गजानन माधव मुक्तिबोध की पुण्यतिथि (11 सितम्बर) के अवसर पर दो कवितांश
अब तक क्या किया
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात–से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दागों को तमगों–सा पहना
अपने ही ख़्यालों में दिन–रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस–किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत–बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत–बहुत कम,
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम!!
लोक–हित–पिता को घर से निकाल दिया,
जन–मन–करुणा–सी माँ को हँकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य–त्याग दिये,
हृदय के मन्तव्य-मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत–बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम….
(‘अँधेरे में कविता का एक अंश)
मेरे लोग
जिन्दगी की कोख में जन्मा
नया इस्पात
किसी के ख़ून में रँगकर ।
तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव–देह धारण कर
असंख्य स्त्री–पुरुष–बालक
बने, जग में, भटकते हैं,
कहीं जनमे
नये इस्पात को पाने ।
झुलसते जा रहे हैं आग में
या मुँद रहे हैं धूल–धक्कड़ में,
किसी की खोज है उनको,
किसी के नेतृत्च की ।
(‘मेरे लोग’ कविता का एक अंश)
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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