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महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का रियैलिटी शो

बड़जात्या परिवार की ड्रामा फ़िल्मों से भी ज़्यादा ड्रामा दिखलाने के बाद, अन्ततः भाजपा अपने नैसर्गिक साथी शिवसेना को सरकार में शामिल कर चुकी है, हालाँकि बड़जात्या परिवार की ड्रामा फ़िल्मों में आमतौर पर गोद लिये छोटे भाइयों की परिवार में जो गत बनती है, इस गठबन्धन में शिवसेना की भी वही गत बनी है! लेकिन इस ड्रामे के बीच यह ख़बर भी उड़ी थी कि शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी साथ मिलकर सरकार बना सकती हैं; इस तरह की फुसफुसाहट भी सुनायी देती है कि कर्नाटक के ‘ऑपरेशन लोटस’ की तरह यहाँ भी अन्य पार्टियों के विधायकों को ख़रीदकर (इस्तीफ़ा दिलवाकर और फिर अपनी सीटों पर लड़ाकर) भाजपा सरकार चला सकती है! महाराष्ट्र में हुए चुनावी तमाशे ने एक बार फिर साफ़ कर दिया है कि पूँजीवादी चुनावी राजनीति में उसूल, ईमान, अवामपरस्ती जैसी कोई चीज़़ नहीं है! यह केवल किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने और पूँजीपति वर्ग की सबसे बेहतरीन ‘मैनेजिंग कमेटी’ साबित होने की अन्धी प्रतिस्पर्द्धा है।

तीन राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव: तैयारियाँ, जोड़-तोड़ और सम्भावनाएँ

भाजपा अगले पाँच वर्षों में, पहले लोकलुभावन नारों-वायदों की लहर के सहारे और फिर हिन्दुत्व और अन्धराष्ट्रवाद के कार्डों के सहारे देश के ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों की सत्ता पर काबिज़ होना चाहती है ताकि नवउदारवादी एजेण्डा को अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। इस आर्थिक एजेण्डा के साथ-साथ निरंकुश दमन तथा साम्प्रदायिक विभाजन, मारकाट तथा शिक्षा और संस्कृतिकरण के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट एजेण्डा का भी अमल में आना लाजिमी है। इसका मुकाबला बुर्जुआ संसदीय चुनावों की चौहद्दी में सम्भव ही नहीं। मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता तथा मध्यवर्ग के रैडिकल प्रगतिशील हिस्से की जुझारू एकजुटता ही इसका मुकाबला कर सकती है। फासीवाद अपनी हर सूरत में एक धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। एक क्रान्तिकारी प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन ही उसका कारगर मुकाबला कर सकता है और अन्ततोगत्वा उसे शिकस्त दे सकता है।

भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव: किसका, किसके लिए और किसके द्वारा

भारत के “स्‍वर्णिम” चुनावी इतिहास में मौजूदा चुनाव ने पैसा ख़र्च करने के मामले में चार चाँद लगा दिये हैं। भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे महँगा चुनाव है। यदि ख़र्च होने वाले काले धन को भी जोड़ दिया जाये तो अमेरिका क्या पूरी दुनिया के चुनावों के कुल ख़र्च को भी हमारा भारत देश टक्कर दे सकता है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र जो ठहरा! सिर्फ़ धन ख़र्च करने और काले धन की खपत करने के मामले में ही नहीं बल्कि झूठे नारे देकर, झूठे वायदे करके जनता को कैसे उल्लू बनाया जाये, जाति-धर्म के झगड़े-दंगे कराकर ख़ून की बारिश में वोट की फ़सल कैसे काटी जाये, जनता-जनता जपकर पूँजीपतियों का पट्टा गले में डलवाने में कैसे प्रतिस्पर्धा की जाये, इन सभी मामलों में भी भारतीय नेतागण विदेशी नेताओं को कोचिंग देने की कूव्वत रखते हैं!

चुनाव मैच रेफ़री की किसने सुनी!

जनता के सामने एकदम ‘सजग व सक्रिय’ दिखने का ढोंग करने वाला चुनाव आयोग प्रतिबन्धित क्षेत्रों में चुनाव सामग्री बँटवाने, मतदाताओं को पैसा व शराब बँटवाने, समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ बयान देने, धार्मिक उन्माद फैलाने व आदर्श चुनाव आचार संहिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करने आदि को रोक तो नहीं पाया (वैसे रोकने की इनकी कोई चाहत भी नहीं थी), हाँ, लेकिन हाथ में आदर्श चुनाव आचार संहिता का दिखावटी चाबुक लिये आयोग तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के नेताओं को आचार संहिता के उल्लंघन पर नोटिस देता ज़रूर नज़र आया। जैसाकि इस बार अमित शाह, वसुन्धरा राजे व आजम खाँ के भड़काऊ भाषणों पर नोटिस हो या ममता बनर्जी का आयोग की बात न मानने पर नोटिस हो आदि। ये नोटिस चुनाव आयोग के दफ़्तर से अपना सफ़र शुरु करते हैं और इन नेताओं के कचरे के डिब्बे में ख़त्म! यही इनकी मंज़िल होती ही है। अगर एक-दो कार्रवाई की भी जाती है तो वह भी ज़रूरी है वरना जनता के सामने इन चुनावों को “स्‍वतन्त्र व निष्पक्ष” कैसे घोषित किया जायेगा।

देशभर में चलाया गया चुनाव भण्डाफ़ोड़ अभियान

एक बार फिर चुनावी महानौटंकी का शोर मचा हुआ है। मतदान के “पवित्र अधिकार” का प्रयोग करने के वास्ते प्रेरित करने के लिए सरकारी तन्त्र से लेकर निजी कम्पनियों तक ने पूरी ताक़त झोंक दी है, पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है, ताकि लोकतन्त्र के नाम पर 62 वर्ष से जारी स्वाँग से ऊबी हुई जनता को फिर से झूठी उम्मीद दिलायी जा सके। लेकिन हमारे पास चुनने के लिए आख़ि‍र है क्या? झूठे आश्वासनों और गाली-गलौच की गन्दी धूल के नीचे असली मुद्दे दब चुके हैं। 16वीं लोकसभा का चुनाव देश का अब तक का सबसे महँगा और ख़र्चीला चुनाव (लगभग 30000 करोड़ रुपये) होने जा रहा है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा काले धन का लगा हुआ है। इस धमा-चौकड़ी के बीच बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन, जागरूक नागरिक मंच, स्त्री मज़दूर संगठन और स्त्री मुक्ति लीग देश के कई राज्यों के विभिन्न शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में चुनावी राजनीति का भण्डाफोड़ अभियान चलाकर लोगों को यह बता रहे हैं कि वर्तमान संसदीय ढाँचे के भीतर देश की समस्याओं का हल तलाशना एक मृगमरीचिका है। वैसे भी चुनाव कोई भी जीते, जनता हमेशा हारती ही है।

देश में नये फासीवादी उभार की तैयारी

इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ मानवतावादी अपीलों और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुकाबला न तो किया जा सका है और न ही किया जा सकता है। फ़ासीवादी ताकतों और फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा करके जनता के बीच लाना होगा और जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी। फ़ासीवाद का मुकाबला हमेशा मज़दूर वर्ग ने किया है। क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग को उनकी आर्थिक माँगों पर तो संगठित करना ही होगा, साथ ही उनके सामने इस पूरी व्यवस्था की सच्चाई को बेपर्द करना होगा और राजनीतिक तौर पर उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। हम अपनी आँखों के सामने नये सिरे से फासीवादी उभार देख रहे हैं। न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पूँजीवादी संकट के इस दौर में यूनान, पुर्तगाल, फ्रांस और स्पेन से लेकर अमेरिका और इंग्लैण्ड तक में। हमारे देश में यह उभार शायद सर्वाधिक वर्चस्वकारी और ताक़तवर ढंग से आ रहा है। जनता के बीच शासन से मोहभंग की स्थिति को पूरी व्यवस्था से मोहभंग में तब्दील किया जा सकता है और हमें करना ही होगा। मौजूदा संकट ने जो दोहरी सम्भावना (क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी) पैदा की है, उसका लाभ उठाने में क्रान्तिकारी ताक़तें फिलहाल बहुत पीछे हैं, जबकि फासीवादी ताक़तें योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही हैं। हमें अभी इसी वक़्त इस स्थिति से निपटने की तैयारी युद्धस्तर पर करनी होगी, नहीं तो बहुत देर हो जायेगी।

चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे और भावी फासीवादी उभार की आहटें

फासीवादी उभार हमेशा ही किसी न किसी किस्म के ‘फ़्हूरर’ या ‘ड्यूस’ के कल्ट पर सवार होकर आता है। भारत में यह कल्ट ‘नमो नमः’ के नारे पर सवार होकर आ रहा है। मुम्बई में एक रईसों के होटल ने मोदी की मोम की प्रतिमा का अनावरण मोदी द्वारा ही करवाया है। इसी प्रकार की कवायदें मोदी समर्थक देश भर में कर रहे हैं। ‘फ़्यूहरर’ कल्ट का भारतीय संस्करण हमारे सामने है। निश्चित तौर पर यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि चार विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा चुनावों के नतीजों में परिवर्तित हो जायेंगे। लेकिन उतने ही ज़ोर के साथ यह भी कहा जा सकता है कि इस सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जर्मनी या इटली की तरह भारत में फासीवादी उभार होगा, इसकी सम्भावना कम है। वास्तव में, उस प्रकार का फासीवादी उभार भूमण्डलीकरण के दौर में कहीं भी सम्भव नहीं है। इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। लेकिन एक नये रूप में, नये कलर-फ़्लेवर में दुनिया के कई देशों में अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ फासीवादी ताक़तें सिर उठा रही हैं।

‘‘दबंग’’ से बदरंग होते मतदाता

मौजूदा निगम चुनाव में उम्मीदवारों को देखकर साफ़ पता चलता है कि वह किसी व्यवसाय में पैसा लगा रहे हैं। वैसे तो असलियत पहले भी यही थी पर इस पर पड़े बचे-खुचे भ्रम के परदे भी हर चुनाव के साथ उतर रहे हैं। इस निगम चुनाव में टिकट बँटवारे के समय जो घमासान मचा उसमें पैसे का बोल-बाला साफ तौर पर नज़र आया। यूँ तो चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च की सीमा 4 लाख रुपये तय की थी लेकिन उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार से पहले ही 40 से 80 लाख रुपये तो टिकट पाने में ही ख़र्च कर दिये! बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये तमाम धनपति ‘जन-सेवा’ के लिए यह भारी-भरकम निवेश नहीं कर रहे हैं, बल्कि ‘धन-मेवा’ पाने के लालच में पसीना बहा रहे हैं! जाहिरा तौर पर ये लोग जीतते ही अपनी रकम को दोगुना, तिगुना करने में लगेंगे न कि अपने इलाके के विकास पर ध्यान देंगे जिसका ताज़ा उदाहरण पिछले पाँच साल रहे निगम पार्षदों की सम्पत्ति को देखकर समझा जा सकता है! इसमें भाजपा के 26 पार्षद ऐसे हैं जो लखपति से करोड़पति हो गये!

चुनावी घमासान और विकल्पहीनता का चुनाव

अब इन काठ के उल्लुओं को कौन समझाये कि ‘जहाँ कूपै में भाँग पड़ी है’ यानी कि जहाँ सारे चोर हैं और उनमें से ही किसी एक को चुनना है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि उन्हें एक वोट से चुना जाता है या फिर सौ वोट से! या साँपनाथ और नागनाथ के चुनाव में चाहे ‘कुछ’ ले के ‘‘अमूल्य वोट’’ दिया जाय या फिर बिना ‘कुछ’ लिए, डसी तो जनता ही जायेगी! जनता सब जानती है। वह जानती है कि चुनाव के समय तो इस ‘‘अमूल्य वोट’’ से कुछ पाया जा सकता है जबकि चुनाव के बाद तो ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ के दर्शन निराकार ब्रह्म की तरह दुर्लभ हो जायेंगे। परन्तु ये काठ के उल्लू कितना ख़्याल रखते हैं ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ का, उनके टेंटे से ‘कुछ’ भी निकलने ही देना नहीं चाहते। इनका वह ईमानदार प्रत्याशी अमूर्त होता है। इनके ईमानदार नेता को चुनने की बात सुनकर जनता भी ‘कन्‍फ्यूज’ हो जाती है कि वह कहाँ ठप्पा मारे कि सीधे ‘‘ईमानदार’’ को जा लगे और वह अपना अमूर्त रूप छोड़कर साकार हो उठे!

‘‘स्‍वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’’ की असलियत

पूँजीवादी जनतन्त्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक रेफरी की ही होती है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं उसके चलते ग़रीब मेहनतकश जनता तो इस खेल में खिलाड़ी के रूप में शामिल हो ही नहीं सकती है (और उसे इस खेल में शामिल होने की कोई दरकार भी नहीं है!)। वह इस खेल में महज़ एक मोहरा या अधिक से अधिक मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे रेफरी के बतौर चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि खिलाड़ी ‘फाउल’ न खेले जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मोहरे बिदक न जायें। पिछले कई चुनावों से इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘फाउल’ खेलकर ही जीतने की होड़ मची हुई है। इसलिए चुनाव आयोग अति सजग और सक्रिय होने की कोशिश करता है। उसकी चिन्ता रहती है कि कहीं सारा खेल ही चौपट न हो जाये। एक बार अगर यह मान भी लिया जाये कि यह चुनाव वाकई स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो जाए तो भी सच्चे मायनों में आम जनता के जनप्रतिनिधि का चुनाव नहीं हो सकता। जिन चुनावों में एक आम आदमी चुनाव में खड़ा होने की हैसियत ही न रखता हो; जहाँ चुनाव में कोई नेता एक बार चुने जाने के बाद जनता का विश्वास खोने पर भी पाँच साल के लिए जनता की छाती पर मूंग दलने के लिए आज़ाद हो; जहाँ विशालकाय निर्वाचक मण्डलों में होने वाले चुनाव अपने आपमें करोड़ों रुपये के निवेश वाला व्यवसाय बन जाते हों, जो कि सिर्फ पूँजी के दम पर लड़े जा सकते हों; जहाँ जनतन्त्र धनतन्त्र पर टिका हो; जहाँ समाज की अस्सी फीसदी आबादी भयंकर ग़रीबी में जीती हो; वहाँ चुनाव प्रणाली को स्वतंत्र; और निष्पक्ष कहा ही नहीं जा सकता है।