विगत दो सौ वर्षों से वह यही करता आ रहा है। यह जगज़ाहिर और सर्वमान्य बात है कि पूँजी आबादी के बड़े हिस्से को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़कर सड़कों के किनारे मरने के लिए आज़ाद कर देती है। यही लोग आज के वे उज़रती गुलाम हैं, जिनके असंस्कृत होने की कीमत पर खुशवंत सिंह जैसे लोग सुसंस्कृत बने रह पाते हैं।
खुशवंत सिंह जी, आपको शिकायत है कि इन गँवारों को “फ्लश टॉयलेट” का इस्तेमाल तक नहीं आता और ये सारे शहर को गन्दा कर रहे हैं। मगर यह तो बताइये, इतनी बड़ी आबादी के लिए क्या आपके नगर के प्रबन्धक लोग शौचालय की सुविधा मुहैया करा रहे हैं? या करायेंगे?सुलभ शौचालयों में चुकायी जाने वाली पचास पैसे की रकम भी इन लोगों के लिए बड़ी रकम है। यदि दिल्ली के तमाम मंत्रियों, अफ़सरों, प्रोफेसरों, पत्रकारों, व्यवसायियों और उद्योगपतियों के बंगलों और सभी होटलों-क्लबों के शौचालयों को सार्वजनिक कर दिया जाये, तो शायद इस समस्या का समाधान हो जाय। एक बात बताइये खुशवंत सिंह जी, यदि इन सभी “असभ्य” लोगों को “फ्लश टॉयलेट” का इस्तेमाल सिखा देने की गारंटी दे दी जाये, तो क्या आप अपने शौचालय का इन्हें इस्तेमाल करने देंगे? नहीं! तब तो आपकी आत्मा डॉ. जिवागो से भी अधिक दुखी स्वर में कांय-कांय कर उठेगी।
खुशवंत सिंह जी, गन्दगी और असभ्यता किसी का शौक नहीं। वह सिर्फ़ विवशता ही हो सकती है। यह आपका कथित जनतांत्रिक समाज, साफ़-साफ़ कहें कि यह आपका पूँजीवादी समाज ही है, जिसकी उत्पादन प्रणाली ने सभी उत्पादकों को उनके श्रम के उत्पाद से, कला-साहित्य-संस्कृति से, सभ्यता से, ज़िन्दगी की नैसर्गिक ज़रूरतों से काटकर अलग कर दिया है, बेगाना बना दिया है और रसातल की ज़िन्दगी जीने को मजबूर कर दिया है। दुनिया का इतिहास गवाह है, सामाजिक क्रान्तियों ने जब भी उन्हें पूँजी की दास्ता से मुक्ति दिलाकर थोड़ा अवसर दिया है, उन्होंने अपने को बुर्जुआ विलासियों से बहुत अधिक सुसंस्कृत, सुरुचिसम्पन्न और सौन्दर्याभिरुचि-सम्पन्न सिद्ध किया है।
यह स्वाभाविक है कि खुशवंत सिंह संजय गाँधी के बहुत बड़े प्रशंसक रहे हैं, जिसने सुन्दरीकरण के नाम पर दिल्ली और देश के बहुत सारे महानगरों के लाखों मेहनतकशों-गरीबों को उजाड़ डाला था। उसकी फासिस्ट राजनीति भी जगज़ाहिर थी। यह भी स्वाभाविक है कि वे मेनका गाँधी के भी प्रशंसक हैं, जो अभिजन-समाज की पर्यावरण-चिन्ता की एक प्रतीक हैं। सबसे बड़ा प्रदूषण तो खुशवंत सिंह जैसे लोग आम गरीबों को समझते हैं। पर इस “प्रदूषण” को खत्म कर पाना भी पूँजीवाद के बस के बाहर है, क्योंकि इसी पर उसका अस्तित्व टिका हुआ है।
बहरहाल, महामारी और परमाणु बम से महानगरों की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को तबाह कर देने के हृदयोद्गार प्रकट करके खुशवंत सिंह ने यह तो बता ही दिया कि यदि संभव होता तो वे इन लोगों के साथ क्या सलूक करते। जो लोग इस नरसंहारक प्रवृति वाले “प्रबुद्ध जनतांत्रिक” व्यक्ति के प्रशंसक या समर्थक हैं, वही लोग समाजवादी सरकारों पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि वे बुद्धिजीवियों पर ज़ुल्म करती थीं, उन्हें अपने विचारों को बदलने के लिए शारीरिक श्रम करने को बाध्य करती थीं, श्रम शिविरों में या गाँवों में भेज देती थीं आदि-आदि। लेकिन गरीब जनता को महामारी या परमाणु बम से नष्ट कर देने की कामना करने वाले किसी बुद्धिजीवी को जनता की कोई सत्ता गोली से उड़ा देने या फाँसी पर लटका देने या मानसिक चिकित्सालय में दाखिल कर देने की जगह यदि सिर्फ़ कारखाने या खेत में उत्पादन के काम में लगाकर अपनी दिमागी हालत सुधारने का निर्देश देती है, तो भला इससे बड़ी उदारता और हृदय की विशालता और क्या हो सकती है?
जर्मनी के जिस एरलांगन शहर में हुई गोष्ठी में खुशवंत सिंह ने अपने उपरोक्त विचार रखे, उसी के एकदम पास में न्यूरेम्बर्ग नगर है, जहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नात्सियों पर विश्वविख्यात “न्यूरेम्बर्ग मुकदमा” चला था। उस मुकदमे के अभियुक्तों को श्रद्धांजलि देने के लिए खुशवंत सिंह को न्यूरेम्बर्ग ज़रूर जाना चाहिए था।
‘आह्वान कैंपस टाइम्स’, 1–15 सितम्बर, 1993
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