देशभर में चलाया गया चुनाव भण्डाफ़ोड़ अभियान
एक बार फिर चुनावी महानौटंकी का शोर मचा हुआ है। मतदान के “पवित्र अधिकार” का प्रयोग करने के वास्ते प्रेरित करने के लिए सरकारी तन्त्र से लेकर निजी कम्पनियों तक ने पूरी ताक़त झोंक दी है, पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है, ताकि लोकतन्त्र के नाम पर 62 वर्ष से जारी स्वाँग से ऊबी हुई जनता को फिर से झूठी उम्मीद दिलायी जा सके। लेकिन हमारे पास चुनने के लिए आख़िर है क्या? झूठे आश्वासनों और गाली-गलौच की गन्दी धूल के नीचे असली मुद्दे दब चुके हैं। 16वीं लोकसभा का चुनाव देश का अब तक का सबसे महँगा और ख़र्चीला चुनाव (लगभग 30000 करोड़ रुपये) होने जा रहा है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा काले धन का लगा हुआ है। इस धमा-चौकड़ी के बीच बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन, जागरूक नागरिक मंच, स्त्री मज़दूर संगठन और स्त्री मुक्ति लीग देश के कई राज्यों के विभिन्न शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में चुनावी राजनीति का भण्डाफोड़ अभियान चलाकर लोगों को यह बता रहे हैं कि वर्तमान संसदीय ढाँचे के भीतर देश की समस्याओं का हल तलाशना एक मृगमरीचिका है। वैसे भी चुनाव कोई भी जीते, जनता हमेशा हारती ही है। मेहनतकशों की लूट बदस्तूर जारी रहेगी। इसलिए ऊपर से नीचे तक सड़ चुकी इस आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त कर बराबरी और न्याय पर टिका नया हिन्दुस्तान बनाने के लिए आम अवाम को संगठित करके एक नया क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करना ही एकमात्र रास्ता है। यह अभियान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के पीरागढ़ी, नांगलोई, मंगोलपुरी, वज़ीरपुर, करावलनगर, मुस्तफ़ाबाद, रोहिणी, बादली, नरेला, बवाना, शाहाबाद डेयरी, गुड़गाँव, नोएडा, गाज़ियाबाद; उत्तर प्रदेश के लखनऊ, गोरखपुर, इलाहाबाद, जौनपुर, बनारस; पंजाब के चण्डीगढ़, लुधियाना, संगरूर, गोविन्दगढ़; हरियाणा के जीन्द, कैथल, नरवाना; बिहार के पटना, आरा आदि क्षेत्रों में तथा मुम्बई में चलाया जा रहा है, जोकि मई के दूसरे सप्ताह तक जारी रहेगा। अलग-अलग स्थानों पर गुड़गाँव मज़दूर संघर्ष समिति, मुम्बई विश्वविद्यालय में युनिवर्सिटी कम्युनिटी फ़ॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वैलिटी जैसे अन्य जनसंगठनों ने भी इसमें भागीदारी की है। अभियान के दौरान कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पिछले 62 वर्षों से जारी चुनावी तमाशे का पर्दाफ़ाश करते हुए बड़े पैमाने पर बाँटे जा रहे विभिन्न पर्चों, नुक्कड़ सभाओं, कार्टूनों और पोस्टरों की प्रदर्शनियों तथा नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये लोगों को बता रही हैं कि दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों वाले हमारे देश में कुपोषण, बेरोज़गारी, महँगाई, मज़दूरों का भयंकर शोषण या भुखमरी कोई मुद्दा ही नहीं है! आज विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है। ऐसे में किसी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं है। सब जानते हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें जनता को बुरी तरह निचोड़कर अपने देशी-विदेशी पूँजीपति आकाओं के संकट को हल करने में अपनी सेवा देनी है। सभी पार्टियों में अपने आपको पूँजीपतियों का सबसे वफ़ादार सेवक साबित करने की होड़ मची हुई है। दिल्ली, गुड़गाँव, नोएडा, ग़ाज़ियाबाद तथा लुधियाना में फ़ैक्टरी गेटों, औद्योगिक क्षेत्रों के चौराहों तथा मज़दूर बस्तियों में विशेष सघन अभियान चलाया गया। प्रचार टोलियों ने मज़दूरों से कहा कि अब इस बात में कोई सन्देह नहीं रह गया है कि संसद एक सुअरबाड़ा है और सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है – चाहे इस पार्टी की हो या उस पार्टी की। देश का पूँजीवादी जनतन्त्र आज पतन के उस मुक़ाम पर पहुँच चुका है, जहाँ अब इस व्यवस्था के दायरे में छोटे-मोटे सुधारों के लिए भी आम जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। जनता को सिर्फ़ यह चुनना है कि लुटेरों का कौन-सा गिरोह अगले पाँच वर्ष तक उन पर सवारी गाँठेगा! विभिन्न चुनावी पार्टियों के बीच इस बात के लिए चुनावी जंग का फ़ैसला होना है कि कुर्सी पर बैठकर कौन देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा करेगा; कौन मेहनतकश अवाम को लूटने के लिए तरह-तरह के क़ानून बनायेगा; कौन मेहनतकश की आवाज़ कुचलने के लिए दमन का पाटा चलायेगा। दस साल से सत्ता पर काबिज़ कांग्रेस के ‘भारत निर्माण’ के नारे की हवा निकल चुकी है। नरेन्द्र मोदी को पूँजीपति वर्ग के सामने एक ऐसे नेता के तौर पर पेश किया जा रहा है जो डण्डे के ज़ोर पर जनता के हर विरोध को कुचलकर मेहनतकशों को निचोड़ने और संसाधनों को मनमाने ढंग से पूँजीपतियों के हवाले करने में कांग्रेस से भी दस क़दम आगे रहकर काम करेगा! यही हाल अन्य सभी चुनावबाज़ पार्टियों का है। चाहे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो, बिहार में नीतीश कुमार की जद(यू) हो, हरियाणा में इनेलो व हरियाणा जनहित कांग्रेस हों या महाराष्ट्र में शिवसेना व मनसे हों – सभी जनता की मेहनत को लूटकर टाटा-बिड़ला-अम्बानी आदि की तिजोरियाँ भरने के लिए बेचैन हैं। उदारीकरण-निजीकरण की विनाशकारी नीतियों पर सबकी आम सहमति है। ‘आप’ जैसी पार्टियों की भी कलई खुल चुकी है। पूँजीपतियों की दोनों बड़ी संस्थाओं – फ़िक्की और सी.आई.आई. में जाकर इनके नेताओं ने साफ़ कर दिया है कि वे खुलेआम नवउदारवादी नीतियों के समर्थक हैं, यानी वही नीतियाँ जो पिछले 23 वर्ष से देश के ग़रीबों पर कहर बरपा कर रही हैं। वैसे तो दिल्ली में डेढ़ महीने की अपनी सरकार में ही इन्होंने अपना असली मज़दूर-विरोधी और अवसरवादी चेहरा दिखा दिया था। विभिन्न स्थानों पर अभियान टोलियों ने लोगों के बीच साफ़ तौर पर इस बात को रखा कि इस चुनाव में आप किस पार्टी पर जाकर ठप्पा लगायें या न लगायें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 1952 से अब तक पूँजी की लूट के गन्दे, ख़ूनी खेल के आगे रंगीन रेशमी परदा खड़ा करके जनतन्त्र का जो नाटक खेला जा रहा है, वह भी अब बेहद गन्दा और अश्लील हो चुका है। अब सवाल इस नाटक के पूरे रंगमंच को ही उखाड़ फेंकने का है। इस देश के मेहनतकशों और नौजवानों के पास वह क्रान्तिकारी शक्ति है जो इस काम को अंजाम दे सकती है। बेशक यह राह कुछ लम्बी होगी, लेकिन पूँजीवादी नक़ली जनतन्त्र की जगह मेहनतकश जनता को अपना क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। उन्हें पूँजीवादी जनतन्त्र का विकल्प खड़ा करने के एक लम्बे इंक़लाबी सफ़र पर चलना होगा। यह सफ़र लम्बा तो ज़रूर होगा, लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि एक हज़ार मील लम्बे सफ़र की शुरुआत भी एक क़दम से ही तो होती है! और यह शुरुआत हमें आज ही कर देनी चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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